नाम– अनीता कुमार
शिक्षा– MA हिंदी साहित्य।
रुचि– फोटोग्राफी, प्रस्तर चित्रकारी, पेंटिंग लेखन और अध्ययन।
जन्म– वाराणसी, 7अप्रैल 1965
38 वर्षों से महाराष्ट्र के पुणे शहर में निवास।
2020 में प्रकाशित काव्य-संग्रह –“चीनी कम”।
“चीनी कम” संग्रह को 2021 में अखिल हिंदी साहित्य सभा (अहिसास) अमरावती द्वारा भारत-भारती सम्मान से पुरस्कृत किया गया है।
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कविताएं
बचा रहे स्वाद
मंगौड़ी तोड़ती है स्त्री
जुड़ाये रखती है अपना मन
हींग और सौंधे मसालों की खुशबू में
जिस तरह मंगौड़ी की दाल हो जाती है
हल्की और मुलायम
निरन्तर पिसते हुए,
उसी तरह
कष्ट और पीड़ा की चक्की में
पिस कर भी
स्त्री बनी रहती है कोमल और तरोताज़ा!
कड़ी धूप की चादर ओढ़े
तपते फर्श पर,
तल्लीन है वह मूँग दाल के घोल को
रूप और आकार देने में।
स्त्री को मालूम है तपने, झुलसने के बाद ही
आता है जीवन में स्वाद
मंगौड़ी की तरह
उसकी उंगलियों में जादू है,
बड़ी चपलता से वह
साध लेती है पिसी दाल की तरलता को;
दूर तक सजा देती है
नन्हें-नन्हें मोतियों सी लड़ियाँ,
तान देती है छत पर पीली छींट की चादर !
उतरती साँझ में
सूख कर कड़क हो गईं हैं मंगौड़ीयाँ
थक कर निढाल हो गयी है स्त्री
देगची में खदक रहा है
तीखा और ज़ायकेदार सालन;
सूखी, कड़क मंगौड़ी हो जाती है स्वादिष्ट
विभिन्न मसालों और उबलते पानी के समायोजन से
अपने अस्तित्व और अहम को
कुचलते हुए स्त्री
बिठा लेती है परिवार में समायोजन;
वह लगाती है रिश्तों की कढ़ाई में
प्रेम का छौंक !
मंगौड़ी के सौंधेपन में
घुल जाता है उसके आँसुओं का नमक
स्त्री की हर सम्भव कोशिश है
कि मंगौड़ी की तरह जीवन में भी
बचा रहे स्वाद!
मंगलसूत्र
एक दिन खुशबू की तरह महकती
अल्हड़ लड़की को,
अनेक अनुष्ठानों और आशीर्वचनों के बीच
पहना दिया गया मंगलसूत्र !
उसके मंगलसूत्र पहनते ही
बंद हो गयी हवा,
चिड़ियों ने बंद कर दिया चहचहाना,
पूर्णिमा का चाँद घिर गया
बादलों के पीछे!
लड़की को लगा
अब उसे पृथ्वी की तरह
बिना रुके घूमना होगा
दहकते सूर्य के ब्रह्मांड में
बचपन गुलाटी मारता
यौवन को बीच में ही छोड़
सीधा आ पहुँचा प्रौढ़ता की दहलीज़ पर
एक दिन थक कर चूर होते हुए
वह बुदबुदायी —-
कितने निरर्थक थे वे आशीर्वाद और प्रशंसायें
काश ! मंगलसूत्र में
मेरा भी मंगल निहित होता!
त्रिहरि से टिहरी तक
निर्जन और नग्न पहाड़ों के बीच
एक नीली सी
बहुकोणीय झील है,
मानों एकत्रित हो गए हों
लाखों लोगों के आँसू
हरियाली को तरसते पर्वत
अब झुलस रहे हैं
सूर्य के विकट ताप से
कल-कल करती नादियों को
क़ैद कर दिया गया है
पत्थरों और कंक्रीट के पिंजरों में
कैसा होगा हमारे पर्यावरण का भविष्य !
मैं नहीं जानती
इस निर्जन सभ्यता का
क्या होगा अंत !
नाराज़गी
नाराज़ लड़की ने
प्रेमी से कहा–
बस अब बहुत हो गयीं
प्रेम-कविताएं;
तुम बन गए हो कवि
मेरे प्यार में
तुमने मेरी आँखों पर लिखा,
मेरे होठों की नरमी
और मेरे बदन की कोमलता पर लिखा।
तुमने बटोर ली ढेर सारी
वाह-वाही और प्रशंसा
रातों-रात प्रसिद्ध हो गयी
तुम्हारी नायिका
परन्तु किसी ने नही चाहा जानना
कि स्त्री के हाड़-माँस के भीतर भी
होता है एक हृदय,
उसका विवेक
और उसकी मेधा
सुनो कवि—
तुम्हारे साथ प्रेम-पर्वत की
चढ़ते-चढ़ते सीढियाँ
मैं भी सीख गई हूँ
कवि-कर्मकौशल
अब मैं लिखूँगी कविताएं
और उन्हें सुनोगे तुम
मेरी कविता में बहेंगी
स्त्री-हृदय की व्यथा
और आहत संवेदनाएं
मेरी कविता में मुखर होगा
अपने अस्तित्व के लिए
संघर्ष करती स्त्री की
वेदना का स्वर
अब मैं समझ गई हूँ
जीवन का अंतिम उद्देश्य
प्रेम ही नही,
सच्ची संवेदनाओं का
सम्प्रेषण भी है!
आटा गूंथती है स्त्री
स्त्री के लिए आटा गूंथना
महज़ भोजन बनाने की एक प्रक्रिया
या रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा नहीं है
स्त्री भोर होते ही
अपने अधजगी रात के सपनों को
किचन में जाकर,
छिपा कर रख आती है
आटे के डिब्बे और मसालदानी के भीतर;
वह उन्हें नहीं रख सकती
अपनी उनींदी आँखों के पीछे,
छलकती आँसुओं की झील में
मन, मस्तिष्क और उंगलियों के
कार्य-कौशल के बीच चल रहे
निरन्तर मंथन से स्त्री तैयार
कर लेती है नर्म-मुलायम आटा,
जिसमें होता है सम्मिश्रण
उसकी आँखों की
तरलता, विवशता और कुछ
अधूरी आकांक्षाओं का
चकले और बेलन के बीच
कायांतरित होते आटे में
स्त्री के ममता, प्रेम और
समर्पण के साथ-साथ
नमक होता है उसके आँसुओं का;
यही रोटियों को बनाता है
स्वादिष्ट और सुपाच्य!
कोई नहीं जानता,
स्त्रियाँ आटे के साथ
रोज़ अपनी आत्मा भी गूंथती हैं!
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किताबें
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