कविताएं
प्रेम
समुद्र की एक लहर ने मुझे घेर लिया
कहा मैं हूँ पानी का प्रेम
बादल कहाँ रहने वाले थे पीछे
भर गये वे पूरी देह में
हवा के हाथों ने उठा दिया आकाश तक
मैं शून्य की बारिश प्रेम की
पहाड़ों ने सीने से लगाया
सूरज का चुम्बन माथे पर देकर
बर्फ़ जैसी एक नींद प्रेम की
जंगल के सन्नाटे ने तोड़ा
सघन काँटेदार कोहराम का जाल
वेगवान नदी के कठोर तटों ने फिर घेरा
एक बार फिर प्रेम के लिए मैं इनके पास गई ।
ज़रूरत
मैंने अपना दुःख अकेली रात से कहा
वह उतर आई मुझमें
लिये हुए पूरा चन्द्रमा
मैंने समुद्र से यह सब कहा
उसने सोख लिये मेरे सारे आवेग
मैंने हवा में लिखे दुखों के अक्षर
वह बहा ले गई उन्हें क्षितिज के पार
ख़रीद- फ़रोख़्त में जुटी इस दुनिया से दूर
वहाँ कोई है जिसे इसकी ज़रूरत है
मैंने ऐसा सोचा और झुक गई धरती पर।
अपनी कक्षा
मैं अनंत में तारों के बीच चल रही थी
कक्षा में बच्चे पढ़ रहे थे
लिख रहे थे प्रश्नों के उत्तर
बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के बीच
मैं उन्हें बता रही थी जीवन के तारों के बारे में
गुलाबी जिज्ञासा से भरे
वे सुनते थे दूरागत स्वप्न
उनके कोमल चेहरों में सहसा दिखे उनके जवान मुख
फिर झुर्रियों से भरे बूढ़े
कुछ अघाए कुछ संतुष्ट
कुछ हताश और बीमार
कुछ ज़िद्दी नाराज़ और विस्थापित
आते और जाते थे जीवन के रंग
वे मुस्कुरा रहे थे
तभी बजी घंटी कक्षा के पूरे होने की ।
जुलाई
जुलाई के महीने में
बारिश और हरे पत्तों के बीच
मेरी आँखें सोती हैं तुम्हारी आँखों पर
गर्मी ने छिपा लिए हैं अपने हाथ भूरे लबादे में
उदासी पेड़ों पर सोती है
हरी रात जुगनू सी चमकती है
दुनिया उठकर चली गयी है बीच से
छोड़ती हुई थोड़ी धूप और बारिश
हम इसे बर्फ़ तक ढोयेंगे
डाल देंगे दिसम्बर की गोद में
जनवरी हमारी क़ब्र होगी
पड़ी होगी उस पर धूप बारिश और बर्फ़।
मेरे शब्द
एक दुर्घटना और
झारखंड
अभी
प्रार्थना
भेद मैं तुम्हारे भीतर जाना चाहती हूँ
रहस्य घुंघराले केश हटाकर
मैं तुम्हारा मुख देखना चाहती हूँ
ज्ञान मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ
निर्बोध निस्पंदता तक
अनुभूति मुझे मुक्त करो
आकर्षण मैं तुम्हारा विरोध करती हूँ
जीवन मैं तुम्हारे भीतर से चलकर आती हूँ ।