asd
Tuesday, October 8, 2024
अनीता वर्मा 
जन्म:25 जून।देवघर और पटना में आरंभिक शिक्षा के बाद भागलपुर विश्वविद्यालय से हिंदी भाषा और साहित्य से बी. ए. आनर्स में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त।एम. ए. में मानक अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।विगत तीन दशक से राँची में निवास और अध्यापन।
 
पहल, साक्षात्कार,समकालीन भारतीय साहित्य,सर्वनाम, वागर्थ,नया ज्ञानोदय , जनसत्ता,हंस,आवेग दस्तक , आवर्त, इंडिया टुडे वार्षिकी आदि प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन।’समकालीन सृजन ‘ के ‘कविता इस समय’, ‘विपाशा’ और ‘रचना समय ‘ के विशेषांकों में कविताएँ प्रकाशित।आकाशवाणी और दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण।’कविता का घर’ कार्यक्रम के अंतर्गत चयनित कविता का दृश्य रूपांतर।
 
वर्ष-2003 में राजकमल प्रकाशन से पहला कविता संग्रह ‘ एक जन्म में सब’ प्रकाशित और चर्चित।विभिन्न भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी , डच और जर्मन में कविताओं के अनुवाद ।’ दस बरस:अयोध्या के बाद’ में कविताएँ संकलित।डच भाषा में अनूदित हिंदी कविता के संकलन ‘Ik Zag de Stad’ (मैंने शहर को देखा) और जर्मन में प्रकाशित ‘Felsinschriften(शिलालेख) में कविताएँ संकलित।चीन की कुछ आधुनिक महिला कवियों के हिंदी अनुवाद।
 
2008 में राजकमल प्रकाशन से दूसरा कविता संग्रह ‘रोशनी के रास्ते पर ‘ प्रकाशित और प्रशंसित ।’ एक जन्म में सब’ के लिए 2006 बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान। इसके अतिरिक्त शीला सिद्धांतकर सम्मान, शैलप्रिया सम्मान एवं ‘ रोशनी के रास्ते पर ‘ के लिए केदार सम्मान से सम्मानित।चित्रकला , संगीत और दर्शन में विशेष रुचि ।
………………………

कविताएं

प्रेम

समुद्र की एक लहर ने मुझे घेर लिया
कहा मैं हूँ पानी का प्रेम
बादल कहाँ रहने वाले थे पीछे
भर गये वे पूरी देह में
हवा के हाथों ने उठा दिया आकाश तक
मैं शून्य की बारिश प्रेम की
पहाड़ों ने सीने से लगाया
सूरज का चुम्बन माथे पर देकर
बर्फ़ जैसी एक नींद प्रेम की
जंगल के सन्नाटे ने तोड़ा
सघन काँटेदार कोहराम का जाल
वेगवान नदी के कठोर तटों ने फिर घेरा
एक बार फिर प्रेम के लिए मैं इनके पास गई ।

ज़रूरत

मैंने अपना दुःख अकेली रात से कहा
वह उतर आई मुझमें
लिये हुए पूरा चन्द्रमा
मैंने समुद्र से यह सब कहा
उसने सोख लिये मेरे सारे आवेग
मैंने हवा में लिखे दुखों के अक्षर
वह बहा ले गई उन्हें क्षितिज के पार
ख़रीद- फ़रोख़्त में जुटी इस दुनिया से दूर
वहाँ कोई है जिसे इसकी ज़रूरत है
मैंने ऐसा सोचा और झुक गई धरती पर।

अपनी कक्षा

मैं अनंत में तारों के बीच चल रही थी
कक्षा में बच्चे पढ़ रहे थे
लिख रहे थे प्रश्नों के उत्तर
बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के बीच
मैं उन्हें बता रही थी जीवन के तारों के बारे में
गुलाबी जिज्ञासा से भरे
वे सुनते थे दूरागत स्वप्न
उनके कोमल चेहरों में सहसा दिखे उनके जवान मुख
फिर झुर्रियों से भरे बूढ़े
कुछ अघाए कुछ संतुष्ट
कुछ हताश और बीमार
कुछ ज़िद्दी नाराज़ और विस्थापित
आते और जाते थे जीवन के रंग
वे मुस्कुरा रहे थे
तभी बजी घंटी कक्षा के पूरे होने की ।

जुलाई

जुलाई के महीने में
बारिश और हरे पत्तों के बीच
मेरी आँखें सोती हैं तुम्हारी आँखों पर
गर्मी ने छिपा लिए हैं अपने हाथ भूरे लबादे में
उदासी पेड़ों पर सोती है
हरी रात जुगनू सी चमकती है
दुनिया उठकर चली गयी है बीच से
छोड़ती हुई थोड़ी धूप और बारिश
हम इसे बर्फ़ तक ढोयेंगे
डाल देंगे दिसम्बर की गोद में
जनवरी हमारी क़ब्र होगी
पड़ी होगी उस पर धूप बारिश और बर्फ़।

मेरे शब्द

मैं पृथ्वी को वे शब्द सौंपती हूँ जो अभी गर्भ में हैं
जो अंतरालों और कोनों में छिपे हैं
और किसी अतिरेक में फड़फड़ाहट की तरह
होठों पर फिसलते हैं
बिना किसी वर्णमाला के
एक अस्फुट स्पन्दन की तरह
 
प्रेम, दुःख और उदासी के वे शब्द
जिन्हें हम कोई कपड़े नहीं पहना पाए
मीठे फ़सल से शब्द
कराहते दर्द से शब्द
ज़हरीली उदासी से शब्द
 
मैं सौंपती हूँ ये शब्द
इस महान सदी के महानायकों,अधिनायकों 
और इनसानियत को शर्मसार करनेवाले धनपतियों को
ताकि वे इनसे अपना मज़बूत क़िला तैयार कर सकें
जिसमें मनुष्य के प्रवेश की कोई जगह न हो
क़ब्रगाह पर बैठे परिंदे की तरह
जिसे घायल न कर सके कोई उड़ता हुआ तीर 
 
मैं सौंपती हूँ ये शब्द अपने किसान भाइयों को
उन मेहनती शिक्षकों को जो अभी भी
मिट्टी के भीतर से प्राण खोद लाते हैं
और उसे बिखेर देते हैं
पराग कणों की तरह
समूची मानवता पर।

एक दुर्घटना और

एक स्त्री रो रही है बेतहाशा 
एक लाख के मुआवज़े पर
गाँव शांत है उड़ रही है धूल 
पुलिस के जूतों से
ठंडी झोपड़ियों के ठंडे ज़ख़्मों को छूने
एक बाराती जत्था आया है
ठंडा लहू सुख चुका है राजनीति के गर्म बाज़ार  में
 
लक्ष्मणपुर बाथे से शंकर बिगहा उतना दूर नहीं
जितनी दूर है संवेदना से आदमी 
दुर्घटनाएँ जब ख़बर बन जाएँ
सोचना पड़ता है अपने भी बारे में 
इस पर बहुत ज़्यादा बोलना दृश्य को सुलाना है
हिंसा कभी रचनात्मक नहीं होती
इस पर हो सकती है बहस
इस विषय पर क्या संवाद हो सकता है
एक सही संवेदना क्या कर सकती है इन दिनों ।

झारखंड

हमने अलबर्ट एक्का को चौराहे का पहरेदार बना दिया है
वह देखता रहता है दिन-रात भीड़, जुलूस, धरने और प्रदर्शन
उसकी आत्मा वहीं ज़मीन पर बैठी सुनती रहती है
नेताओं के झूठे बोल और आश्वासन
धूल,गर्द,गर्मी और पसीने के बीच वह देखता है 
हमारी धरती का गौरव
बड़े-बड़े होर्डिंग्स और पोस्टर
ललची और बेईमान चेहरे
गाँव-जंगलों से हाँककर  लाए गए आदिवासियों की भोली निष्पाप सूरतें
वे कुछ नहीं समझते उनके हक़ में क्या है
न्याय क्या है लड़ाई क्या है
वे तो बस हथियार और जयजयकार हैं
शाम होते लौट जाते हैं अपने गाँव 
दिन भर गुड़,चना ,सत्तू ,दाल-भात खाकर 
फिर सोचते भी नहीं कोई करेगा उनका भला
 
रोज़ रात वे सब मिलते हैं
एक जगह बैठते हैं सब
बिरसा मुंडा , अल्बर्ट एक्का,जतरा,बुधू भगत
सिद्धू ,कान्हू,तिलकमाँझी,नीलांबर ,पीतांबर
मशालों के बीचोंबीच बैठ कर करते हैं गुफ़्तगू
फिर धीरे-धीरे इकट्ठे होते हैं ढेरों जा चुके लोग
अपने-अपने ताबूतों को उठाए तीर-धनुष हथियारों से लैस 
गाते हैं कई पुराने गीत 
जिनमें आज की कोई ख़ुदगर्ज़ आवाज़ नहीं 
वे सब अब लौटकर नहीं आएँगे
और हममें ऐसा कुछ नहीं रह गया
कि हम उनके गीतों के पीछे -पीछे जा सकें कुछ दूर तक।

अभी

अभी मैं प्रेम से भरी हुई हूँ 
पूरी दुनिया शिशु सी लगती है
मैं दे सकती हूँ किसी को कुछ भी
रात-दिन वर्ष- पल अनन्त
अभी तारे मेरी आँखों में चमकते हैं
मर्म से उठते हैं कपास के फूल
अंधकार अभी सिर्फ़ मेरे केशों में है।
 
अभी जब मैं प्रेम करती हूँ 
दुनिया में भरती हूँ रंग
जंगलों पर बिखेरती हूँ हँसी 
समुद्र को सौंपती हूँ उछाल
पत्थरों में भरती हूँ शांति।

प्रार्थना

भेद मैं तुम्हारे भीतर जाना चाहती हूँ
रहस्य घुंघराले केश हटाकर
मैं तुम्हारा मुख देखना चाहती हूँ
ज्ञान मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ
निर्बोध निस्पंदता तक
अनुभूति मुझे मुक्त करो
आकर्षण मैं तुम्हारा विरोध करती हूँ
जीवन मैं तुम्हारे भीतर से चलकर आती हूँ ।

वान गाग के अंतिम आत्मचित्र से बातचीत

एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आँखें बेधक तनी हुई नाक 
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इंतज़ार करता था
 
मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढ़ी को छुआ 
उसे थोड़ा सा क्या किया नहीं जा सकता था काला
आँखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक नस ज़रा सा हिली जैसे कहती हो
जीवन के जलते अनुभवों के बारे में क्या जानती हो तुम
हम वहाँ चलकर नहीं जा सकते
वहाँ आँखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है
और अँधेरी हवा है
जन्म लेते हैं सच आत्मा अपने कपड़े उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम
 
ये आँखें कितनी अलग हैं
इनकी चमक भीतर तक उतरती हुई कहती है
प्यार माँगना मूर्खता है
वह सिर्फ़ किया जा सकता है
भूख और दुख सिर्फ़ सहने के लिए हैं
 
मुझे याद आईं विंसेंट वान गाग की तस्वीरें
विंसेंट नीले या लाल रंग में विंसेंट बुख़ार में
विंसेंट बिना सिगार या सिगार के साथ
विंसेंट दुखों के बीच या हरी लपटोंवाली आँखों के साथ
या उसका समुद्र का चेहरा
 
मैंने देखा उसके सोने का कमरा
वहाँ दो दरवाज़े थे
एक से आता था जीवन
दूसरे से गुजरता निकल जाता था
वे दोनों कुर्सियाँ अंततः ख़ाली रहीं
एक काली मुस्कान उसकी तितलियों गेहूँ के खेतों 
तारों भरे आकाश फूलों और चिमनियों पर
मँडराती थी
और एक भ्रम जैसी बेचैनी 
जो पूरी हो जाती थी और बनी रहती थी 
जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था
 
एक शांत पागलपन तारों की तरह 
चमकता रहा कुछ देर
विंसेंट बोला मेरा रास्ता आसान नहीं था
मैं चाहता था उसे जो गहराई है और कठिनाईहै
जो सचमुच प्यार है अपनी पवित्रता में 
इसलिए मैंने ख़ुद को अकेला किया
मुझे यातना देते रहे मेरे रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शांति तक पहुँचना था
पनचक्कियाँ मेरी कमज़ोरी रहीं
ज़रूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता 
आलू खानेवालों और शराब पीनेवालों के लिए भी नहीं
मैंने उन्हें जीवन की तरह चाहा है
 
अलविदा मैंने हाथ मिलाया उससे
कहो कुछ हमारे लिए करो
कटे होंठों में मुस्कुराते विंसेंट बोला
समय तब भी तारों की तरह बिखरा हुआ था
इस नरक में भी नृत्य करती रही मेरी आत्मा
फ़सल काटने की मशीन की तरह
मैं काटता रहा दुख की फ़सल
आत्मा भी एक रंग है
एक प्रकाश भूरा नीला
और दुख उसे फैलाता जाता है।

किताबें

………………………
error: Content is protected !!