Tuesday, May 14, 2024

अंजू शर्मा                    

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परिचयदिल्ली में जन्म और रिहाइश, मूलतः राजस्थान सेस्वतंत्र लेखन

 

प्रकाशनपिछले कई वर्षों से सभी प्रतीक्षित पत्रपत्रिकाओं और ब्लॉग्स में कई वर्षों से कविताओं, कहानियों, लेखों, रिपोर्टों का प्रकाशन

 

पुस्तकें

दो कविता संग्रह , कल्पनाओं से परे का समय (2014) चालीस साला औरतें (2018)

दो कहानी संग्रह, एक नींद हज़ार सपने (2018) सुबह ऐसे आती है (2020)

दो लघु उपन्यास, शान्तिपुरा (2020) मन कस्तूरी रे (2021)

एक।उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।

अनुवाद : पंजाबी, उर्दू, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, भोजपुरी, नेपाली, उडिया, अंग्रेज़ी, तमिल आदि भाषाओँ में कविताओं कहानियों का अनुवाद!

 

कविता चालीसा साला औरतें बहुत चर्चित हुई और राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रमों के माध्यम से इस पर लगातार बातचीत हुई!

 

कविताबेटी के लिएचीन केक्वांगचो हिंदी विश्वविद्यालय, क्वांगचो, चीन‘  में स्नातक स्तर के पाठकों के लिए पाठ्यक्रम में पढाई जा रही है!

पुरस्कार 

 

 *’इला त्रिवेणी सम्मान 2012′ से सम्मानित।

 *’राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013′ से सम्मानित

*स्त्री शक्ति सम्मान 2014 से सम्मानित

*कविता संग्रहकल्पनाओं से परे का समयके लिए 2015 मेंराजेन्द्र बोहरा कविता पुरस्कार 2014′  द्वारा जयपुर में सम्मानित

*साहित्य श्री पुरस्कार 2018 द्वारा मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित 

*कहानी *मुख़्तसर सी बात है* 2020 में साहित्य समर्था के डॉ कुमुद टिक्कू विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित।

 

अन्य पुरस्कृत कहानियां

 

कहानीसमयरेखास्टोरीमिरर से पुरस्कृत। 

 कहानीबन्द खिड़की खुल गईप्रतिलिपि द्वारा आलोचक द्वारा चुनी गई कहानियों में शामिल।

कहानीरात के हमसफ़रजयपुर में पहले कलमकार सम्मान 2018 के सांत्वना पुरस्कार के लिए चुनी गई!

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कहानी

मारबो रे सुगवा 
साल का आखिरी महीना है तो आजकल ठंड बहुत बढ़ गई है।  इतनी अधिक कि रमुआ का हाड़ तक ठंढा गया है। इस समय उसका ठेला बाजार के ठीक बीच में खड़ा है।  बाज़ार में भीड़ खूब बढ़ रही है।  बढ़ती ही जा रही है|  ये भीड़ का बढ़ना रमुआ ही नहीं पूरे बाजार को लम्बे समय बाद नसीब हो रहा है|  इधर बाज़ार बंद रहा काफी दिनों तक।  इस भीड़ को देखकर उसके मन को कितनी तसल्ली होती है ये वही समझ सकता है जिसने उन दुःस्वप्न सरीखे बुरे दिनों को झेला हो जो रमुआ ने झेले।  झुरझुरी आती है उसे खाली सोचने भर से। पता नहीं वो एक लंबा बुरा सपना था या पथरीले यथार्थ सी हक़ीक़त जिसने एकाएक उसके मेहनतकश दिनों की ओर बढ़ती हर निश्चिंतता को ग्रहण लगा दिया था। ऐसा वक़्त किसी दुश्मन का भी ना आये।
 
लॉकडाउन में भय ने बहुत दिन लोगों के मन पर सवारी कर अपना ग़ुलाम बनाये रखा पर अब लोगों के मन से वो डर जैसे निकल गया है जो पूरे साल भर मन की झील पर काई सरीखा जमा रहा। जैसे जैसे समय बीत रहा है, ज़िंदगी फिर रफ़्तार पकड़ने लगी है। मास्क और सेनीटाइजर के भरोसे डर की नकेल कसने निकलती है दुनिया|  आज भी बाज़ार में मास्क पहने हुए इतने लोग आए हैं, आते जा रहे हैं। जिस तरफ़ देखो बस भीड़ ही भीड़।  ये सर्दियों के दिन हैं तो दिन के ठीक बारह बजे भीड़ अपने चरम पर होती है मने तिल भर भी जगह नहीं होगी। कहाँ है कोरोना?  आदमी पर आदमी चढ़ा आ रहा है और कोरोना मरा औंधे मुँह पड़ा अपनी ये उपेक्षा देखकर मुँह बिसूरता है। सच ही तो है जिंदगी का नशा मौत के डर पर भारी पड़ जाता है। 
 
वैसे अभी नगर निगम से बाज़ार लगाने की परमिशन नहीं है, वह सुनता आ रहा है इधर उधर से।  बताया था खेलु काका ने भी कि पुलिस की मनाही है पर बाजार लगता है।  काहे नहीं है जी परमिशन|  रोजी रोटी बाज़ार देता है पुलिस नहीं।  तब काहे को कोई मानेगा पुलिस की बात। बोलती रहे पुलिस, आदमी मान भी जाए पर भूखा पेट कौन सा नियम परमिशन मानता है।  वैसे पहले जैसा नहीं रहा बाज़ार|  अब दुकानदार पहले की तरह ठीया नहीं जमाते।  बस पटरी पर, गलियों में, पार्क में यहाँ-वहाँ टेम्परेरी दुकान लगाकर बैठे हैं।  
 
ज्यादातर मोटे प्लास्टिक की दोहरी चादर बिछाकर लगाते हैं अपनी दुकान ताकि कमेटी आने पर समेटकर भाग सकें।  शुरू में उनकी एक आँख ग्राहक पर और दूसरी सामने की ओर लगी रहती है। जैसे दौड़ने को मैदान पर झुककर खास अंदाज़ में जमा धावक ‘गो’ की पुकार पर कान लगाए रहता है, इनके कान भी एक खास पुकार के लिये चौकन्ने बने रहते हैं पर जैसे जैसे बाज़ार जमता है, बिक्री का रंग चढ़ता है, आँख, कान, हाथ सब ग्राहक के इशारे पर नाचने लगते हैं।  कमेटी का भय जैसे कहीं दूर बिजली के तार पर बैठे पंछी सा बेपरवाह हो जाता है। आखिरकार रोटी हर पेट को चाहिये। ठीक है भय रोटी नहीं देता, सुरक्षा देता है पर कोई बताये कि खाली पेट सुरक्षा का क्या अचार डालेगा गरीब आदमी?
 
कई दिन बाद थोड़ी धूप भी निकली है तो आज ठंड से थोड़ी राहत है।  वरना इधर जो कुछ दिन बारिश हुई तो ठंड बढ़ गई थी|  सुबह तो जोर से कंपकपी छूट रही थी।  कितना तो कोहरा छाया हुआ था सुबह|  देखकर रमुआ का मन बुझने लगा था|  इतनी ठंड में बाज़ार भी ठंडा जाएगा|  पर जैसे जैसे धूप निकलती गई उसके मन में आशा पाँव पसारने लगी थी|  कैसी विचित्र बात है न गर्मी में जिस धूप को कोसते हुए वह बोतल भर पानी हलक में उतार लेता है, इन दिनों वही धूप कितनी आत्मीय और सगी सी लगती है मानो उसकी हल्की सी ऊष्मा उसके दुःखों को सोख लेने का सामर्थ्य भी रखती हो। 
 
ऐसे जाड़ों भरी सुबह को बिस्तर में निकलने की हिम्मत ही नहीं होती पर खेलु चाचा ने आवाज़ दी, “उठ जा रे रमुआ, आज वीर बाज़ार है।”  एक ही आवाज़ में जाग गया था वह।  असल में ये बाज़ार और साप्ताहिक बाज़ारों से थोड़ा अलग है।  सुबह से जो लग जाता है।  बाकी सब साप्ताहिक बाज़ार सप्ताह के अलग-अलग दिन लगते हैं पर लगते सभी शाम को हैं!  दिसंबर का महीना चल रहा है।  अब सर्दी के दिनों में शाम के बाज़ार में घर से निकल कर कौन जाएगा।  वही न जिसे जरूरत का चाबुक लगे।  पर इस बाज़ार में खूब रौनक रहती है दिन भर। 
 
“एतना भीड़ रहेगा रे रमुआ कि शाम तक पूरा ठेला साफ।”   खेलु चाचा ने ही बताया था रमुआ को जब पहली बार दिल्ली आया था।  कोई तीन बरस पहले। 
 
‘पूरा ठेला साफ मने तीन दिन का कमाई एक साथ, काका?” चमक आ गई थी रमुआ की आँखों मे।   तब खेलु काका के फल के ठेले पर साथ रहकर सब सीखा सोलह बरस के रमुआ ने।  खेलु चाचा मने रामखिलावन पासवान, उसके ही गाँव के हैं।  उन्हीं के सहारे भेजा था माई ने इतने बड़े दिल्ली शहर में। इसी शहर ने लील लिया था उसके बाप को जो रिक्शा खींचते हुए एक दिन एक्सीडेंट में यहीं की मिट्टी में मिल गया।  पुलिस ने लावारिस जानकर अंतिम संस्कार कर दिया।  वह तो कभी नहीं लौटा पर रमुआ को फिर भी जाना है। जाना ही पड़ेगा क्योंकि ये जाना उसकी चाहत नहीं बल्कि ऐसी विकल्पहीनता से जुड़ा है जिसे उसका बाप तोड़ पाया न वह।  
 
गाँव ने उसे जन्म दिया, हवा, मिट्टी,पानी, अन्न दिया पर यही गाँव उसे ज़िंदगी भर की रोजी काहे नहीं देता है।  पिता का साया उठा तो जलजला आ गया था उसके घर परिवार में। साल भर बाद दिदिया का बियाह हुआ। उन विपदा से भरे दिनों में रिश्ता खुद चलकर आया था। बड़का घर के लोग पसंद किए थे सुनैना दिदिया को। पढ़ी लिखी नहीं थी, नाक नक्शा भी साधारण ही था पर कोई उसकी नज़र से देखे तो लाखों में एक थी उसकी दिदिया। विनम्र कोमल स्वभाव, भावुक मन और समझदार इतनी कि छोटी उम्र से ही मेहनत मजूरी करके माई का सहारा बनी हुई थी। जहाँ दो जून रोटी के लाले पड़े हों वहाँ कौन सवाल उठाता कि क्यों, कैसे? माई जमाई हीरा बाबू को एक नज़र देखने की बात उठाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पायी।  बस दिदिया के सुख की कल्पना के आगे वही करती गई जो कहा गया।  पर गरीब का सुख पेड़ पर बैठी चिड़िया है। दिखती तो है पर हाथ कभी नहीं आती। कैसे भूल गई थी माई?
 
लहूलुहान गर्दन, नुची छाती, सूजे मुँह और लगभग बेहोश हालत में पलंग से नीचे पड़ी पाई गई थी दिदिया जिस दिन उसकी पहली रात की सुबह हुई।  उसकी जांघों से बहती बेबसी ने उसके पलंग को रंग दिया उस रंग में जो बाहर आसमान में फैलकर सुबह की मुनादी कर रहा था। उसी रंग में सने बेसुध सोये पड़े थे हीराबाबू।  जिस दिन माई को ये सब बताया था बिसनपुरवाली काकी ने, रमुआ वहीं तो था। 
 
दिदिया के सुसराल में उसे और माई को घुसने भी नहीं दिया किसी ने। दुआर पर सिर टकराती माई उस दिन को कोस रही थी जब दिदिया के भाग बदलने के भुलावे में आकर उसे नरक में धक्का दे दिया।  गरीब की बेटी सोने चाँदी नहीं भरे पेट सोने का सपना देखती है पर दिदिया के नसीब में तो काली, मनहूस, डरावनी रातों की कालिख के सिवा कुछ नहीं था।  उस दिन के बाद माई कभी नहीं हँसी।  बाबू की मौत के सदमे की तपती धूप पर दिदिया के सुख की छन भर की झूठी छाया अब सूख गई थी।  जीवन लू की तपती दुपहरिया हो गया था जिसके कांटे उनके बदन में धंसे तो बस धंसे रह गए। छह महीने भोगा था दिदिया ने ये नरक और एक दिन पागलपन के दौरे में अपने तिमंजिला घर की छत से कूद गए हीराबाबू और जाते-जाते दिदिया को उस नरक से निर्वासन की तख्ती भी थमा गये।  समझ नहीं पाया था रमुआ के दिदिया के दुर्भाग्य पर हँसे कि रोये|
 
एक दिन लौट आई उसकी दिदिया|  जिस दिन बिसनपुर वाले यहाँ छोड़कर चले गये वह जिंदा लाश में बदल चुकी थी।  देह के घावों पर तो माई की ममता मरहम बनकर छा गई पर टूटा और बीमार मन कभी नहीं संभला। अपने अधूरेपन के खोल में लिपटी दिदिया वहीं छूट गई थी बिसनपुर में, वह कभी नहीं लौट पाई अपने नरक से। उसी साल रमुआ भी दिल्ली आ गया। माँ, दिदिया और सरिता को छोड़कर।
 
गाँव की जिंदगी में माई और दो बहनें पूरा दिन खटकर भी दो जून की रोटी नहीं कमा सकतीं।  दो वक़्त हाथ को मुँह तक आना बहुत जरूरी है। पहली बार खेलु काका लेकर आये थे उसे बाज़ार। उनके साथ ही काम किया कुछ रोज़।  फिर एक दिन थमा दिया काका ने मूंगफली का ठेला। सर्दियों में मूंगफली बेचता है और गर्मियों में तरबूज। तब से रमुआ बिना नागा वीर बाज़ार आता था। सब ठीक ही चल रहा था। दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद ठीक ठाक कमा लेता था, चार पैसा बच जाता था तो माई को भी भेज देता है। फिर इस साल वो कोरोना आया, विदेशी बीमारी… और उसके बाद वो तालाबंदी हुआ, वही लॉकडाउन, जो पहले कभी देखा न सुना।  
 
खेलु काका बताते हैं “कर्फ़्यू में ऐसा सब होता है, ऐसा ही तालाबंदी पर तब भी खाली पुलिस की गोली का ख़तरा रहता है, आदमी से आदमी की जान को खतरा तभी रहता है बचुआ, जब वो जात धर्म में पड़कर अंधा हो जाता है।  ऐसा बीमारी कभी नहीं सुना कि आदमी से आदमी दूर भागता है रे रमुआ। ई तो ससुर कैंसरवा से भी डेंजर बीमारी है रे। देख लेना रे बबुआ, ई दुनिया जादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। सब खत्तम हो जाएगा एक दिन।”
 
कमर ही टूट गयी थी उनके धंधे की।  याद करता है कि पूरा रीढ़ झनझना जाता है रमुआ का। एकदम्मे सब बंद।  बाज़ार बंद, रास्ता बंद, काम धंधा, सब बन्द। भूखे मरने की नौबत आ गई थी। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाला हर आदमी भूखे मरने के कगार पर आ गया था। जिस दिन वो एनजीओ वाले रोटी बांटने आये थे पूरे दो दिन बाद रमुआ के हलक में अन्न उतरा था। वे पाँच लोग एक फैक्टरी के छत पर बने कमरे में बिनोदवा के साथ रहते थे। उन्ही के टोले का था बिनोदवा जिसकी फैक्टरी में सबको रात गुज़ारने को छत मिली हुई थी। बदले में वे लोग रात में और छुट्टी के दिन फैक्टरी की चौकीदारी करते थे।  इस बेगारी के बदले छत का सौदा महंगा नहीं था।
 
‘सहर में छत मिलना बड़ी बात है। काम का कमी नहीं बचुआ।  हाथ पैर बराबर चलता रहे तो जिनगी कट जाता है आदमी का काम में, बस सर छुपाने के जुगाड़ भर हो जाए।’ काका ने समझाया था। 
 
पर उस दिन बिनोदवा के मालिक ने साफ़ बोल दिया था बिनोदवा को कि कोई लफड़ा-तलासी नहीं चाहिए। लॉकडाउन लग गया है।  फैक्टरी बंद कर दिया है। बिनोदवा का नौकरी भी खत्म। रूम खाली चाहिये तो चाहिये। कहाँ जाएंगे किसी ने नहीं पूछा, नहीं सोचा।  बाहर पुलिस के डंडे का डर, इधर रूम खाली का नोटिस, काम धंधा सब ठप्प  और वो जानलेवा बीमारी तो इस सबके बाद थी। उसकी तो रत्तीभर चिंता तब होती जब पेट भरा रहता और सिर पर छत रहती। 
 
“गरीब का सबसे बड़ा बीमारी त भूख है रे बचुआ।” ठीक ही तो कहते हैं काका। जब कोई रास्ता न बचा तो सिर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े थे गाँव को क्योंकि शहर ने दुत्कार दिया था उन लोगों को जिनके खून पसीने की चिनाई से वह बनता है। कान से कान जुड़ गया था। इधर बॉर्डर पर सब लोग जुटने लगे थे।  सबको लग रहा था इधर बचे भी अगर इस जानलेवा बीमारी से तो भूख से पक्का मर जाएंगे। 
 
“लावारिस लहास सड़ेगा रे बबुआ। कोई हाथ भी नहीं लगाएगा।” काका लोग बोलते थे तो सिहर उठता रमुआ।  आँख के आगे खाली माई का चेहरा घूमने लगता।
 
“बस एक बार माई के पास पहुँचा देओ काका। एक बार आपन गाँव पहुँच जाए त माई किरिया कभी नहीं आएँगे दिल्ली। हमरा के माई के पास जाना है।” गिड़गिड़ाता रहा था रमुआ। पता नहीं वे कितने लोग चले और कितने लौट पाये पर वह वक़्त इतिहास में कम, उन सबकी काली स्मृतियों में कहीं अधिक गहराई से खुद गया है। 
 
बहुत बड़ा धोखा है ये शहर।  कितना चमकदार धोखा।  दूर से फुसलाकर बुलाता है उस जैसे गरीब लोगों को।  फिर चूस लेता है जीवन शक्ति और सुखी जीवन और भरे पेट के खाली खोखले सपने थमा देता है। उसकी चमक दमक सब नकली है। सपने सब रेत के महल हैं। जान गया है रमुआ। कितनी मुश्किल से जान पर खेलकर गाँव पहुँचे थे पर वहाँ रहकर भी कहाँ गुज़ारा है।  रोजी रोटी की गारंटी गाँव देता तो कोई क्यों अपना घर दुआर और माई को छोड़कर यहाँ मरने आता है। सुना विदेश से आई है ये बीमारी पर गरीब क्यों इसकी चपेट में आ जाता है नहीं समझ पाया रमुआ। 
 
“हवाई जहाज से आया बड़का लोगों का बीमारी हमको कैसे लग सकता है।” वह लाख पूछना चाहता पर कोई जवाब नहीं किसी के पास। उसके सवाल हमेशा उसके ही मन की खोह के अंधकार में दम तोड़ देते हैं|  
 
बहुत बुरा समय था। उसका भेजा चार पैसा पेट काटकर बचाकर पास में रखा कुछ माई ने कि छोटकी सरिता के नसीब पर किसी बिसनपुर वाले हीराबाबू जैसे रईस की छाया भी न आने पाए। उसी चार पैसे से अधपेट ये बखत जैसे-तैसे निकल गया। पर चार लोगों का पेट पालना हँसी खेल नहीं। फिर बाद में कुछ कर्जा भी हो गया दुर्गा साह का। मरता क्या न करता।  जब फाके होने की नौबत आई तो लोग लॉकडाउन खुलते ही शहर लौटने लगे।  उसे भी तो लौटना पड़ा था अपने साथियों के साथ उसी शहर में जिसने दुत्कार कर निकाल दिया था सड़क पर मरने के लिये। शहर अब कोई सपना नहीं दिखाता रमुआ को।  सारे रंग बदरंग हो चुके हैं। अब बस पेट है, सिर पर छत है, दुर्गा साह का कर्जा है। 
 
बदल गया है अब रमुआ।  तभी तो कभी नागा नहीं करता काम की। एक भी पैसा फालतू खराब नहीं करता। कभी कभार का सनीमा, चाउमिन, रंगीन कपड़ा सब बन्द। बखत का कोई भरोसा नहीं। शहर का भी कोई भरोसा नहीं। पता नहीं कब निकालकर बाहर खड़ा कर दे।  
 
बरामदे में लटका मकान मालिक का तोता पुकारता है… टें…टें…! रमुआ को बहुत लुभाता है ये मिट्ठूराम|  सुगवा अमरुद के टुकड़े में चोंच मार रहा है|
 
“बचुआ ओ पिंजड़ा देखता है न|  ओ ही सुगवा|  फंस गया बहेलिया के जाल में| दाना की तलास में निकला, कहाँ जानता था, ओकरा के भाग में पिंजड़ा बदा है| दाना, दाना नहीं उसका आज़ादी का कीमत है| फंस गया ससुर| खूब उछल कूद मचाया होगा, जाल और कस गया होगा| सुगवा जितना तड़पेगा, जाल और कसेगा| दाना मिलेगा, भरपेट मिलेगा बाकी अब एही पिंजड़ा भाग, एही घर| एही भरे पेट का सपना हमें सहर लाता है पर सपने का असल जान लिया तो भी क्या। एही पिंजड़ा नसीब है गरीब का। सुगवा को दाना चाहिए| आदमी के पेट को रोटी चाहिये। आंधी पानी बारिस में छप्पर का मरम्मत चाहिए। बिटिया का गौना चाहिए। छोटका का इस्कूल चाहिये। माई बाप का दवा चाहिये।  सुगवा काहे नहीं फंसेगा रे| सब जानकर भी फंसबे करेगा।” 
 
काका दृष्टि पिंजरे पर गढ़ाये हुए, किसी योगी के से स्वर में बोल रहे थे और रमुआ की नज़र पिंजरे में झूल रहे तोते पर थी जो भूख के बदले अपनी उड़ान का सौदा कर बैठा| सारी उछलकूद छोड़कर अब पिंजरे को घर मानकर बैठा था। पर जाने क्यों रमुआ को उसकी उसकी गोल चमकदार मनके जैसी आँखों में अब भूख नहीं आजादी का सपना दिख रहा था, बस एक बार खुले आकाश में ऊँची उड़ान की चाहत झलक रही थी। रमुआ गौर से उसे देख रहा था। एकाएक उसे लगा सुग्गे का चेहरा बदल रहा है। ये क्या…. ये तो वही है…. दो आँखें, दो पंजे, लाल चोंच, लम्बी सी पूंछ पर जंग लगे बेजान पंख और उदास चेहरा। उसे लगा वह इस शहररूपी पिंजरे में कैद अपनी मुक्त उड़ान की कामना करता सुग्गा वही तो है। जो सब जानते बूझते भी फिर घुस आया है इस पिंजरे में।
 
वह याद करता है कोरोना का प्रकोप गाँव तक पहुँच गया।  उसने जहाँ जगह मिली पैर पसार लिये।  बिनोदवा मर गया करोना से। भारी मन से लौटे थे वे लोग बिनोदवा के बिना।  शहर पहुँचते ही सबसे बड़ा संकट ‘रूम’ का खड़ा था।  सिर पर छत तो चाहिये न। अब जे जे कालोनी में मिला है एक छोटा सा ‘रूम’, इतना छोटा कि चार लोग मुश्किल से गुजर कर पाते हैं पर रात भर तो काटनी है।  सोता है तो होश ही कहाँ रहता है, रात में कई बार पुकार उठता है, “मूंsssssगफली….गरमागरम मूंगफली”।  खेलु काका या रामजनम काका या फिर टिंकूआ कोई भी एक जमाता है तो अकबकाकर उठता है रमुआ और फिर सो जाता है। सुगवा अपने अपने पंखों को समेटकर सो जाता है पिजरे में।
 
रमुआ गाँव में होता तो गुदड़ी से बाहर निकलने को कितना सताता था माई को!  “उठ जा रे बउआ..सुरज जी सिर पर आ गए।  बच्चा सब घाट पर गया।”  कितना भी बोलती थी माई पर रमुआ फटही गुदड़ी को चारों तरफ से लपेटकर कान बंद कर घुसा रहता था बिस्तर में।  माई बोलती रहती पर वह तब उठता जब माई गुदड़ी को उघाड़कर उसे धकेलती और फिर कुनमुनाते हुए भागता था रमुआ घाट पर।  माई की याद उसके मन के भीतर ऐसे उतरती है जैसे ठंड में खाली कप के भीतर गर्म चाय उतरती है भाप उड़ाती हुई और उसकी सारी शीतलता को हरकर उसे गरमाहट से भर देती है। भीतर कुछ कसकता है।  माई की ममता, दिदिया का वीरान चेहरा, सूनी आँखें, छोटकी सरिता का झूठा गुस्सा, उसकी तकरार-मनुहार और गाँव घर, घाट, पोखर, बागीचा, संगी साथियों की याद, सब छूट गया पीछे। और हाँ उसका असमय मुरझाया बचपन भी। मन पर कोनो बंदिश है, ये तो खूंटा छूटा बैल हो जाना चाहता है पर उसकी साँसे तो बन्द सुग्गे सी गिरवी रखी हैं शहर के पास। 
 
शाम को मंगल बाज़ार और इतवार बाजार भी जाता है।  बाकी सब दिन रोज सड़क के किनारे पर ठेली लगाता है तो मूंगफली भूनने से बहुत सेंक मिलता है रमुआ को।  पर बाज़ार में खाली मूंगफली बेचता भर है, भूनता नहीं।  बहुत भीड़ होती है बाज़ार में। भूनने का न वक़्त होता है न तसल्ली। इतना चिल्लमचिल्ली फिर कोई ठीया भी नहीं कि कहीं रुककर खड़ा हो जाए।  
 
“अच्छा!!! दो सौ रूपये में बिलेक कलर भी दिखाऊँ?” 
 
सामने से आती आवाज़ की दिशा में नज़र गई तो देखा ऐंठकर बोलता है जूते की दुकान वाला छोटका लड़का।  उम्र में रमुआ से भी चार पाँच बरस छोटा है पर तेवर तो देखो। 
 
“इसमें ब्लैक कलर दिखाओ भैया….” बोलने वाली बेचारी औरत तो कुछ बोल ही नहीं सकी। अवाक उसका चेहरा देख रही है। उसकी निम्नवर्गीय शर्मिंदगी और अपमान की पीड़ा से क्षणभर को तमतमा गया उसका चेहरा।  फिर जैसे अपनी अभ्यस्तता को अपनी ढाल बनाकर पी गई अपमान का घूंट और दूसरी तरफ रखे जूतों को अलट पलट करने लगी। गरीब आदमी अपमान को बहुत देर संभालकर नहीं रखता है।
 
लड़के का गर्वोंमत्त नन्हा चेहरा और तनी हुई सींकिया छाती देखकर मुस्कुरा दिया रमुआ। छोटका सुगवा। दुकान के आगे सेल लगी है जूतों की। वहीं खड़ा है ये छोटू।  उसके चेहरे पर जो ठसक है, आवाज़ में जो कड़कपन है वह रमुआ का ध्यान खींचता है पर फिर पीछे खड़े मालिक पर उसकी नज़र जा टिकती है जो इस तेवर की असली वजह है। रमुआ के तो कोई आगे न पीछे। 
 
“ओये साले, आगे बढ़ा अपना ठेला। रास्ता रोककर खड़ा है भै$^&**&…. धंधे के टाइम…&^%$।” साइड के दुकान वाले की गालियों की बौछार से सिटपिटाकर आगे बढ़ता है रमुआ। 
 
बिन कुछ कहे जल्दी से एक ग्राहक को मूंगफली तौलकर रमुआ पैसे की इंतज़ार में है कि अचानक शोर मचने लगता है, “कमेटी वाले आ गए…कमेटी वाले आग गए…”  वो बड़का चौराहे पर इतने कबूतर बैठते है, एक आहट पर सब एक साथ पंख फड़फड़ा कर उड़ जाते हैं।  बाज़ार में कमेटी का आना वही आहट है।  उसके बाद अफरातफरी मच गई।  जिसे देखो सामान समेटकर भाग रहा है।  कमेटी न हुआ यमराज हो गया।  
 
“वैसे अगर यमराज के आने की भी खबर ऐसे ही मिल जाए तो उस दिन दुनिया का क्या होगा।  ससुरा सब सिर पर पैर रखकर भागेगा।” उस दिन हँसते हुए बोल रहे थे रामजनम काका। पर आज सब हँसी हवा हो गई। रमुआ के चेहरे पर पल भर पहले खेलती मुस्कान भीड़ में खोये किसी बच्चे सी बिला गयी।
 
एक ग्राहक से आधा किलो मूंगफली के पैसे लेने भर को रुका रमुआ तेज़ी से भाग रहा है। आगे अदरक लहसुन का ठेला है किसी का। उसके आगे चीनी मिट्टी के कप का रेहड़ी।  अभी उसके आगे बढ़ते ही रमुआ ने ठेला बढ़ाया था कि वे सिर पर आ गए। 
 
खाकी वर्दी देखकर ही रूह काँपती है रमुआ की। भीड़ भरे बाज़ार में ठेले के साथ भागना कोई हँसी खेल तो नहीं। पर सब भाग रहे हैं। जिसे जहाँ जगह मिले भाग रहे हैं।  सड़क के दोनों ओर कॉलोनी की गलियों में घुस जाएँगे सब और पुलिस के वापिस चले जाने तक नहीं लौटेंगे।  पुलिस और कमेटी का यह आतंक ये लोग हर हफ़्ते झेलते हैं। इस लुकाछिपी के बीच ही छुपी है इनकी रोजी रोटी।  
 
अभी रमुआ दो कदम भी नहीं बढ़ा पाया था कि उसकी गति को जैसे लगाम लग गई। किसी ने पीछे से आकर उसकी गुद्दी पर हाथ मारा। सर्रर्र… तो क्या सुगवा फंस गया है जाल में?
 
गालियों की बौछार से भीग गया उसका तनमन।  एक बड़े वर्दीधारी ने उसे कॉलर से पकड़ा था।  एक जवान रंगरूट उसका तराज़ू उठा रहा है।  रमुआ रो रहा है, चीख रहा है। रमुआ ने तराज़ू उसके हाथों से छीन लिया।  उसकी इस हरकत और चीख पुकार ने उस रंगरूट को और क्रोधित कर दिया।  एकाएक उसने एक झापड़ रखकर रसीद किया रमुआ की कनपटी पर। सुगवा पंख फड़फड़ा रहा है।  जाल कस रहा है| 
 
“साले…शोर मचाता है। जोर दिखा रहा है %$^&&” 
 
अबकी फिर तराज़ू जवान पुलिसिये के हाथ में है।  रमुआ को न जाने क्या हुआ। वह न झापड़ की परवाह कर रहा है न गालियों की। उसकी नज़र बस तराज़ू पर है। उसने गिड़गिड़ाते हुए फिर से तराज़ू छीनने की कोशिश की।  जवान पुलिसिये ने तराज़ू को साइड में खड़ी गाड़ी में फेंका और हाथ के डंडे से रमुआ को बेतहाशा पीटने लगा।  सुगवा  की गर्म देह शिथिल होने लगी है।  उसके मुँह से खून बह रहा है। पंख लटक गए हैं|
 
रमुआ अब भी गिड़गिड़ा रहा था।
 
“छोड़ दो साहब। जाने दो साहब। मारते क्यों हो।” मार से बचने को उसने दोनों हाथ उठा कर डंडा पकड़ लिया। जवान पुलिसिया भरपूर गुस्से में पागल हो उठा।  
 
अगले ही पल वो हुआ जिसने रमुआ के उबलते खून को पूरी तरह जमा दिया।  जवान पुलिसिये ने आगे बढ़कर दोनों कसरती हाथों की ताकत का भरपूर प्रयोग करते हुए रमुआ का ठेला पलट दिया।  
 
पूरी सड़क पर मूंगफली फैल गई।  कमेटी बाज़ार को रौंदते हुए आगे बढ़ गई। रमुआ वहीं सिर पकड़कर जमीन पर गिर गया।  उसके मुँह से बहता खून लार में मिलकर जमीन पर टपक रहा है। उसके अवचेतन में कहीं गूंज रहा है माई का कातर स्वर, “मारबो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिरे मुरझाए।”
 
दुकान वाला छोटू जोर से चिल्ला रहा है, “चार सौ वाला जूता दो सौ रुपये में…”  रमुआ की कनपटी सुन्न हो चुकी है और कान बहरे। उसकी आँख के आगे अब कोई बाज़ार नहीं, घुप्प अंधेरा है जिसमें उसके सपने एक एककर खो रहे हैं।  जाल पूरा कस गया| पिंजरे का द्वार सदा के लिये बन्द हो चुका है। रमुआ पूरी तरह सुग्गे में बदल चुका है।  फिर वही दो आँखें, दो पंजे, लाल चोंच, लम्बी सी पूंछ लेकिन लहूलुहान पंख और एक ओर झूलती गरदन|  मुरझाए गिर गया है सुगवा। उसकी बड़ी-बड़ी चमकदार गोल आँखों से रिस रहा है उन्मुक्त उड़ान का सपना, सुगवा की आज़ादी की कामना अब बहेलिये के क़दमों तले कुचली जा चुकी है|  आपन घर-दुआर, माई का दुलार, दिदिया की सूनी आँखें, छोटकी की मनुहार, आपन गाँव, दुर्गा साह की धमकी… सुगवा की आँखे मुंदती जा रही हैं,  उसकी छटपटाहट शांत होती जा रही है|  उसमें अब कोई हरकत बाकी नहीं। धीरे धीरे उसकी देह ठंडी पड़ती चली गई।  बाज़ार अपनी गति से चल रहा है| 
 
—अंजू शर्मा 

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कविताएं

मुआवजा

अगर   कविता के बदले
मुआवजे का चलन हो तो
तो मुझे सोचना है कि
ये क्या हो सकता है?
 
संभव है मैं मांग बैठूं
मधुमक्खियों से
कल ही बनाया गया
ताज़ा शहद
कि भिगो सकूँ
कुछ शब्दों को इसमें,
ताकि विदा कर सकूँ कविताओं से
कमस-कम थोड़ी सी तो तल्खी,
 
या मैं मांग सकती हूँ कुछ नए शब्द भी
जिन्हें मैं प्रयोग कर सकूँ,
अपनी कविताओं में बार बार आते
दुःख,
छलावे,
प्रतिकार
या प्रतिरोध के बदले,
 
आपके लिए ये हैरत का सबब होगा
अगर मैं मांग रख दूँ कुछ डिब्बों की
जिनमें  कैद कर सकूँ उन स्त्रियों के आंसू
जो गाहे-बगाहे
सुबक उठती हैं मेरी कविताओं में
हाँ, मुझे उनकी खामोश,
घुटी चीखों वाले डिब्बे को
दफ़्न करने के लिए एक माकूल
जगह की भी दरकार है,
 
हो सकता आप कहें
कि मैं बहुत ज्यादा मांग रही हूँ
पर मेरे लिए कविता लिखते लिखते
अक्सर बदल जाने वाले अर्थ को लेकर
अपनी चिंता से छुटकारा पाना भी एक मांग है,
ताकि मैं भी लिख सकूँ पुरसुकून होकर
फूल,
सपने
ख़ुशी
मुस्कानें
और सवेरा
 
क्या मिल सकता है कहीं मुझे ये मुआवजा ………..

चालीस साला औरतें

इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी 
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद
 
अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम
 
कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर
 
बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से 
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से 
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से   
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे  
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,
 
ये जो फैली हुई कमर का घेरा है  न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में
ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं 
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं 
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,   
 
ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं 
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है 
 
अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ,  वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं….. 

अच्छे दिन आनेवाले हैं

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंज़र दिल कचोटते हैं 
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है
 
 
मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छांट दी गई उन बाहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पायी गईं
 
 
 
नहीं यह महज़ खब्त नहीं है 
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ 
 
 
 
कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टंगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है 
 
 
 
मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान 
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ 
अच्छे दिनों के आने का संदेश 
 
 
 
ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुये
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी 
मंगल गीत गाने की 
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को 
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की 
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट 
पर कान बंद कर लेने की 
 
 
 
कैसा समय है 
कि वह एक मुस्कान के आने पर 
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता 
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं………….

बारिश के बाद

बादलों की ओट से 
वह आज निकला है कई दिनों बाद
धूप अनचाहे मेहमान सी
नहीं लगती अब 
सूरज की तपिश भी
तपाती नहीं सहला देती है इन दिनों
 
कभी कभी तो बड़ी शिद्दत से इसकी प्रतीक्षा रहती है
जैसे यादों के झुरमुट में खो गई कोई प्रिय सहेली
या जैसे बहन के घर का रास्ता भूल गया हो 
तीज का घेवर लानेवाला छोटा भाई
 
आलस को हौले से छिटका
चींटियों की एक कतार मुस्तैद है बिल से बाहर 
उल्लास के शिखर पर बैठे 
पंख फटक रहे हैं कल से छिपे हुये सहमे परिंदे
सर्द आवारा हवा ने एकाएक जगाया है सबको
चमक आए पत्तों पर इठला रहा है बूढ़ा बरगद भी
 
   
अचार की बरनियाँ
और दाल की डिब्बे ही नहीं
आज प्रसन्न है
सील गया घर
सीला साजोसामान
सीला तन और
धूप की नरमाहट से खिल गया है
सीला हुआ ऊबा सा मन
सच है 
मौसम का बदलना
कभी कभी मन का बदलना है…….

दीवारें

मजहब की दीवारे उठाकर
वे खुश थे
दरअसल
वे भूल गए थे
दीवारों में ही
खुला करती हैं
खिड़कियाँ
और
दरवाजे…..

…………………………

किताबें

…………………………

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