Tuesday, May 14, 2024
नाम:- अंजू त्रिपाठी
जन्मतिथि:- 7/3/1980
शिक्षा:- पी एच डी मनोविज्ञान
         यूजीसी नेट(हिंदी)
संप्रति:-अध्यापन
रचनाएँ:- साझा संकलन (काव्य अक्षत व काव्य किरण),कृति बहुमत ,गृहलक्ष्मी, गृहस्वामिनी, हंस,साहित्यनामा,माही संदेश, इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
 
मेल आईडी:- [email protected]
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कविताएँ

स्त्रीयुग

साँझ के स्याह सन्नाटे में
बहुत बार लिखा जाता रहा है 
अवांछनीय अनैतिक इतिहास
जिसको पढ़ने सुनने की मनाही सदा ही रही है
 
उसी सन्नाटे को चीरती घुटन भरी आवाज़
कहना चाहती है
एक अबूझ कहानी
जिसको समझने में सदा ही नाकाम रही है दुनिया
 
आवाज़ ऐसी 
कि खुजराहों के भित्तिचित्र भी सिहर जाएँ
शायद  उकेरी जा रही थी
किसी पीठ पर नीले लाल रंगों की आकृति
 
या फिर
कोई देह, देह नहीं वरन
अयाचित वस्तु सम
उपभोग में लाई जा रही थी
जिसको देख निश्चित ही अरावली पर्वत भी थर्रा उठी होगी
 
कि सब कह रहे हैं
यह स्त्रीकाल चल रहा है
समानता की सड़क पर मानव दौड़ रहा है

कविताएँ

गफ़लत में थी मैं 
मुझे लगा 
शब्दों को भावों का जामा पहनाकर
पंक्तिबद्ध कर 
पन्ने पर उतार देती हूँ 
तब बन जाती है कविता
 
लेकिन ज़रा देर से ही सही
अब जान गई हूँ 
कि मैं कविताएँ नहीं लिखती
वरन्
कविताएँ मुझे लिखती हैं रेशा रेशा 
 
देखो!!
कैसे श्वास भर रही हूँ मैं
इन शब्दों में
कैसे खिलखिला रही हूँ मैं
इन पंक्तियों में
कैसे पूर्ण हो रही हूँ मैं
पूर्णविराम में
कैसे मुक्त हो रही हूँ मैं
इन छन्दों में
कैसे गुनगुना रही हूँ मैं
इन अलंकारों में
कैसे ऊँघ रहीं हूँ मैं
इन तमाम मात्राओं में
कैसे जीवन का आनंद ले रही हूँ मैं
इन नौ रसों में
 
कैसे फलक तक मुझे पहुँचा रही हैं
चाँद सितारों से बातें करवा रही हैं
बेसबब प्रेम करती हैं मुझसे 
कि श्वाससंगिनी हैं मेरी 

औरतें

ये औरतें भी न
बड़ी अजीब होती हैं
 
रोज छलती हैं खुद को,खुद से
अंदर से बेशक टूट चुकी होती हैं
लेकिन बाहर से दिखती हैं बिल्कुल परितुष्ट
 
न जाने कितने झंझावातों को 
अपने  भीतर  समाहित  किए  हुए 
खिलखिलाने का बखूबी अभिनय करती हैं
 
चाहे रूह में कोई नश्तर चुभा हो
फिर  भी   खामोशी   की  चादर  ओढ़े
मुदित –  मन  से  मिलती  हैं  सबसे
 
अपनों के मखमली प्यार को
महसूसती  हुई  सजाती – संवारती हैं 
अपने घर – परिवार  को
 
जब कभी रूठ  भी  जाती  हैं  
तो दो-चार आंसू बहाकर 
स्वंय  ही   मान   जाती  हैं
 
अपनों की फिक्र में 
नाराज़गी का छौंका लगा देती हैं कढ़ाई में
लोगों की चुभने वाली बातों को
चाय के पतीले में अच्छे से खदका देती हैं
 
कभी अपनों से हारती हैं 
तो कभी  परायों  से  जीतती हैं
 
ऐसे ही अनेक खट्टे – मीठे अनुभवों को साथ लेकर
अडिग अविचल चलती रहती हैं
जीवन रुपी ज्वार-भाटा में
कभी  डूबती  तो कभी  उतराती  हुई
निर्बाध नदी सी बहती रहती हैं
और  प्रतीर  तक  पहुंचने  की  ज़िद  में
अनवरत गतिमान रहती हैं
इसी तरह वह अपने अस्तित्व को जिन्दा रखती हैं
सच में ये औरतें न 
बड़ी  अजीब  होती  हैं।।

अम्मा

अम्मा…अम्मा 
हरदम चिल्लाती रहती मैं
न उनको चैन से खाने-पीने देती,न सोने देती
दो भाई मुझसे छोटे थे
अम्मा कभी लंगोट धोतीं तो कभी दूध की बोतल
बाकी बचे समय में सभी गृहस्थी के काम
इसी में उनका पूरा दिन बीत जाता
 
सबकी फुरमाईश बजातीं
कहीं चूक हो जाय,तो डाँट भी खातीं
थोड़ा सा रोकर अपनी दिनचर्या व्यस्त हो जातीं
हमारे लाड में कहीं कोई कमी न दिखातीं
 
दोनों भाई बोतल से ही गटक लेते थे दूध
अम्मा कहती हैं ,तूने बहुत तंग किया है
तुझे पटक कर दूध पिलाना पड़ता था
फिर भी उल्टी कर देती थी
भाई आराम से खा-पी लेते थे
इसलिए उनको बॉटल पकड़ाकर
मुझे खुद बैठती थीं खिलाने-पिलाने
 
शादी के बाद भी बहुत सालों तक मन करता
अम्मा मनुहार करे,कौर बनाकर खिलाए तो खाऊं
फिर बिना नखरे किए ही खाने की आदत हो गई
 
जब स्कूल में पढ़ती थी
सहेलियां कहतीं काश!मैं लड़का होती
मैं सोच-विचार में पड़ जाती
गहन चिन्तन के बाद निष्कर्ष निकालती
ना रे बाबा ना
मुझे नहीं बनना लड़का
कौन डाँट सुनेगा
लड़की हूँ तो कम से कम डांट तो नहीं पड़ती
और अम्मा छाती से चिपकाकर सुलाती,वो सुख अलग
 
हम तीनों भाई-बहन भी खूब लड़ते थें
अम्मा के नाक में दम कर देतें
जब उनका जी आजिज हो जाता था
तब वो पापा को बुलाने की धमकी दे डालतीं
हम सिटकी-पिटकी मारे बैठ जाते
नहीं..नहीं..डर इस बात का नहीं था कि पापा डाटेंगे 
बल्कि डर लगता कि हम पढ़ने के लिए बैठा दिए जाएंगे
 
होता भी वही था
हम लाइन से बैठा दिए जाते
दो-चार खाने को भी मिल जाता
प्रयः मैं बच जाती थी
बड़ा भाई अकारण ही चपेट में आ जाता था
बाल सुलभ मन उसको पिटवाकर
जीत की खुशी से गहागड्ड हो जाता था
 
हम तीनों हरदम अम्मा के सीने पर दाल दरते थे
वो क्या है न….
उनकी परेशानी कहाँ..कभी हम समझ पाते थे
उनकी उदासी कहाँ हम पढ़ पाते थे
 
खुशी और उदासी के बीच झूलती रहीं अम्मा
सच कहूँ तो उनको भी कहाँ पता था कि कब खुश होना है कब उदास
उदासी ने अपना ऐसा रौब जमाया कि अब वो बहुत कम हँसती हैं
 
ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उनका सम्मान जरा सा भी कम हो
पूरे घर वाले उनका बहुत मान करते हैं
लेकिन
जब उदासी एक बार घर कर जाती है न, तो वो जाते जाते भी थोड़ी सी रह जाती है
 
अम्मा ने हमेशा मुझे भाईयों से ऊपर रखा है
कि अब वो उदासी ऊपर रखती हैं
मुझे कत्तई नहीं पसंद कि अम्मा 
किसी को मुझसे ऊपर रखें

ऊनी फ्रॉक

माँ ने बनाया था मेरे लिए
बैगनी रंग का ऊनी फ्रॉक
यही कोई जब पाँच-छः वर्ष की रही होऊँगी
बड़ा प्यार था मुझे उस फ्रॉक से
इसलिए नहीं कि बहुत ऊष्मा थी उसमें
बल्कि इसलिए जब मैं पहन कर निकलती
तो सभी औरतें उसका डिजाइन देखने के लिए
अपने पास बुलातीं,बहुत दुलार से करीब बैठातीं
सच,निहाल हो जाया करती थी मैं
दाँए,बाँए मुझे घुमाकर पूरी तसल्ली से
चार-पाँच गुणवन्तियां सलाह-मशविरा करतीं
मैं गर्विता गोल-गोल भी, घूमकर दिखाती माँ का हुनर
दो सलाई सीधा,दो सलाई उल्टा
दो फंदा बढ़ाना,दो फंदा घटाना
पहले दो घर छोड़ना,फिर तीन घर एक साथ बुनना
यही उस बैठक का मुद्दा रहता
घर आकर जब माँ को बताती
कितने लोगों ने इसकी बड़ाई की
चमक उठती थीं उनकी आँखें
चेहरे पर पसर जाती मद्धम सी मुस्कान
मन ही मन वो अपनी पीठ भी थपथपातीं
कितना भला था न वो समय
कि ऊन और सलाई भी
आपसी रिश्ते बुनते थे
किसी रिश्ते में फंदा गिर जाए
तो हाथोंहाथ उस फंदे को उठाकर
पूरी बुनाई दुरूस्त कर लेते थे
पूरी सर्दियां रंग-बिरंगे ऊनों से गुलजार रहती थीं
छत,बच्चे व औरतों से रंगीन रहते थें
कहीं मिल जाए गर्माहट भरी यारी
तो करनी चाहिए
पूरे मनोयोग से हर फंदे की बुनावट
कि ऊष्मित रहे आपसी संबंध

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