Tuesday, December 10, 2024
अंशू कुमार
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मेरा नाम अंशू कुमार है और मैं बिहार के बेगूसराय जिले से हूं। मैंने अप्लाइड इकोनॉमिक्स और कॉमर्स में विशेषज्ञता प्राप्त की है, और अपनी एमफिल और पीएचडी की पढ़ाई जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पूरी की है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि अगर दुनिया को कोई वास्तव में बदल सकता है और इसे सुंदर बना सकता है, तो वह शोषित वर्ग के लोग ही होंगे। 

मै पटना यूनिवर्सिटी की निर्वाजित स्टूडेंट यूनियन की जेनरल सेक्रेटरी भी रही हूं। और महिलाओं के मुद्दे पर हमेशा काम करना मुझे खुद पर काम करने जैसा लगता रहा है।

जन्म तिथि – 21 मई 1990
गांव – चमथा (विद्यापति), बेगूसराय, बिहार

शुक्रिया, जिन्दाबाद
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कविताएं

सोनपरी

औरतों के शरीर से बार -बार 
शुरू हुई हिंसा कभी खत्म नहीं हुई
 
खुद के शरीर को 
कभी अपनो से
कभी दूसरो से 
कभी दंगो और लड़ाइयों से
बचाती औरतें 
 
आखिर तक बचा ले जाए
इस आस में दम तोड़ देती हैं 
और खुद को बंद कर लेती हैं 
चारदीवारी में, 
और बना दी जाती हैं 
“सोनपरी”,
 
सोनपरी बाहर नहीं जा सकती
उसका शरीर मर्दों को 
उकसाने का काम करता है
वो सबके लिए अजूबा है
 
और इसलिए वो 
कम दिखती है घर के बाहर
मर्दों के साथ चौराहों पर
या सामाजिक सरोकारों में, 
 
और अगर कोई कभी
लांघ के दीवार,
खड़ी हो जाए
मर्दों के बीचों बीच आकर
तो मर्द संकट में आ जाते हैं 
उन्हें जब कुछ नही समझ आता
बौखलाते और बेकाबू हो जाते हैं 
 
सोनपरी को नोच लेना चाहते हैं 
अपने बड़े बड़े पंजों से
उसे नंगा कर टांग देते है
चौराहे के बीच बड़े से पेड़ पर
 
ताकि दूर, खिड़की खोल रही लड़की
तक यह संदेश पहुंचे कि तुम सोनपरी हो
बाहर मत निकलना इस दुनिया के लोग
तुम्हे भी टांग देंगे
 
दूर खिड़की खोल रही लड़की 
इस बार डरती नहीं है 
दरवाजे पर निकलती है
और चौराहे पर पहुंच जाती है
 
लड़की ढीठ है और तैयार भी
वो टंगी औरत को पेड़ से उतार कर
न्याय की बात कर रही है, लोगों को
आवाज दे समाज बचा रही है
और मर्द मुंह ताक रहे हैं
अपना लिंग टटोल रहे हैं
 
और लड़की लड़ाई लड़ रही है
उन तमाम औरतों को सलाम 
जो आज भी लड़ रही है
अपने योनि से पत्थर, 
रॉड निकाल कर
सड़क पर खडी हैं 
और मुकाबला कर रही हैं।
 
उन्हें मेरा सलाम, 
मेरा सलाम..!

तुम्हारे बाद

ये शब्द मेरी ज़िन्दगी के  
सबसे क्रूर शब्द हैं,  
जिन्हें लिखते वक्त मेरे हाथ
शब्दों की पहचान  
खो देना चाहते हैं
 
मुझे पता है कि पीछे जाकर  
ना शब्द भुलाए जा सकते हैं  
और ना ही तुम्हें
 
इसलिए अब से मैं 
जब भी प्रेम पर कुछ लिखूं,  
 
तुम समझना कि 
मैंने तुम्हें अपना हाल लिखा है…!!!

बेघर स्त्रियां

बेघर स्त्रियां हर घर में
खोजती रहीं 
शिद्दत के साथ अपना 
ठिकाना!
 
कभी उसे बताया गया 
कि ऐसे रहो,
तभी किसी भी घर-आंगन में 
तुम्हारा रहना हो सकेगा!
 
कभी बताया गया कि 
वैसे रहो, तभी कोई दूसरा
घर तुम्हें अपना बना सकेगा!
 
लेकिन इन तमाम शर्तों के बाद भी,
 
ताउम्र “ऐसे रहो, वैसे रहो” ने 
औरत को सिर्फ रहने भर का 
छत दिया, घर नहीं!

सजाना

जिसे कभी खाने तक को
नहीं मिल सकी सजी हुई थाली
उससे उम्मीद है कि वो 
कोना- कोना सजाए 
 
जिसे कभी सुना नहीं गया
या जिसे ऊंची आवाज़ में 
हमेशा बुलाया गया,
उससे उम्मीद है कि वो धीरे 
और आराम से शब्दों को
सजा कर बात करे 
 
जिससे कभी नहीं पूछा गया
उसका हाल, उससे
उम्मीद है कि वो सबका ख्याल रखें 
 
जिसे कभी कुछ सजा -सजाया 
नहीं मिला
उससे उम्मीद है कि 
वो सिर्फ घर ही नहीं खुद
को भी सजा कर प्रस्तुत करे
 
और इसलिए,
मुझे कविता हो या जीवन 
दोनों को सजाने से दिक्कत है, 
 
मैं चाहती हूं जो
जैसा है वो वैसा ही कहा जाए 
सजाने की जिम्मेदारी
एकतरफा, किसी एक की क्यों?
 
जो व्यवहार में नहीं, 
वो शब्दों की सजावट में क्यों?
 
मुझे सजाने, बचाने, छुपाने 
से घुटन होती है और मैं
घुटन से तंग हूं!
 
जिसे दुनिया ने कुछ भी 
सजा कर नहीं दिया,
उससे दुनिया भर की‌ चीजों को 
सजाने की उम्मीद क्यों?

पिता और मां में अंतर

पिता और मां में जितना अंतर 
तुमने समझा है, बस उतना ही
अंतर तुमने बौद्धिकता और बोध 
में जाना है!
 
जबकि चाहत दोनों को
दोनों होने की थी!
 
बहुत बार पिता ने 
मां होना चाहा
और मां चाहती रही पिता होना 
 
लेकिन बीच में खींची गई
लकीर इतनी बड़ी थी कि
एक की कभी सुनी नहीं गई 
और एक कभी रो नहीं पाया!!

प्रेम की आजादी!

सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों से  
भरा पूंजीवाद का ये बाजार,  
 
औरतों को बता रहा है  
कि उसे अपने चेहरे और बालों की  
चमक कैसे बनाए रखनी है।  
 
रोज नए-नए विज्ञापन  
स्थापित कर रहे हैं कि 
कौन है सुंदर औरत !
और वह कैसी दिखती है !
 
जबकि सबसे सुंदर औरत को भी  
नहीं मिल सका प्रेम,  
उसे भी बाजार ने सिर्फ छला ही है।  
 
मैं, जो एक औरत हूं,  
उन तमाम गानों, विज्ञापनों और चलचित्रों  
को चूल्हे की आग में झोंक देना चाहती हूं,  
जिसने सुंदरता का विकृत रूप गढ़ा है।  
 
दुनिया का कोई भी बाजार  
एक औरत के चेहरे पर वो 
चमक नहीं ला सकता  
जो उसे प्रेम में महसूस होता है !
 
और मेरा ये मानना है कि प्रेम
 दूसरे किसी के साथ 
पक्का तब तक नहीं होता
जब तक खुद से ना हो पहले प्रेम।  
 
और इसलिए मैं चाहती हूं कि
औरतें दुनिया, जहान से पहले
खुद से करे बेइंतेहा प्रेम
ताकि बाजार उसके,
पैरों के नीचे हो…!

साथी

स्त्री को चाहिए एक ऐसा साथी
जो साथ उस वक्त दे,
 
जब वो बोलने की दशा में नहीं हो
या जब वो कुछ कहते हुऐ हकलाने लगे
 
या फिर जो पीठ तब थपथपाए जब कमर टूट रही हो
और गले तब लगाए जब वो रोना रोक रही हो
 
क्योंकि उसका मानना है कि 
जो पुरूष पीड़ा नहीं जानता 
वो एक स्त्री को नहीं जान सकता
 
ये एक स्त्री की चाहत है
जो आसमान को देखते हुए 
सोचती है कि जब साथी चुनने की बारी आए तो
इस जहां में एक ऐसा ही साथी चुना जाए
 
जबकि उसे पता है कि ये चाहत
उस समय में की जा रही है
जब लोग भीड़ बन चुके है
जब झूठ सच को झुठला रहा है
जब रीढ़ की हड्डियां गल रही हैं 
 
जब प्रेम कहानियां और कविताएं
जलाई जा रही हैं
इतिहास में उलटफेर किए जा रहे हैं
 
और तब, 
जब प्रेम बाजार मे बिक रहा हैं
और किताबें कबाड़ में..

सच क्या हैं

मर्द देश की खबरे देख रहे हैं 
घर में महिलाएं चौका लगा रही हैं 
 
मर्द देश – विदेश की सरकार
बना रहा हैं, औरते रोटी बना रही हैं 
 
घंटे भर से मर्द बात कर रहे हैं कि 
औरतें घर नही चला पाती तो क्या
सोनिया गांधी देश चला पाएगी?
मायावती उत्तर प्रदेश और राबड़ी देवी
बिहार चला पाएगी?
 
मर्द को समाज की चिंता है
औरत को पेट की चिंता है
 
मर्दों को बैचैनी है कि पूरा कश्मीर 
उनका कब होगा 
औरत बैचैन है
उसका मर्द उसका पूरा कब होगा
 
क्या ये दोनों एक ही दुनिया के लोग हैं?
क्या ये दोनों एक हैं?
या दोनों का मालिक एक है?
बताओ सच क्या है?  

फिर तुम कहां मिलोगे

मैने पूछा उससे – 
अब आगे मिलना हुआ तो कैसे मिलेंगे?
 
उसने बड़े आश्वस्त होकर कहां –
दुनिया बहुत बड़ी है, कहीं भी मिल लेंगे…
 
मैं उससे पूछना चाहती हूं 
कि मेरी देखी दुनियां में,
प्रेम के लिए एक इंच भी
जगह तय नहीं है,
 
प्रेमियों को सिर्फ हाथ में हाथ 
थामने के लिए,
गुफाओं, खंडहरों, सिनेमाघरों में 
भटकते देखा है मैंने
 
प्रेमियों को सिर्फ कंधे पर अपना 
सर टिकाने के लिए
बगीचे के तमाम फूलों को छोड़कर 
सबसे पुराने, बड़े और फैले पेड़ो के-
ओट में छुपते देखा है मैंने..!
 
इतने सब के बाद प्रेम में,
प्रेम के पहरेदारों से हताश 
और अनिश्चितताओं से घिरे प्रेमियों को,
 
कभी बिछड़ते, कभी रोते 
कभी लड़ते, देखा है मैंने 
 
फिर तुम बताओ
तुम कहां मिलोगे…!!!!!????

मैं चाहती हूँ

तुम मुझे सुनो 
और क़ायदे से सुनो 
 
जैसे दिन भर 
भूखे रहने के बाद 
सुनी जाती है ईद की अज़ान
 
जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर 
लंबे इंतज़ार के बाद 
सुनी जाती है ट्रेनों की अनाउंसमेंट 
और जैसे अस्पतालों में 
सुने जाते हैं अपने नाम के नंबर
 
ठीक उतने ही ध्यान से मुझे सुनो
 
और मैं तुम्हे बता दूँ 
मेरी भाषा और अनुभव 
दोनो थोड़े कच्चे हैं
 
खिड़कियों से मैंने चाँद 
और पुरुषों के हाथ पकड़ 
बाज़ार देखे हैं
 
विद्यालय में पाक शास्त्र में नंबर मिला 
रिश्तेदारों ने कढ़ाई-बुनाई देख 
मुझे ब्याह-योग्य समझा
 
प्रेमी ने कोमलता, समर्पण और लज्जा 
पर अपना दिल दे दिया
 
घरों में सबके लिए जीना 
ख़ुद को खोकर कहीं
सर्वोत्तम गुण माना गया 
इस बड़ी रंग-बिरंगी दुनिया को 
मैंने छोटी बालकनी से देखा!
 
और इसलिए मेरी भाषा कमज़ोर है 
अधिकतर मैं स्त्रीलिंग भाषा इस्तेमाल करती हूँ 
मुझे परिचित-सा लगता है
 
पुल्लिंग शब्द से मेरा राब्ता कम रहा 
इसलिए वह बेहद कड़वा, कठिन 
और अलग-सा लगता है,
 
अब अगर ऐसे में 
मैं तुम्हे कहूँ, सुनो, 
तो क्या तुम मुझे सुनोगे, 
मेरे पूर्ण भाव को कमज़ोर भाषा में! 
मेरे संपूर्ण अनुभव को अपनत्व से…

आधी दुनिया

औरतें खाना बनाती हैं 
और रोज बनाती हैं, अब
इसमें बड़ी बात क्या है?
 
रोज खाना बनाने वाली
जब अपने ही स्वाद का 
खाना कभी नहीं बना पाती
तो इसमें बड़ी बात क्या है?
 
वो पढ़ा लिखा उसका पति जो
सामाजिक बुराइयों के खिलाफ 
कई मुहिम से जुड़ा है,
उसे खाना बनाने से कोई दिक्कत नहीं,
बस उसका कहना है कि 
उसकी पत्नी अच्छा खाना बनाती है 
इसलिए वो बना रही है तो,
इसमें बड़ी बात क्या है?
 
वो जो महिला है जो सुबह से 
महिला मुक्ति पर चर्चा करके
अपने तेज कदमों से, 
घर को लौट रही है 
और उसके पति को भी 
खाना बनाने से कोई दिक्कत नहीं,
 
लेकिन उसके खाना बनाने से 
रसोई में फैल जाता है सारा सामान 
ऐसा अपने सहेली को बताते हुए 
तेजी से घर को आ रही है 
तो इसमें बड़ी बात क्या है?
 
मुझे इल्म है कि 
रसोइए के हिसाब से नही बनता कभी खाना
खाना हमेशा खबिईये के हिसाब से ही बनता है
तो इसमें बड़ी बात क्या है?
 
मैं सोचती हूं,
खाना बनाने के साथ 
औरत का रिश्ता इतना गहरा 
और अपने स्वाद के साथ 
इतना फीका क्यों हो जाता है?
 
मैने अपनी मां से पूछा कि,
मैं जब पैदा हुई थी
तब क्या कड़ाही, कलछुल 
मेरे साथ आया था  
क्या मैं किचन सेट के साथ पैदा हुई थी
या बिलकुल खाली हाथ थी
भाई की तरह
 
मां खूब ज़ोर ज़ोर से हंसी और 
हंसते हंसते सन्न हो गई
आंखों में आसूं लिए एकटक
निहारती रही और फिर 
एक गहरे चुप्पी के साथ 
कहा ज्यादा मत सोचो
जी नहीं पाओगी!
 
मैं सोचती हूं,
रसोई में लड़की ने भी तो 
आटा फैला कर ही 
रोटी बनाना सीखा 
फिर लड़कों के फैलाने पर 
रसोई जाना बंद क्यों कराया
 
अच्छा बताओ 
अगर लड़की भी फैला दे 
एक दिन सारा आटा रसोई में 
तो उसका भी रसोई में जाना 
बंद हो जाएगा क्या?
 
इस दुनिया में आधी दुनिया
कभी साथ -साथ चल पायेगी क्या?
 
हां तुम देखना,
मुकम्मल दुनिया की चाह,
आधी दुनिया ही पूरी कर पायेगी मां!!!
मैंने चुनी एक काली,
घनी, अकेली रात।
 
मेरे इस दुःख का माझी,
मैं खुद ही थी जो अंजाम
जानते हुए भी बहुत
दूर तक आ गई।
 
अब यहां से लौटने की
मेरी स्थिति नहीं रही,
और ना ही मेरी उपस्थिति
का कोई मतलब बचा।
 
ये जानते हुए भी कि
जाने के बाद कोई नहीं लौटता,
मुझे अब लौट जाना चाहिए।
 
लेकिन जीने की सारी
तमन्ना एक दिन और जीने
का मोहलत रोज मांग लेती है,
 
मैं क्या करूं, खुद से ही
बहुत मजबूर हूं!
 
कभी कभी लगता है कि
इस अंधेरे में कहीं गुम हो जाऊं,
 
लेकिन सोचती हूं कि
जो पहले से गुम है,
उसके गुम होने पर खोजने
उसे कौन आएगा?
 
इन सब में रोज मेरे हिस्से
अंधेरा सन्नाटा स्थापित हो रहा है,
जो रोज मुझे थोड़ा-थोड़ा
खाता जा रहा है!!
 
हां, तुम ठीक कहते हो –
 
“ये मैंने चुना है एक
काली, घनी, अकेली रात
और अकेलापन!”
 
Anshu Kumar
 
गुनहगार चोर
 
वह रोज़ चुरा कर लाता है
अपनी उपस्थिति।
 
चोरी की गई घड़ी में हम
कभी खूब बात करते हैं,
कभी खूब शिकायत करते हैं,
लेकिन हमने सब में साथ
रहना चुना है।
 
हमारे पास खुद का समय
कम है, लेकिन कम समय
ही हमें हम होने देता है।
 
हमें जीने का हौसला और
प्रेम का मतलब समझाता है।
 
दुनिया के लिए भले ही
हम गुनहगार चोर हैं,
लेकिन हमारी दुनिया यहीं है!
 
जिसे हमने कैलेंडर में दर्ज
तारीखों से ज्यादा जिया है।
 
– अंशु

टूटना

टूटने का डर हमेशा रहा
इसलिए हर परिस्थिति में
सबसे ज्यादा खुद को
कस कर पकड़ी रही मैं
 
जब भी जरा सा भी
खुद को ढील दिया मैने
वही टूटने की आशंका
सबसे ज्यादा महसूस हुई
 
बाबजूद इसके,
आज जब टूट रही हूं
तो बदहवास हूं
और बेआवाज भी !
 
क्योंकि योजनाएं,
बचाव के लिए हो सकती है
बहाव के लिए नही

मैं

 
मैं रिस रही हूं,
रोज थोड़ा थोड़ा
रिसती हूं
 
शरीर पर फफूंदी लग
गई है जिसे रोज झाड़ती हूं
और ये रोज थोड़ा- थोड़ा
उभर आती है
 
दिमाग और दिल
लड़ाई लड़ रहे हैं
और शरीर को पीलिया
ने जकड़ लिया है
 
खून बनना छोड़
सूखने लगा है और गले को
किसी ने कस कर पकड़ रखा है
 
कोई भी चीज तटस्थ नही है
सिवाय एक याद कि
हंसना दुःख को सार्वजनिक
नही होने देता
इसलिए
हंसना जरूरी है.

आजकल

आजकल रोज एक
चीज टूट जाती है
मैं रोज जोड़ने के
क्रम में होती हूं
 
लेकिन अब चाहती हूं
जब सब टूटना ही है तब,
 
सबकुछ एक साथ टूट जाए
और मैं मान लूं कि
जोड़ने से नही जुड़ता
बहुतकुछ.
 
तुम से पहले जो भी मिला
बनिया मिला
 
गणित मेरी कमज़ोर थी
और ऐसा होने से
धीरे- धीरे लोग छूट गए
 
पहले भी कानों तक बहुत
सारे वादे -इरादे पहुंचते रहे
 
लेकिन भूगोल कमजोर होने के कारण
बात हवा में तैरते रही
 
किसी को कुछ पसंद था तो
किसी को कुछ, और बस
 
भाषा कमजोर होने के कारण
भावनाएं हाशिए पर रही
 
फिर तुम आए
और सारे विषयों को लौटना पड़ा
मात्र तुम्हारे एक स्पर्श मिलने
के कारण,
 
क्योंकि
प्रेम की अपनी
कोई भाषा नही है
 
स्पर्श का कोई स्थापित
वर्णन नही है
 
और तुम्हारे मेरे जिंदगी
में होने का कोई “कारण”
नही है,
 
बस तुम्हारा होना ही
मेरे जीवन में मेरा
होना है.

औरत का प्रेम

औरतों के कारण
प्रेम आज भी बचा रहा
 
हजार दंगो और युद्धों के
बाद भी प्रेम बचा रहा
 
गोली बंदूक और हथियारों का
अविष्कार जिस भी रूप में हुआ हो
 
बारूद, बम और मिसाइलों का
अविष्कार जिस भी कारण हुआ हो
 
पुरुषों ने जिस कारण भी    
बनाई और जीती हो सारी दुनिया
लेकिन प्रेम को अकारण
सिर्फ औरतों ने ही बचाया है.

स्पर्श की भाषा

स्पर्श की भाषा
औरतों से कोई पूछे
प्रेम बिना देह की लाचारी
कोई किसी प्रेमिका से पूछे
 
प्रेम में सिर्फ साथ होना,
साथ होना नहीं होता
 
प्रेम में हजार ख्वाहिशें
जन्म लेती है रोज
रोज कुचली जाती हैं
लेकिन बनी रहती हैं
जैसे मानों बेहया के फूल
 
जैसे कि मेरी तुम्हारे प्रेम
में बने रहने की ख्वाहिश
जैसे कि तुम से मिलने
के बाद मिलने की ख्वाहिश.

तुम से दूर होने के ख्याल

 
तुम से दूर होने भर के
ख्याल से जिदंगी बेरंग
होने लगती है,
 
सोचती हूं तुम्हारे बगैर
मैं इन मौसमों का, फुलों का
इन खुबसूरत चीजों का
क्या करूंगी?
 
यकीन करो,
इनको महसुसना भर भी
दुर्लभ हो जायेगा
 
मेरी तमाम जीने की
इच्छाएं बर्फ के पहाड़ में
तब्दील हो जाएंगी
 
प्रेम जो बचपने से भरा और
आजादी से जुड़ा होता है
उसका ऐहसास तुम से है
 
जब तुम साथ नहीं होंगे,
मैं रोज थोड़ा -थोड़ा
ख़त्म होते होते
एक दिन पूरा
खत्म हो जाऊंगी
 
और सच कहूं
तो अंतिम खत्म होना भी
सकुनियत भरा नही होगा
मेरे तुम्हारे एक ना होने का दुःख लिए
जब मैं अलविदा हो रही होंगी
 
और जब,
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में नही होगा
या तुम मेरे सिरहाने के आसपास
भी नही होगे
मेरी अंतिम विदाई भी
पूरी नहीं होगी.

तुम्हारे साथ

तुम्हारे साथ
दुनियां देखना
सबसे अलग रहा
 
प्रेम में दो लोग
हमेशा से खूबसूरत होते हैं
 
वो सत्ता और समाज
दोनो को दुरुस्त कर रहे होते हैं
अपने आलिंगन से, अपने चुम्बन से
अपने स्पर्श से, अपने उपस्थिति से
 
उन्हे हिंसा और पाबंदियों से
सख्त नफ़रत होने लगती है
 
और इसलिए,
प्रेम ही वो आखिरी एहसास है
जो दुनियां को तबाह होने से
बचा सकता है.

उधेड़बुन

रोज कुछ नया बुनती हूं
रोज वो बिखर जाता है
कुछ भी ठहरता नहीं
सब बह जाता है
 
तुम्हारे होने पर
सब जीत जाती हूं
नही होने पर
सब हार जाती हूं
 
अजीब उधेड़बुन है,
सुबह कुछ और
शाम में कुछ और
और तुम्हारे होने पर
कुछ भी नही चाहती हूं.
 
अंशू

………………………….

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