Tuesday, May 14, 2024
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नामअनुजीत ‘इकबाल’

ईमेल पता – anujeet.lko@ gmail.com

किताबें प्रकाशित 4

किताबों के नाम

  • Radical English for Nurses
  • Applied Grammar and Composition
  • The Inner Shrine {Novel}
  • Psychology and Psychiatry for Nurses

(भूतपूर्व अंग्रेजी प्रवक्ता)

सम्मान

  • 2018 –लखनऊ में 16 वें पुस्तक मेले द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की अंग्रेजी कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान एवं सम्मान।
  • 2019- लखनऊ में 17वें पुस्तक मेले द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की हिंदी कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान एवं सम्मान
  • 2020राष्ट्रीय पुस्तक मेले में अंग्रेजी कविता में प्रथम स्थान

 

  • विभिन्न संस्थाओं द्वारा लेखन, पेंटिंग और योग के लिए 120 से अधिक सम्मान पत्र

प्रकाशन

देश विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में कविताओं का प्रकाशन, जिनमें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की “स्त्रवंति”, भारतीय भाषा परिषद की “वागर्थ”, गर्भनाल पत्रिका, शुभ तारिका, जानकीपुल, पोषम पा, विभोम स्वर, नवभारत टाईम्स, हम हिंदुस्तानी अमेरिका, हिंदी अब्रॉड कैनेडा, साहित्य कुंज कैनेडा इत्यादि

शौक

  • अंग्रेजी, पंजाबी एवं हिंदी की कविता, कहानियां लिखना
  • ऐक्रेलिक पेंटिंग बनाना {आध्यात्म पर}
  • शास्त्रीय संगीत सुनना

अनुजीत इकबाल

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कविताएं

प्रेम

हे महायोगी

जैसे बारिश की बूंदें

बादलों का वस्त्र चीरकर

पृथ्वी का स्पर्श करती हैं

वैसे ही, मैं निर्वसन होकर

अपना कलंकित अंतःकरण

तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूं

 

तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है

मेरा हर चीर और आवरण

अंततः बना देता है मुझे

“दिगंबर”

 

थमा देना चाहती हूं अपनी

जवाकुसुम से अलंकृत कलाई 

तुम्हारे कठोर हाथों में

और दिखाना चाहती हूं तुमको

हिमालय के उच्च शिखरों पर

प्रणयाकुल चातक का “रुदन”

 

मैं विरहिणी

एक दुष्कर लक्ष्य साधने को

प्रकटी हूं इन शैलखण्डों पर

और प्रेम में करना चाहती हूं

“प्रचंडतम पाप”

बन कर “धूमावती” 

करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर 

तीक्ष्ण प्रहार 

और होगी मेरी क्षुधा शांत

 

हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम

नशे में चूर रहता है

अनुजीत इकबाल

धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।

 

स्वयंप्रभा

निरर्थक साधनाओं में कैद होता संसार

तुमको तलाशता सुदूर तीर्थों में 

और मैं लिखती हूं 

तुम्हारी विस्तृत हथेली पर 

वो तमाम प्रणय गीत 

जो मेरा ह्रदय गाता है।

 

व्यर्थ कर्मकांडों के वशीभूत होता संसार 

तुम को ढूंढता बेमतलब क्रियाओं में 

और मैं निमग्न होती हूं 

उस चरमबिंदु पर 

जहां आसन-रत हो 

प्रेम ईश्वर हो जाता है।

 

अर्थहीन आडम्बरों से आच्छादित होता संसार

तुमको देखता निर्जीव पाषाणों में 

और मैं तन्मय होती हूं 

हृदय के उस घाट पर 

जहां हिम-द्रवित हो 

गंगा का उद्गम हो जाता है। 

 

मिथ्या अर्चन से सम्मोहित होता संसार 

तुमको पुकारता उन्मादी कोलाहल में 

और मैं मल्हार रचती हूं 

अंतस के उस सभा मंडल में 

जहां घनगर्जित हो 

जीवन स्वयंप्रभु हो जाता है।

महायोगी से महाप्रेमी

क्षमा करना कृष्ण

प्रेम प्रणय की दृश्यावली

मैं तुम्हारे रासमंडल में

कदाचित न देख पाऊंगी

 

मेरे मन मस्तिष्क में

अर्द्धजला शव हाथों में लिए

क्रंदन के उच्च 

आरोह अवरोह में

तांडव करते हुए

शिव की प्रतिकृति उकेरित है

 

वो प्रेम ही क्या

जो विक्षिप्तता न ला दे

 

तुम्हारी बंसी की धुन को

सुनने से पहले सम्भवतः

मैं चयन करूंगी

प्रेमाश्रु बहाते हुए शिव के 

डमरू का आतर्नाद

और विकराल विषधरों की फुफकार

मृत्यु या बिछोह पर

तुम्हीं करो

“बुद्धि” का प्राकट्य

मुझे उस “बोध” के साथ

रहने दो, जो हर मृत्यु

अपने साथ लाती है

 

शिव से सीखने दो मुझे

कैसे विरहाग्नि

महायोगी को रूपांतरित करती है

महाप्रेमी में

अनुजीत इकबाल

उसका होना

उसके नाम की प्रतिध्वनि

किसी स्पंदन की तरह

मन की घाटी में

गहरी छुपी रही

और मैं एक दारुण हिज्र जीती रही

 

वेदना, व्याकुलता के मनोवेगों में

त्वरित बीजुरी की तरह उसका प्रतिबिंब 

हवाओं में कौंध जाता

और आंखों की मेड़ें

नेत्रजल को तिरस्कृत कर देतीं

 

मेरे ध्यानाकर्षण के लिए

उसने छोड़ी थीं

ब्रह्मांड में असीम संभावनाएं

तब, शब्दातीत बोल सुनकर

प्रस्फुटित हुई प्रेम की पहली कली

जिसकी सुवास

मेरी पर्णकुटी से उठकर

महकाती रही सारे अरण्य को

 

वो प्रेयस

अनिद्रा को भी उत्सव बना देता

और उसकी परोक्ष उपस्थिति

अंतःकरण में उठी रहती

किसी संगीत कोविद के आलाप की तरह

 

उसके संग सहचार का वहन

शब्द, अर्थ, विवेचनाएं

या भाषा के यान

कभी न कर पाए

और मैं निश्चल, निमग्न

समय की नदी में पैर डुबाए

कोशबद्ध करने का दुःसाहस करती रही

उसके अनुराग की पांडुलिपि को

जो आकाश से भी अधिक विस्तृत थी

 

अंततः एक दिन

‘मेरे होने’ के वृहत पर्वतश्रृंग 

विध्वंसित हो गए

और शेष बचा रह गया

एक जंगली श्वेत पुण्डरीक

अनुजीत इकबाल

……………..

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