Wednesday, September 17, 2025
....................
डॉक्टर अर्चना त्रिपाठी
‘ अर्चना लार्क ‘ नाम से लेखन।
जन्म: 7th जुलाई।
निवास स्थान: सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश।
 
शैक्षणिक योग्यता: 
स्नातक – इलाहाबाद युनिवर्सिटी
परास्नातक- बीएचयू 
यूजीसी नेट
 
एम. फिल (गोल्ड मेडल), – ” गोरख पांडेय और पाश की कविताओं में जनसंघर्ष की अभिव्यक्ति”
 
पीएचडी- “स्वातंत्र्योत्तर जनांदोलन और हिंदी कविता, विशेष संदर्भ: तेलंगाना, नक्सलबाड़ी और संपूर्ण क्रांति आंदोलन।” 
 
पद: असिस्टेंट प्रोफेसर (अस्थायी), दिल्ली वि.
 
 
विशेष: 
1.कविताएं प्रकाशित:
 
नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, परिकथा, हंस, वागर्थ, सबलोग, पक्षधर, आजकल, वनमाली कथा, दसवां युवा द्वादश में कविताएं शामिल,समकालीन जनमत( स्त्री विशेषांक) इत्यादि।
 
2. विभिन्न नाटकों में अभिनय।
 
3. मुहावरे लघु फिल्म में अभिनय ( यू ट्यूब पर उपलब्ध)
4. विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन और प्रकाशन।
 
साहित्यिक वेबसाइट
1. सदानीरा
2. समालोचन
3. जानकी पुल
4. बिजूका
5. कविता कोश में कविताएं शामिल।
6. समावर्तन पत्रिका में रेखांकित कवि
7. हिन्दवी में कविताएं।
 
जनसत्ता अखबार में गद्य लेखन प्रकाशित।
…………………………..

कविताएं

एक दिन गर्व करते-करते भगवान देई मर गईं

ओसारे में बैठ ख़ूब चिल्लाती थीं
हमर गाम, हमर देस, हमर बोली
जब दाना घर में नहीं बचता
तो कहतीं ई दऊ की मरजी बा
महुआ का पेड़ बिक गैल
कटहल भी कौनो के भेंट चढ़ गैल
बेटवा‌ के डिग्री मिल गैल
भगवान देई एक दिन ‘मान’ से विच्छिन्न चली गईं
हम बचे रहे
हमें दूर तक दिखता
हमारा गर्व जहाँ-तहाँ छितराया हुआ
छाती ठोंकने पर अब सीना महुआ जैसा चू जाता है
जिसे कोई अपने बूटों से रौंद डाला है
हम कुछ नहीं बोले, कुछ नहीं सीखे
गर्व किए, चिल्लाए
और एक दिन चिलचिलाती मौत मार गए!

मनोरोग

गोली चलाता हत्यारा
कहता है उसे शोर पसंद नहीं
‘ रघुपति राघव राजा राम’
‘अल्लाह हू अकबर’
गाते हुए वह बताता है
गोली और बंदूक शांति कायम करने के लिए हैं
‘पुरुष की शारीरिक ज़रूरत नियंत्रित नहीं हो पाती’
कहता हुआ वह
स्त्रियों का रक्षक बनना चाहता है
एक विक्षिप्त मनोरोगी
अपने को ईश्वर का शांतिदूत बताता हुआ
बाहें पसारकर कहता है
आओ गले मिलें ईद मनाएँ, होली खेलें
और सुदूर ख़ून के फव्वारे छूटने लगते हैं।

कुछ लोग आख़िर तक कहीं नहीं पहुँचते

कहीं से कहीं पहुँचने के लिए
किसी को जनम लग जाएँगे।कोई कई रात भूखे सोएगा
कोई अपना सबकुछ खो देगा
कोई कोई तो ख़ुद को ही भूल जाएगा
आत्मतत्व वस्तुतत्व की गणना वो करेंगे
जिन्होंने कहीं पहुँचने के लिए जन्म से पहले टिकिट करवा लिया है
वो मुस्करा कर पूछेंगे
आखिर विकास की इस लहर में
तुम गाँव में तांगा क्यों ढूँढते हो
घोड़े की गर्दन लिपटने के लिए नहीं है
सवारी करो और लगाम अपने हाथ में रखो सटासट
तुम कोविड के पहले के अछूते लोग हो
तुमसे प्रश्न भी वो दूर से करेंगे
और झट निर्णय लेकर
रास्ता नापने को कहेंगे
तुम जब कहीं से कहीं पहुँचना चाहोगे
इनकी टाँगें तुम्हें एक खंभे सी नज़र आएँगी
जिसे तुम अकेले नहीं खिसका पाओगे
कुर्सी के दूसरी तरफ ही दुनिया अलग नहीं दिखती
पास बैठा कोई छलांग लगाता उनकी टाँगों का विस्तार बन जाएगा
तुम कहीं नहीं पहुँच पाओगे
वो किसी रोज़ हाथ लहराते तुम्हें आश्वासन देंगे
कोई कुछ नहीं करता कहीं नहीं पहुँचता पर जीता तो है
वो तुम्हारा वजूद छीनकर तुम्हें किसी अरण्य में छोड़ आएँगे
जहाँ मोगली के बाद कोई नहीं बचा है
तुम अपना कुछ उगा नहीं पाओगे
इतिहास में उन्हें ही दर्ज़ होना है
वर्तमान तो भीषण संस्कारों से लहूलुहान छोड़ ही जाएँगे
और तुम्हारी लाश पर अब गिद्ध भी कहाँ मंडराएँगे!

प्रेम

मुझसे इस तरह तुम्हें नहीं छूटना था 
एक पल की पलक
अपलक याद में नहीं समाना था
पीठ की झुरझुरी से शुरू बाहों में आकर बैठ जाती है
ये दर्द है जो पालथी मारे
चबा रहा है मेरा रूदन
 
मुक्ति चाहिए थी बंधनों से 
जीवन से नहीं
न होकर कोई ज्यादा धड़कता है सीने में
 
निराशा पाने को भी लौटती है ज़िंदगी कई बार
 
सब कुछ होना था
असफलताओं को चुप नहीं होना था
ये भीतर ज्वार पैदा करती है
सब कुछ निगल जाने को तैयार 
 
तुम्हें इस तरह घर नहीं बनाना था अपना
मज्जा में छुपा टेढ़ा मेढा़ दिल
सीधा रास्ता सीधी दीवार 
सब सो गया
कहीं और लाँघने को कौन इतने पेंच लगाता है 
 
तुम्हें इस तरह नहीं छुपना था
शब्दों के भीतर सपना था
सब टूटना था 
सपना नहीं
 
ये क्या था कोई अजमाइश
जो ख़त्म ही न हुई
 
उसे छूटना न था
पुकार रही है नदी 
बाँध तोड़ गई है
सब बहा लेना चाहती है
मेरा इनकार
इकरार बचाकर 
मुझे जगह देना चाहती है सीने में 
मेरे होने को बचा ले जाएगी मेरी प्रकृति
 
मेरे प्रेम तुम मुझमें रक्त बनकर प्रवाहित हो गए
तुम्हें तो आकार लेना था
शब्द बनकर गूँज जाना था‌ कानन में
किन्नर के जूड़े में रचित हो जाना था
देवदारु की तरह सघन होना था तुम्हें
रंगों की कशिश में समा जाना था 
 
ये करुणा कैसे समाएगी इस ब्रह्मांड में प्रिये!
 
छलनाओं के चरण नहीं छुए जाते
हृदय से बहिष्कृत होते हैं
ये क्या है जो हर टीस में बस गई
सब कुछ होना था जीवन को ऐसा नहीं होना था
 
अभिनय की मुद्राओं में रुलाई पर इनाम मिलने लगा है
हँसने की कला 
शब्दों का संयोजन 
चित्रात्मकता 
अपनी उपस्थिति पर ताला सब नहीं लगा पाते प्रिये!
सब होना था 
ज़रा होशियार भी
 
प्रगाढ़ता एक क्षण में कविता बन 
न्योछावर हो जाती है गंधर्वों के जीवन में 
प्रेम वहाँ इंद्रनील के समान दमक उठता है, भोजपत्रों के उजास में घुलकर वे नवगीत लिखते हैं
तुम्हें तो पूरी धरती मिली थी
 
प्रेम को किसी सदी में नहीं बाँध सकते थे
वो छूट गया
जैसे टूटता तारा बिखर जाता है 
जिसे कोई नहीं छू सकता 
प्रिय का अंतर्मन भी नहीं! 

लजीना लाज छोड़ो

लजीना! टिकोरों की छीनाझपटी के बीच क्या तुम अब भी पेड़ों के बीच अपनी डाल ढूँढ लेती हो
ऊपर जाना फिर नीचे आना 
कोहनी दरेर लेती हो बार बार
अपनी कमीज़ को फाहे में लपेट भूल जाती हो सारे दर्द
तुम्हारी प्रार्थनाओं में दूसरे पहले आते हैं और तुम हमेशा बाद में, इसका मतलब तो समझती होगी न!
 
जून की गर्मी और सिंदुरहवा आम के गिरने की मिन्नतें अब भी करती हो
या डालों को झकझोर देती हो
 
लजीना! क्या अब भी जीवन सोलह बरस की तरह धड़कता है तुम्हारा
तुम अपने रिश्तों से बेधड़क ना कह सकती हो न!
धरती का आँचल भी तुमसे छूट गया
तुम कुछ भी तो नहीं बचा पाई
 
दोस्त इन दिनों नेमप्लेट से चमचमाती टेबल दिखाते हैं
तुम कुछ भी तो नहीं हो
न दोस्त न दुश्मन
फिर तुम क्या थी लजीना उन सबके लिए!
 
तुम बात बात में टेसू बहाती हो
ये कच्चापन और तुनक मिजाजी तुम्हे ले डूब रही है
उकता गए सब तुम्हारी रोज़ रोज़ की उदासी से
 
अब भी छली जाती हो 
इतनी हास्यास्पद क्यों बन गई तुम
तुम्हारे ख़िलाफ़ थी नहीं दुनिया
वरक़ दर वरक़ सजाई गई है 
 नासमझ ही रह गई तुम
 
तुमने हर रिस्क में जिया है
एहसानों का पुलिंदा छोड़कर मौत कैसे आएगी लजीना!
इतनी हताश तुम्हें कभी नहीं देखा 
तुम्हारा विश्वास नहीं उठना चाहिए था
आदर्शों पर चौंक सी जाती हो
पढ़कर भी अशिक्षित रह गई तुम
 
कुछ शब्दों पर चिल्लाने लगी हो
तुम पागलखाने में ख़ुद को ढकेल रही हो
होश में आओ लजीना!
जंग के बीच तुम ख़ुद को अकेले छोड़ नहीं पाओगी
 
अनमनाई दुनिया के बीच बस जीते जाना है
इच्छा-मृत्यु और समाधि स्थल तुम्हारे लिए नहीं है 
दुःख तुम्हारी बनाई धारणा है, तोड़ो उसे
लजीना! लाज छोड़ो और बेहया बन जाओ।

एक मिनट का खेल

एक मिनट का मौन
जब भी कहा जाता है
हर कोई गि न रहा होता है समय
और फिर मौन बदल जाता है शोरगुल में
एक मिनट का मौन गायब हो जाता है
सिर्फ एक मिनट में
अपने शव के पास उमड़ी भीड़ को देख
व्यक्ति और मर जाता है
मृत्यु वाकई पहला और अंतिम सत्य है
और माफ करें मुझे मरने में ज़रा समय लग गया।

गार्गी

गार्गी इन दिनों क्या कर रही हो
कितने सवाल और बचे हैं गह्वर में 
तुम इतनी चुप क्यों रहने लगी हो
जब बोलती थी तो विद्वानों के कान में मधुमक्खी का डेरा जम जाया करता था
उनका अधैर्य असीम
 
क्या अभी भी कुछ सवाल उन्हें बार बार जन्म लेने को प्रेरित करते हैं
उनकी आँखें सवालों के रक्तिम दृश्य से लथपथ शव सरीखी अंकित हैं
इनमें देखो! न जाने कितनी गार्गी की नीली देह तैर जाएगी
 
गार्गी! तुम्हारे सवालात पर चरमराया आसमाँ धरती पर अंगारे फेंकता है
आकाशवाणी होती है
अब सब नष्ट हो जाएगा
तुम्हारा दिमाग विक्षत हो जाएगा गार्गी।
 
इस आवाज़ से तुम कितना चौंकी थी
‘ ब्रह्म क्या है’ पूछते ही स्त्री को पागल हो जाना था?
 
  तप त्याग वैराग्य धारण करती तुम दर्शन की गहराई को नापती अंतिम सवाल पर चुप हो जाना श्रेष्ठ समझती रही गार्गी!
 
उस स्त्री के बारे में तुम कितना जानती हो जो 
सुरक्षा कवच को सीने में दफनाए
दो आँखें पीठ में गुदवाए भूखे प्यासे भाग रही है अपनों से?
 
क्या तुम मानती हो गलतियों के बदले कोई श्राप होता है
अच्छाई के बदले कोई वरदान?
 
गार्गी तुम्हारी नाक नहीं कटी
तुम बच गई कई अपमान से
पर क्या सच में प्रश्न पूछने की अनुमति देता समाज 
उतना ही सरल सुंदर होता है
जैसे कि पहले प्रश्न की अकुंठ तान लेती स्त्री ?
 
गार्गी वर्चस्व की खिचड़ी को अब तुम कैसे समझती हो
नगाड़ों के बीच विसर्जित स्त्री को तुम कितनी बार याद करती हो?
 
क्या तुम छींक सकती हो इन व्यवस्थाओं पर
या छींटों की चिंता से रुमाल से ढँक लोगी चेहरा?
 
बोलो गार्गी तुम्हारी वाक्पटुता कब माफ होगी?
तमाचा जड़ देने भर से
या बलात्कार कर टुकड़े में बाँट देने से
शायद तेजाब फेंक कर अंतर्मन झुलसा देने से माफी मिल जाए
या सरेआम नंगा घुमा देने से
किसी रोज़ रोज़गार के दरवाजे से ही निकासी मिल जाए तुम्हें!
 
गार्गी तुम सदियों से सवालों से संघर्ष कर रही हो
कितना साहस जुटाती होगी उन क्षणों में
प्रेम पर लात पड़ने से जब गर्भ गल गलकर बह जाता होगा 
उसकी चीख कितनों के कानों में आँसू छोड़ जाती होगी?
 
कुल कलंकिनी कही जाती तो कितनी बार खुद से लिपट पूछती न्याय दर्शन आध्यात्म के बारे में?
 
गार्गी तुम्हारी ऊर्जा से उनकी त्वचा क्यों कुँभलाने लगी
संसार सन्निपात बन उजड़ने क्यों लगा?
 
तुम सुअर को देखती हो तो क्या महसूस करती हो
गर्दभ तान का व्यंग्य तुम्हें कितना रसीला लगता है?
 
सौंदर्यबोध की तुच्छ परीक्षा से गुजरती हुई 
तुम रोकर आँखें बंद कर लेती हो 
या अपने जीवन को याद करती अड़ जाती हो हर परिभाषा के आगे
 
गार्गी ये तुम्हारे चुप रहने का समय नहीं है
उठो और पूछो
भक्ति और ज्ञान के बीच रेहड़ पर जीते जीव के पेट की गुड़गुड़ाहट 
पूछो उनसे उनके किरदार के बारे में
कितने और बचेंगे उनकी स्वर्ण नगरी में
 
ब्रह्म मुहूर्त कब निकलेगा! 
कितने और आका जन्म लेंगे उनके दरबार में।
 
पूछो गार्गी 
पूछो!

तथागत! यहां सब मंगल है.

तथागत! माया ने जीवन घेर लिया है
युद्ध, घृणा, आरोप बढ़ता जा रहा
रंग सिर्फ लाल दिख रहा है
हम जीवित नहीं, अधमरे हैं
और वे मर चुके हैं जिनका जीवन नारे से अधिक निश्चित न हो सका
 
हम शाश्वत हैं, मंत्रों का अध्ययन जारी है तथागत!
चरित्र, मर्यादा, शुचिता पाठ्यक्रम में है
गुरुकुल खुल चुका है
 
जीवन जीते एकाएक अपनी कला की याद आ गई है हमें तथागत!
हमने मसखरी को अपना लिया है
 
नित प्राचीन शब्द नवीनता पर है
हम खाप पंचायत सा जीवन लिए, दरिंदों को शह देते
बात भी दुनिया बदलने की कर रहे हैं
हम गुलाम नहीं आज़ाद हैं न, तथागत!
 
सूतक का ग्रहण लग चुका है धरती पर 
लाश पर पांव रखता सपूत जागरण पर है
नींद कम, चाय ज़्यादा चर्चा ए ख़ास है
मां का घाव नासूर बन गया है
हमने अपनी मां को खरीद लिया है 
हम धनवान हो गए हैं तथागत!
 
कितने संवेदनशील थे उस काल में,
कितने मनुष्य विरोधी?
ये बताने की बात कहां बचती है तथागत!
 
जीभ पर उफनते जानवर
दिमाग़ की मछलियों को खा जाते हैं
आँखें सूख जाती हैं
जीवन के बचाव में 
समुद्र का नमक कम पड़ गया है
सच तो ये है कि
हमारे नाव की पतवार खो गई है तथागत!
 
हमारा रुदन हमारी पहचान बनती जा रही है
क्रूरता, ब्रह्मांड को चीर रही है
लेकिन वर्चस्व हमारा कायम हो चुका है तथागत.
 
तथागत! तुम किस शांति की बात करते हो?
हमने बंदूक की नोक पर महल खड़ा कर लिया है
बचे रिश्ते को पंक्तियों में समेट, ठेल दिया है विमर्श को
 
तथागत हम खुश हैं
तुम किस दुःख की बात करते हो?
 
यहां अपने पक्ष की होड़ में हरेक चेहरा बजबजा रहा है
प्रेम सधा हुआ फॉर्मूला बन चुका है 
जो हर पारी में खेला जाता है
तथागत! तुम किस प्रेम की बात करते हो?
 
हमने अपने अपने ईश्वर को संभालना सीख लिया है
और मनुष्य जीवन खतरे में पड़ गया है 
यहां सब कुशल है तथागत.
 
तुम किस धरती पर, कैसे जीव की बात करते हो?
किस सुख के बाद दुःख आता है 
अंतत: किस दुःख का निवारण होता है तथागत?
 
तथागत! 
यहां पौरुष है 
लज्जा है, शुभम है
हँसी है, ठहाका है
सब मंगल है
पर बाघ को हंसता देख, हर जीव सहम क्यों जाता है तथागत?
 
आख़िर तुम किस मंगल की बात करते हो तथागत?
 
अंधेरा घिर चुका है
चकवे का विलाप बढ़ता ही जा रहा है,
क्रौंच का भी वध हो गया है,
मेरा कोई नहीं बचा है
तुम तो आओगे न, तथागत!
बोलो तथागत! 
…………………………..
error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200
Warning: session_start(): open(/var/lib/lsphp/session/lsphp82/sess_bm056d1md49orv7ur4hj6qa2fk, O_RDWR) failed: No space left on device (28) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/lib/lsphp/session/lsphp82) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143
ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş