चर्चित कवयित्री बाबुषा कोहली का जन्म 6 फरवरी1979 को मध्यप्रदेश के कटनी में हुआ था। उनके पहले कविता संग्रह “प्रेम गिलहरी दिल अखरोट” ने समकालीन हिंदी कविता को नया मुहावरा ही नहीं दिया बल्कि नये बिम्ब और नये भावबोधभी दिए।भारतीय ज्ञानपीठ से यह संग्रह 2014 में आया था।इस पर उन्हें ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार भी मिला था।
दूसरा संग्रह 2018 में “52 चिट्ठियां” रजा पुस्तक माला के अंतर्गत छपा था।उस पर उन्हें वागीश्वरी पुरस्कार भी मिला था।2021 में प्रकाशित कथेतर गद्य की उनकी पुस्तक “भाप के घर में शीशे की लड़कीं “ने लोगों का बहुत ध्यान खींचा।
“तट से नहीं पानी से बंधती है नाव” उनकी ताजा कृति है जिसके कारण वह इन दिनों फिर चर्चा में हैं।
वह जबलपुर में केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक हैं और “जंतर तथा उसकी चिठियाँ ” नामक शार्ट फिल्मों के निर्माण निर्देशन से भी जुड़ी हैं।
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कविताएं
चैराहे पर नदियां
ट्रैफ़िक सिग्नल पर टैक्सी रुकी। काँच पर हथेली की थाप सुनकर मैंने सिर उठाया।
‘‘ऐई सेहनाज! ताड़ाताड़ी कॉरो। आगेर सिग्नले जेते हॉबे।’’
एक भारी आवाज़ शहनाज़ को पार करती हुयी मुझ तक पहुंची। मैंने शहनाज़ को देखा। वो न स्त्री थी न पुरुष। लेकिन उसके पास इस दौर के स्त्री-पुरुषों से गहरी और करुणा भरी आंखें थी। पर्स से एक नोट निकाल कर आगे बढ़ाया मैंने और उसने अपनी भरपूर हथेली मेरे सिर पर रख दी। उसके हिसाब से वो नोट बड़ा था, मेरे लिए उस वक़्त वो हथेली बहुत बड़ी थी। मेरा जी कर रहा था कि उसके गले लग कर रो पड़ूँ पर सिग्नल ग्रीन हो गया।
शहनाज़ के स्पर्श की स्मृति को अपनी डायरी में इस तरह दर्ज कर लिया था मैंने।
क.
ठंडा ग्लेशियर मन
पिघला हथेली की आँच से
पहाड़ों में ही नहीं उगती नदियाँ
खिल उठती कभी चौराहों पर भी
शिउली के फूल-सी
तो कभी कलाइयों में बहती गोल-गोल
सफ़ेद-लाल साहिल़ों के भीतर
खन-खन चाल से बढ़ती
स्मृतियों में बजती हैं
शहर के बीचोंबीच बह निकली नदी का जल
ज़ब्त हुआ चन्द्रमा की आँख में
मछलियों की गमकती गंध में साँस लेता शहर
नब्ज़-नब्ज़ डूबता
चौराहे वाली नदी की बाढ़ में
लहर-लहर छूटता शहर
चौराहे वाली नदी की गाँठ से
नहीं सूखता कभी
चाँद का जल चखती मछलियाँ
आँखें नहीं मूँदती कभी
ख.
अब टैक्सी एक निरीह ब्रिज को पार करती है
यूँ तो जोड़ते हैं ब्रिज दो किनारों को
कभी-कभी नहीं भी जोड़ते
नदियां ड्योढ़ियों पर नहीं रुकतीं
न डरती किसी रेड सिग्नल से
एक नदी साथ चल रही है ऐन नीचे
इस नदी की रुह बड़ी रौशन है
जिस्म कुछ सियाह-सा
हो न हो
इस का नाम शहनाज़ होना चाहिए
ग.
पिंजरा है वो क्षण
जिसमें बन्द दो चिड़ियाँ
पेट को लगती है भूख
पर बस! रोटी से नहीं मिटती
कटोरी में खूब ही दाना
किसी काम का नहीं
नन्ही ज़ुराबों की गंध से ललचाती चिड़िया
घोसले के स्वप्न में पिरोती लोरियाँ
चाहती है कम-अज़-कम चिड़िया तो माना जाए
वो दूसरी चिड़िया सफ़ेद-लाल रंगों में रहती चहचह
गूँगे गीतों को लानतें भेजती तो पुचकारती कभी
मौसेरी थीं उनकी भूखें
आसमान के अलग-अलग टुकड़े उनका अन्न-जल थे
उत्थान
ज्यों कोई ग्वाल ब्रज के लोगों को विपदा से बचाने
पहाड़ उठाता है
मालिन हौले-हाले उठाती हैं झरे हुए फूल
पंद्रह बरस की छोकरी उठाती है पलकों पर अबोध स्वप्न
कोई मासूम बच्चा सिर पर आसमान उठाता है
पिता हथेली पर उठाते हैं नाज़
कुमार गंधर्व हाथ को उठा कर सुर उठाते हैं
वायु उठाती है अग्नि की लौ
गूंगे समय के सामने बाग़ी आवाज़ उठाता हैं
महाबाग़ी पर्वतों की चोटी तक
उठा लेता मौन
प्रेमी अपनी स्त्री के गर्भ पर हाथ रख सौगंध उठाता है
उठो
तुम भी उठो
शहर की सबसे ऊंची मस्जिद की अज़ान पर उठो
प्रिय के नाम को कंठ पर उठाओ
नमाज़ हो जाओ
मध्यरात्रि
उठे सिद्धार्थ की तरह
तथागत की तरह गोपा को उठाओ
चैत की अमावस से जूझने
उठाती हूं मैं तुम्हारा प्रेम
मशाल की तरह
तुम मुझे जीवन के सबसे बड़े
जोख़िम की तरह उठाओ
अंधेरे की संदूकची में
उजालों का यशगान किया मैंने और सुबहों की प्रतीक्षा की
जबकि सारे सूत्र अंधेरे की सन्दूकचियों में बंद होते हैं
तुम कुछ कहना चाहते हो किसी से और वह
तुम्हारी भाषा नहीं समझता
तब अपनी बात को संगीत में संभव करो
यदि वह संगीत की पृथ्वी में अजनबी है
तब फिर कुछ मत कहो
(मत कहो,
मत कहो-
मत कहो!)
एक दिन राह चलते हए अपने क़दमों की थाप में वह
उस संगीत को सुन लेगा
और तुम्हारी बात उसकी आंखों से बरसेगी
ऋतुएं आती और जाती हैं सूर्य के संविधान के तहत
चन्द्रमा की चाल पर प्रेमी की स्पर्श करतीं-
सितारे अपना भेद केवल रात के अंधेरे में खोलते हैं
धीरज की धूप में
श्रमणों के पदचिहनों से बना पथ नहीं
सूर्योदय का सतत नूतन रहस्य हूं
पशुपतिनाथ का चैड़ा पट नहीं
चंद्रशेखर की चंचरीक चितवन के समक्ष
हिमसुता उमा का घूंघट हूं
आम्रपाली के अंगिका की डोरी नहीं
उरुवेला के स्वास्ति का जलमग्न हृदय हूं
हातिम का ताला भी नहीं
ब्लैकहोल के अदृश्य ढाक में कसा हुआ पुर्ज़ा हूं
नहीं!
धम्मपद-से गूढ़ ग्रंथ का नहीं-
किसी बच्चे की रंग-बिरंगी पुस्तिका का पहला पृष्ठ हूं
तुम्हारी हथेली की सेज पर सोया हआ भाग्य नहीं
नानी ने बांधी थी जो गांठ-
वह बात हूं
मुझसे प्रश्न मत पूछो
पर्वतों-सा अचल धीरज धरो
ठहरे रहो, जहां हो-
मेरे खुलने की प्रतीक्षा करो
नागरिकता
प्रकृति मेरा देश है सीमाओं की जकड़ से परे
आकाश मेरा ध्वज
प्रेम मेरा इकलौता धर्म है
अल्पसंख्यक हूं
पर दुनिया की कोई ताक़त
मुझे गीत गाने से रोक नहीं सकती
मेरा धर्म मुझे निर्भय बनाता है
बच्चों को मुझसे भय नहीं लगता
आज तक मैंने एक फूल नहीं तोड़ा
न बचपन में कोई तितली पकड़ी
पानी पर पत्थर फेंकने का खेल कर
नदी को घायल नहीं किया
एक क्रोधित हाथी ने मेरे सिर पर सूंड रख दी एक बार
फिर शांत हो गया था
केवल फूल, तितली, नदी, हाथी और बच्चे
मुझे इस पृथ्वी का नागरिक होने का प्रमाण-पत्र दे सकते हैं
शास्त्रीयता का पाठ
शास्त्रीयता का पाठ
प्रकृति देती है कई प्रश्नों के उत्तर
पत्तों के हरे से गीत लिख देती हूं
मेरा हर अनुत्तरित प्रश्न
धमनियों के धड़कते संगीत में ढल जाता है
कितना भी करें अभ्यास जीवन के पक्के राग का
श्वास के आरोह में स्वप्न के अवरोह में
रह-रह कर सुर अटक जाता है
सावन के सीले कंठ से फूट पड़ता जो भी सुरीला
आपस में बांट लेते हैं वन, नदी और तितलियां
मेरी स्याही का बेसुध गीलापन
बिरहिनों की अंखियों में बंटता है
नीलाम्बर प्रेयस की एकटक दृष्टि का मूसलाधार
जब-जब बरसता सतपुड़ा के अभिमानी पर्वतों पर
धरती की रग-रग में मल्हार बजता है
बैरागी मेघ वह
छेड़ देता बूंदों का राग नित नया
गीत देता कम, संगीत ज़ियादह देता है
मैंने देखा अपनी उंगलियों के पोर पर
लुप्त होते अक्षरों को
अपनी देह को मैंने वायलिन होते देखा है
संगीत के प्रशिक्षुओं के लिए नहीं
प्रेमी के लिए होता है
शास्त्रीयता का अंतिम और सबसे प्रमुख पाठ
कि प्रेम का गीत गाने से छूटता है कोई कोमल सुर
गुनगुनाने से सधता है
मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं
जिन तितलियों को मैंने आंखों से छू कर छोड़ दिया
वे फूल-फूल बैठ कर
लौट आईं मेरी कविताओं में महफूज रहने
जिस प्रेम को छोड़ दिया मैंने एक कोमल धड़क से अस्त-व्यस्त कर
वह छूटते ही उड़ गया परिन्दा बन
आकाश छू लेने
मेरे केश की कामना ने बांध लिया है छूटा हुआ एक पंख उस फीते से
जो चन्द्रमा के दो उजले रेशों से बना है
आकाश के आंगन में सम्पन्न होने वाली उड़ानें
धरती पर किसी लड़की की चोटी से बंधी हैं
लड़की की ‘‘उँहू!’’ पर हिलती हुई चोटी से जूझती है रात
कोई जान नहीं पाता कि रात क्यों इस तरह लहकती है
अपने केश में उलझे इस पंख को एक दिन मैं नदी में सिरा दूंगी
नदी उसे तट के हवाले करेगी
तट पर खेलती मल्लाह की नन्ही बेटी उसे अपनी स्कूल की कविता वाली किताब में रखेगी
किताब में बंद अधमरी चिड़िया उसे सहलाएगी
नन्ही जान नहीं पाती
कि किताबों के पन्ने वायु की मति से नहीं फड़फड़ाते
पन्नों में हलचल दरअसल छूटे हुए पंख की फड़फड़ाहट है
सम्भव है कि नदी और उसका तट
मल्लाह की बेटी और उसकी किताब
चिड़िया और पन्नों की हलचल
एकदम कोरी गप्प निकले
और सचमुच! ऐसा होने में बहुत परेशानी नहीं है
कि गप्प कई बार जीवन की इस तरह से देखभाल करती है
जैसे तो कभी-कभी कविता भी नहीं कर पाती
कविता आखिर करती ही क्या है?
वह तो महज़ तितलियों की सम्भाल में खर्च कर देती है अपना सारा कौशल
वह नहीं तोड़ती फूलों का भरोसा
वह रचती है रंग इन्द्रधनुष को उधार देने
वह बताती है दुनिया को कि ये आवारा चांद किसके आसरे पे लटका है
वह सुनाती है नदी के तट पर मल्लाह की बेटी को किसी परिन्दे की कथा
उधर एक परिन्दा उड़ता ही जाता है आजीवन
इन्द्रधनुष का स्वप्न लिए आंखों में
बादलों की टहनियों पर बैठता है
भीगता है
चोंच में दबाता है नमी के कुछ कण
फिर उड़ता है
इन्द्रधनुष के पीले आॅचल में अटकता है
छूटता है भटकता है
इधर मल्लाह की वह नन्ही बेटी किताब से निकालती है पंख
मेरी कविता में डुबो देती है
मैं तितलियों का शुक्रिया कह आगे निकल जाती हूं
कोई लुभावनी-सी गप्प ढूंढने
मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं
दिसम्बर
दिसम्बरः अंत का पेड़ और सांता क्लाॅज़ का बस्ता
सच से कहीं जियादह तेज उड़ता है सच्ची कहानियों का पंछी
इस पेड़ में चहचहातीं असंख्य आज़ाद चिड़ियां
जिनके गीतों का आखेट करता है बुरी नजरों का विषबुझा तीर
उमग कर सिर उठाए कितनी हरियल शाखें
अंजाने न्यौता दे बैठती हैं कुल्हाड़ी की भूखी धार को
सेब का नहीं अमरुद का भी नहीं
यह अंत का पेड़ है
जिसके फल दैत्याकार हैं
जिसकी जड़ें धरती की नमी पीते हुए बड़ी दूर तक फैली चली जाती हैं
अपनी खिड़कियों के पल्ले खोलो तो ज़रा
और देखोंकि बर्फ पर उगा
यह अंत का पेड़ है
इसकी कोटर में छुपी है मिथाइल आइसोसाइनेट की जहरीली रात
जिसकी सुबह कहीं ढूंढे नहीं मिलती
इसकी फुनगियों पर एक मस्जिद की ईंटों के टुकड़े खिले हैं
इसके चैड़े तने के पीछे गुम गयी थीं किसी निर्भया की चीखें
रात ढलते ही उल्टे लटक जाता है इसकी किसी नरम डाल पर कंधार का प्रेत
अश्वत्थामा के घाव सा हरा है यह पेड़
इसकी हरियाली को दक्खनी सुनामी ने सींचा है
यह वही पेड़ तो है जिसकी छांव में हम बैठा करते थे उंगलियों में उंगलियां फंसाए
मौसम बदलने के ठीक पहले तुमने कुछ कसमें उठाई थीं
जानते हो, इकतीस तारीख की उस रात मैं दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की थी
मुझे लगा था…
मुझे लगा था तुम जान चुके हो कि मुझे बच्चों के संग स्टापू खेलना अच्छा लगता है
और पालक की भाजी मेरे दांतों में ठीक वैसी ही उलझन पैदा करती है जैसे ब्रह्मकुमारियों को रंगीन वस्त्र
मुझे लगा था तुम जान चुके हो कि मैं बांधती हूं अपने केश में दोरंगे रिबन
और एक याॅर्कर बाॅल बरसों से मुरे स्वप्न की गिल्लियां उड़ाया करती है
मुझे लगा था तुम जान चुके हो कि सड़क खाली भी हो तो उसे पार करने में मुझे डर लगता है
और यह भी कि मेरी सबसे कोमल कामना और सबसे कठोर संकल्प नर्मदा के गहरे कानों में दर्ज हैं
आज इस पेड़ के तले अकेले बैठी मैं यह जान गयी हूं कि कोई किसी को नहीं जा पाता
फिर भी कम-अज़-कम तुम इतना तो जानते हो कि
मेरा नाम बाबुषा है
मैं थोड़ा-बहुत कविता लिख लेती हूं
और मेरी नाक पर एक तिल है
तुम नहीं जान पाए कि कब समय इस पेड़ के तने जितना कठोर हो चला
कि मैंने चुन लिए हैं इस पेड़ के गंधहीन फूल
कि बरस भर टोकरी में फूल भरती रही हूं
इन दिनों
मैं आकाश को पहनाने के लिए एक माला पिरो रही हूं
हक़ीक़त तो यह है कि हक़ीकत से कहीं ज़ियादह कल्पना में किया है मैंने प्रेम
इस लिहाज़ से काल्पनिक ही है मेरी बेहोशी
और इस नियम से कल्पना के ही पर्वत में होगी कहीं संजीवनी बूटी
जबकि इस कल्पना के बाहर लहलहाता
मेरे वजूद का नन्हा पौधा
सांता क्लाॅज़ के बस्े में जगह पाना चाहता है
सिरजना
मीठी लोरी में बदल रही हैं
मेरी सारी
अधूरी कविताएं
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मेरे सारे अमूर्त स्वप्न,
(जिनके अधटूटे टुकड़े कभी मेरी कच्ची-सी नींद को गड़ते थे)
साॅची-सारनाथ या भरहुत के स्तूप हो रहे हैं
संसार भर में वर्षा की कई प्रतियां उपलब्ध हैं
जल के कई संस्करण प्रकाशित/अप्रकाशित,
अनूदित
विद्वान पढ़ते हैं जल में जीवन
कोई अनपढ़ ही जीवन में जूल ढूंढ पाता है
मेरी आत्मा के पन्ने रह-रह कर फड़फड़ाते
नमी के आघात से प्रकृति की जिल्द फट जाती है
असंख्य नक्षत्रों-पिंडों से भरे इस ब्रह्मांड में
मेरी देह से फूट रही है
एक हरी कोपल
ऋतुएं एक अकम्प प्रार्थना में बदल रही हैं
दिन-ब-दिन मैं हो रही हूं पृथ्वी
भोर का उत्सव
भोर का उत्सव
ब्रह्मांड का मंत्रोच्चार है उगती हुई सुबहें
फूलों की गंध
हवन कुंड में अहं की आहुति है
उपवन में पत्तों की खड़-खड़ नहीं
यह तो हरी चूड़ियों की खन-खन है
इत-उत डोलती चिड़ियों की चहक
वृक्षों का अहीर भैरव है
मेरा मौन
बोध की शहनाई है
पूरब में खुल गई सिन्दूर की डिबिया
क्या मेरे द्वार पर ईश्वर की बारात आई है?
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बाबुषा कोहली, जबलपुर
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किताबें
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