Wednesday, December 4, 2024
भारती वत्स
पहल, कथादेश में कविताएं प्रकाशित।इतिहासबोध, अकार, अहा जिंदगी में आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित।मुक्तिबोध एवं दोस्तोवस्की की कहानियों पर आलेख। परसाई की कहानियों पर आलेख।
बुंदेलखंड की स्त्रियों पर पुस्तक प्रकाशित: मरी जाएं मल्हारें गाएं।
संप्रति: प्राध्यापक
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कविताएं

तुम कौन हो ?

तुम कौन हो ?
मैं सांस भी लूं तो
तुमसे पूछकर?
कपड़े मेरे तुम
उतारो
और फेंक दो मुझे
जंगली झाड़ियों में
तुम कौन हो?
में हिजाब पहनूं
में सात गज की
साड़ी पहनूं
मैं जींस पहनूं
मैं चाहे जो पहनूं
तुम तय करोगे?
तुम कौन हो?
मंदिर में
मस्जिद में
या रहूं मैं चर्च में
तुम तो रौंदोगे ही
हर हाल में
तुम्हारी फितरत में तो
तैरती हमारी देह ही है
फिर भी उठाए हो झंडा
तुम कौन हो भाई?
रंग अब तुम्हारी कैद में है
हर राग अब तुम्हारा है
तुम्हारे चौड़े सीने
की कायरता
को हम उड़ा देंगे
अपने आंचल का
परचम बना कर
तनिक ठहरो तो जरा..।
हम आजादी का
राग हैं
जो कपड़ों से नही
गूंजता है हमारी
आत्माओं में
घोंटो तुम हमारा दम
फूटा था जैसे उच्छवास
हर दिशा से
सबरी माला
मणिपुर
सीएए
निर्भया से लेकर
ग्रेटा तक
अब फिर फूटेगा
नही जानते क्या?
तुम कौन हो भाई?
                           भारती वत्स

कच्ची लोई

औरतें भटक जाती हैं अक्सर
अपनी बातों से
कहो यहां की
सुनाने लगती है न जाने कहां-कहां की
और बस.. तुम बौखला जाते हो
की कमबख्त मुद्दे की बात नहीं करती,
ये स्त्रियों के अंदर का केमिकल लोचा है
हरे नीले रंग का।
जो फैला पड़ा है उसके निर्भ्र ह्रदय पर
बे-ढब औरत की ये अदृश्य पतंगें हैं
जिसकी कमानी को वो देती है
एकदम सही आकार!!
वो उड़ती है हर रोज,
वो भागती है दिन में कई कई बार..।
क्या कभी तुमने नदी को ढब में देखा है?
या कभी किसी जंगल को
किसी एक राग में गाते देखा है?
या कभी किसी आकाश के टुकड़े को
किसी एक आकार में बहते देखा है?
औरतें इन सबसे गुजरती हुई
आती है अपनी मुद्दे पर
बताओ तुम? अब कहां से लाए वो ढब?
जो तुम चाहते हो,
तुम्हारे लिए तो औरत
कच्ची लोई
होती है
चाहे जैसा बना दो,निर्माता बने रहने का
ये तुम्हारे अंदर का केमिकल लोचा है!!
पर तुम जानते ही नहीं
कच्ची लोई ही तो अंकुआती हैं..
कभी पथरीली जमीन पर
पेड़ को उगते देखा है?

सैनिक

मैं खड़ा था बियाबान
सीले हुए
सन्नाटे में
सीमांत पर
अपने देश के
और वो भी उस ओर..।
आजादी का मतलब
बस,इन दुश्मनों से बचाना था
देश को ,हर कीमत पर
दोनो को समझाया था यही
देश ने…।
आजादी पड़ी थी लदर-फदर
इनकी पीठ पर
जिसे लादे खड़े थे
दोनों
दोनों तरफ..।
साल दर साल
आजादी सिमटती चली गई
इनकी खोई हुई
नींद में
इनकी विस्फारित आंखों में
इनकी स्थिर हो गई
आंखों की पुतलियों में
जो बस देखती थीं
इस तरह
जैसे बाकी सब कुछ मर चुका हो
मरी हुई आंखों से..।
पैर तब्दील
होते जा रहे थे
ठूंठ में
धीरे धीरे
स्पंदनहीन
थरथराना
बंद हो गया था
ठूंठ भला
थरथराते हैं?
स्मृतियों का कोलाज
घूम जाता था रोज ब रोज
जैसे कोई चाक
जब – तब
जिंदगी के रागों
को आकार देता
फैल जाता था स्मित
ओंठो पर
हाठात…।
बेतरतीब से जीवन को
देना था बस
एक ढंग
जो देते हैं सब
पढ़ना,कमाना,खाना….
उन दिनों लाम पर जाना
उनके लिए बस
काम पर जाना था..
पर देश के लिए
देशभक्ति…
जहां कुर्बानियां थीं,
शहादतें थीं
और था
आत्म दमन
ये शब्द
इनके शब्दकोश में नए थे
जिन्हें ठूंसा जाता था
हर रोज
हर निवाले के साथ..।
मृत्यु,अपराजेय जीवन
में बदल दी गई थी
धीरे धीरे…..
मरना,जीवन से अधिक
पवित्र और पूजनीय
बन गया था…
जब तब गहराती
उदासियोंं को
अक्सर
परे धंकेल देता था
वर्दी की ताकत का
सुनहरापन…
अब ताबूत में पड़े
शोर्य में लिपटे
जयघोष के बीच
निकलती यात्रा
के स्वप्न चलते थे
खुली आंखों में
रात दिन
मृत्यु का जयघोष
 तीव्र चलती सांसों को
टप टप टप
कदम ताल के
उग्र उन्माद में कहीं
गूंज जाती थी
बिटिया की
खिलखिलाहट…..
 गहरे अंधेरे की
उनींदी झपकियों में
 तैर जाती थी
 कभी नम छांव
 कभी पीपल के पत्तों सी
 खिलखिलाती हंसी
 कभी दरवाजे के कोने में
 टिकी लाठी,अब भी
 रोशनी की बूंद की तरह..
 उस सुबह ,
 उस ओर
 नही दिखता था
 कोई दुश्मन,
 कोई अजनबी
 दो बुत
 भरते थे गलबहियां…।
इक रोज़
सुबह नही हुई
उजाला हुआ था
जिसमे दिखता था
सब कुछ
साफ साफ..।
दोनो ओर के बुत
खोद रहे थे धरती
जिसमें
गहरे दबा दिए थे
असलाह..
मिट्टी की गर्म नम
परतों के बीच
कुछ बीज
एक मुठ्ठी भर सूरज
चार आंखें
थोड़ी सी उदासी
सतरंगी स्वप्न अनगिन
गर्माहट उम्मीदों की
हिय भर
और नमी प्यार की..
सीमांत के दोनो ओर
दहकेगा गुलमोहर
किसी रोज….

प्रेम

हमने उदासी को टांग दिया है
अलगनी पर
और निराशाओं को जोत दिया है
खेत में
वो उगेंगी सरसों के पीले फूल बनकर…।
तुम डालो धरती में
अपने काले इरादों से भरी अपवित्र साजिशें
हमारे पुरखों की तप्त सांसों के साथ
बही पसीने की बूंदें
उसे करती रहेंगी बार – बार उर्वर…।
तुम प्यार के पहरेदार बन
हल करो न्याय के गणित को
हमारी अस्तिक्ताओं से भरी चाहतें
चढ़ती रहेंगी वर्जनाओं के पहाड़
 निर्बाध – हर बार….

लौटना

जैसे ही’ मैं ‘
कुछ , कभी
अपनी कहने लगी
घर पर मेरे लौटने की प्रतीक्षा
कम होने लगी…।
घर की
तंद्रा में डूबी स्त्री की
प्रतीक्षा करता है घर
घर के रंध्रों में गसी
रहती है इस स्त्री की गंध.…।
तंद्रा से जागी
सजग स्त्री की
प्रतीक्षा ‘नहीं’
करता घर..
इस तरह
छोटी छोटी असहमतियों से
थरथरा उठते हैं
सहमतियों के दीर्घ पुल
जिन पर टिका होता
है
घर….

दुविधा

मेरी दुविधाएं
अबूझ पगडंडियां थीं
जिन्हे बूझने
जाना चाहती थी
उनके अंतिम सिरे तक.….
तुम इसे मेरा
खंडित आत्मविश्वास
समझ बैठे
हमेशा की तरह
तुम्हें जल्दी थी
मुझे मापने की….।

रात

रा…. त
आ तुझे ओढ़ कर चलूं
मैं उस बहुरूपिया
नींद के पास
और गुम हो जाऊं
अतलांतो में समुद्र के
नीली,गुलाबी ,रंगीन
पारदर्शी सतह के नीचे
वैसे,जैसे खो जाता है
अमावस में चांद
जैसे छुप जाती है
बदली में धूप…
 रा….त
तनिक ठहर तो
बिछ जाने दे
ओस की बूंदें
शब्दों को चुप तो हो जाने दे
बोलने दे
अंधेरे को अपने आप से…
रा…..त
सुन तो जरा
चांदनी के फूलों के उजाले को
एक कच्ची तुरपन तो लगा दे
नींद में, सपनों में
प्यार की…।
……………………….

किताबें

……………………….
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