Wednesday, September 10, 2025
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चित्रा देसाई
दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए.(राजनीति शास्त्र),एल.एल.बी.करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में वकालत।
मुंबई विश्वविद्यालय से आल्टरनेटिव डिस्प्युट रिजोल्यूशन। एस.एन.डी.टी.विश्वविद्यालय के लाॅ काॅलेज और अन्य कई विभागों में गेस्ट फैकल्टी से जुड़ी रही।
‘टाइम्स फाउंडेशन’और ‘महाराष्ट्र लीगल सर्विस अथॉरिटी’ के साथ लीगल लिटरेसी अभियान से जुड़ी।
अपने क्षेत्र में मैंग्रोव्स,झील संरक्षण और अन्य पर्यावरण मुद्दों में सक्रिय योगदान।
पूर्व सदस्य–
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार निर्णायक मंडल
केन्द्रीय फ़िल्म प्रमाण बोर्ड
राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय सलाहकार समिति
विदेश मंत्रालय हिन्दी सलाहकार समिति
दो कविता- संग्रह प्रकाशित
‘सरसो से अमलतास’ और ‘दरारों में उगी दूब’।
‘सरसों से अमलतास’ के लिए अनेक पुरस्कारों के साथ ‘महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार’।
साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य उत्सव तथा सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी।

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कविताएं

अलाव

कुम्हार के घर से
खेतों में जाती थी
चाक पर रखी मिट्टी
हाथों में लपेट
गोल गोल घुमाती थी।
हमेशा एक सवाल-
सुराही,मटके,दिये..
मिट्टी बनाती है या हाथ?
नानी की वही हँसी
और साफ जवाब-
‘ न मिट्टी न हाथ
आग बनाती है सब।
सिकती है मिट्टी
तभी तो बनती है
वरना तो टूट कर
मिट्टी में ही घुली रहती है
आग तपाती है
झुलसाती है
भट्टी में पड़े हर साँचे को
परिपक्व बनाती है।’
फिर मेरा सवाल-
पर आग तो सब मिटाती है।
उदंड हो-
घर-गाँव- खेत-शरीर
सब जला देती है।
नानी का फिर करारा जवाब-
‘ आग ही बनाती है सब
दिये में उतरती है
तो प्रार्थना बन जाती है
और देह में फैलती है
तो पूरी सृष्टि बन जाती है
अपने भीतर-
आग सहेज कर रखना
तो ही बनाती पाऔगी
वरना पूरी उम्र
मिट्टी ही रह जाऔगी।’
कुम्हार के घर से खेतों में जाती थी.

मणिकर्णिका

कितने जंगल जला दिये तुमने
लकड़ी के गठ्ठर बंधे पड़े है।
अनगिनत ढ़ेर है–
देह कम
पर पेड़ घने है!
शोर होता है यहाँ —
घंटियों का
कर्मकांड बने शब्दों का।
बेमन से उठते —
मंत्र उच्चारण का।
आँखों में तुम्हारी धुआँ भरा है।
कितने बच्चों की देह से
पसीना बहता है!
कैसे कह दूँ —-
कि यहाँ मोक्ष मिलता है!

चौपाल बोलती है

 मेरे गाँव की चौपाल बोलती है–
     बारात आई इस गाँव में 
     पगड़ी को पाँवों में रख
     कितनी बार मनाया 
     रूठे रिश्तों को।
     मिठाई की परातों से
     मोतीचूर के लड्डू चुराए,
     बन्ने की ख़बरें 
     उड़ती-उड़ती
     बन्नी के कानों तक पहुँची।
     बस की छत पर
     सन्दूकों में 
     कितनी फसलें क़ैद हो गई।
     लौटी जब बन्नी 
      ख़ाली-ख़ाली
      पंच सब जमा हो गये–
      पूरे गाँव का सलाह- मशवरा —
       कुछ और फ़सल
       सन्दूकों में बंद
       चौपाल से विदा हो गई।
       फिर लौटी बन्नी 
       भरी गोद
       भरे सपने
       पंचायत को आगाह कर
        इस बार नहीं विदाई 
        न खेतों की
        न फसलों की
        बिटिया है मेरी 
        भरपूर कमाई।
        उसने बोई
        सपनों की फ़सल
        जो खलिहानों फैल गयी
        चौपाल से उठी गूँज 
        गाँव- कस्बा 
        नगर – महानगर 
        हर गलियारे में फैल गई—
 
         बिब्बी की बेटी बड़ी हो गई
         आसमान में फैल गई

शतरंज

धीरे धीरे होता है सब
जैसे दीमक कुतरते है दिवार
सब रेत गारा ईंट को
ढाह देते हैं 
कठफोड़ा चोंच के वार से
खोखर बना देता है
जमे हुए दरख्त के फैले हुए तने!
बहुत सावधानी से
शब्द उतरते हैं 
सम्बन्धों की बिसात पर
अट्टहास लगा
कटु मुस्कान से
चलते हैं चाल!
 
धीरे धीरे होता है सब…..

मोम के पंख

 मैंने सुनी थी एक कथा-
जिस का नायक
मोम के पंख लगा उड़ा था।
और धूप से पिघल
रिस रिस कर बहा था।
यूँ तो जानती थी-
इस कहानी का सच
पर हो ही जाता है मोह
उड़ने की चाह से।
शुरुआत में- –
अंत कहाँ सोचा जाता है!

विरासत

 विरासत में मिलता है-
चूल्हा-चौका
बर्तन- साड़ियाँ
सोना-चाँदी
गले में झूलती ‘रामनवमी’,
कलाइयों पर कसे ‘दस्तबंद’,
और ढेर सी चूड़ियाँ।
पाँव की ऊंगलियों को
जकड़ते ‘बिछुए’,
बालों को लाल करता रंग
नाक छेदती ‘नथनी’,
संदूकों में बंद ‘दस्सयारी’।
कानों में फुसफुसाती सीख
हर हाल में-
रहने की हिदायत,
नुकीले शब्द सहने की कला।
पर माँ ने-
ऐसी विरासत से
मुझे बेदख़ल कर दिया था….

रियायती

 हमने नामंज़ूर किया
तुम्हारे साथ
तुम्हारी तरह बीतना
क्योंकि —-
हमें नागवार गुज़रा
‘ रियायती दर ‘ पर
ज़िन्दगी जीना।

उलटबाँसी - सी

 आँकड़े नहीं मालूम
कितनी बढ़ी
कितनी घटी
कितनी गुणा हुई
कितनी विभाजित।
मेरे बही – खाते
हिसाब – किताब
नफ़ा – नुकसान नहीं दिखाते
मेरा गणित भी अजीब रहा –
उल्टबाँसी – सा।
परिधि की लकीरें छोटी कर
जब सिमट गई
तब फैल गई….
आँकड़े नहीं मालूम।

चाह......

 जैसे उगती है धरती
     आदमी के भीतर 
     उगते हैं रिश्ते !
     कहीं महक उठे
     जैसे गुलाब जल छिड़का हो
      कहीं कैक्टस की बाड़
      छूती ही हाथ लहूलुहान 
 
मैं बिल्कुल निर्लिप्त होना चाहती  हूँ…

कचहरी

 रिश्ते जब चटकते हैं
तो फाइलों में मुँह छिपा
अदालत की दीवार थामें
सालों- साल सिसकते हैं।
कटघरे में खड़े होकर चीखते,
उँगलियों से नश्तर चुभोते हैं।
सदियों बाद–
जज की कलम से
फ़ैसलों में रिसते हैं।
कुछ रिश्ते–
सचमुच बड़े बदनसीब होते हैं।

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किताबें

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