Tuesday, May 14, 2024
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दोलन राय
 
 शिक्षा जनसंपर्क और पत्रकारिता मनोविज्ञान स्नातक 
 
 मूल निवास रायपुर अंबिकापुर स्थाई निवास औरंगाबाद महाराष्ट्र
 
 किताबों से बेहद लगाव ने कविता और कहानियों से जोड़ा
 
समय-समय पर कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और कई लेख छप चुके जिनमें कादंबरी , दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, हस्ताक्षर, साहित्यिक स्पंदन, दैनिक जागरण, भारत गौरव, लोकमत टाइम्स मुंबई 
 
आकाशवाणी मुंबई और महाराष्ट्र के कई आकाशवाणी केंद्रों में परिचर्चा संवाद और कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया जा चुका है 
 
लिखने का उद्देश्य समाज को विस्तृत फलक पर समझने और कवि कर्म के गहन दायित्व को पूरा करना है
 
सदा से यही प्रयास करती रही हूं कविता के विनम्र प्रस्ताव से तीव्र विरोध की स्थिति को मैं समझ सकूं और पूरी नम्रता से सभी की संवेदनाएं को सामने रख सकूं
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कविताएं

मोहक सौंदर्य नए-नए रूप में

मोहक सौंदर्य नए-नए रूप में
मैं भी तो उगता हूँ इसी धूप में
सौंदर्य बनकर
वेद में अभेद बनकर
दिव्य स्वरूप में
उसी पुरातन धूप में
रह ना जाऊं कहीं
उसी अंधकूप में
देश देशांतर भ्रमण कर पाऊंगा
इतना त्यागी हूं
निश्चय ही शुद्ध अनुराग कर पाऊंगा धर्म को भी स्मरण रहे
अश्रु धारा किस ओर बहे
जंगल पृथ्वी से कहे
थोड़ा बाहर हो गया
परम से मेरा नाता जोड़ कर
कौन रह पाया है मुझसे नाता तोड़ कर मैं जंगल हूं
रुका रहा युगांतर को अटल कर
यज्ञ कुंड को पटल कर
दिव्य रस अमृत मुझ में ही है
देव हूं मैं
जागृत सूर्य सा तेज है मुझ में
सूर्य चंद्र भी मेरे अभिलाषी हैं
खोज फिर खोज
मेरे अंदर गंगा और पूज्य काशी है जंगल हूं मैं……..
भटक गई हैं, स्त्रियां

रसोई से उड़कर

रसोई से उड़कर 
              पोस्टर में अटकी 
धरती और आसमान के, 
                      बीच लटकी  
    भटक गई है स्त्रियाँ 
मापदंडों को खटकी 
            परंपरा से चटकी 
 
सवाल करने लगी 
          जवाब ढूंढने लगी
समझने लगी, समझाने भी लगी
कौन कर रहा है? 
                      उनके साथ ठगी
भटकी गई है, स्त्रियाँ 
 
अपने घर में 
             अपने ही स्वर में 
अपने शहर में 
             भरी दोपहर में  
देखो तो भला !
क्या-क्या बातें करने लगी ?
आत्मिक सुख संतुष्टि और त्याग नेपथ्य में छिपा हुआ
             तिरस्कार और परित्याग
 
मन में लेकर आग 
शारीरिक सुख 
अपनी जरूरतों की बात करने लगी
भटक गई है, स्त्रियां
स्वाभिमान, अभिमान के साथ 
               जीना चाहती है
क्या होना चाहती है अनाथ ?
      नहीं चाहती अब किसी का साथ
 
सोचती है……….
सजग हो चली है 
अपने धन अपने मन को लेकर
          क्या होगा, सब कुछ देकर?
 
संवाद में केवल विवाद है 
प्रेम पर्याप्त नहीं 
संपूर्णता को भी सब कुछ प्राप्त नहीं
 
फिर भी माँ  बनना चाहती है
प्रेम करना और प्रेम पाना चाहती है
 
अभी भी उतना नहीं भटकी, जितना तुम भटके हो………..
 
ना जाने कैसे?
 बहुत दूर तक भटक कर
                   लौट आती है 
भटकी हुई, स्त्रियां……
 लिंग बोध से परे 
   बलात्कार नहीं करता 
हत्याएँ नहीं करता 
प्रेम में कभी असफल नहीं होता सफल जंगल…….. 
 
 
विकट सच
 निकट झूठ 
शोक प्रस्ताव 
अभाव ही अभाव 
आकलन से कैसा लगाओ 
जंगल शान  से कहता है
जंगल में किसी के उंगलियों पर चुनाव चिन्ह नहीं है 
अरे साहब !!!
अपना रास्ता बदल लो 
यहां लड़ाई नहीं होते 
हम अपनों को कभी नहीं खोते 
 
हमारी हड्डी से कुर्सी तक्ता सत्ता 
तुम्हारे कुदाल तुम्हारे कुल्हाड़ी 
सब के पीछे हम हैं 
हम कचहरी से नहीं डरते 
हम लाचारी से नहीं डरते 
हम डरते हैं अक्षरों की चालाकी से 
हम जंगल हैं जंगल के रहते हैं 
अपनी बात बड़ी सरलता से कहते हैं

नीम

आंगन के एक कोने में गाढ़ी गाढ़ी हरी-भरी नीम थोड़े से पानी में… 
 
घनी घनी भरी-भरी सी नीम
इतने कड़वे पन में मीठी निंबोली
टप टपआ रही है
ठहरी -ठहरी सी नीम
क्या हुआ जो इतनी कड़वी है
कम से कम सच तो बोल रही है नीम
बोल रही है कड़वी हूं माधुर्य विहीन
औषधि हूं योगिनी हूं
तुम मुझे ना स्वीकार करो तो क्या
मैं नीम नंदिनी
हरि कामिनी
नाश करती है, समस्त कीटाणुओं को
फिर भी अभिमान नहीं
क्या कड़वे पन का ,इतना भी सम्मान नहीं
क्या नीम के गुणों का तुमको तनिक भी भान नहीं

लेबल

हमें सब कुछ लेबल लगा हुआ चाहिए मोहर लगा हुआ चाहिए
 ब्रांडेड चाहिए
 
सिर्फ जमीन नहीं
 जमीन अपने नाम से रजिस्ट्री चाहिए
सिर्फ रिश्ता नहीं
रिश्ते का नाम चाहिए
सत्य  नहीं
सत्य का भी प्रमाण चाहिए
एक एहसास, कुछ प्रयास
क्या काफी नहीं जीने के लिए
 
पर हम जीते हैं जिनके सहारे
हवा, पानी, प्रकृति…. 
जिनसे हमारी रिश्तेदारी नहीं
हमारे नाम की रजिस्ट्री नहीं
पर प्रकृति के साथ बहुत सुंदर केमिस्ट्री है
प्रकृति अपनी है
बहुत लंबी हिस्ट्री है…….
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किताबें

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