Thursday, November 14, 2024

डॉ. गीता पुष्प शॉ

जन्म:- 26 अक्टूबर 1943 जबलपुर (मध्य प्रदेश)

माता:- पद्मा पटरथ (हिंदी लेखिका पूर्व नाम पद्मा बनर्जी)

पिता:-  माधवन अडियोडी पटरथ (केरलीय) इंजीनियर

संतान:- 2 पुत्र- 1. संजय ओनील शॉ (वैज्ञानिक)

  1. सुमित ऑज़मंड शॉ (फिल्म मेकर)

शिक्षा:- मैट्रिक- सेंट जोसेफ़ कॉन्वेंट, इटारसी, बी.एस.सी.- होम साइंस, जबलपुर यूनिवर्सिटी, एम.एस.सी.- होम साइंस, फूड एंड न्यूट्रिशन, मद्रास यूनिवर्सिटी, पी.एच.डी.- पटना यूनिवर्सिटी. मैट्रिक से एम.एस.सी. तक प्रथम श्रेणी. यूनिवर्सिटी टॉपर, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (ICAR) द्वारा ऑल इंडिया स्कॉलरशिप प्राप्त.

भाषा-ज्ञान:- हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती आदि.

वृत्ति:- 1964 से 1965 गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर स्नातकोत्तर विभाग में अध्यापन.

प्रसिद्ध लेखक रॉबिन शॉ पुष्प के साथ विवाह के बाद पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में सन् 1966 से अध्यापन.

प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा स्नातकोत्तर गृह विज्ञान विभाग, पटना यूनिवर्सिटी के पद से सन् 2003 में अवकाश प्राप्त.

12 छात्राओं को पी.एच.डी. में शोध-निर्देशन.

अनेक विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों की सदस्या.

लेखन विधा:- लेख, रिपोर्ताज, बाल-कहानियां, बाल-उपन्यास, संस्मरण, हास्य नाटिकाएं विशेषकर हास्य-व्यंग्य रचनाएं.

धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, माधुरी, कादम्बिनी, मनोरमा, मधुरिमा, शिक, वनिता भारती, बालक, पराग, नंदन, मेला, दैनिक जागरण, आज आदि देश की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.

आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद, बी.बी.सी. से इंटरव्यू वार्ता एवं रचनाओं का प्रसारण. 

आकाशवाणी विविध भारती के ‘हवामहल’ से अनेकों स्वरचित हास्य नाटिकाएं प्रसारित.

दूरदर्शन पटना एवं आकाशवाणी पटना से वार्ता इंटरव्यू एवं व्यंग्य रचनाओं का प्रसारण.

विशेष:-

  • लगातार 5 वर्षों तक दैनिक ‘हिंदुस्तान’ अखबार में हास्य-व्यंग्य का लोकप्रिय कॉलम ‘चटपटी’ प्रकाशित.
  • ’प्रभात खबर’ रांची से हास्य व्यंग का कॉलम ‘और उनकी भी’ शीर्षक से हर हफ्ते प्रकाशित.
  • ‘पराग’ बाल पत्रिका में प्रकाशित कहानी ‘झूलन मामा’ महाराष्ट्र सरकार की कक्षा चौथी की पाठ्यपुस्तक ‘बालभारती’ में संकलित.
  • मैट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर की गृह-विज्ञान विषयक 8 पुस्तकें प्रकाशित.
  • मैट्रिक के लिए हिंदी में लिखी पाठ्य पुस्तक ‘गृह-विज्ञान’ उर्दू, बांग्ला, उड़िया और मैथिली समेत चार भाषाओं में अनूदित

हास्य-व्यंग की प्रकाशित पुस्तकें 

  1. पति का मुरब्बा: 1999 सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली 
  2. चटपटी: 2007, अमित प्रकाशन, गाज़ियाबाद 
  3.  हे खाऊ खाए जाओ खाए जाओ: 2008, समन्वय प्रकाशन,  गाज़ियाबाद
  4. चाट मसाला : 2009, समन्वय प्रकाशन,  गाज़ियाबाद
  5. टेंशन जाएगा टेंशन लेने: 2009, समन्वय प्रकाशन,  गाज़ियाबाद
  6. लिंक फेल है: 2015, समन्वय प्रकाशन,  गाज़ियाबाद

बाल-उपन्यास प्रकाशित

  1. छोटे छोटे जादूगर (पुरस्कृत) 1978 वैज्ञानिक बाल-उपन्यास पहले धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशित फिर पुस्तक रूप में मिश्रा ब्रदर्स, अजमेर से प्रकाशित.
  2. वीनू और 21वीं सदी का भारत.1985. पहले ‘बालक’ में धारावाहिक प्रकाशित फिर पुस्तक रूप में निशा प्रकाशन से प्रकाशित.
  3. आंगन-आंगन फूल खिले. 1981. मिश्रा ब्रदर्स, अजमेर से प्रकाशित.

संपादन

  1. रॉबिन शॉ पुष्प रचनावली (छह खंडों में) 2014 अमित प्रकाशन, गाज़ियाबाद से प्रकाशित.

सम्मान एवं पुरस्कार

  1. बिहार सरकार, राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत. 1982
  2. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा साहित्य साधना सम्मान एवं पुरस्कार. 2003
  3. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य के लिए शताब्दी सम्मान. 2019
  4. साहित्य के लिए श्री काशी नाथ पांडेय शिखर सम्मान से सम्मानित. 2019
  5. पटना विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षक दिवस पर दो बार सम्मानित. 

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कहानी

फणीश्वर नाथ रेणु:- कुछ बेतरतीब यादें

हम नए-नए पटना आए थे. नई गृहस्थी थी हमारी. सब्ज़ीबाग की बाटा वाली गली का आखिरी मकान था हमारा ‘रवींद्रांगन.’ मेरे पति ‘रॉबिन शॉ पुष्प’ का असली नाम ‘रवीन्द्रनाथ’ था जो उनके परिवार के चंद लोगों की अंग्रेज़ियत के कारण रॉबिन बन गया था. अपने असली नाम पर यह नाम रखा था उन्होंने ‘रवींद्रांगन’. गली पार करो तो अशोक राजपथ. सड़क के उस पार गंगा जी का किनारा. मेरा मगध महिला कॉलेज भी गंगा किनारे गांधी मैदान के पास ही था जहां मैं पढ़ा रही थी. धीरे-धीरे पटना के लोगों से परिचय हुआ. पति के साहित्यकार होने के कारण हमारे घर लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों आदि का आना जाना लगा रहता. फणीश्वर नाथ रेणु और उनकी पत्नी लतिका दी से हमारे घनिष्ठ संबंध थे. लतिका दी बंगाली थीं. वे रेणु जी के पीछे की वह सशक्त महिला थीं जिनकी सेवा और सहयोग से रेणु महान साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु बन पाए. लतिका दी किसी बंग-बाला की तरह तीखे नैन-नक्श वाली, विपुल केश-राशि वाली अनिंद्य सुंदरी नहीं थीं जिन पर रेणु जी रीझ गए हों. वे एक अत्यंत साधारण नाक-नक्श वाली सीधी-सादी महिला थीं. एक बार मैं अपने पति रॉबिन शॉ पुष्प के साथ ट्रेन से आरा से पटना आ रही थी. आरा स्टेशन पर ट्रेन चलने ही वाली थी कि एक साधारण-सी, सूती तांत की साड़ी पहने, झोला लटकाए महिला दौड़ती हुई चढ़ी और हमारे पास आकर बैठ गई. कुछ देर बाद उसने ट्रेन में मूंगफलियाँ खरीदी और हमें भी खाने को दी. पटना स्टेशन आया. हम उतरकर जाने लगे तो मैंने परिचय कराते हुए कहा- “यह मेरे पति रॉबिन शॉ पुष्प लेखक हैं.” वह महिला हंस कर बोली- “मेरा आदमी भी कहानी लिखता है.” और बाय-बाय करके चल पड़ी.बाद में एक दिन रेणुजी के घर पर जाने पर इसी महिला ने दरवाजा खोला तो पता चला कि वही रेणु जी की पत्नी लतिका रेणु हैं. 

रेणुजी से पुष्प जी का परिचय पटना रेडियो स्टेशन में हुआ था. मैं उनसे कभी नहीं मिली थी. एक दिन अचानक रेणु जी हमारे घर आ गए. पुष्प जी से बोले- “आप तो कॉफी हाउस आते नहीं, लो मैं ही आ गया.” रेणु जी के बारे में फ़ेमस था कि वह शाम को बढ़िया सिल्क का कुर्ता-पायजामा पहनकर अपने घुंघराले बालों को संवार कर पटना के डाकबंगला स्थित ‘कॉफी हाउस’ में एक निश्चित टेबल पर बैठा करते थे. वही उनका अड्डा था. वहीं और भी युवा लेखक, पत्रकार, साहित्यकार जुट जाते और उनका मजमा लग जाता. बीच में हीरो रेणुजी ही होते थे. लतिका रेणु ने बताया था कि रेणु जी बहुत खर्चीले थे. कभी पैदल नहीं चलते. हमेशा रिक्शे पर सवार. देह पर ज़रा भी धूप नहीं लगने देते. रोज़ धोबी के धुले कपड़े पहनते बाहर जाने के लिए. बाद में घर में खादी की धोती पहनने लगे जो हमसे धोई ही नहीं जाती. फिर पायजामा पहनने लगे. रेणु जी ने सूट बहुत कम पहना. लतिका दी ने बताया कि जब ऑल इंडिया रेडियो, पटना में उनकी नौकरी लगी थी तब ‘गैबरडीन’ का सूट सिलवाया था. इसी तरह एक बार पत्रकार जयशंकर पटना के ‘न्यू पिंटू’ के पास रेणु जी को अचानक सूट-बूट-टाई में रिक्शे से उतरता देख कर चौंक गए थे. तब रेणु जी ने हंसकर कहा था- “मालूम नहीं, आज क्रिसमस की रात है, आज बिल्कुल अंग्रेज़ी लिबास में जा रहा हूं पुष्प के घर.” यह सब जयशंकर ने अपने लेख में लिखा था जो ‘हंस’ में ‘अतीत के स्मृति बिंब में रेणु’ शीर्षक से छपा था. 

खाने में रेणु जी को हिलसा मछली बहुत पसंद थी. लतिका दी ने बताया था. हिलसा का स्वभाव है धार के विरुद्ध चलना. रेणु जी का भी यही स्वभाव था. हिलसा और रेणु में बहुत समानता थी. रेणु जी को खाने में अरवा चावल और जीरा से छौंकी राहर की दाल बहुत पसंद थी. खिचड़ी खाना पसंद करते थे पर बार-बार खिचड़ी में पानी डालने पर गुस्सा हो जाते थे. रोज़ मुर्गा, चिड़िया का मांस या मछली खाना पसंद करते थे. कद्दू, कोहड़ा, तोरई बिल्कुल नहीं खाते थे. साग चबाकर थूक देते थे. सबसे ज़्यादा पसंद था परवल. जब तक इसका सीज़न रहता परवल ही खाते रहते थे. एक बाद दिल्ली गए ओम प्रकाश जी के यहां तो बोले- “हम टिंडा-विंडा नहीं खाते, खिलाना है तो परवल खिलाओ.” दिल्ली में तब परवल कोई नहीं जानता था. एक जगह मिला भी तो बहुत महंगा. रसोईया परेशान था. वो कहता- “पटना से ना जाने कौन से बाबू आए हैं, परवल छोड़कर कुछ नहीं खाते.”

रेणु जी और पुष्प जी की घनिष्ठता ‘मकईबारी चाय’ के कारण बनी यह चाय तब बहुत महंगी थी और पटना में बहुत ढूंढने पर मिलती थी. रेणु जी की पसंद भी यही चाय थी. हमारे घर आकर वे इसी चाय की फ़रमाइश करते. हमने इसका नाम ‘रेणु लीफ’ रख दिया था. दोनों साथ चाय पीते और हंस कर कहते- “चाय पिओ, बहुत दिन जिओ.” पुष्प जी ने यह स्लोगन साहबपुर कमाल स्टेशन पर कभी लिखा देखा था. दोनों जब बैठते तो साहित्यिक कम फिल्मी बातें ज़्यादा करते. रेणु जी की फिल्म ‘तीसरी क़सम’ बन चुकी थी और पुष्प जी को भी फिल्मी शौक लगा था. पुष्प जी ने बिहार की पहली लघु फिल्म ‘पाबंदी’ बनाई थी. बाद में ‘आत्महत्या’, ‘माटी की पुकार’, ‘डाक बाबू’ आदि कई लघु फिल्मों से जुड़े. पुष्प जी के लिखे गीत (‘चित्रगुप्त’, ‘श्याम सागर’, ‘मानस मुखर्जी’ के संगीत निर्देशन में) ‘आशा भोसले’, ‘उषा मंगेशकर’, ‘महेंद्र कपूर’ के स्वरों में रिकॉर्ड किए गए. वह अलग किस्सा है. फिल्म ‘तीसरी क़सम’ के अंत को लेकर काफी उठा-पटक हुई थी. बाद में फ़िल्म का अंत शैलेंद्र जी और रेणु जी की मर्ज़ी से ही फिल्माया गया था. इस किस्से को रेणु जी बहुत रोचक ढंग से सुनाते थे. 

एक बार पुष्प जी ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ के लिए हमारे घर में रेणु जी का इंटरव्यू रिकॉर्ड कर रहे थे तब रेणु जी ने बताया कि साहित्य को सिनेमा वाले निकट लाते-लाते कैसे उसकी दुर्दशा कर देते हैं कभी-कभी. वे बोले- “चलिए, अज्ञेय के ‘शेखर’ को ही लीजिए, फिल्म वालों ने ‘शेखर’ को चुना. इसे इमानदारी से पर्दे पर उतारने के लिए लेखक का सहयोग भी आवश्यक है. लेखक, निर्देशक, पटकथा-लेखक, संगीतकार सभी मौजूद हैं. बात ऐसे शुरू होती है- हाँ यार, वह ‘शेखर’ की लड़की ठीक हो गई. छोकरी चालू है कि नहीं. ठीक है देखने में पीछे से. लेखक चुप रहेंगे. ठीक है भाई, फिल्म बन रही है, लड़की है तो ऐसी बातें होंगी ही, फिर ‘शेखर’ के लेखक से ही पूछा जाता है- क्यों साहब, आपने लड़की देख ली आगे-पीछे ठीक है ना. वह कमर-वमर ठीक है ना. आपके मन से ठीक है ना. लेखक कहेंगे- हाँ ठीक है. अब उसके बाद डायलॉग आया. अब वह जो ‘शेखर साहब’ हैं वह एक शब्द ‘आश्चर्यजनक’ नहीं बोल सकते. वह कहेंगे- यह शब्द अपुन से नहीं चलने का. फ़िल्म वाले कहेंगे तो बदल डालो जी और यह इतने बड़े-बड़े डायलॉग हैं इन्हें भी काटो. इसके बाद वह हीरो जो ‘शेखर’ का पार्ट करने आया है लेखक को समझाना शुरू करेगा कि कैसे डायलॉग लिखा जाता है. वह आत्मा मर्म सब पहचानने लगेगा. मेरा ख़्याल है यह हद हो जाएगी. यहाँ तक लेखक नहीं सह सकेंगे और वापस चले जाएंगे. यह तो हुआ एक पहलू. दूसरा पहलू यह हो सकता है कि लेखक सोचेगा हमारी जो कहानी है इसमें फलां कुमार काम कर रहे हैं, म्यूज़िक डायरेक्टर फलां बैठा हुआ है तो ऐसी की तैसी हिंदी साहित्य की और भाषा की. हमें क्या करना है. यह जो कहता है ठीक कहता है. आखिर हिंदी साहित्य ने क्या हमको खाने को दिया है. अरे तीन जन्मों में यह किताब रिप्रिंट होती, तब भी इतना पैसा नहीं मिलता जितना ये लोग दे रहे हैं इस तरह कंप्रोमाइज वाली लड़ाई अभी ज़ारी है.” 

एक बार मैंने रेणु जी से पूछा कि आप लिखते कब हैं, कैसे लिखते हैं? उन्होंने कहा कि मैं ज़्यादातर रात में लिखता हूं बिस्तर पर लेट कर. पेट के नीचे तकिया दबाकर. एक मज़ेदार बात- जब कभी रात भर लिखता रहता हूँ जब तक मन की भड़ास नहीं निकल जाती. तो सुबह देर तक सोता हूँ. मोहल्ले वाले कहते हैं- पियक्कड़ है, रात में पी ली होगी, इतना दिन चढ़ गया. अभी तक सो रहा है. जिस रात सच में पी लेता हूँ मुझसे लिखना-पढ़ना नहीं होता. सुबह तड़के उठकर घूमने निकल जाता हूँ तो मोहल्ले वाले कहते हैं- देखो-देखो आदमी सुधर रहा है. लगता है पीना छोड़ दिया. देखो कैसे सुबह-सुबह टहलने निकला है. वे मुस्कुराते हैं. मैं मन ही मन कुढ़ता हूँ. 

एक दिन अचानक रेणु जी हमारे घर पहुंचे. आते ही बोले- “एक कविता लिखी है बच्चों के लिए पुष्प जी. इन कवियों के बड़े मज़े हैं. कहीं भी बैठकर अपनी छोटी सी कविता सुनाकर वाहवाही लूट लेते हैं और फ़ेमस हो जाते हैं. हम कहानीकार यहीं पिछड़़ जाते हैं. इतनी बड़ी कहानी कौन सुनने को तैयार होगा भला. लतिका कह रही थी मुझसे कि आप कैसे लेखक हैं. आपको तो मेरे स्कूल के बच्चे जानते तक नहीं. पुष्प जी, इसीलिए मैंने बच्चों के लिए एक कविता लिखी है. सबसे पहले आप लोगों को सुनाने आया हूँ. इसे कहीं छपवा दीजिए.” और एक बच्चे की तरह रेणुजी शुरू हो गए. उन्हें रोककर पुष्प जी ने टेप रिकॉर्डर निकाला फिर रेणु जी की आवाज़ में उनकी कविता रिकॉर्ड की. बाद में यह कविता ‘मेरा मीत सनीचर’ बच्चों की पत्रिका ‘नंदन’ में छपी थी. 

लतिका दी से रेणुजी की मुलाकात पटना के मेडिकल कॉलेज जो पी.एम.सी.एच. के नाम से मशहूर है, यहीं हुई थी. सन् 1944 में जहां वे एक क्रांतिकारी कैदी के रूप में भर्ती हुए थे, वे गंभीर रूप से बीमार थे. लतिका दी यहां नर्स थीं. यहीं लतिका दी की सेवा के कारण रेणुजी उनके प्रति आकर्षित हुए थे. रोज़ बेसब्री से उनका इंतज़ार करते. नर्सों से संदेशा भिजवाते. जमादार से चिट्ठी भेजकर जवाब लाने को कहते. पहले तो लतिका दी झिड़क देती थीं पर वे इतना पीछे पड़े कि उन्हें झुकना पड़ा.

एक बार रेणुजी अच्छे होकर गांव चले गए पर दूसरी बार बहुत बीमार होकर पी.एम.सी.एच. में भर्ती हुए. इस बार उनके मुंह से खून की उल्टियां हो रही थीं. तब लतिका दी सब्ज़ीबाग के ‘चाइल्ड वेलफेयर सेंटर’ की इंचार्ज थीं. उन्हें अस्पताल में बुलवाया गया. बहन के मना करने पर भी वे चली गईं. और फिर रेणुजी की सेवा में लग गईं. इस बार अच्छे होने के बाद रेणुजी ने ज़िद पकड़ ली फिर अंत में लतिका दी से शादी करके ही माने. 

लतिका दी सही मायने में ‘सावित्री’ थीं जो ‘राजरोग’ से पीड़ित रेणु जी को यमराज से छीन कर लाने में सफल हुई थीं. टूटे बिखरे शीशे की तरह बटोरकर उन्होंने रेणुजी को नई ज़िन्दगी दी थी. शादी के बाद ही सब्ज़ीबाग़ के ‘चाइल्ड वेलफेयर सेंटर’ में जहां लतिका दी का क्वार्टर था, रेणुजी ने अपना उपन्यास ‘मैला आंचल’ लिखा जिसने उन्हें ख्याति के शिखर पर पहुंचाया. लतिका दी त्याग की मूर्ति थीं. रेणुजी के मना करने पर उन्होंने नर्सिंग की नौकरी छोड़ दी और पढ़ाई करके स्कूल शिक्षिका बनीं. आरम्भ के दिनों में वे पटना-आरा डेली पैसेंजरी करके पढ़ाने जाती थीं. बाद में उनकी नियुक्ति पटना के स्कूल में हुई. उन्होंने बहुत कष्ट सहे. हमेशा उन्हें पैदल चलते देखा है. झोला लेकर रेणु जी की पसंद की मांस-मछली खरीदने मछुआ टोली खुद जाती थीं. वह तो शादी के बाद उन्हें पता चला कि रेणुजी पहले से शादीशुदा हैं और उनके बच्चे भी हैं. इसी वज़ह से लतिकादी को अपनी ममता का गला घोंट कर सूनी गोद का दर्द सहना पड़ा. शंकर के गरल की तरह उन्होंने सारे दुखों को आत्मसात करके हर कदम पर रेणु जी का साथ दिया. 

लतिका दी पशु-पक्षियों में अपनी ममता लुटाती रहीं. उन्होंने एक कुत्ता भी पाला था. एक असमिया तोता पाला था जिसका नाम ‘रुपु’ था. एक दिन ‘रुपु’ मरा तो वे खूब रोईं. तब रेणुजी ने कहा कि क्यों रोती हो? यह तो फिर भी तोता है. एक दिन आदमी भी इसी तरह चला जाता है. और सच में एक बार रेणुजी बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए. इस बार उन्हें कोई नहीं बचा सका. लतिका दी भी नहीं. पुष्प जी ने दुखी होकर कहा था- ‘उड़ गया सोने की क़लमवाला हीरामन.’ रेणु जी के गुज़र जाने के बाद एक दिन मैं लतिका दी के यहां गई थी. इस बार वे फ्लैट में निपट अकेली थीं. उन्होंने चार बिल्लियां पाल रखी थीं. विधवा होने के कारण खुद तो उन्होंने मांस-मछली खाना छोड़ दिया था पर इन बिल्लियों के लिए मछली खरीद कर लाई थीं. चारों बिल्लियां अनुशासनबद्ध उस छोटे से चूल्हे से कुछ दूर कतार में बैठी भात की हंडिया पर नजरें टिकाए बैठी थीं जिसमें लतिका दी उनके लिए मछली डालकर पका रही थीं. लतिका दी ने अकेले जीना सीख लिया था. एक बार फिर मुझे वे एक सशक्त महिला के रूप में दिखीं. रेणुजी के जीवन में लातिका दी वरदान की तरह आई थीं. उनकी सेवा समर्पण से ही वे स्वतंत्र लेखन करके साहित्य जगत में नाम कमा सके. कहते हैं- जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं. ऐसी ही जोड़ी थी लतिका रेणु और साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की.

 

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कहानी

हे खाऊ ! खाए जाओ…खाए जाओ

कौन कहता है, हम तो बस जीने के लिए खाते हैं। हमारा कहना है खाने के लिए जिओ नहीं तो जिओ किसलिए? मानस जनम बिरथा गंवायो जिसने नहीं खायो । खाओ, खाओ खूब खाओ। टी.वी. भी चिल्लाकर कहता है-खाये जाओ, खाये जाओ, यूनाइटेड (पार्टी) के गुण गाये जाओ। पार्टियां होती ही हैं खाने के लिए, ये सब जानते हैं। बड़े भोले हैं आप अगर यह नहीं जानते। कई लोग जो खाने के शौकीन होते हैं, वे –पार्टियोंके भी शौकीन होते हैं। जब-जब मौका मिलता है, पार्टी में खाने जा धमकते हैं। एक पार्टी में खाते हैं, फिर दूसरी पार्टी में जाकर खाते हैं। फिर तीसरी पार्टी में शामिल होते हैं। खाने के लिए पार्टियां बदलते रहते हैं। लक्ष्य एक ही होता है-खाना। उनकी पाचन शक्ति स्ट्रांग होती है। जो कमजोर होते हैं उनकी पाचन शक्ति भी कमजोर होती है और वे एक ही पार्टी में रहकर घिसा-पिटा एक ही स्वाद का खाना, मन मारकर खाते रहते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो पार्टी में तो जाते हैं, पर वर्कर बना दिए जाते हैं। उनका ध्यान बस काम में लगा रहता है। वे खाने की ओर ध्यान हीं नहीं देते हैं। दूसरों को खाते देखते-देखते उनका मन भर जाता है। बाद में पछताते हैं। कहते हैं- मैया मोरी, मैं नहीं माखन खायो।पर अब पछताये होत का?

खाने में बड़े गुण हैं। पोषण शास्त्र में खाने की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-भोजन उसे कहते हैं जिसे हम खाते हैं, पचाते हैं और जो पचने के बाद हमारे रक्त में मिल जाता है। यही रक्त में मिला हुआ पोषक तत्व सांस द्वारा ली गई ऑक्सीजन से मिलकर ज्वलन क्रिया करके ऊर्जा या शक्ति उत्पन्न करता है।बड़ी सिम्पल सी बात है। सभी चीजें खाने की नहीं होतीं। जिन्हें आप पचा सकते हैं, उसे ही खाना चाहिए। एक का आहार, दूसरे का आहार नहीं हो सकता। जैसे गाय घास पचा सकती है, इसलिए उसे खाती है। मनुष्य घास पचा नहीं सकता इसलिए नहीं खाता है। परन्तु ऐसा भी सुना गया है कि कुछ लोग मिलकर पशुओं का चारा खा गये। वे उसे पचा नहीं सके और बहुत हो-हल्ला हुआ। उन्होंने कहा कि चारा नहीं खाया है। सत्यता को जांचने के लिए विशेषज्ञों की जांच समितियां गठित की गईं। परन्तु विशेषज्ञों का एक दल उसे प्रमाणित करता है तो दूसरा दल नकार देता है। वर्षों हो गए। शोध अभी तक चालू है। शोधकर्ताओं के एक दल ने कहा कि उसमें कुछ न कुछ सत्यता हो सकती है, क्योंकि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्यों की ऐसी नस्लें भी पाई जाती हैं जो ईंट, सीमेंट, बालू यहां तक कि कागज के नोट भी पचाने की क्षमता रखती हैं। देश खाने वाले भी होते हैं। यस, उनमें जादू होता है। आपने मेले में जादूगर को देखा होगा। वह ट्यूब लाइट खा लेता है। लोहे की कीलें खा लेता है। आप आश्चर्य से देखते रह जाते हैं। अरे! यह ऐसा कर सकता है तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

आप ऐसा कुछ कर के देखें तो सावधानी बरतें क्योंकि खाने के संबंध में कहा गया हे कि खाना हमेशा संतुलित होना चाहिए। बिहारी भाषा में, कहीं हदियाके खा लिया तो उल्टी भी हो सकती है। सब कुछ बाहर आ जाएगा। सबको पता चल जाता है कि क्या खाया था। खाना, थोड़ा-थोड़ा कुछ समय के अंतराल से खाना चाहिए। डाक्टर भी यही कहते हैं।

खानेवाले दूर से ही पहचाने जाते हैं। वे हृष्ट-पुष्ट होते हैं। उनकी तोंद निकली हुई होती है। तोंद वह उपकरण जिसमें सब कुछ समा जाता है और छिपा भी रहता है। आप उसे देखकर दूर से ही कह सकते हैं-खाता-पीता आदमी है। ग़जब का खाता है। वह पास आता है। आपके दोनों हाथ अपने आप नमस्कार की मुद्रा में जुड़ जाते हैं। उसके भी जुड़ जाते हैं। फिर वह आशीर्वाद देता है-जिओ, बहुत दिन जिओ।उसका मतलब साफ होता है ज्यादा दिन जिओगे तभी तो ज्यादा खा सकोगे। इसलिए जिओ और जीने दो। खाओ और खाने दो।

कुछ लोग मूर्ख होते हैं। मांगें पूरी नहीं होने पर खाना छोड़ देते हैं।अनशन पर बैठ जाते हैं। कई-कई दिन हो जाते हैं, अनशन खत्म ही नहीं करते। तब खाने वाले लोगों को चिंता हो जाती है। अरे हम खाएंगे और तुम नहीं खाओ, ऐसा कैसे हो सकता है? हमें असुविधा हो रही है। तुम नहीं खाकर वाहवाही लूट रहे हो। अखबारों की सुर्खियां बन रहे हो । सफेद झकाझक कुरते पर गेंदे की पीली फूलमालाएं पहनकर सुशोभित हो रहे हो। अपनी सुंदर छवि बना रहे हो। ऐसा नहीं चलेगा। हम तुम्हारा अनशन तुड़वाकर रहेंगे। और वे उनका अनशन तुड़वाने पहुंच जाते हैं। फ्रूट जूस लेकर। लो, थोड़ा-सा लो । तभी तो हम खा सकेंगे। और अंत में, वे उनका अनशन तुड़वाकर ठंडी सांसें लेते हैं, इत्मीनान की। चलो, अब रास्ता साफ है। अब वे भी खाते रहेंगे। हम भी खाते रहेंगे। पहले हम जमीन पर बैठकर खाते थे। अब कुर्सी पर बैठकर खाते हैं। कुर्सी जितनी बड़ी होती है, खाने में उतनी ज्यादा सुविधा होती है। बुजुर्ग विशेषज्ञों ने कहा है-पौष्टिक भोजन, जीवन का आधार है। इसलिए स्वयं खाओ, परिवार वालों को भी खाने के अवसर दो। यही स्वस्थ रहने का रहस्य है। तुम्हारा परिवार भी खाकर स्वस्थ रहेगा तो देश भी स्वस्थ रहेगा।

सावधानी

हे खाऊ! खाए जाओ, खाए जाओ। जितना पचा सको, खाए जाओ। बस हदियाके मत खाना। अनपच हो जाने से उल्टियां भी हो सकती हैं, ‘सरकारी ससुराल’ जाकर खिचड़ी खाने की भी नौबत आ सकती है।

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कहानी

मंगलवाला ताबीज़

भगवान ने समाचार पत्र देखा। हेड लाईंसः देवताओं का यान लूट लिया गया। भारी मार-काट सारा समाचार पत्र सनसनीखेज खबरों से भरा पड़ा था। कहीं आत्माओं द्वारा घेराव, कहीं हाईजैक करके किसी देवता को घंटों परेशान किया गया। कहीं धरना, कहीं जुलूस । सर्वत्र अशांति। भगवान ने चिंतित होकर अपने पी.ए. को बुलाया।

 

पी.ए. चित्रगुप्त महोदय हाल में ही लंबे टूर से लौटे थे। इस समय उनके पास कोई खास काम नहीं था। स्लैक सीज़न। सोच रहे थे कि अगर किसी टूर का प्रोग्राम बना लिया जाए तो घूमने के साथ-साथ अच्छा खासा टी.ए. भी बन जाएगा। पी.ए. के लिए टी.ए. जरूरी है। लेटे-लेटे ही कार्यक्रम बना रहे थे कि आज देर से उठेंगे, ब्रेकफास्ट के बाद किसी नृत्य-समारोह का मॉर्निंग शो देखेंगे। फिर अप्सरा रेस्तरां में लंच तभी भगवान का कॉल आ गया। बहुत झल्लाए। ये भी कोई सर्विस है। संडे को भी आराम नहीं। यहां मरने की भी फैसिलिटी नहीं है। पेंशन का सवाल ही नहीं उठता। कभी बूढ़े हों तब न। इससे तो बेहतर पृथ्वी की नौकरी है। अगर मालिक से नहीं बना, तो हड़ताल या घेराव। वहां तो मालिक को ही सीधा कर दिया जाता है। और यहां? खरबों जन्मों का हिसाब-किताब आज तक किया । कोई गड़बड़ी नहीं, कोई घोटाला नहीं, पर न कभी बोनस मिला, न महंगाई भत्ता । जी तो करता है, भगवान से साफ-साफ कह दूं कि पृथ्वी से कम्प्यूटर मंगवा लें। मुझसे अब ये हिसाब-किताब नहीं होगा।

भगवान अत्यधिक चिंतित बैठे थे। उनके बाल बिखरे थे। चित्रगुप्त महोदय को देखकर बोले, ‘तुमने आज का पेपर देखा है?’

चित्रगुप्त ने दरअसल अखबार नहीं देखा था। फिर भी बोले-जी हां।और चुप होकर प्रतीक्षा करने लगे कि भगवान ही अपनी तरफ से पहल करें।

हुआ भी ऐसा ही। भगवान ने कहा- सर्वत्र उपद्रव व अशांति। देवताओं का विचरना कठिन हो गया है। उपद्रव का कारण?” ‘आत्माएं, सर ।

 

पहले तो कभी आत्माओं ने ऐसा नहीं किया। अब जहां देखो, वहीं घेराव | तुम सारा लेखा-जोखा तैयार करके कल एक अर्जेंट मीटिंग कॉल करो। और हां, आत्माओं के नेता को भी बुला लेना। नहीं तो वह मुंह फुला लेगा।

 

दूसरे दिन सभा-भवन के आगे अपार भीड़ थी। आत्माएं चिल्ला रही थीं- इंकलाब जिंदाबाद, भगवान मुर्दाबाद। न्याय दो, नहीं तो गद्दी त्याग दो।भगवान ने चित्रगुप्त को देखा-पहले तुम एक्सप्लानेशन दो। इतनी सारी आत्माएं स्वर्ग में क्यों? इनको अब तक अपाईंटमेंट लेटर क्यों नहीं दिया गया?’ चित्रगुप्त ने कहा- इन्हें जहां अपाइंट करता हूं, वहां ये जाना नहीं चाहतीं।

 

रोज़ कोई न कोई लंबा-चौड़ा पिटीशन आ जाता है।

 

भगवान ने स्वयं फाइल खोली- आत्मा नं. एक।आत्मा नं. एक उपस्थित हो गयी। भगवान ने प्रश्न किया, ‘आपका क्या केस है?”

 

सर, पहले मैं एक मिल मालिक में विराजमान थी। अब ये पी.ए. साहब मेरा ट्रांसफर नत्थूमल दहीवाले के यहां करना चाहते थे। मुझे प्रॉपर चांस मिलना चाहिए। आप ही सोचिए, जो आत्मा रात-दिन ब्लैक मार्केटिंग और ब्लैकमनी के विषय में अब तक सोचती रही, भला वह सफ़ेद-सफ़ेद दूध और दही का क्या करेगी?” 

 

चित्रगुप्त, इन्हें किसी मिलवाले के यहां भेज क्यों नहीं देते?’

 

सर, जिस परिवार में ये थी, उसका बड़ा बेटा कनाडा में है। एक अमरीकन युवती से उसने शादी कर ली है। वे लोग अभी माता-पिता नहीं बनना चाहते। छोटा बेटा मिल का मालिक है। उसकी पत्नी पीएच.डी. कर रही है। जब तक थीसिस पूरी न हो जाए, वह भी मां नहीं बनना चाहती, सभी बड़े घरों में यही हाल है सर।

“और आत्मा नं. 2 का क्या केस है?’ भगवान ने पूछा।

सर, ये तो प्रोफेसर पिलानी मुखर्जी की आत्मा है। इनके बेटे के पास पहले से दो बच्चे हैं। उनका कहना है कि हम दो, हमारे दो। वे तीसरी संतान नहीं चाहते। एक वैकेंसी सेठ कौड़ीमल के यहां है। कहिए तो …

तभी पिलानी मुखर्जी की आत्मा चिल्लाई- नानसेंस। मैं यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रही। पूरे साठ वर्ष लेबोरेटरी में गुजार चुकी हूं। अब कौड़ीमल के यहां बही-खाता संभालने जाऊंगी? यह नाइंसाफी है। इंकलाब जिंदाबाद।बाहर से भी नारे लगने लगे। आत्मा नं. दो चिल्लाने लगी-हम क्या कोई सरकारी डॉक्टर हैं, देहात के ब्लॉकों में हमें जबरन भेजा जाएगा। भगवन् आपका घेराव किया जाएगा। हमारी मांगे पूरी करो। हमें सही शरीर दो। हमें न्याय दो, नहीं तो कुर्सी त्याग दो। इंकलाब जिंदाबाद, भगवान मुर्दाबाद ।

भगवान ने आत्माओं को आश्वासन दिया कि उनके साथ न्याय होगा और जल्द से जल्द उनका प्रबंध किया जाएगा। धीरे-धीरे सारी आत्माएं चली गईं। बच गए केवल चित्रगुप्त महाराज |

चिंतित स्वर में भगवान ने कहा- चित्रगुप्त, तुम्हारे जैसे डीलिंग असिस्टेंट को पाकर कोई भी डूब सकता है, मैं क्या चीज़ हूं, तुमने सारी फाइलों को यूं ही छोड़ दिया J

नहीं सर, असल में बात यह है कि पृथ्वी पर इन दिनों परिवार नियोजन चल रहा है। कोई समझदार आदमी अधिक संतान पैदा कर दुःखी नहीं होना चाहता। पहले उनका नारा था, ‘दो या तीन बच्चे बस।इसके बाद पति-पत्नी कहने लगे, हम दो, हमारे दो।अब लगता है पति-पत्नी जल्द ही कहेंगे हम दोनों एक, हमारा एक। … अब तो पृथ्वी पर एड्स के डर से कन्डोम का इस्तेमाल किया जाने लगा है। नाजायज संतान भी पैदा नहीं होतीं। जन्म लेने की संख्या बुरी तरह घट रही हैं। बड़ी मुश्किल से जहां वैकेंसी निकलती है, वहां ये आत्माएं जाना नहीं चाहतीं। सर, रोज़-रोज़ वांटेड कॉलम देखते-देखते मेरी आंखें कमजोर हो गयी हैं। मेरे लिए चश्मे का प्रबंध कर दीजिए।

भगवान ने चित्रगुप्त को देखा-जब भी मैं किसी प्रॉब्लम पर बात करता हूं, तुम हमेशा अपनी ही कोई न कोई समस्या रख देते हो। पहले इन आत्माओं का प्रबंध आवश्यक है। आत्माओं की बेकारी बढ़ गयी है।

चिंतित न हों भगवान, इनका उपाय मेरे पास है।‘ – ‘चित्रगुप्त ने कहा और उत्तरीय के छोर में बंधी एक कागज़ की पुड़िया खोली। भगवान बिगड़े – पुड़िया- वुड़िया से क्या होगा? ऐसा करो, जिन्होंने काफी बुरे कर्म किये हैं, उनके मोक्ष का प्रश्न ही नहीं और मनुष्य योनि देना भी जरूरी नहीं। उन्हें पशुओं की योनि में भेज दो।

चित्रगुप्त कुछ देर तक पृष्ठ उलटते रहे। फिर बोले, ‘सर, कोई गुंजाइश नहीं है। आजकल तो कुत्तों की भी पूछ नहीं। केवल अलसेशियन की नस्ल अच्छी रह गयी है। लेकिन पुलिस विभाग में जब से इनसे काम लिया जाने लगा है, मुझे तो उनकी नीयत पर भी शक होने लगा है और सर, अलसेशियन और कोई भी अच्छी नस्ल के कुत्ते के बच्चों को लोग ऊंचे दामों पर बेच देते हैं। कुतिया को गरम पानी में डालकर मरवा देते हैं, मगर अपने पड़ोसियों को नहीं देते। वे आत्माएं फिर वापस आ जाती हैं। कट्टरपंथियों के चिल्लाने के बावजूद गो-हत्याएं बंद नहीं हुईं। गौ-आत्माएं फिर यहीं आ जाती हैं। उन्हें वापस भेजना पड़ता है। सोचा था, भली औरतों की आत्माओं को गौ की योनि दूंगा। बहुत पूजा-पाठ करती रही हैं। अब गौ माता के नाम पर उनकी पूजा होगी। किंतु सर, मैं परेशान हो गया हूं, वहां भी वैकेंसी नहीं है । भगवान के माथे से पसीना आने लगा। टूटे स्वर में वे बोले, ‘तब मैं

क्या करूं?” ‘सर, आप इस पुड़िया की ताबीज़ बनवाकर गले में पहन लीजिए, बड़ा लाभ होगा।

यह क्या है चित्रगुप्त? ‘ – टूटे स्वर में भगवान ने पूछा। चित्रगुप्त ने पुड़िया को खोलकर भगवान की हथेली पर फैला दिया, –’यह लाल तिकोन है। परिवार नियोजन का चिह्न। मैं पृथ्वी पर गया था। परिवार नियोजन पखवारे के अंतर्गत चल रही एक प्रदर्शनी के सामने से ये कागज उठाकर लाया हूं। आप भी नियोजन कीजिए। जहां जितनी वैकेंसी हैं, आत्माओं को भेज दीजिए। पृथ्वी पर तो छात्र ग्रेस मार्क्स के साथ पास किये जाते हैं। आप भी जहां तक हो सके, आत्माओं को ग्रेस मार्क्स देकर मोक्ष दे दीजिए। आत्माओं से मुक्ति मिल जाएगी और आप इस लाल तिकोन की सलाह मानिए, आत्माएं कम पैदा कीजिए। कम आत्मा, सुखी परमात्मा ।

भगवान ने लाल तिकोन को माथे से लगाया और उसे चित्रगुप्त को देकर कहा- आज ही इसकी ताबीज़ बनवा कर ला दो। कल ही इसे धारण करूंगा। कल मंगलवार है। मेरा और मेरे स्वर्ग का संभवतः मंगल हो जाए। चित्रगुप्त ने दबी आवाज़ में कहा- तथास्तु ।‘ … और चल दिए ताबीज़ बनवाने।

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कहानी

नये वर्ष में नये संकल्प

कतीस दिसम्बर की रात। नये वर्ष का इंतजार। इधर बारह बजे, उधर नया वर्ष शुरू हुआ। अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा तो कुछ मिली-जुली आवाजें आ रही थीं। अरे! यह तो लोगों के मन की बातें पढ़नेवाला फोन हो गया। पुरानी सरकार गिरने के बाद, जिस तरह कुर्सी के लिए जीतकर आए नये लोग शपथ लेते हैं, उसी तरह नये वर्ष में भी, विभिन्न वर्गों के लोग नये संकल्प ले रहे थे। मैं कान लगाकर सुन रही थी, उनके मन की बातें। लीजिए पेश-ए-खिदमत हैं उनके संकल्प

पति

इस बार चाहे कितनी भी ठंड पड़ जाए, शीत लहरी आ जाए, संडे के संडे जरूर नहाऊंगा। महीने में तीन संडे छूट भी जाएं तो कोई बात नहीं। इतने तो भगवान भी माफ कर देता है, मगर पत्नी माफ नहीं करती। वह यह बात समझती ही नहीं, कि पीतल को रोज-रोज साफ करना पड़ता है, सोने को नहीं। फिर मेरा यह तन तो कंचन की काया है। कंचन को बार-बार घिसा नहीं जाता।

 

इस वर्ष मैं अपने पैसों से सिगरेट नहीं पीऊंगा। सिगरेट पीनेवाले सहकर्मियों से दोस्ती करूंगा। कैंटीन में चाय-नाश्ते के समय जब वे सिगरेट पीएंगे तो कर्टसीसे मुझे भी ऑफर करेंगे ही। दान नहीं लेकर, दाता का अपमान नहीं करूंगा इस वर्ष ।

पत्न

छुपाकर पूए और पकौड़ियां बनाकर नहीं खाऊंगी। पड़ोस में घर-घर जाकर अपनी सास की शिकायत नहीं करूंगी। दोपहर में जब सास सो जाएंगी तो पड़ोसनों को घर पर ही बुलाकर दिल की भड़ास निकाल लिया करूंगी। पति के जेब से पैसे नहीं निकालूंगी। पर हां, नये साल में नई-नई साड़ियां और कॉस्मेटिक्स खरीदूंगी। मगर वे कह रहे थे, कोई पैसे-वैसे नहीं दूंगा। महिलाओं को पैसे देना खतरनाक है। सरकारी मुलाजिम हूं। न जाने कब कौन कहां से फोटू खींच कर मुझे रंगे हाथों पकड़ ले। अभी आचार संहिता चल रही है। बड़े आए आचार संहिता वाले। जो जिंदगी भर अचार बनाती आ रही है, उसे ही पढ़ाने चले हैं। ज्यादा तीन-तड़ांग करेंगे तो उन्हीं का अचार बना दूंगी यानी एक-दो टाइम भोजन त्यागकर, अनशन का नाटक कर उन्हें विवश कर दूंगी, कि वे स्वयं साड़ियां और उपहार लाकर मेरा अनशन तुड़वाएं।

प्रोफेसर

 

झूठ बोलकर आकस्मिक अवकाश (सी.एल.) नहीं लूंगा। इस वर्ष एक-दो एप्लीकेशन दे ही दूंगा। अभी तो ज़बानी छुट्टी लेता हूं यह कहकर कि एप्लीकेशन बाद में दूंगा। फिर नहीं देता हूं और छुट्टी बचा लेता हूं।

हां, कभी-कभी कॉलेज में क्लास भी ले लिया करूंगा। हमेशा लड़कों से यह नहीं कहूंगा कि अभी किसी मीटिंग या सेमिनार में जा रहा हूं या बाह्य परीक्षक बनकर परीक्षा लेने जा रहा हूं। यूं ही चुपचाप बैठकर क्लास में पढ़ लो। एक कागज पर रोल नम्बर लिखकर ला दो। सबकी अटेंडेंस बना दूंगा। परीक्षा में सेंटअपहो जाओगे।

नये साल में कोशिश करूंगा कि कोचिंग इंस्टीच्यूट में अधिक पढ़ाने के साथ-साथ कॉलेज के लड़कों को भी थोड़ा-बहुत पढ़ा दूंगा। वेतन देनेवाली यूनिवर्सिटी के प्रति कुछ हद तक ईमानदार बनने की कोशिश करूंगा।

छात्र

इस साल किसी प्रोफेसर की चमचागिरी में वक्त बरबाद नहीं करूंगा। सर के घर की सब्जी नहीं लाऊंगा। गैस नहीं लाऊंगा। उनके बिजली और टेलिफोन के बिल जमा करने नहीं जाऊंगा। उनके खुद के लड़के तो दिल्ली- पूना में पढ़ते हैं और वे छोटे-मोटे कामों के लिए मुझे ही दौड़ाते रहते हैं। इससे अच्छा है, कॉपी कहां गई है, पता लगाऊंगा। पैरवी करके अपने पास होने का जुगाड़ खुद करूंगा। यह फार्मूला नहीं चला तो परीक्षक के पुत्र का अपहरण करवा लूंगा। नम्बर बढ़ने पर ही, उसे लौटाऊंगा। सुना है, जेल में बैठकर बड़े-बड़े लोग इसी हथियार से काम निकलवा रहे हैं। फिर बाहर रहकर मैं क्यों पीछे रहूं।

लेखक

इस वर्ष कम लिखूंगा, लेकिन अलग-अलग शहरों में मित्रों के घर जाकर अपने खर्च से गोष्ठियां आयोजित करवाऊंगा। एक रचना पर हर शहर में चर्चा होगी। चर्चा की रिपोर्ट स्थानीय पत्रिका से राजधानी तक की पत्रिकाओं में स्वयं जाकर दूंगा। हाथ जोड़कर छपवाऊंगा।

रचना से महत्वपूर्ण है, उसकी चर्चाओं का ताबड़तोड़ छपना। जैसे फिल्म अच्छी होने से जरूरी है, उसकी पब्लिसिटी का होना। हर क्षेत्र का आदमी प्रचार से महान बनता है। हर आदमी को अपनी मार्केटिंगस्वयं करनी चाहिए। इस वर्ष मैं भी यही फार्मूला अपनाऊंगा। महान नहीं तो कम से कम चर्चित लेखक बनने का प्रयास अवश्य करूंगा।

संपादक

स्तरहीन हो तो क्या हुआ, कभी-कभी किसी महिला की रद्दी रचना भी छाप दिया करूंगा। महिलाओं को हम आगे नहीं बढ़ाएंगे तो भला कौन आगे बढ़ाएगा। कुछ लेखिकाएं तो स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर घर तक पहुंचा देती हैं। बढ़िया व्यंजन और सुंदर कन्याओं से बतियाने का सुख भला कौन संपादक छोड़ना चाहेगा? लेखक भी घर आते हैं। फोकट की चाय पीते हैं और अपनी रचना पकड़ाकर चल देते हैं। वैसे, कभी-कभी दफ्तर के बाहर ले जाकर फुटपाथ की दुकान से अपने पैसों की चाय अवश्य पिला देते हैं।

इस वर्ष का परम संकल्प- बाहर जाकर लेखकों की चाहनहीं पिऊंगा। हां, किसी बड़े होटल में ले जाकर यदि वे नाश्ता कराना चाहेंगे तो मना नहीं करूंगा। मना करना, अभद्रता की निशानी होती है।

क्षमा करें, नये साल में नेटवर्क बिजी हो जाने के कारण आगे के सिगनल नहीं आ रहे हैं। बाकी फिर कभी, सिगनल मिलने पर।

 

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किताबें

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