डॉ. रंजना जायसवाल
शिक्षा-एम. ए., पी एच.डी.
पुरस्कार- कई पुरस्कारों से सम्मानित।सभी प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
अनुवाद-कई कहानियों का अंग्रेजी, पंजाबी और उड़िया में अनुवाद
दिल्ली एफ एम गोल्ड ,आकाशवाणी वाराणसी,रेडियो जक्शन और आकाशवाणी मुंबई संवादिता से लेख और कहानियों का नियमित प्रकाशन,
एकल कहानी संग्रह-उस तरह की औरतें
गली के मोड़ पर सूना सा एक दरवाजा
पता-मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
पिन कोड 231001
Email address- [email protected]
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कहानी
एक कद्दू और एक अँगूर
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सिन्हा साहब का प्रमोशन हुआ था, घर में एक बड़ी पार्टी रखी गई थी। खाने-पीने का शानदार इंतजाम किया गया था। शाकाहारी से लेकर मांसाहारी तक… हर तरह के पकवान मेज पर लगे हुए थे।ऐसी पार्टियों में शराब पीना आम बात है…शराब पानी की तरह बह रही थी।घड़ी ने एक बजा दिए थे पर पार्टी अभी भी चल रही थी।गाने की आवाज अभी भी शकुंतला के कमरे तक पहुँच रही थी। शकुंतला और ननकू दोनो ही जाग रहे थे,कारण पार्टी का शोर नहीं कुछ और ही था। शकुंतला सिन्हा साहब के यहाँ नौकरी करती थी झाड़ू-पोछे का काम… उसका पति यही चौकीदारी किया करता था। करोना की दूसरी लहर में उसकी जान चली गई। सिन्हा दम्पति भगवान की तरह उसके जीवन में आए थे, आखिर वह ऐसे समय में अपनी दस साल के बेटे को लेकर जाती भी तो कहाँ…जब तक पति जिंदा था तब वो उनके यहाँ चौकीदारी का काम करता था पर उसके जाने के बाद दाल-रोटी की भी समस्या हो गई थी।
कोरोना के कारण सिन्हा जी की नौकरानी गाँव चली गई थी और ऐसी गई कि वापस लौट कर नहीं आई। सिन्हा साहब को कामवाली की जरूरत थी और शकुंतला को काम की, सिन्हा दम्पति थोड़ी दयालु प्रवृत्ति के थे।उन्होंने तरस खाकर शकुंतला को घर के काम करने के लिए रख लिया।आज महीने की पच्चीस तारीख थी, हाथ में मुट्ठी भर पैसे आते थे।ननकू की तबीयत कुछ दिन से ठीक नहीं चल रही थी। बेटे के इलाज के लिए एडवांस में लिए पैसे भी खत्म हो गए थे।अभी महीना खत्म होने में पाँच दिन बाकी थे,मालकिन पैसे को लेकर बहुत कीच-कीच करती थी।आज तो घर में चूल्हा भी नहीं जल पाया था। शकुंतला और ननकू को भूख की वजह से नींद नहीं आ रही थी। तरह-तरह के पकवानों की खुशबू कमरें तक आ रही थी।
“अम्मा! बहुत भूख लगी है बाहर देखो न कितने पकवान बने हैं।”
“तुझे डॉक्टर ने तला-भुना खाने से मना किया है न, तू तो उन पकवानों की सोच भी मत…मेरी तरफ देख मैं तुझे एक अच्छी सी कहानी सुनाती हूँ।”
“कहानी…!”
शकुंतला ने ननकू के सर को अपनी गोद में रख लिया और कहानी सुनानी शुरू की।
“एक बार एक आदमी होटल में गया और उसने होटल के मालिक से कहा.. आपके होटल का जो सबसे अच्छा पकवान हो उसे लेकर आओ।”
“फिर…?”
“थोड़ी देर में होटल का कर्मचारी रोटी और सब्जी लेकर आया और उसने कहा कि हमारे होटल की सबसे स्वादिष्ट सब्जी है। कद्दू और अँगूर…”
“ये कौन सी सब्जी होती है?”
“तू बोलता बहुत है… चुपचाप कहानी सुन।”
“हम्म…”
“उस आदमी ने कर्मचारी से कहा,इसमे तो अंगूर तो है ही नहीं… जानते हो उस कर्मचारी ने क्या जवाब दिया”
“क्या…?”
“है न साहब एक कद्दू एक अँगूर…”
“अम्मा!तुम भी न…”
शकुंतला की बात सुनकर ननकू खिलखिला कर हँस पड़ा और पेट दबा कर जमीन पर लोटने लगा।अचानक उसकी हँसी दर्द में तब्दील हो गई।
“अम्मा! भूख के मारे पेट खींच रहा है,ठीक से हँस भी नहीं पा रहा हूँ पेट में मरोड़ उठ रही है। कुछ खाने को दो न…”
शकुंतला की आँखें भर आई,अपने आँसुओं को आँचल में समेट शकुंतला ने ननकू से कहा,
“ननकू!पुराने जमाने में साधु-संत कहते थे,कभी-कभी पेट को आराम देना भी बहुत जरूरी होता है। एक दिन खाना न खाने से किसी को कुछ नहीं होता।मैं कल कोई न कोई इंतजाम जरुर कर लूँगी तू चुपचाप से सो जा…मैं तुझे दूसरी कहानी सुनाती हूँ।”
“जाने दो अम्मा… अब कोई कहानी मत सुनाओ। फिर से दर्द होने लगेगा।”
ननकू का पेट भूख से पीठ में चिपक गया था,वो पेट दबाकर उकड़ू बैठ गया।शायद इससे दर्द कुछ कम हो जाये।तभी दरवाजे पर किसी ने हौले से थपथपाया, दरवाजे पर मालकिन खड़ी थी।
“सो गई थी क्या…”
क्या कहती शकुंतला अमीरों को भरे पेट नींद नहीं आती और गरीबों की कितनी रातें भूख की वजह से खाली चली जाती है।
“क्या हुआ भाभी सब ठीक है न…”
“घर में पार्टी चल रही है, तुम्हारे साहब को तो जानते ही हो किसी का दर्द उनसे देखा नहीं जाता।ये ले तेरे लिए कटोरा भरकर मुर्गा और तंदूरी रोटी लाई हूँ।तेरे ननकू को मुर्गा बहुत पसंद है न तेरा मर्द बताता था।आज तो तेरी मौज हो गई।”
मालकिन कटोरा हाथ मे थमा कर चली गई,शकुंतला के खुशी के मारे बोल नहीं फूट रहे थे।शकुंतला को मालकिन इस वक्त अन्नपूर्णा का अवतार लग रही थी
“कौन है अम्मा इतनी रात को…”
शकुंतला अपनी सोच के घेरे को तोड़कर वर्तमान में आ गई,
“उठ रे ननकू! देख मलकिन तेरे लिए तेरी पसंद का खाना लेकर आई थी, एक कटोरा भर कर मुर्गा लाई है।”
“अरे वाह! आज तो मजा आ गया।”
ननकू खुशी से झूम उठा,तंदूरी रोटी सूखकर कड़क हो गई थी।शकुंतला ने उसका भी इलाज निकाल लिया,वह गिलास में पानी भर कर ले आई। रोटी को इसी में डूबो-डुबोकर मुलायम करके मुर्गे के साथ खा लेगी।कम से कम पेट तो भर जाएगा।
“अम्मा! मैं जल्दी से प्लेट ले आता हूँ।”
ननकू दौड़कर प्लेट और चम्मच ले आया। शकुंतला ने बड़ी उम्मीद से कटोरा खोला।कटोरा रस्से से भरा हुआ था,शकुंतला ने चम्मच कटोरे में डाला तो मुर्गे का एक पीस उसका मुँह चिढ़ा रहा था।ननकू खिलखिला कर हँस पड़ा,
“अम्मा!एक कद्दू और एक अँगूर…”
शकुंतला के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आई शायद यह लकीरें भूख की वजह से नहीं थी…
डॉ. रंजना जायसवाल
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
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कविताएं
"दरारें"
दीवार की दरारों के बीच
झाँकता पीपल का पेड़
कुछ हम जैसा ही तो है
न किसी ने प्यार से रोपा
न ही उसके अस्तित्व की चिंता में नजरों से सींचा
और न किसी ने स्निग्ध हाथों से उसे संभाला
फिर भी वो जी गया
क्योंकि वो बज्जर था
रोपना, सींचना और संभालना उसके भाग्य में नहीं
कुछ ऐसा ही तो हमारी लकीरों में था
दाईं ने पेट को टटोल कर कहा था लड़की हुई तो बच जाएगी
लड़का होगा तो झेल नहीं पायेगा
कोई दुआ नहीं कोई मन्नत नहीं
न कोई चाहत और न ही आगमन पर कोई स्वागत,
फिर भी
अपने अस्तित्व को बचाते जी लेते हैं हम
और जन्म देते हैं दूसरे अस्तित्व को…
कबड्डी
कबड्डी एक खेल
महज एक खेल नहीं
दर्शाता एक दृष्टिकोण… औरत के जीवन का
साथियों के हाथों का स्पर्श सुकून देता अपनत्व का…
हिम्मत देता है वो स्पर्श लक्ष्य को भेदने का
मैदान में खीची लकीर
महज लकीर भर नहीं
चेताती है उनकी सीमा-रेखा उनकी मर्यादा को
दुनिया देती है उदाहरण सीता का और रोक देती है उसके कदमों को
काट देती है उसके पंखों
तोड़ देती है उसके सपनों को
लकीर के उस पार हाथों का स्पर्श बदल जाता है, आत्मा छली जाती है, कदम रोके जाते हैं सपने मरोड़े जाते हैं
और वो छटपटाती, कराहती उस लकीर तक पहुँचने के लिए अंतिम समय तक प्रयास करती है उखड़ती है टूटती है पर फिर भी कोशिशें जारी रहती है उस लकीर तक पहुँचने की…
सांसे टूट जाती है और वो चेहरे उफ्फ!!
किया है तो भुगतो
पसीने से लथपथ शरीर सोचता है हर बार ये संघर्ष सिर्फ हमारे हिस्से ही क्यों…
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किताबें
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