कविताएं
अनंत
जिस दिन भी चाहेगा कोई
दे दूंगी उसको
चौखंभा के पीछे से निकला
पूर्णिमा का चांद
आडू के बैंगनी फूल
मोनॉल के रंगीन परों के साथ
रूपिन के बर्फीले पानी में बहा दूंगी
वापसी करूंगी
हेमंत में झरी पत्तियों के रिक्त स्थान में
दोनो के मिला कर
दस तत्वों के साथ
कहीं खिलेंगे
इसी वसंत में
एक प्योंली
एक बुरांश बनकर
मोह
रिश्ते नातो से जुड़े
मोह के अनदेखे धागों का सच
जीवन राह में अधूरा ही छूट जाता है
ये सच्चाई नही होता
सच्चाई इसकी अंतहीन पीड़ा होती है
चांद सच्चाई नही होता
चांदनी सच्चाई होती है
भूख अकेले सच नही होती
रोटी सच्चाई होती है
तृष्णा प्यास से सच्ची होती है
ये प्यास को नदियों तक ले जाती है
दर्दों की दुनिया अंतहीन है
आंसू उनकी सच्चाई है
लंबी राहों पर अनवरत अधूरा चलते रहना
सच नही होता
सच्ची केवल मृत्यु होती है
वैदेही
देह में रह कर विदेह होना
स्त्री सूत्र है हृदय का
इसका विस्तार अनंत आकाश तक है
देह के अंतर से
देह के अंतरस्थ तक
विस्तृत मुखर मौन में
व्याप्त
जीवन मृत्यु के राग में
छह ऋतुओं के बारह मौसम
शेष होते हैं
अनंत दिगंत तक
निशेष होते हुए
गोधूली बेला के आगमन में
बहती मंद पवन के साथ
अशेष हो जाना
वैदेही
घर
लाल छत वाला
जिसकी खिड़कियां खुलती हों
घने बांज के जंगल में
गुच्छे बुरांस के
आनंद से देहरी पर झूमते हों
हवाएं आराम करती हों
आकाश के दाह में
पृथ्वी के एक छोर पर
हिम जल से भरा गदेरा आकुलता से बहता हो
धूप को चुराने को
बारिश से लिखें प्रेम
किताबों से भरा हो एक कमरा
जिसमे लिपटा हो समय
किसी उजले कोने की जमीन पर
बिछा हो एक बिस्तर
जो मन के कोलाहल को मौन से जोड़ दे
दरवाजों पर स्वप्न खड़े हो
बसंत मालती की महक लिए
रसोई के किनारों पर ठहरी हो मेरे नाम की बूंद
बेपरवाह पत्तियां करवटें बदलती रहे
दूर सामने वाले खेत में फूलो से भरा रहे पदम वृक्ष
उसकी छाया में मेरी सुबहें कोमल ऋषभ में
गाती रहे राग भैरव
दूर अनंत से एक फाख्ता किताबों के मध्य
सेवती रहे अपनी आने वाली संतति
और बसंत अपनी नमी को सहेज कर
बेपरवाह नंगे पैरों से चलती जिंदगी को
एक दरवेश की तरह सहलाता रहे
घर की देह में
एक घर बनाना था