तुम्हारे नाम में ऐसा क्या है बिल्किस?
यह मेरी कविताओं को दाग देता है
और मजबूत कानों से खून बहने लगता है
तुम्हारे नाम में ऐसा क्या है बिल्किस?
कि चपल जुबान को लकवा मार जाता है
और वह अधबीच ही ठहर जाती है
तुम्हारे दर्द की हर छवि जो मैं बनाता हूँ
अंधी हो जाती है
तुम्हारी आँखों में दहकते दुःखों के सूर्य से
झुलसाने वालीं अन्तहीन धर्मयात्राएँ
यादों के उड़ते समंदर
सब उस स्तब्ध बेधक नज़र में डूब जाते हैं
मेरे द्वारा स्थापित हर नियम मिटा डालो
और सभ्यता के इस पाखंड को चूर-चूर कर दो –
यह एक ताश के पत्तों का महल है
एक प्रचारित झूठ है
तुम्हारे नाम में ऐसा क्या है बिल्किस
जो आदर्श न्याय के सूर्यमुखी चेहरे पर
स्याही के धब्बे बिखेरता है
तुम्हारी साँसों के रक्त में सनी हुई
यह लज्जित धरती एक दिन
सालेहा की कोमल, फटी हुई खोपड़ी की तरह
फूट जाएगी
वह पहाड़ी जिस पर तुम
सिर्फ एक पेटीकोट पहने हुए चढ़ी थी
शायद हमेशा के लिए निर्वस्त्र हो जाएगी
युगों तक घास का एक तिनका भी नहीं उगेगा वहाँ
और इस धरा पर बहने वाली हवाओ में
नामर्दानगी के श्राप सरसरायेंगे
तुम्हारे नाम में ऐसा क्या है बिल्किस
कि मेरी प्रवाही कलम
इस ब्रम्हांड के लंबे चाप के मध्य ही रुक जाती है
और नैतिकता के टुकडे हो जाते हैं
यह कविता भी संभवतः निर्थथक हो जाएगी
ये मृत माफीनामे, बेईमान कानून व्यवस्था
ऐसे ही रहेंगे
जब तक तुम इनमें
अपना जीवन और साहस नहीं भरते
इसे अपना नाम दो बिल्किस
सिर्फ नाम ही नहीं
मेरी जीर्ण-शीर्ण, चिड़चिड़ी -उदास आस्था को सक्रियता दो बिल्किस
मेरी असंबद्ध निर्जीव संज्ञाओं को
कोई विशेषण दो बिल्किस
मेरी हैरान परेशान निष्क्रिय क्रियाओं को
चपल फुर्तीले प्रश्नवाचक क्रिया विशेषणों
में परिवर्तित होना सिखाओ बिल्किस
मेरी लड़खड़ाती भाषा को
कोमल, उदात्त अलंकार
और दृढ़ रूपक का सहारा दो बिल्किस
स्वतंत्रता के लिए एक उपनाम
न्याय के लिए एक स्वर
और विद्रोह का विरोध दो बिल्किस
इसे तुम्हारी दृष्टि दो बिल्किस
तुम्हारे अंदर बहने वाली रात से
इसकी आँखों को रौशनी दो बिल्किस
बिल्किस ही इसकी लय हो, ध्वनि हो
इस उदात्त हृदय का गीत हो
इस कविता को पन्नों के पिंजरे से बाहर बहने दो
और ऊँचा उड़ने दो, चहुँओर फैलने दो
मानवता के इस शांति कपोत को
अपने डैनों की छाया में
इस खूनी ग्रह को समेट लेने दो
घाव पर मरहम लगाने दो
तुम्हारे नाम में जो कुछ भी अच्छा है
उसे छलकने दो बिल्किस
प्रार्थना करो! एक बार मेरा नाम बन जाओ बिल्किस।
कवि- हेमांग देसाई
अनुवाद- मालिनी गौतम