…………………………..
कहानी
जिन्दगी, ट्रिक और सम्मान
रात के ठीक बारह बजे अचानक मेरा मोबाइल और फिर लैंडलाइन फोन घनघना उठा। मोबाइल तो आप साइलेंट में कर सकते हैं पर इस लैंडलाइन फोन का क्या… हां अगर आपके पास आजकल का लेटेस्ट वर्जन लैंडलाइन फोन है, वाॅकी टाॅकी टाइप कोई… तो मामला अलग है। मगर भई मेरे पास फिलहाल तो वही बाबा आदम के जमाने का लैंडलाइन फोन है। इसे चुप कराने का तो एक ही उपाय है कि रिसीवर उठा कर रख दिया जाए। मगर पुलिस की नौकरी में रहते आप ऐसा कुछ नहीं कर सकते। जरूरत-बेजरूरत कभी भी फोन आ सकता है। ऐसे में अगर आप रिसीवर उठा कर रखने जैसी जुगत आजमाते हैं तो जान लीजिए भाई साहब ये साली नौकरी कभी भी दगा दे सकती है। वैसे भी नौकरी और छोकरी की वफा बड़ी कमजोर होती है कब टें बोल जाए… बह्मा भी नहीं बता सकते। आॅफिस वाले मोबाइल न उठाने पर फोन पर ट्राई करते हैं। लैंडलाइन पर फोन आना यानी स्थिति गंभीर है। तो आज जब मेरी षादी की सत्ताइसवीं सालगिरह है और मैं अपनी खूबसूरत पत्नी को बारह बज कर ठीक एक सेकेंड पर सरप्राइज देने की पूरी तैयारी कर चुका हूं, मजबूरी है यार। ना ना आप गलत सोच रहे हैं, मैं अपनी बीवी की बात नहीं कर रहा। ऐसा तो हरगिज नहीं कहने जा रहा कि मुझे अपनी बीवी से प्यार नहीं है या मेरा दिल कहीं और लग गया है और मैं मजबूरी में पत्नी को झेल रहा हूं या पत्नी मुझे पसंद नहीं है… अब आप सोचेंगे कि तो फिर मजबूरी क्या है, दे दो न सरप्राइज? दोस्तों दरअसल मजबूरी पत्नी नहीं, वह तो बड़ी ही खूबसूरत हसीना है। आज पैंतालिस की उम्र में भी कहर ढाती है अपने रूप यौवन और अदाओं से, मगर साली यह पुलिस की नौकरी ही सारी किचकिच की जड़ है… इसमें न आने का समय, न जाने का… यह अलग मामला है कि जब रोज ऊपर की आय से जेब भारी हुई रहती है तो पत्नी ही नहीं बच्चे भी चहक उठते हैं। जब दुकानदार मेरा आईकाॅर्ड देखते ही हर खरीदारी में वजनी डिस्काउंट दे देता है तो बीवी की बांछें खिल उठती है। जब घर फ्री की सब्जी, फल और तरह-तरह के तोहफों से भरा रहता है तो हर बार बीवी की मुस्कान चैड़ी और चैड़ी हो जाती है। मगर इन सबके बाद हर बार पत्नी और बच्चों का वही रोना… हमारे लिए तो आपके पास समय ही नहीं है… पापा आज मेरे बर्थडे पर भी आपने हमारे साथ टाइम स्पेंड नहीं किया। केक काटने के टाइम पर नहीं पहुंचे… अजी आज एनीवर्सरी के दिन भी आप अब आ रहे हैं… इन सालों को मलाई तो चाहिए मगर दूध औंटने में पल भर गंवाने को तैयार नहीं… अरे जब तक दूध को धैर्य के साथ खूब खौलाओगे नहीं तब तक मोटी मलाई कैसे जमेगी… मगर इन्हें कौन समझाए? यह बात मुंह से निकल गई तो और महाभारत… फिर मुंह फुलाई बीवी और आंसू टपकाते बच्चे के आगे गिड़गिड़ाओ, मनाओ और साला… इन पंगों से बेहतर है कि रात में ही सरप्राइज के नाम पर केक-वेक कटवा के कुछ गिफ्ट देकर छुट्टी पा लो, ताकि कल चैन से ड्यूटी कर सकूं। और अगर कोई इमरजेंसी जो पुलिस की नौकरी में कभी भी आ सकती है और यह तो हमारा सौभाग्य होता है भइया, वरना मोटी कमाई कैसे हो… रेगुलर वाले थोड़े-बहुत रोकड़े से जीवन चल सकता है क्या! मैडम को हर हफ्ते पार्लर जाना है, ऐष्वर्या राय जिस क्रीम पाउडर के ऐड में आ जाए, वही लगाना है। बेटी तो मां से भी दो कदम आगे ही है, भले उसकी उम्र पंद्रह साल ही है। अगर मुहावरे में और ज्यादा कदम फिट हो जाए तो कर लें चलेगा ही नहीं दौड़ेगा। अब मुझ जैसा दो-दो रुपये भी घूस लेने में जरा भी न हिचकने वाला आदमी क्या मुहावरे बदलेगा जी! यह काम तो भाई साहब आप ही संभालो। वैसे यह काम तो आप बहनें भी कर सकती हैं, मगर दो वजह है जी जिसकी वजह से मैं आपलोगों का नाम नहीं ले रहा। देखो पहली वजह तो यही है कि मैं जिन महिलाओं को अच्छी तरह जानता हूं जैसे मेरी बीवी, बहन, बेटी इन सबको तो मेकअप, पार्लर और पतियों को उंगली पर नचाने की प्रतियोगिता से ही फुरसत नहीं है, ये क्या खा के मुहावरे बदलेंगी! दूसरी बताता हूं भई जरा ठहरो। एक बार और घड़ी तो देख लूं। पता चलेगा, इस सारे चकल्लस में समय निकल गया, सरप्राइज धरा का धरा रह गया और फिर चिल्ल-पों महाभारत षुरू। देखो ये जो बीवी-बच्चे नाम के जीव हैं न ये जोंक होते हैं। आप ही का खून पीकर पहलवान भी बनेंगे और आप ही से कुष्ती भी लडें़गे और ये डब्लूडब्लूएफ वाला नूरा कुष्ती तो एकदम नहीं। अब देखो, हफ्ता भर हुआ है बेटे को करिज्मा दिलवाये हुए। बेटी को स्कूटी। बीवी को कार और ड्राइवर। उस पर से ब्रांडेड कपड़े बनाने वाले चाहे कामगार हों या मालिक वे तो इन्हीं लोगों के भरोसे जी रहे हैं। दीपिका पादुकोण ने अमुक फिल्म में अमुक ड्रेस पहनी है। मुझे भी चाहिए पापा… मेरे सारे दोस्तों के पास है। बिल्कुल यही डाॅयलाॅग इसकी दोस्त अपने पापा के पास अता कर रही होगी। बेटा तो रणवीर कपूर बने बिना रह नहीं सकता। मेरी ऐष्वर्या राय ने इन सबका साथ देने की कसम उठा ही रखी है, जो भीश्म प्रतिज्ञा से कम तो क्या होगी भई। मुझे तो लगता है कि अगर वेद व्यास को ये दिख जातीं तो लोग भीश्म प्रतिज्ञा के बदले बीवी प्रतिज्ञा के बारे में ही जानते। और एक बार इनका भनर-भनर षुरू हुआ तो क्या मजाल की सारी मक्खियां मिलकर भी इनका मुुकाबला कर लें। इनकी भनभनाहट से आप जब तक तंग न आ जायें और घुटने न टेक दें तब तक इनका स्टैमिना जवाब नहीं दे सकता। बड़ी तगड़ी सांठ-गांठ है मालिक। तो कौन पड़े इन पचड़ों में। सच कहूं तो कौन झेले यह कांय-कांय… वो कहते हैं न कि जिस घर में कलह होती है वहां बरकत नहीं होती। तो भाई मैं बता दूं कि मेरे घर में बरकत और सुकून दोनों है। इसकी वजह है मेरी ट्रिक… लेकिन ट्रिक बताने के पहले वह दूसरी वजह तो बता दूं……………………… चलिए अब वह खास ट्रिक मैं आपको भी बता ही देता हूं… आप भी क्या याद करोगे… यकीन करो जिंदगी भर हर मोड़ पर याद करोगे जनाब… यह है ही इतने कमाल का नुस्खा कि हर्र लगे न फिटकिरी और रंग चोखा… वैद्य लुकमान भी ऐसा कमाल का नुस्खा इजाद न कर सके जो हर मर्ज के लिए रामबाण हो… कुछ समझ में नहीं आ रहा… कोई बात नहीं… थोड़ा धैर्य धरो… वो कहते हैं न धीरज धरे तो उतरे पार… तो जरा सब्र करो सब समझ जाओगे… यह भी कि जैसे होम्योपैथी दवा असर करे इसके लिए जरूरी है संयम जैसे कि लहसुन प्याज तेज मसाले आदि से दूर रहने का संयम आदि वैसे ही इस ट्रिक की कामयाबी के लिए सब्र बहुत जरूरी है… धीरे धीरे सब समझ जाओगे, पहले ट्रिक सुनो, वह अनमोल, अचूक ट्रिक है, इनसे न उलझो। कोई ट्रिक आजमाकर चुप से निकल लो। वैसे एक और खास बात, इनसे न गाढ़ी दोस्ती भली न दुष्मनी। जैसे ही आपने ज्यादा गहराई से लाड़ लड़ाना षुरू किया नहीं, कि इतरा इतरा कर ये खोल देंगे अपनी फरमाइषों की भानुमती का पिटारा जिसके खाली होने और खाली जाने की कोई गुंजाइष नहीं। और जैसे ही आपने इनसे रार मोल लिया कि ये आपके फर्ज और आपकी जिम्मेदारियों के नाम पर आपके ऊपर इतना लाद देंगे कि आप उस टट्टू या गदहे की भूमिका में आ जाएंगे, जिसका धोबी उसे तभी याद करता है जब उस पर वह उसके खुद के वजन से भी भारी गट्ठर बांध चुका होता है। तो इसलिए बड़ा बैलेंस बनाकर रखना पड़ता है भइया। इन्हें यह भी लगे कि ये बड़े दुलारे और जिगर के टुकड़े हैं, दिल की रानी हैं, आपका जीवन सिर्फ इन्हीं के लिए है, ये न हों तो आपका जीना व्यर्थ है, मगर इतनी छूट भी न मिले कि इतरा-इतरा कर कभी इस, तो कभी उस चीज के लिए मचलने लगें। इसलिए बैलेंस्ड ट्रिक ही एकमात्र रास्ता बचता है। अब अभी देखो इस सरप्राइज से कैसे मैं इन्हें अपना कद्रदान भी बना लूंगा और कल के लिए जान भी छूट जाएगी। बारह बजने में सिर्फ पांच मिनट रह गए हैं। मैं कनखियों से बार-बार दीवार पर टंगी रेडियम वाली घड़ी देख रहा हूं। रेडियम भी क्या चीज है। अंधेरे में झकाझक दिखने वाली। आज तो मैडम क्यूरी के लिए दिल से दुआ निकल रही है। ढेर सारी। क्या आविश्कार किया है। कमाल का। अगर आज यह आविश्कार न होता तो बार-बार टाइम देखने के चक्कर में जरूर पत्नीश्री को कुछ न कुछ भनक मिल जाती और सरप्राइज का पूरा मजा किरकिरा हो जाता। अभी तो कितने सुकून से कितनी गहरी नींद सो रही है। अभी कुंभकरण भी इन्हें देख ले तो षरमा जाए। साली नौटंकी। अरे अच्छी तरह पता है मुझे कि वह भी ऐसे ही मेरी नजर बचाकर घड़ी देख रही होगी और मुझे सोता जान कुढ़ रही होगी। इंतजार है उसे बस बारह बजने का। उसके बाद पांच मिनट तो निकल जायें और मैं सोता ही जान पड़ूं तब देखिएगा उसका रौद्र रूप। ऐसा तांडव षुरू होगा कि मैं तो क्या कुंभकरण भी जग जाए। हां, अब तो सोते ही रहो तुम… अब तुम्हें परवाह ही क्या है मेरी… षादी के सत्ताइस साल हो गए अब बीवी की परवाह कौन करे… (बात तो सही है भइया मगर इसे सरेआम स्वीकार करने या इस चंडी से कहने की हिम्मत कौन करे… हाऽऽहाऽऽहाऽऽ) अब तो तुम्हें एनीवर्सरी याद तक नहीं। पहले साल में कैसे… (अब वे इन पूरे सत्ताइस साल का डिस्क्रिप्षन कभी रो कर कभी उलाहना देकर सुना डालेंगी…) फिर यह प्रवचन तब तक नहीं थमेगा भइया जब तक आप कान पकड़ कर रो कर या गाकर (यह आपकी काबिलियत पर निर्भर करता है…) जैसे भी हो इन्हें यह एहसास न दिला दें कि वह आपके लिए आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी पहले दिन थी और आज भी आपके निचले हिस्से में वही सुरसुरी इन्हें देखते ही दौड़ती है, जितनी सुहाग रात को… आज भी आप भूले नहीं थे वो तो आपका प्लान था कि आज रात, कल सुबह और कल दिन भर कुछ नहीं बोलना है, ऐसे बीहेव करना है जैसे आपको न तो इनकी कोई परवाह है, न इनसे प्यार है और न ही एनीवर्सरी जैसी किसी चीज का नाम भी जेहन में है… फिर जब डार्लिंग तुम पूरी तरह उखड़ जाती, झल जाती, हत्थे से ही उखड़ जाती एकदम से, तब मैं तुम्हें वह सरप्राइज देता जो कल षाम के लिए प्लान की थी… तुमने तो सारा प्लान चैपट कर दिया… अब उसके चेहरे पर उत्सुकता साफ झलकेगी मगर वह एक उड़ती सी नजर आप पर डाल ऐसे एक्टिंग करेंगी, जैसे इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा, मगर पूरा कान आपकी ओर लगा देंगी… अब एक-एक पल उनके लिए युग समान… मन में एक ही सवाल… बताता क्यों नहीं क्या प्लान है… अगर आपने कुछ नहीं बताया यह सोच कर कि सीधे कल कुछ प्लान कर देंगे तो आप गये काम से… अब फिर महाभारत… तुमने कुछ नहीं सोचा था न… बस यूं ही बोल दिया कि कल तक तो मामला टल जाएगा, तब तक सोच कर कुछ कर-कुरा देंगे और निपटा देंगे मामला… मगर मुझे इतनी बेवकूफ न समझो… सत्ताइस साल से तुम्हारे साथ हूं… रग-रग से वाकिफ हो गई हूं… तेरा नस डाॅक्टर भी क्या पकड़ पाएगा जो मैं पकड़ लूंगी… और अगला स्टेप विधवा विलाप… मेरे तो करम ही फूट गए उसी दिन जिस दिन तुमने सिंदूर दिया… हे भगवान…… यह मीडियम लेंथ की रील होगी… भगवान के बाद कोसने की बारी बाप की… मेरा पागल बाप पता नहीं क्या दिखा उसे तुममें कि बांध दिया तुम्हारे खूंटे से…………. यह रील काफी लंबी होगी… इससे तो अच्छा होता पापा कि आप मेरा गला ही घोंट देते… ये किस नरक में फंसा दिया आपने मुझे… लोग मर कर नरक भोगते हैं मैं जीते-जी भोग रही हूं… फिर रोना सुबकना और तेज… मामला आप संभाल न सके तो आगे बड़ी भयंकर ट्रेजडी ड्रामा… दिलीप कुमार और मीना कुमारी की फिल्में भूल जाएंगे… मरने का… आत्महत्या का… वैसे यार ये बीवियां एक्ट्रेस बड़ी अच्छी होती हैं… बिना ग्लिसरीन के क्या रोती हैं… आपके घर और जीवन में तो बाढ़ लाने का सामथ्र्य रखती ही हैं… अब समझा कि डायरेक्टर की बीवी खूबसूरत हो तो वह अपनी ज्यादातर फिल्म में उसे ही हीरोइन क्यों लेता है… उसके टैलेंट से वाकिफ जो होता है भली-भांति… हाऽऽहाऽऽहाऽऽ… मगर भइया आप फिल्म मेकर तो हो नहीं, सो यहां ध्यान उनकी एक्टिंग पर कंसनट्रेट करने के बदले अपनी कल्पनाषीलता पर दो… वैसे पति बड़े अच्छे स्क्रिप्ट राइटर होते हैं… बिना फिल्म फेयर अवार्ड मिले भी रोज न जाने कितनी माइंडब्लोइंग स्क्रिप्ट लिख डालते हैं… अरे डार्लिंग तुम्हें अफसोस है न कि षाहरूख स्टाइल में मैंने तुम्हें प्रपोज नहीं किया… षादी के वक्त तो कर नहीं सकता था, क्योंकि तब षाहरुख खान बाॅलीवुड में नहीं आया था… इसलिए अब सोचा था… अरेंज मैरेज के इस खामियाजे को ही तो कल मैं सदा के लिए खत्म करना चाह रहा था… मैंने सोचा था कल षाम को तुम्हें किसी बहाने कहीं बाहर भेज दूंगा और गुलाबी… वो गुलाबी तेरा फेवरेट कलर है न इसलिए… हां तो गुलाबी बैलून और फूलों से डेकोरेषन कराता और तुम्हें सबके सामने षाहरुख स्टाइल में प्रपोज मारता… मैंने तो रिंग तक बुक करा ली थी तुम्हारे लिए… अब जरा सी एक्टिंग आप भी करिए… रोनी सूरत बनाइए… न, न आंसू न भी आयें तो कोई बात नहीं बस मुंह बन जाना चाहिए… और फिर डायलाॅग डिलेवरी करिए… लेकिन तुमने तो मेरे सारे मंसूबों पर घड़ों पानी डाल दिया… भले ही आपके दिल में चल रहा हो कि साली घर में पड़े पड़े फरमाईष करना है। कभी मुझसे, तो कभी नौकर से और सत्ताइस साल से यही ड्रामा… अरे रोज तो कुआं खोदना है और तब पानी पीना है… मतलब रोज तुम्हारी कोई न कोई अपेक्षा और उस पर खरा उतरना तभी चैन का पानी पी सकता हूं… तो आज क्या स्पेषल हो गया जो स्पेषल करूं… रोज की तरह आज की यह एक और उम्मीद… उम्मीद और अपेक्षा नहीं कहना चाहिए फरमान… वह भी तुगलकी… यह सब दिमागी बातें हैं आपकी, खैर तभी तक है, जब तक ये दिमाग में ही रहें… बीवियों के पास और चाहे जितनी भी कलाएं हों मगर दिमाग पढ़ने की कला नहीं होती है… गारंटी… वरना वह कब का आपको छोड़ कर प्रस्थान कर चुकी होती… हमारा लोमड़ी वाला दिमाग ही तो इन्हें हैंडिल करने, बेवकूफ बनाये रखने, ऐष-मौज करने और उस पर से इनसे ही साॅरी बोलवाने और इन्हें पछताने के लिए विवष करने का हुनर सिखाता है… अब देखिएगा कि आपकी रोनी सूरत देखते ही वह कैसे बिलबिलाएगी… तड़पेगी… खुद को ही थप्पड़ लगाएगी… (देखा उसकी सच्ची नाराजगी वही एनीवर्सरी भूल जाने वाली या ऐसी ही कोई और पर कैसे उसके ही हाथों से उसे ही थप्पड़ लगवाया… भाई साहब यूं ही थोड़े न हम सदियों से इन पर राज कर रहे हैं… तो समझ गए न बैलेंस्ड ट्रिक का मतलब…) अब अगले पूरे दिन आप चाहें तो कुछ न करें… तुमने सारा प्लान बिगाड़ दिया अब मुझे कुछ नहीं करना… एनीवर्सरी मेरी भी तो थी… सारा खराब कर दिया… मेरी यह एनीवर्सरी तो बेकार कर दी तुमने… कुछ नहीं करना अब मुझे… फिर देखिए तमाषा… अब वह साॅरी पार्टी से लेकर एनीवर्सरी पार्टी तक और नये सिरे से सरप्राइज प्लान करने तक सब खुद ही करेगी… उस पर से पूरे दिन आपकी खुषामद भी… तो इसीलिए कहा था मैंने कि सरप्राइज का उल्लेख करते हुए आपको यह सोचने की जरूरत ही नहीं है कि आप वह सब कर सकोगे या नहीं बस खूब रोमांटिक सा वर्णन कर दो पूरी कल्पनाषीलता झोंक दो… जितना ज्यादा अच्छे से आप यह काम कर सके उतना ही कुछ और करने की जरूरत नहीं पड़ेगी और उतनी ही ज्यादा खुषामद भी होगी… मगर यदि आपने यह गलती की कि ऐसा प्लान सुनाया जो आसानी से पूरा किया जा सकता है तो फंस गए… अब अगर आपने उसे फुलफील नहीं किया तो एक और महाभारत झेलने को तैयार रहना… अब आप कहोगे कि तुम्हें यह सब कैसे पता तो भाई साहब यह सब कोरी बातें नहीं मेरी आपबीती है… पति नाम के जीव की आपबीती… हाऽऽहाऽऽहाऽऽ…
…लो बारह बज गए… और यह फोन घनघना उठा… इमरजेंसी है यह एहसास तो हो ही गया था… झट से उठा और हाॅल में भागा… पता है दो-चार रिंग के बाद वह पलट कर देखेगी और मुझे वहां न पा कर पहले फोन उठाएगी और फोन निपटाते ही मुझे ढूंढ़ने निकल पड़ेगी… सबसे पहले हाॅल में आएगी… कहीं मैं नौकरानी के साथ… अरे क्या इतना गिर गया हूं मैं! अपने ही घर की नौकरानी के साथ… करना भी होगा तो दोस्त की नौकरानियां सोसाइटी के अन्य घरों की नौकरानियां सब मर गई हैं क्या… बी ब्लाॅक वाले मिस्टर वर्मा की नौकरानी तो सोसाइटी में सबसे मस्त माल है यार… उसके जैसा मजा तो और किसी ने अब तक दिया ही नहीं… वैसे सबसे हाॅट पीस तो साली डिसूजा वाली है… कैसे मटक-मटक कर चलती है… गजब की सुरसुरी दौड़ती है उसके मटकते कूल्हों को देखकर… मगर साली सती-सावित्री की नानी… अरे इतनी ही इज्जतवाली है तो घर में क्यों नहीं रहती… ऐसे दर-दर भटकेगी तो लोग क्या तेरी आरती उतारेंगे… अरे लड़की हो, जवान हो, सेक्स ही नहीं कर सकती तो और क्या कर सकती है… कर क्यों नहीं सकती… वह एक लौंडा आता तो है, जब तब उसे लेने… औरों के मामले में बड़ी चरित्तरवाली बनती है… साली कमीनी… कमीनी!… हाय कामिनी… मेरे साथ काम करने वाली कांस्टेबल… मगर वही चरित्र की मारी हुई… सिर्फ मुझसे ही बात करती है पूरे थाने में… बाकी से बस काम भर मतलब… दरअसल मैं ही उसे षरीफ जान पड़ता हूं… वैसे षरीफ जान पड़ना क्या आसान काम है? बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, खुद को और सुरसुरी को कंट्रोल करने में… अब इतनी मेहनत का इतना इनाम तो मिलना ही चाहिए न कि आपके थाने की सबसे हाॅट और कुंवारी लड़की सिर्फ आपसे बातें करे, आपसे लिफ्ट ले और धीरे-धीरे खुद ही आपके सामने बिछ जाए… लेकिन बड़ा गट्स चाहिए इसके लिए… बहुत धैर्य… ऐसा व्यवहार कि ब्रह्मचारी भी फेल… तब जाकर मर मिटेगी लड़की आप पर… और फिर जब सब हो जाए तो आप एक्टिंग करिए पछतावे का, यह क्या हो गया… (आपको कोई उससे ब्याह तो करना नहीं है, तो यहीं यह पासा फेंकना जरूरी है, वरना ऐसी लड़कियां बढ़ी चिपकू होती हैं… आपका घर कलह का अड्डा और इज्जत तार-तार करके रख सकती हैं… इसलिए ट्रिक मेरे भाई… सही वक्त पर सही ट्रिक)… तुमने मुझे पागल कर दिया… मैंने आज तक अपनी पत्नी के सिवा किसी को देखा तक नहीं नजर उठा के… मैं उसे बहुत प्यार करता हूं… मेरे बच्चे हैं… मैं तुमसे कैसे जुड़ सकता हूं? मजबूर हूं… लेकिन तुम्हारी कषिष ने पागल कर दिया… (यहां तारीफ करना जरूरी है, किसी को वष में करना है तो उसकी कमजोर नस पकड़ना जरूरी है) फिर एक लंबी सांस ले लीजिए… थोड़े आंसू टपकाइए… आंसू तो इस वक्त पर आना बहुत मुष्किल होता है जनाब, क्योंकि दिल तो बल्लियों उछल रहा होता है इस कामयाबी के बाद… तो ट्रिक… बोलते हुए एक ही जगह देखते रहना है और पलक झपकने नहीं देना है… आंसू आंखों से खुद ब खुद टपकने लगेगे… फिर आप पर मर मिटी लड़की खुद ही आपको चुप कराएगी और आपको इतना मजा देकर खुद ब खुद आपकी राहों से हट भी जाएगी… वो कहते हैं न कि डायन भी सात घर छोड़कर वार करती है… तो षरीफ जान पड़ने का मूल मंत्र यही डायन हम मर्दों को दे गई है… अपनी रिष्तेदारी या वर्किंग प्लेस या मुहल्ले आदि की फीमेल के पीछे न पड़ो। षरीफ जान वे खुद बात करेंगी। मर मिटेंगी। अब मजे लो। तारीफ करो। रोओ-धोओ और जान छुड़ा लो। इससे आप फिर से षरीफ के षरीफ… देखो बेचारे के सामने मैं खुद बिछी थी, फिर भी उसे अपनी पत्नी का ही ख्याल आया… बेचारा कितना षरीफ आदमी है… वे अपने प्रेमी पति ब्वाॅयफे्रंड्स, दोस्तों, जान पहचान वालों और बच्चों तक को आपका उदाहरण देंगी और आपसे प्रेरणा ग्रहण करने को… और ऐसे मन मचल ही उठे तो काॅलगल्र्स और वेष्याएं किस दिन काम आयेंगी… अब आप कहोगे ऐसी जरूरत पड़ने पर पत्नी तो है ही… वह तो है ही… आप न चाहें तब भी… और वहां तो आपको परफाॅर्मेंस देना ही पड़ेगा, वह भी तगड़ा, वरना महाभारत… आजकल तो तुम्हारा मन ही नहीं करता मेरे साथ कुछ करने की! कहां पूरी हो रही है जनाब की जरूरतें? सवाल पर सवाल… कटघरा पर कटघरा… और फिर जीना मुहाल… तो यहां तो आप विराम ले ही नहीं सकते… भले ही वियाग्रा खाना पड़े… मगर उम्र कुछ भी हो माल नया हो (आपके लिए…) तो वियाग्रा की गोली तो षरीर खुद ब खुद प्रोड्यूस कर ही लेती है… (आप चाहें या न चाहें)… हां तो मैं कह रहा था कि पत्नी तो है ही मगर रोज दाल-भात-चोखा कितना खाया जाए… बोरियत हो ही जाती है यार… ये बीवियां तो समझती नहीं है मगर हम तो समझदार लोग हैं… तो चेंज तो जरूरी है न… क्रियेटिव, एनरजेटिक, फिट, सक्सेस और जवान बने रहने के लिए… वरना ये बीवियां तो आपको पचास का होते न होते बूढ़ा बना देती हैं… जवान रहने के लिए नया उत्साह, खून का तेज संचार जरूरी है… अब रोज सुबह षाम जिसे देखने की, जिससे सट कर सोने की आदत पड़ चुकी है, उसे देखकर काहे का संचार बढ़ेगा जी… विज्ञान की किताब नहीं पढ़ी क्या कि जो भी लगातार मिले षरीर उसका अभ्यस्त हो जाता है चाहे वह काम हो, आराम हो या बीवी… और षरीर जिसका अभ्यस्त हो जाता है, उससे नया उत्साह नहीं पैदा होता… और न ही रक्त संचार बढ़ता है… रक्त संचार न बढ़े तो झुर्री, सिर्फ त्वचा में नहीं जी, हर चीज में… रखे-रखे तो लोहा भी जंगा जाता है और बेकार हो जाता है… घिसाई जरूरी है… ठहरा हुआ पानी गंधाने लगता है… गति जरूरी है… और षरीर जिसका अभ्यस्त हो जाता है, उससे षरीर में गति पैदा नहीं होती… मन में तरंगे नहीं उठतीं… यह सब न हो तो निचले हिस्से में सुरसुरी का तो सवाल ही नहीं उठता… फिर तो गई जवानी तेल लेने… इसलिए स्वाद बदलना जरूरी है जी… मगर बीवी है… कसम खाई है उसे खुष रखने की… मर्द की जुवान है फिर नहीं सकते… इसलिए ट्रिक… ट्रिक ऐसी कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे… अब मुझे ही देखिए, नौकरानी के साथ मेरी कल्पना करती मेरी बीवी हाॅल में पहुंच चुकी है… वह सामने है… मैंने रस्सी खींच दी है… फूलों की वर्शा उस पर हो चुकी है… हैप्पी एनीवर्सरी… वह मोटी फुटबाॅल, भाव विह्वल होकर दौड़ने की नाकाम कोषिष करती आकर मुझसे लिपट चुकी है… आपने वह कहावत तो सुनी है न… कुत्ते को घी नहीं पचता… इन महिलाओं को भी न आराम, पैसा अधिकार, खुषियां आदि नहीं पचती… ब्याह के पहले कैसी मरियल सी थी यह… अच्छा घर-वर क्या मिला, फूल के कुप्पा… और दो सुख-सुविधा… अब झेलो फुटबाॅल को… यहीं नौकर-नौकरानी नहीं होते, दिन भर खटती, लंच-डिनर, बच्चे, बरतन-बासन के चक्कर में दौड़ती भागती रहती तो ठीक रहती… फीगर मेंटेन रहता… मगर…
अजी तुम्हारे आॅफिस से फोन आया था… अभी… अभी… अभी तुरत बुलाया है… इमरजेंसी है… जाओ जल्दी…
अभी तो मैंने सरप्राइज पूरा भी नहीं किया…
तुमने इतना सोचा मेरे लिए, मेरी कद्र की, मेरी भावनाओं की कद्र की, मेरे लिए तो यही बहुत है… मुझे और कुछ नहीं चाहिए… सच्ची… गाॅड प्राॅमिस… अपने गले पर चिकोटी काटती हुई बोली…
दो पल रूक कर फिर बोली- अब नौकरी है तो इग्नोर तो नहीं कर सकते… मैं समझती हूं तुम्हारी मजबूरी… जाओ… थोड़ा मुंह बनाया, गले लगाया, चूमा और धीरे-धीरे ऐसे चलते हुए निकला, जैसे बड़े भारी मन से जा रहा हूं… बाहर निकलते ही एक लंबी सांस ली… चलो सस्ते में छूटे… अरे बच्चे तो अभी छोटे हैं अबोध है… मगर ये औरतें जीवन भर अबोध क्यों बने रहना चाहती हैं? आदमी इतनी मेहनत से कमाता है, एक-एक पैसा जोड़ता है किसके लिए? परिवार के लिए ही तो… अब कभी-कभार होटल में स्वाद बदलने के लिए खा लेने का मतलब यह थोड़े ही होता है कि कोई घर को भूल गया या घर के लिए लगाव कम हो गया… या घर को छोड़कर होटल का हो गया… पर पता नहीं क्यों ये औरतें इत्ती सी बात समझती ही नहीं! जीवन भर इन्सेक्योर रहती हैं और हमारा जीना मुहाल करती रहती हैं… ठीक ही कहा है किसी ने कि औरतें इतनी इनसेक्योर होती हैं कि काठ की बनी औरत को भी पति देख ले तो जल मरती है। इनकी रगों में खून नहीं सौतिया डाह दौड़ती है। अच्छा है भई, वरना एकजुट न हो जातीं। और अगर जो कहीं ये एकजुट हो जायें तो हम राज कैसे करेंगे… हमारा साम्राज्य अक्षुण्ण कैसे रहेगा… ये हमारे आगे पीछे कैसे घूमेंगी कभी घर तो कभी बाहर की सफलता के लिए… सफलता के सारे की-एसेट्स हमारे कब्जे से निकल न जायेंगे… सिंहासन हिल न जायेगा… तो क्या हुआ अगर इनका यह असुरक्षा भाव हमारा जीना मुहाल किये रहता है, कबाव में हड़डी बन मजा किरकिरा करने को आतुर रहता है… राज तो चलता रहता है… हम षासक वर्ग हैं… आदत है राज करने की… छिन जाए तो मर न जायेंगे… मर्दानगी के बिना मर्द कैसे और मर्दानगी का तो अर्थ ही है निडर मजबूत व्यक्तित्व जो सबकुछ अपने हिसाब से ढाल ले… यानी राज करे… तभी तो साम दाम दंड भेद हमारे रग रग में बहता है जी… यूं ही थोड़े न इतने ट्रिक इजाद कर लिये हैं… और जब तक यह असुरक्षा भाव जिंदा है हमारा ट्रिक अचूक है… सो फिकर नाॅट यारा… ड्रामैटिक ट्रिक जिंदाबाद… ट्रिकी ड्रामा जिंदाबाद…
अब क्या करें… पति नाम के इस जीन के लिए कोई दूजी राह भी तो नहीं है… चैन से जीना है तो यह सब ड्रामा हम पतियों को तो करना ही पड़ता है… की करां जी… मजबूरी है… उन्हें छोड़ भी तो नहीं सकते… आखिर परिवार के बिना जीना भी कोई जीना है… ये रिष्वत, ये बेईमानियां, ये दिन-रात की ड्यूटी सब परिवार के लिए ही तो करता हूं… वरना एक अपनी देह की फिक्र ही किसे है…
—-
सीन चेंज… अब मैं थाने में हूं। एक होटल पर रेड करना है। खबरी ने बताया है कि वहां देह का गोरखधंधा चल रहा है… देह का धंधा सुनते ही नीचे कुछ उठा… तुरत खुद पर काबू किया… एसपी साहब नाराज हो रहे हैं कि साला खुद दनदना कर कमा रहा है और हमें हिस्सा तो छोड़ो भनक तक नहीं लगने दी… अभी उसकी औकात याद दिलानी ही पड़ेगी उसे… चलो… धड़धड़ सब जीप में सवार हुए और जीप देखते ही देखते स्पाॅट पर पहुंच गई… होटल को हमने घेर लिया… हक्का-बक्का होटल मालिक दौड़ता हुआ एसपी सहब के पास आया और उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया… हम सब मुस्तैद थे… एक इषारा और तलाषी षुरू… उधर होटल मालिक और एसपी साहब में लगातार बात चल रही थी… मैं सुन तो नहीं पा रहा था, मगर पता है मुझे कि नेगोषियेषन चल रही है… कुछ ही मिनटों में मामला पट गया… पटना ही था… अगर जरा भी देर होती तो बात किसी न किसी कस्टमर तक पहुंच जाती, कुछ नहीं तो बात मीडिया तक पहुंच सकती थी… ये मीडिया के कुत्ते साले सूंघते रहते हैं… फिर तो होटल और होटल मालिक का जो होता सो होता यानी बिजनेस चैपट और एसपी साहब के हाथ से मोटा मुर्गा निकल जाता… दोनों की मजबूरी थी सो खटाखट सौदा पटना ही था… अब पैसों के लेन-देन, हफ्ते में कितना पहुंचाना है, सब तय होने के बाद वहां आये सभी पुलिसवालों के लिए षानदार जिंदा और मुर्दा गोष्त का इंतजाम हो गया। वैसे भी जब षराब और लजीज चिकेन अंदर जाए तो फिर अंदर का फव्वारा निकलने को बेताब हो ही जाता है। हम सब अब अपने-अपने जिंदा गोष्त के पास थे। मेरी वाली बड़ी कमसिन, गोरी चिट्टी और एकदम मेंटेन थी। बांछें खिल गई मेरी तो। वाह रे ऊपरवाले आज तो तूने षानदार सरप्राइज दिया एनीवर्सरी का। कर भला तो हो भला। बीवी का भला करके आया तो देखो अपना भी भला हो गया। ठीक ही कहा गया है षास्त्रों में कि एक औरत को जीवन भर खुषी से निबाहने पर बारह महायज्ञ कराने जितना पुण्य मिलता है। प्रभु की कृपादृश्टि मिलती है और ईष्वर अपने ऐसे नेक बंदों को ईनाम देता है। वाह रे ईष्वर क्या ईनाम दिया है। धन्यवाद तेरा। मुष्किल से सोलह-सत्रह की होगी। एकदम छुई-मुई-सी। मैं उसे सहला ही रहा था कि अचानक मुझे झटका लगा। हें! इसके तो पैर ही नहीं हैं… पोलियो से सूखे पैर… एक कदम भी नहीं चल सकती… खड़ी तक नहीं हो सकती… दोनों पैर… हाथ में चप्पल पहन घिसट-घिसट कर चलती है। झटका लगा। इतने जोर का गुस्सा आया… साले होटल मालिक यही माल मिली थी तुझे मेरे लिए… मैं गुस्से से उठा ही था कि उसने मेरा हाथ पकड़ लिया।
क्या हुआ साहब? देखो साहब आप मेरे पैर छूने तो आये नहीं हैं, न मैं इतनी महान हूं कि कोई मेरे पैर छुएगा… आप तवायफ के पास आए हैं, तो जाहिर है कुछ और ही करने आए होंगे… आप जिसके लिए आये हैं वह तो है मेरे पास… फिर नाराज क्यों हो रहे हैं?
अरे हां, मुझे क्या करना इसके पैरों का… कौन सा ब्याह रचाना है… षराफत, दया इन सब का ढोंग भी यहां क्यों? कौन सी मेरी रिष्तेदार, कलिग या पहचान वाली है… और रंडी के पैरों से गाहक को क्या काम… काम तो काम से है… षुरू हो जाओ दारोगा साहब… ऐसा कमसिन माल…
साहब, आपको निराषा नहीं होगी… बैठो साहब…
मैं बैठा और निराषा नहीं हुई। सचमुच नहीं हुई। बल्कि क्या बताऊं… उस लड़की ने तो लगता है पूरा कामषास्त्र रट रखा था। तरह-तरह के आसनों और कामकला में पारंगत थी वह। पहली बार में ही उसने इतने हिचकोले खिलाए कि मजा आ गया… खूब एंज्वाॅय किया…
000
मैं तो उसी रात कायल हो गया था उसका। अब जब तब पहुंचने लगा था उसके पास। पेमेंट तक देकर। आज फिर मैं उसी के पास हूं। आजकल पता नहीं क्यों मुझ जैसे कमीने को भी उससे एक लगाव-सा महसूस होने लगा है। उसकी फिक्र भी होने लगी है। आज उससे इन सब से अलग कुछ बातें करने की इच्छा हो रही है, जबकि आज तक किसी काॅलगर्ल या वेष्या का नाम तक नहीं पूछा मैंने। लेकिन यह लड़की ऐसे प्यार से डूब कर संबंध बनाती है मुझसे, जैसे मैं ही इसका पति हूं। क्या यह मुझसे प्यार करने लगी है? क्या मुझे भी इससे प्यार? नहीं… नहीं… मेरा भरा-पूरा परिवार है… मुझे इन चक्करों में नहीं पड़ना… महीना पंद्रह दिन में एक बार आ जाना, या संबंध बनाने की तलब होना अलग बात है… इससे ज्यादा कुछ सोचना ठीक नहीं… बी प्रैक्टिकल दारोगा जी… हां इसका कुछ भला कर सकूं तो कर देता हूं… इसकी जिंदगी इस नरक से निकल जाएगी… इतना ही तक ठीक रहेगा, इससे आगे नहीं… और फिर यहां से निकल जाएगी तो संवर जाएगी इसकी जिंदगी… किसी गरीब-गुरबा को कहीं सेक्यूरिटी गार्ड वार्ड या ऐसा ही कोई काम-वाम दिलवाकर उससे इसका ब्याह करवा दूंगा… इसने मुझे सुख दिया, इसके सुख का इंतजाम कर दूं… ऐसी अपाहिज लड़की की मदद कर पुण्य भी मिलेगा… बेचारी!
सुनो, तुम बहुत अच्छी हो… मैं नहीं चाहता तुम इस नर्क में पड़ी रहो… तुम तो जानती ही हो कि मैं पुलिस में हूं… तुम अपने मां-बाप का अता-पता बताओ मैं पता लगवा कर तुम्हें उन्हें सौंप दूंगा… किसी को इस बात की भनक तक नहीं लगने दूंगा कि तुम ऐसा काम करती रही हो… उसने चैंक कर मेरी ओर देखा। वह मुझे एकटक देखती रही। बोली कुछ नहीं।
अरे डरो नहीं, बोलो। यह होटलवाला मेरे सामने कुछ नहीं बोलेगा। बताओ अपने पिता का नाम। गांव का नाम।
साहब आज कह दिया दुबारा न कहना… खा जाने वाली नजरों से मुझे घूरते हुए उसने गुस्से से कहा।
मुझे झटका लगा। जोर का और जोर से ही। गुस्सा भी आया।
साली रंडी ऐसे बोलेगी मुझसे! झुककर और तमीज से बात कर। नजर नीची कर।
खबरदार साहब! जो मुझसे ऐसे बात की… आप अपनी लिमिट में रहो… क्यों साहब? क्यों करूं नजर नीची? और क्यों करूं झुककर बात? किसी के एहसान पर नहीं पलती हूं। अपना कमाती हूं, तो अपनी ठसक में क्यों न रहूं?
कमाती हूं? इसे कमाना कहती है तू? रंडीपना है ये? इस पाप को…
पाप? वह हंसी। जोर से। तो यह पाप मैं अकेली कहां कर रही हूं साहब। आप भी तो बराबर के हिस्सेदार हो।
चुप साली?
गाली मत देना साहब… वरना आपसे ज्यादा चंगी गालियां दे सकती हूं…
जी में आया एक थप्पड़ रसीद दूं और जेल में डाल दूं। साली गैरकानूनी धंधा करती है और उस पर से दारोगा को आंखें दिखाती है। मेरे हाथ उठ ही रहे थे उस पर कि उसके षब्दों ने विराम लगा दिया।
साहब, आप भी तो काम करते हो। उसमें हाथ, पैर दिमाग यानी षरीर के अंग ही तो इस्तेमाल करते हो और कमाते हो। मैं भी अपने षरीर का अंग इस्तेमाल कर कमा रही हूं तो क्या गुनाह कर रही हूं।
हां, इस दृश्टि से तो इसकी बात सही है। मेरे हाथ रूक गये। मैं मूर्खों की तरह उसे देख रहा था। अवाक… किंकर्तव्यविमूढ़… यह भी उसके षब्दों ने ही किया था।
साहब, आपको भूख लगती है तो आप होटल में जाकर खाते हो, पेट भरता है, पैसे देते हो। यहां भी आपकी भूख मिटती है, पैसे देते हो। अगर मैं आपकी जरूरत न पूरी करूं, तो दोगे पैसे? नहीं न! अच्छी सर्विस न दूं तो आओगे दोबारा? नहीं न! अगर वह गलत नहीं तो यह गलत कैसे?
फिर घर-परिवार का क्या होगा? तेरी थ्योरी से तो सब टूट जाएंगे! दुनिया कैसे चलेगी? बच्चों की जिम्मेदारी कौन लेगा? इसलिए गलत है यह?
गलत तो बहुत कुछ है साहब… आपकी यह पूरी सामाजिक व्यवस्था ही गलत है। और इस व्यवस्था ने ही मुझे यहां पहुंचाया है। …तो क्यों नहीं ध्वस्त कर देते इस व्यवस्था को… एक मेरे छुटकारे से बदल जाएगी ये व्यवस्था? बताइए! च्लिए छोड़िए, आप जानना चाहते हो न कि मैं यहां कैसे पहुंची और क्यों नहीं अपने घर जाना चाहती हूं, तो जान लीजिए कि मुझे जिस पिता के पास आप भेजना चाहते हैं, उसी की वजह से मैं यहां हूं?
क्या?
चैंक गए साहब? पूछिए अपने समाज से कि उसने ऐसी व्यवस्था को क्यों जिंदा रखा है, जिसमें लड़की का पैदा होना मां-बाप अफोर्ड नहीं कर पाते। और अगर लड़की अपाहिज है, तो कोढ़ में खाज। मेरा बाप दिन रात मुझे कोसता था। क्या होगा इसका? कौन करेगा इससे ब्याह? मुझे देखते ही उसका चेहरा बुझ जाता था। जानते हो साहब जो नाॅर्मल बच्चे होते हैं न उनके पास सबकुछ होता है। स्वस्थ षरीर, सही दिमाग, तब भी उन्हें मां-बाप के प्यार की बहुत जरूरत होती है… फिर अपाहिज चाहे षारीरिक रूप से हो या मानसिक रूप से ऐसे बच्चों के पास तो बहुत बड़ी कमी होती है… मां-बाप का काम होता है इस कमी को पाटना। अपने प्यार से… ऐसे बच्चे को हिम्मत देना… भरपूर प्यार और केयर… नाॅर्मल बच्चे से बहुत ज्यादा… क्योंकि एक कमी है जिसे पाटना है… वह पटेगा तब नाॅर्मल बच्चे के बराबर मामला पहुंचेगा और तब उसके बाद उसे फिर उतना प्यार, देखभाल और साथ चाहिए जितना एक नाॅर्मल बच्चे को… यही काम समाज का भी है… उसे भी अपने समाज के अपाहिज सदस्यों के साथ यही फाॅर्मूला अपनाना चाहिए… लेकिन होता क्या है आपकी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था में… ऐसे बच्चों को कोस-कोस कर उनका जीना मुहाल कर देते हैं… रहा-सहा आत्मविष्वास भी खत्म… हीनभावना मजबूत, और मजबूत… या फिर उसे प्यार के नाम पर खूब सहानुभूति देते हैं… कोई आपके सामने रोटी रख जाता है, तो कोई पानी… और जानते हैं साहब यह सहानुभूति हर पल एहसास दिलाती है कि तुममें कमी है, इसलिए हम तुम पर दया कर रहे हैं… तुम हीन हो… तुम हीन हो… तुम हीन हो…
यह हथौड़े की तरह चोट करता रहता है दिलोदिमाग पर और पागल कर देता है… कुछ अच्छा करने या बनने नहीं देता… मेरा बाप तो फिर भी गरीब था… अपनी गरीबी का रोना रोता रहता था… उस पर से मेरे जैसी अपाहिज को ब्याहना उसे पहाड़ ढाहने सा असंभव जान पड़ रहा था… लेकिन मैं पूछती हूं उसी गरीबी में वह अपनी दो और बेटियों और एक बेटे को पाल, पढ़ा-लिखा तो रहा था… सरकारी स्कूल में ही सही… मुझे भी पढ़ाता… लेकिन नहीं, मेरा अपाहिज होने ने उसे मेरे लिए कुछ भी न करने के लिए अभिषप्त कर दिया था… हर घड़ी किच-किच, कैसे होगी इसकी षादी… और इसी टेंषन में उसने एक दिन मां से कहा, इससे तो अच्छा होता कि यह मर जाती… सच में तो यह मर उसी दिन गई थी, जब इसको पोलियो मारा था… अब पिषाचिनी बनी हमारा खून पी रही है… हमें मारकर ही पीछा छोड़ेगी। लेकिन मैंने बिना पिषाचिनी बने छोड़ दिया उसका पीछा।
हिंदी पढ़ना-लिखना जानती थी। मां ने घर में ही चिट्ठी-पत्री भर पढ़ना-लिखना सिखा दिया था। बगल के लाॅज में रहने वाले भइया को हमेषा देखती थी क्लासिफाइड ऐड में नौकरी का विज्ञापन ढूंढ़ते। उनके यहां खाना मां भेजती थी मेरे हाथों। टिफिन में। मां टिफिन में खाना भेजती थी आसपास के लाॅज में रहने वाले लड़कों को। मैं उसमें उनकी पूरी मदद करती थी। लेकिन फिर भी मैं बोझ थी अपने बाप के लिए। हमेषा डरी रहती, अब आज मेरा बाप पता नहीं किस बात पर मुझसे नाराज होनवाला है और उस गुस्से में फिर कोसेगा, हो सकता है हाथ भी उठा डाले। नाराजगी तो एक बहाना है। दरअसल मुझे देखते ही उसकी भवें टेढ़ी हो जाती थी। मैं उसके दुखों का कारण थी। जानते हो साहब कोई बोझ कहे तो कैसा लगता है? कोई काटकर फेंक दे तो उससे कम ही दर्द हो…
मेरे दिमाग की नसें तड़तड़ाने लगी थीं। गूंज रहा था, जानते हो साहब कोई बोझ कहता है तो कैसा… कोई काटकर फेंक दे तो उससे कम ही दर्द हो…
मैंने ठान लिया था साहब… मैं अपने बल पर जिऊंगी… मैंने एक अखबार उन भइया से मांगा और फोन कर-कर के नौकरी ढूंढ़ने लगी। हर जगह से ना। नौकरानी तक के काम के लिए लोगों को पैरवाली चाहिए। ऐसे में दया कर के कोई काम दे भी देता तो क्या होता साहब? वह भी मेरे बाप की तरह मुझ पर एहसान कर रहा होता और बोझ समझ रहा होता मुझे। ऐसा काम तो मुझे चाहिए ही नहीं था। इसलिए मैंने तय कर लिया था कि मैं बिना किसी की दया के आत्मनिर्भर होकर रहूंगी। तब एक दिन नौकरी की यह तलाष पूरी हुई। यह कमला दीदी मिली जो हम सब लड़कियों की इंचार्ज हैं। आपके अनुसार जिनका यह चकला है। जो ऐसे कई होटलों में हमें सप्लाई करती है। अखबार में मालिष पार्लर के नाम पर ऐड था। मेरी बात हुई। उनका आदमी टिकट लेकर आया और मैं दिल्ली पहुंच गई। तब तक मुझे यही पता था कि मुझे मालिष का काम करना है। फिर इस काम का पता चला। पुरातन संस्कार। विरोध किया। लेकिन तब कमला दीदी ने समझाया मुझे कि तू अपने बल पर जीना चाहती है। किसी पर बोझ बन कर नहीं रहना चाहती। किसी का एहसान या कटाक्ष नहीं सहना चाहती। तो इज्जत की यह जिंदगी तू अपने षरीर के बल पर जी। लेकिन मेरे बचपन के संस्कार ने मुझसे विद्रोह कर दिया। मैंने कमला दीदी से कहा कि मुझे नहीं करना यह सब। यह इतनी भली थीं कि उन्होंने कहा कि ठीक है, तब हम तुम्हें वापस घर भेज देते हैं, लेकिन मैं घर नहीं जाना चाहती थी, अपने बाप के एहसान के टुकड़ों पर पलने और गाली खाने के लिए… कभी-कभी मार भी। उस पर से घर से बिना किसी को बताए भाग निकली थी। उस दिन भी भइया को टिफिन देने गई थी रोज की तरह। उसकी आंखें षून्य में कुछ तक रही थीं लगातार। जैसे कोई स्क्रिप्ट पढ़ रही हो। चेहरा पर पल के हजारवें हिस्से में हजारों भाव आए गए। आवाज के आरोह अवरोह सीने पर आरी चला रहे थे। वह कहे जा रही थी- उस दिन टिफिन देने के बाद रोज की तरह घर न गई। आगे मोड़ तक चली गई। वहीं से कमला दीदी के आदमी ने मुझे कार में बिठा लिया। फिर ट्रेन में। और मैं पहुंच गई दिल्ली। ऐसे में अगर घर वापस जाती तो मुझे पता था कि वह मेरा क्या हाल करता। तब कमला दीदी ने कहा कि ठीक है, तुम कोई और काम ढूंढ़ लो… मेरी तरफ से तुम्हारे ऊपर कोई प्रेषर नहीं है। जल्दी से अपना इंतजाम कर लो, तब तक यहां रह सकती हो। दस दिन में मुझे समझ में आ गया कि अगर मैं आपकी नजर वाली इज्जत की जिंदगी चाहती हूं, तो मुझे यहां भीख मांगना पड़ेगा और उसमें दिन भर में आराम से इतनी कमाई तो हो ही जाएगी कि एक टाइम पानी पी सकूं और एक वक्त का खाना खा सकूं। लेकिन तब मुझे अपने भाई-बहन याद आ गए, जो मेरे सामने खाना-पानी रखते थे, तो कितना दया का भाव होता था… सम्मान नहीं तरस का भाव होता था… जबकि मां के काम में सिर्फ मैं ही हाथ बंटाया करती थी, उसके बाद भी… जैसे ही वह तरस खाने वाला भाव मेरी नजरों के सामने गुजरा मैंने भीख मांगने का ख्याल छोड़ दिया, क्योंकि मैं तरस नहीं बराबरी का भाव चाहती थी, जबकि तरस में कमतर समझने का बोझ होता है, इसलिए मैंने यह काम चुना, क्योंकि इसमें चाहे कोई सम्मान से देखे या अपमान से तरस नहीं खाता और तब कमला दीदी को मैंने अपना फैसला सुना दिया।
तब उसने मुझे बताया यह सब कि यह भी एक अंग है। जब बाकी अंगों की कमाई हम खा सकते हैं, तो इसकी क्यों नहीं! मुझे उसकी बात बिल्कुल सही लगी और मेरे अंदर का रहा-सहा अपराध बोध भी जाता रहा, क्योंकि बराबरी के हक के साथ जीना मेरे लिए सबसे बड़ा मूल्य है। मैं न मरना चाहती थी और न किसी की दया पर निर्भर रहना। कमला दीदी ने ही मुझे काम-कला की षिक्षा दी। मैंने खूब मन लगाकर सीखा। तब कमला दीदी ही मेरा खर्चा उठाती थी। लेकिन वहां एहसान का भाव बिल्कुल नहीं था। इंन्वेस्टमेंट था। उसने मुझ पर पैसा लगाया आज मुझसे पैसा कमा रही है। एकदम बराबरी का दर्जा। क्योंकि उसने पहले भी मुझे कह रखा था कि जैसे ही तुम आत्मनिर्भर हो जाना मेरे पैसे दे देना। वह कभी मुझे हीन दृश्टि से नहीं देखती है। मैं खूब मन लगाकर अपना काम करती हूं। कमाती हूं। वह मेरे लिए ग्राहक लाती है। उसका कमीषन देती हूं। एकदम बराबरी का हिसाब-किताब… ऐसी इज्जत की जिंदगी छोड़कर मैं फिर उस नरक में चली जाऊं, जहां दिन रात बेइज्जती है! चलो! थोड़े देर के लिए मैं यह भी मान लेती हूं कि कोई लड़का मुझसे षादी करने को राजी हो जाए, लेकिन क्या वह मुझे वह सम्मान दे पाएगा, नहीं, उसके लिए भी मैं अपाहिज ही रहूंगी। यह भी संभव है, वह भी कोठे का रुख करे, जैसे आप करते हैं, जिसे मैं हरगिज बरदाष्त नहीं कर सकती। क्योंकि तब यह मेरी तौहीन होगी। यानी कमतर समझने का भाव। नहीं साहब इतनी मूरख नहीं हूं मैं।
इज्जत की जिंदगी? यह इज्जत लूटने की प्रक्रिया इज्जत की जिंदगी है? तुम पागल हो गई हो?
साहब आपकी पत्नी भी तो आपके इसी काम आती है, आप उसका सारा खर्च उठाते हो… वह इज्जतवाली तो मैं क्यों नहीं?
क्योंकि वह एक के साथ और तुम?
हां साहब अब आए तुम रास्ते पर… मैं भी इसकी हामी हूं, लेकिन साहब पहले यह बताओ कि तुम बार-बार मेरे पास क्यों आते हो? इसीलिए न कि मेरी सर्विस तुम्हें सबसे अच्छी लगती है। सर्विस देती हूं पैसे लेती हूं। कुछ गलत तो नहीं करती। तुम्हारा या किसी भी ग्राहक का बार-बार आना मुझे खुद पर गर्व करने के मौके देता है कि देखो मेरे काम का कद्रदान… क्या यह गर्व मैं अपने बाप के घर रहकर या भीख मांगकर कभी पा सकती थी? नहीं… वहां तो यही लगता कि मैं बहुत बेकार चीज हूं… किसी काम की नहीं। कमला दीदी ने मुझे यह आत्मविष्वास, यह गर्व, यह तरक्की दी है।
अब रही बात एक के साथ या अनेक के? बेषक एक के साथ होना सबसे अच्छा है साहब… हां, साहब इस बात की हामी तो मैं भी हूं… लेकिन अगर परिस्थितियां इसे असंभव बना दें तो किसी पर बोझ बनकर या किसी की तरस या एहसान पर जीने से तो बेहतर है न यह साहब… बोलो साहब…
मैं गूंगा हो गया था या सेंसलेस… नहीं जानता… लेकिन उसके सारे सेंस एक साथ उग्र हो उठे थे… वह जोर से बोली- आपकी पत्नी तो है? नहीं… वह हमेषा एक असुरक्षा में जीती है, क्योंकि वह तुम पर निर्भर करती है, साहब… तुम अपने हर गलत सही काम को उसके मत्थे थोपते हो, बीवी का खर्चा इतना है कि रिष्वत न लूं तो और क्या करूं? पार्लर, काॅस्मेटिक्स, कपड़े… नाक में दम कर रखा है…
तुम्हें कैसे पता?
यह हर पति का ट्रिक है साहब… मगर कभी सोच कर देखो कि यह सब जतन क्यों करती है वह, क्योंकि वह चाहती है कि उसका पति उसकी कद्र करे। अगर एक नई साड़ी पहनती है तो पचास बार अलग अलग तरीके से जानना चाहती है कि वह कैसी लग रही है… यहां उसके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि वह कैसी लग रही है… उसका दिल दिमाग यह जानने को बेताब रहता है कि आपकी नजरों को वह कैसी लग रही है इस साड़ी में… यह सिर्फ ग्रामीण या पारंपरिक सोच वाली महिलाओं का ही मुद्दा नहीं है… माॅडर्न लड़कियों का भी उतना ही है… वह मिनी स्कर्ट पहने चाहे आॅफिस यूनिफाॅर्म… पचास बार पति से, या ब्वाॅयफ्रेंड से जानना चाहती है कि वह कैसी लग रही है… काजल या आई षैडो नेलपाॅलिस तक लगाते हुए उसके जेहन में वह रंग घूमता है जिसके बारे में
कभी उसके दिलदार ने कह दिया था यूं ही या अनमने भाव से मगर इस ट्रिक के साथ कि वह इसे गंभीरता से कहा हुआ समझे… कि यह रंग तुम पर बहुत जंचता है… यह सब क्यों? औरत के दिल का यह हाल सिर्फ एक औरत ही समझ सकती है। संवेदनषील सोच वाली औरत साहब… वह नहीं जो मर्दवादी मृगतृश्णा को ओढ़ खुद को आजाद और संपूर्ण नारी समझ लेती है… वह नारी तो रह ही नहीं जाती है… वह तो मर्द बन जाती है… दिल से दिमाग से… सिर्फ षरीर से कोई स्त्री या पुरुश नहीं होता… सोच निर्धारित करती है कि हम सामंत हैं या संवेदनषील… स्त्री तो संवेदनषीलता का नाम है… उसकी भावनायें समुद्र की गर्जना के साथ उठती लहरों के समान नहीं तालाब के थिर जल में उठती सूक्ष्मतम लहरों के समान होती है… जिसे सिर्फ और सिर्फ संवेदनषीलता की आंखें ही देख सकती हैं, समझ सकती हैं और भंप सकती हैं… वे आंखें सबके अंदर होती हैं साहब मगर उसे खोलने की कूबत सबमें नहीं होती साहब क्योंकि उसके लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है… काष की वह कूबत आप विकसित कर पाते और तब समझ पाते कि हर रोज वह क्यों जानना चाहती है कि वह कैसी लग रही है… सिर्फ और सिर्फ इसलिए साहब कि अपने पति या प्रेमी को सबसे अच्छी वही लगे। हालांकि वह समझ नहीं पाती है कि वह ऐसा करके मेल ईगो को और बढ़ा ही देती है। इससे वह दोयम दर्जे की अपनी जिंदगी की मियाद और बढ़ा देती है। उसकी स्थिति और बदतर होती चली जाती है क्योंकि स्वाभिमान का जितना समर्पण करो सामने वाले के ‘चरण’ उतना ही विस्तार पाते चले जाते हैं। इस पर कभी फुरसत मिले तो सोचना साहब… और इस पर भी कि वह लड़ती भी है तो किस लिए? तुम समय नहीं दे रहे… तुम प्यार नहीं कर रहे… तुम एनीवर्सरी या बर्थडे भूल क्यों गए… यानी अब तुम्हें मेरी कद्र नहीं रही… सारे गुस्से के पीछे सिर्फ यही एक दुख होता है… कि तुम्हें अब मेरी कद्र नहीं… कि तुम मेरा कद्र नहीं करते… वह हमेषा असुरक्षा में जीती है। पति कद्रदान न रहा तो उसका क्या होगा? क्योंकि कद्र नहीं तो प्यार भी नहीं रह पाएगा… फिर झगड़ा, किचकिच और रिष्ता तक खत्म होने का डर… इस डर के कई रूप हैं… पति रूठ गया तो? मैं अच्छी नहीं लगती उसे अब? कोई और भा गई क्या? किसी और का हो गया तो? यह दर्द उन औरतों का भी है जो खुद कमाती हैं। न कमानेवाली, पैसे और भावना दोनों स्तर पर पति पर निर्भर होती हंै, तो कमानेवाली भावनात्मक स्तर पर। सुनो साहब। जिस दिन उनमें इतना आत्मविष्वास आ जाएगा न कि वह इस असुरक्षा बोध से निकल सके उस दिन वह औरत सच में जी पाएगी। मैं सच में जी रही हूं, क्योंकि अब मैंने उस डर पर काबू पा लिया है। मैं जानती हूं कि मेरी सर्विस इतनी परफेक्ट है कि ग्राहक साला जाएगा कहां… आना ही है उसे…
मेरा मन बुरी तरह बोझिल हो गया था। पता नहीं वह सही कह रही थी या गलत लेकिन अपने षब्दों से हथौड़े की चोट कर रही थी। दिमाग की नसें बस फटने ही वाली थी।
अच्छा मैं चलता हूं…
आखिरी बात सुनते जाओ साहब… एक औरत कुछ नहीं चाहती सिवाय इस एहसास के कि उसे सम्मानजनक प्यार मिल रहा है। प्यार, केयर, मगर सम्मान यानी कद्र के साथ… मुझे तीनों नहीं मिल रहे थे… परिस्थितियों ने इसे असंभव बना दिया था… तो मुझे अगर कोई एक ही मिल रहा था, तो वह मैं कैसे छोड़ सकती थी… औरत दिल से हमेषा कद्र को चुनती है साहब… मैंने भी वही किया…
उस लड़की के चेहरे से झांक रही थी मेरी बीवी…
तुमने इतना सोचा, मेरी कद्र की, मेरी भावनाओं का सम्मान किया, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए…
आप यहां बार-बार आते हो, क्योंकि आप मेरे काम की मेरी कद्र करते हो… कायल हो मेरी सर्विस के…
दोनों चेहरे आपस में गड्डमड्ड हो रहे थे… मेरी आंखों से बचपन के बाद षायद पहली बार आंसू बह रहे थे… अविरल… वह भी बिना किसी ट्रिक के…
क्या सचमुच सिर्फ आंसू ही बह रहे थे या बह रहे इन आंसुओं के साथ तिरोहित हो रहे थे सारे ट्रिक…
– ज्योति कुमारी
(पाखी, जुलाई अगस्त संयुक्तांक, 2022 में प्रकाशित)
…………………………..
किताबें
…………………………..