ज्योति शर्मा
हरिद्वार
हिन्दी साहित्य परास्नातक
काव्या संग्रह- “नेपथ्य की नायिका “
“बारिश के आने से पहले” सांझा काव्या संकलन में कुछ कविताएं ,ब्रज संस्कृति शोध सम्मान,सप्त देवालय परम्परा आलेख प्रकाशित ,आकाशवाणी में कथा एवं काव्या पाठ हिन्दी पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित होती रही है ।
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कविताएं
दुनिया की सभी औरतों के नाम
न ईश्वर चाहिए न पतिपरमेश्वर चाहिए
न नींद चाहिए, अभी तक सो ही रही थी हम
बिस्तरों पर, ट्रेनों में, ज़मीन पर, खाट-खटोले पर
अकेले या किसी के साथ
जागना अकेले ही पड़ता है
मत ढूँढो ऐसा पुरुष जो तुम्हारे लिए लड़े
ढूँढो ख़ुद को ख़ुद में
ढूँढो लिखे में, पढ़े में, सोचे में, किए में
ढूँढो बटलोई पर उबलती दाल की खुदबुद में
मिली आज एक औरत कहने लगी
दीदी रोटी बनाना ही नहीं कमाना भी है
घर बनाना ही नहीं घर से बहुत दूर
पैर पैर देस विदेस जाना भी है
जो सोता है वह रोता है और खोता है
जो जागता है जो भागता है
वही पहुँचता भी है
नींद चाहती थी तुम्हारी माएँ
तुम्हारी बेटियाँ अब सपने चाहती है
महादेवी वर्मा के लिए
महादेवी वर्मा जी, आपसे पहले आपके घर पाले गए
पशुओं से मिलना चाहती हूँ
आपकी कविता से ज़्यादा आपके गद्य संसार की
यात्रा करना चाहती हूँ
कविता लेकर क्या करूँगी—
मैं नीर भरी दुःख की बदली नहीं हो सकती
न मेरे पास कोई रहस्यमयी प्रेमी है
एक पति है— जो रोटी कमाकर लाता है
जो कभी कभी जता देता है प्रेम
कभी कभी लगा देता है डाँट कभी दांत
और कभी कभी जूते भी
महादेवी वर्मा जी, मुझे आपकी कविता से ज़्यादा
आपके मोटे चश्मे की ज़रूरत है
ताकि देख सकूँ दूर तक देख सकूँ देर तक
देख सकूँ अपनी बहनों की पीठ पर
गुमचोट
महादेवी वर्मा जी, मुझे तुम्हारी सहेली सुभद्राकुमारी चौहान की लक्ष्मीबाई की तरह
मर्दानी नहीं होना मुझे होना है ऐसी औरत
जो मार खाकर रोती नहीं
जो मारनेवाला का हाथ पकड़ती है और जो
बेधड़क पकड़ लेती है उसका भी हाथ
जो करता है उससे प्रेम ।
पुरुस
बहुत दिनों तक में उन्हें अपना पुरुस बोलती थी
बहुत दिनों वे मुझपर सर्मिंदा होते रहे
फिर एक रात सब होने के बाद धीरे से वे बोले
पुरुष होता है
मैंने श और ष बोलने का बहुत अभ्यास किया
हालाँकि अब भी मैं बता नहीं सकती श और ष में
क्या अंतर होता है
मैं इन्हें पुरुश कहती हूँ
मेरी माँ बाबूजी को स्वामी कहती थी
मेरी जिज्जी कहती थी कि वे बाबा की दासी है
सबसे सुखी मेरी जिज्जी थी
जितनी जितनी आज़ादी बढ़ी
उतने काम बढ़ते गए जिम्मेदारियाँ बढ़ती
गई
मोरी में बर्तन धोने से बिस्तर तक की सेवाएँ
एक दिन मुझे उनपर बहुत प्यार आया
यही जिम्मेदारियाँ जो बोझ बनकर मेरे कंधे तोड़े दे रही है
वे कब से उठा रहे है
वे यदाकदा जो मुझपर हाथ उठा देते है तो क्या
वे होटलों में रशियन नारियों का नाच देख लेते है तो क्या
वे थाईलैंड गए तो क्या
वे मेरे किए इतना करते भी तो है
वे मेरा जीवन इतना सुगम बनाते भी तो है
तो क्या हुआ कि उन्होंने बनाई है बड़े शहर में
गर्लफ़्रेंड
मैं अपने बेडरूम में एसी चलाकर मज़े से
लिख तो पा रही हूँ नारीवादी कविताएँ
यह सब सोचकर मैं उन्हें और प्यार करने लगी
अब कविता में उन्हें ऐसे क्रिटिसाइज करती हूँ
कि उन्हें बुरा न लगे
मैं नहीं चाहती वे कभी मुझे छोड़े
रोज़ रोज़ दफ़्तर में खटने से अच्छा है
उनकी यदाकदा मार खाना
चींटी के पग नेवर बाजत
चींटी के पग नेवर बाजत
तो भी मालिक सुनता है
हम औरतों के मालिक तो नहीं सुनते
कराहती है हम उसके नीचे
वह मारते जाते है
छोड़ देते है जैसे केंचुल छोड़ता है नाग
हमारे मालिक नहीं सुनते
तो यह दास कबीर किस मालिक की बात करता है?
क्या आदमियों के मालिक कोई और है
औरतों के मालिक तो उनके आदमी होते है
हवाईजहाज़ की प्रतीक्षा करते समय
दूर जा रही है स्त्री एक नदी से दूसरी नदी के किनारे
स्त्री कभी नहीं भूलती कि उसका शरीर औरत का है
भूलना चाहती है मगर भूलती नहीं
हज़ारों किलोमीटर के सफ़र में
सैंकड़ों किलोमीटर ऊपर आसमान में भी
नहीं भूलती स्त्री स्त्री होना
जैसे स्त्री होना कोई ध्यान प्रणाली है
साँस का नहीं शरीर का ध्यान रखो
स्त्री के साथ उसका खुद का शरीर भी
एक पुरुष की तरह व्यवहार करता है
उसे यातनाएँ देता है
उसका रक्त चूस लेता है
और एक दिन उसे छोड़ जाता है
जैसे बलात्कार के बाद
शरीर छोड़ जाता है अपराधी
स्त्री का शरीर भी
उसे एक दिन ऐसे ही छोड़ जाता है।
दढ़ियल आदमी
वह दढ़ियल आदमी
मेरे सामनेवाली कुर्सी पर
बैठा है
वाइरल हुआ है उसे शायद चक्कर आने का रोग
डॉक्टर कहता है कान का पानी हिल गया है
कितना सुंदर लग रहा है वो दढ़ियल आदमी
वाइरल में आदमी कितना सुंदर हो जाता है
क्योंकि बच्चा हो जाता है
लगता है उसका सिर रखूँ अपनी गोदी में
और उसे बताऊँ
मज़बूत होना ही मर्द होना नहीं है
वल्नेरबल होना भी मर्द होना है
जैसे वल्नेरबल होना ही औरत होना नहीं है
अवेध्य होना भी औरत होना हो सकता है
उसके गाल से रगड़ना चाहती हूँ गाल
मगर मुझे समाज का डर है
और लौटना भी है घर
जहाँ बेटे के लिए बनाना है
पराँठा और दही कबाब
उससे पहले एक बार उसके गंजे होते सिर को
सहलाना चाहती हूँ
आप आज मत करिए मुझे जज
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किताबें
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