Tuesday, May 14, 2024
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कल्पना मनोरमा, कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक एवं बी.एड. इग्नू से एम.ए (हिंदी भाषा), सम्प्रति-सीनियर एडिटर ( गोयल ब्रदर्स प्रकाशन) अध्यापन से स्वैक्षिक सेवानिवृत्ति, प्रकाशित कृतियाँ – प्रथम नवगीत संग्रह -“कबतक सूरजमुखी बनें हम” “बाँस भर टोकरी” काव्य संग्रह “ध्वनियों के दाग़” कथा संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। साझा प्रकाशित संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित। कथाक्रम, समावर्तन समेत कई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। निज ब्लॉग कस्तूरिया का कुशल संचालन व सम्पादन|
प्राप्त सम्मान- कई पुरस्कारों से सम्मानित।

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कविताएं

पहली बार

सूरज अभी डूबा नहीं 
अँधेरा उतरा नहीं था
जिद्दी बच्चे लौटे नहीं थे 
खेलकर घरों में फिर ये कौन था?
जिसने पुकारा दुन्नो को 
 
अनपहचानी कोमलता का नमक
झरता चला गया उसके अन्तर तक 
नरम सिहरन महसूस हुई कान के पीछे  
 
साँझ के चूल्हे पर उबल रही थी दाल 
दुन्नो को जलानी थीं लकड़ियाँ 
गलानी थी दाल 
 
विचारों में आज तक रोटियाँ थीं 
जिसे पाथना था दुन्नो को 
जीवन के अंतिम छोर तक 
 
दुन्नों ने किया अभिनय नहीं सुनने का
यही तो सिखाया गया था उसे बचपन में
अच्छी लडकियाँ नहीं देखती हैं कभी भी 
आवाज़ की दिशा में
कुँवारी लडकियाँ बनी होती हैं मोम की  
आँच से बचाकर रखना ही 
स्त्री का परम धर्म है 
जादुई मरीचिकाओं ने घेर लिया  
कुँवारा मन तो ग़जब हो जाएगा 
 
दुन्नो सोचती रही 
धुएँ के गुच्छों में से 
ब्याहे बालों के छल्ले खोलना 
मानती रही गुनाह दुन्नो  
दुन्नों ने झुका लिया सर 
चूल्हे के मुहाने पर
 
किसी ने फिर पुकारा मिठास से
 
इस बार उसके हाथ में लोई थी 
उसने पूछा आव़ाज की दिशा में 
कौन हो तुम?
जो पुकारता है किंतु दिखता नहीं
किसने समझा है मुझे जीवित 
और पुकारा है मेरे नाम से 
 
हाँ हाँ,सच में मैं ज़िंदा हूँ 
बोलो,कौन हो तुम!
 
आवाज़ देकर छिपना अच्छा नहीं 
आओ, मेरे सामने आओ 
देखो मुझे, मैं जिंदा हूँ!
 
दुन्नो नाच उठी पागलों की तरह
माथे से ओढ़नी कब सरक गयी 
उसे नहीं चला पता 
उसने दुहराया अपना ही नाम 
पहली बार
 
किन्तु नहीं बोला कोई
चौके के बाहर निकल कर देखा उसने 
आँगन की मुंडेर पर बैठी 
आस की अंतिम चिड़िया
दुन्नो ने बढ़ाया हाथ 
वह भी उड़ गयी बिना बोले
दुन्नो लौट गयी रसोई में
 
जलाने उँगलियाँ या कि रोटियाँ
खायेगा वो भी नहीं बता पायेगा
दर्द दुन्नो का
 
उस दिन रचने लगीं धड़कनें कुछ अलग 
चूल्हे से निकलती लपटें 
लगने लगीं  ठंडी उसे 
ये क्या! दुन्नों अवाक थी 
उभरने लगीं अनदेखी अल्पनायें
मन के कैनवास पर 
 
खाने में  नहीं आया था स्वाद 
किसी को उस ऱोज लेकिन 
नहीं माँगी माफ़ी दुन्नो ने किसी से.

प्रेमपथ

वह भीगना चाहती थी
उजले हंसी प्रेम में
लेकिन नहीं समझा गया उसकी
भावनाओं को महत्वपूर्ण

स्थूल प्रेम की थपक से
वह बदलती गयी भद्दे रेतीले दर्रों में

फिर एक दिन अचानक चली हवा
घिर आये श्याम बादल
उसके चारों ओर हुई बारिश झूम-झूमकर
वह भीगती रही अबोध बालक की भाँति
देर तक अपने बाहर-भीतर
महसूसती रही बादलों के हाथों को
अपने ललाट पर

हवा की अंतहीन यात्रा चुक गयी आकर
पथरीले उरोजों पर
बेस्वादी जीवन के गिलास में
भरने लगा रंगहीन प्रेम का शरबत
बूँदों से लदी पलकों को उठाकर देखा
पहली बार उसने सतरंगी इंद्रधनुष
भावनाओं के सुरमई आकाश पर

उसने घेर लिया खुद को
गोलाकर अपनी ही बाहों में
अंजाना मन खोया रहा अपने होने में
वह भीगती रही फुहारों में
उस दिन बदल गयी थी अचानक
कठोरता तरलता में

धरती कब आकाश बन गयी
नहीं चला था पता
न जानने की अबूझी कलम ने लिख दी
नई इबारत प्रेम की

निर्मित हुआ घनघोर बारिश के बीच
नया प्रेम-पथ
स्वयं से स्वयं तक का.

कोशिश

साफ बोलने की कोशिश में
बोलती हूँ हमेशा रुक-रुककर
समझ-समझकर
फ़िर भी उलझ जाते हैं
शब्द अपने पहचाने हुए शब्दों में

अकड़ने लगती है जीभ
और भरने लगती है गालों में
अतिरिक्त हवा
अटकने लगती हैं ध्वनियाँ
दाँतों के बीचोंबीच
हैरान होकर ढूँढती हूँ कारण
शब्दों में आये अवरोध का
तो पाती हूँ
चुप रहने के अनेक आदेशों को
चिपका हुआ
बचपन के होठों पर।

मुट्ठियों में बंद

सर्दी के बर्फीले दिनों में भी 
बनी रहती है आँच सूरज में
हरे पेड़ पर जाते हैं पपीते 
एक साथ नहीं 
न्यूटन के प्रथम नियम की तरह 
बिल्कुल अलग-अलग समय में
 
पेड़ नहीं छिपा पाता है फलों की पकास 
जैसे हँसी नहीं छिपा पाती है दांतों को
बच्ची देख लेती है 
ढेर भर कच्चे पपीतों में
एक पका पपीता  
 
न्यूटन के दूसरे नियम की तरह 
यदि नहीं मारता कौआ चोंच 
पपीते की देह पर तो कौन जानता 
फल की भीतरी पकास को
 
बच्ची अचंभित थी न्यूटन के 
तीसरे सिद्धांत की तरह
इतने हरों के बीच रह कर भी
कैसे पक सकता है सिर्फ़ 
एक पपीता
 
सोचते हुए बच्ची भूल जाती है 
सामाजिक सिद्धांत 
छोड़कर डर बच्ची उछल पड़ती है
मुट्ठियों में लेकर नारंगी रंग
 
उसके साथ उछलती हैं दो चोटियाँ
आँखों की पुतलियाँ
फ्रॉक का घेरा, साथ की सहेलियाँ
पेड़ों की पत्तियाँ,घरों की अंटियाँ
दाना चुगती चिड़ियाँ 
गाय की बछियाँ
 
यदि कोई नहीं उछलता है  
तो वे होते हैं  
खेत से लौटते हुए उसके पिता
 
पिता देखते हैं बच्ची को 
लपलपाती अग्नेय दृष्टि से 
क्रोध की ज्वालाएँ देख 
बच्ची सहमी खड़ी है  
 
उसे याद आता है कछुआ 
काश! वह भी बन सकती कछुआ 
तो छिप जाती उम्र भर के लिए 
 
मौन आग लिए आँखों में 
लौट जाते हैं पिता घर की ओर 
साथी बच्चे गाँव की ओर 
बच्ची को लौटना पड़ता है माँ की ओर
धुकधुकी दबाए छाती में 
लड़की लाँघती है देहरी 
माँ थाम लेती है उसका नन्हा हाथ
देहरी के बीचोंबीच 
 
बच्ची झुकाए है पलकें 
उसे भय है कहीं गमक न पड़े 
आँखों में बसा नारंगी रंग 
फल पकने का रसीला अनुभव
 
रंग के उत्सव को देखकर भी 
नहीं उछलती हैं अच्छे घरों की बेटियाँ 
रुंधे कंठ से फूट पड़ता है 
एक भीरू स्वर 
माँ भूल जाती है न्यूटन के सारे सिद्धांत 
नहीं उतरने देती हैं आसमान 
अपनी आँखों में कुलीन लड़कियाँ 
 
अच्छे घरों की लड़कियाँ
तितली के रंगों को 
दबा कर  मुट्ठी में 
करती हैं पसंद धरती के धूसर रंग 
धूप को छानकर बनाती हैं गहना 
काली रात की आगोश में 
पहनकर चांद की नथ
सिल लेती हैं होंठ लड़कियाँ 
प्रश्न पूछना वर्जित है 
सदा स्त्री के लिया सोने में रखना याद 
 
लड़की ने खोला मुँह 
माँ ने रख दिया 
बर्फ से भी ठंडा खुरदुरा हाथ 
मुखरित गरम होठों पर
सिसकियाँ भींचकर साँसों में 
समझाती है माँ  
कुलीन पुरुष नहीं करते हैं पसंद 
अपने घरों की स्त्रियों का उछलना 
खुली जगहों पर 
 
सुनने वाली के साथ 
बोलने वाली भी रह जाती है स्तब्ध
दोनों ओर मौन करता रहा 
विजय की उद्घोषणा 
 
सन्नाटे का मटमैला आँचल 
फैलता गया लड़की की ओर 
जो बन गया उसका लाल जोड़ा
चंचल नदी कैद हुई 
उस साँझ आँखों के छोटे दायरे में 
कभी न सूखने के लिए।

बीज

मैंने कहा रुको रुको रुको
लोगों ने कर दिया अनसुना 
दौड़ते गए बेतहाशा 
चारों ओर हाथ फैलाकर लक्कड़हारे 
हाथों में लिए कुल्हाड़ियाँ
जहाँ–जहाँ थे पेड़ 
किया अट्टहास
उड़ेल दिया लिबलिबा क्षोभ
अबोली जड़ों में
 
वे काटने लगे पेड़ों को
गिरने लगी लथपथ  लाशें 
 
मैंने पुकारा  
बचाओ बचाओ हमारे 
हरे-भरे रिश्तेदारों को
नहीं सुनी किसी ने मेरी आवाज़
 
बीजों को बटोर कर मैं लौट आई 
घर की ओर 
 
बीजों को बो दिया गमलों में 
तब से कर रही हूँ इंतज़ार 
पेड़ों के अँखुआने का.

किताबें

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