नाम :- ममता जयंत
जन्म :- दिल्ली {21 सितम्बर}
शिक्षा :- एम ए, बी.एड.
सम्प्रति :- अध्यापन
पता :- मयूर विहार, दिल्ली
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित व पाँच साझा काव्य संग्रह
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कविताएं
बैसाख की आस
तुमने भूख का वास्ता दिया
मुझे अन्न उगाने की सूझी
मैंने बोए गेहूँ, जौ, चना, चावल, दाल
और शर्बत, चाय, चीनी के नाम पर
रोप दी ईख
मेरे इसी कार-व्यवहार पर
टिके थे सब त्यौहार
बसंत आया फूल खिले, हवा चली,
खेत लहलहाए आस जगी बैसाख की
इसी सुनहरी चमक में थे
वनिता के गहने, लाजो की चुनरी, नन्हें-मुन्नों के खेल-खिलौने और कॉपी-किताब
शाम होते ही बादलों का रुख बदला
रंग गहराया, बिजली चमकी
और छाए उमड़-घुमड़ कर
मानो कर रहे हों पैमाइश धरा की
मैंने नज़र उठाई देखा और गुहार लगाई
आज बादलों से ज्यादा गड़गड़ाहट मन में थी
भीतर की अर्चना रोक रही थी ऊपर की गर्जना को
प्रकृति पर पहरे का प्रयास कोरी मूर्खता है
उस रात कंकड़ों ने भी दिखाई खूब नज़ाकत
यौवन में मदमाती फसल
सिमट गई वृष्टि की आगोश में
और समा गई धरा की गोद में
भोर होते ही
मैंने यूँ निहारा खुले मैदान को
ज्यौं विदा वक्त देखता है एक पिता बेटी को
मेरे पास डबडबाई आँखों के सिवा कुछ न
था, बस एक हाथ में रस्सी थी दूसरे में हँसिया और मन में तरह-तरह के ख़याल
अब सरकारी वादों पर टिकी थी
हर एक साँस!
©ममता जयंत
तुम भगवान् तो नहीं
मैंने रहने को मकाँ माँगा
तुमने मन्दिर दे दिया
मैंने भूख का नाम लिया
तुमने भगवान् का जिक्र छेड़ दिया
मैंने विनोद की बात की
तुमने वन्दना का राग अलापा
मैंने अनाज की तरफ़ देखा
तुमने अर्चना की ओर इशारा किया
मैंने प्रार्थना में प्राण बचाने की मुहिम छेड़ी
तुमने पूजा में समय बिताने की विधि बताई
क्या सचमुच!
मन्दिर पूजा अर्चना और वन्दना
कर देते हैं पेट की आग को ठण्डा?
क्या बन जाते हैं ठिठुरती सर्दी में कम्बल?
क्या तपती गर्मी में पसीना बन जाता है पानी
क्या मन्दिर का प्रसाद बन सकता है
मजदूर की दिहाड़ी?
जितना अन्तर है
भूख और भगवान् में
बस उतना ही फासला है
मेरे और तुम्हारे बीच
कहीं मैं भूख तुम भगवान् तो नहीं?
©Mamta Jayant
गुब्बारे
हमारे सपने
हिलियम के उन गुब्बारों जैसे थे
जिन्हें माँ उड़ने के भय से
बाँध देती थी धागे से हाथ में
और हम कर मशक्कत खोल देते तुरन्त ही
वे स्वछंद विचरते आसमानी हवा में
पल भर को उड़ जाते हम भी फुग्गे संग
और लौटते ही ठिठक जाते
उनके वापस न आने के भय से
फिर हमें सिखाया गया
गुब्बारे खेलने को होते हैं उड़ाने को नहीं
उसके बाद नहीं उड़ने दिया एक भी गुब्बारा
बाँध लिए सब मन के धागों से
पता नहीं
वे हमसे खेल रहे थे या हम उनसे
मगर जुड़े थे सब अन्तस से
अब भीतर ही पड़े हैं सारे के सारे
सजीले रंगों के सुंदर गुब्बारे!
ममता जयंत
न मालूम कहाँ जाते
साल का एक तिहाई हिस्सा बचा था बाकी
मैं आने को थी
माँ पहले ही आ पड़ी थी नैहर
जब प्रसव को जाने को थी
वो चमकीले बालों वाली बुढ़िया
जिसने झुर्रियों से ज़्यादा
कुछ न कमाया था
पर मेरे बढ़ते क्रम में बहुत कुछ सिखाया था
उसी के भरोसे आई थी माँ
मेरे जन्म का किस्सा उसे खासा प्रिय था
अक्सर कहती
क्वार की नौरातियों में आई थीं तुम
कर दी थी शुद्धि में सोबर!
पर, कौन जाने?
सब ऊपर वाले के हाथ है
तेरी माँ को मैंने खूब घी दूध पिलाया था
नहीं तो न जी पाती तुम
और मैं खिखिया जाती
हम एक क्रम में चार थे
वो माँ की सेवा में रहती
माँ कुलदीपक की आस में
हम जब भी लड़ते-झगड़ते
वो लाल तेज हो बड़बड़ाती
गुस्से में बस एक ही बात कहती
महतारी की आँखों की चमक हो तुम
नहीं तो!
काम की अधिकता में
हथेली पर चवन्नी धर पीछा छुड़ाती
और फटकार कर कहती
जाओ चाट लो चट्टे
हम भर कुलाँच दौड़ पड़ते
सौंधी सी बेसन की खुशबू की ओर
उस वक्त ननिहाल का अर्थ
बेसन की बर्फ़ी से ज़्यादा कुछ न था
माँ आज भी कहती है
नैहर न जाती तो तुम न आतीं
हम शामिल हैं अब तक उसके उन्हीं दुखों में जो रचे हैं ईश्वर ने केवल औरतों के लिए
न मालूम!
न आते तो कहाँ जाते?
ममता जयंत
सुनो प्रिय
जानती हूँ
तुम साहसी हो
मगर डरते हो
मेरे पहाड़ी टीलों पर चढ़ने से
क्या तुम्हें भय है मेरे गिर जाने का
या खुद के अकेले हो जाने का?
इसीलिए नहीं थामते मेरा हाथ?
क्या तुम्हें लगता है?
मैं रहना चाहती हूँ
पहाड़ों की हसीं वादियों में?
कहीं तुम आशंकित तो नहीं
वहाँ भी होते हैं प्रेम प्रसंग?
सुनो प्रिय!
पहाड़ी टीलों पर चढ़ना
प्रगति का प्रतीक भले ही न हो
पर हाथ थामकर चलना
विकास का पहला
क्रम है!!
ममता
नहीं चाहिए
नहीं चाहिए
ठहाकों की बैसाखियाँ
सहानुभूति का मरहम
और प्रफुल्लित कर देने वाले
शब्दों का लेप
जो निर्द्वन्द्व और बेसहारा कर दें मुझे
मैंने ईमान गिरवी नहीं रखा
न सीखा मुखौटा लगाकर जीना
सिर्फ चाहूँगी
वो कर्कशता, वो तीखापन
और वास्तविकता से परिपूर्ण
तुम्हारी वो तेज आवाज़
जो आत्मीयता का बोध कराती
मिटा दे त्रुटियों को
और मिला दे मुझे
खुद से !!
ममता जयंत
पिता
पिता!
जब विदा किया तुमने मुझे देहरी से
तुम आँखों से रोए दिल से हँसे थे
बोझ जो उतर गया था कन्धों से जवान बेटी का
मेरे बारह बरस का होते ही
सोचने लगे थे तुम मेरे ब्याह की बातें
मेरे यौवन के बढ़ते क्रम से सहमी माँ
डूबी रही पल पल सोच में
उसके आर से आखर भेदते थे तुम्हें
जितनी तीव्रता से बढ़ रहे थे मेरे वक्ष
तुम उतनी ही तीव्रता से खोज रहे थे वर
मेरे हाथ पीले कर डोली उठाने के सपने ही सुख देते थे बस
मैं जीत जाना चाहती थी
दौर के उन सभी दुराग्रहों से जिनके चलते
चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं
दुनिया की तमाम बेटियाँ रस्मों की वेदी पर
पर तुम रोकते रहे मुझे
मेरे पढ़ने बढ़ने और लड़ने से
पिता! क्या तुम भी जूझ रहे थे उन विडम्बनाओं से
जो मेरे भीतर आज खलबली मचाए रहती हैं?
मैं जीव-विज्ञान पढ़ना चाहती थी
तुम समाजवाद सिखा रहे थे
क्या सचमुच!
इसके बिना कठिन होता है जीना?
क्या समाज का डर बड़ा है आत्मा के डर से?
क्या इसी से बची रहेगी हमारी अस्मिता?
यूँ तो मैं टुकड़ा थी
तुम्हारे कलेजे का पिता
फिर कौन से निमित्त थे मेरी जल्द विदाई के
क्या सौंपे थे संस्कृति ने उत्तरदायित्व तुम पर
या किया था सभ्यता से करार तुमने?
या फिर दिखाना था समाज को
उजला चेहरा?
©ममता जयंत
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