Tuesday, May 14, 2024

ममता कालिया

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स्त्री दर्पण के मंच पर प्रस्तुत है हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया के लेखन पर मीना झा द्वारा एक सुचिंतित और समीक्षात्मक लेख -

(कल ममता कालिया जी की कुछ कविताएं भी मंच पर आप सब पढ़ सकते हैं)
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक तक साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध करती ममता कालिया हिंदी की पांक्तेय लेखिकाओं में एक हैं|वह साहित्य संसार में किसी भी उर्जावान युवा लेखक से प्रतिस्पर्द्धा करती हुई रचनात्मक एवं बौद्धिक रचना कर्म में संलग्न हैं| दोनों सदियों के ये कालखण्ड विभिन्न सामाजिक ,राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों से अति महत्वपूर्ण रहे हैं |आधुनिक जिन्दगी और समय को अर्थ प्रदान करता उनका लेखन बहुआयामी है|सारे सामाजिक विमर्शों को आवाज देती ,अभिव्यक्त करती कहानियां | संस्कृति की विकृति ,राजनीति के इतिहास ,आधुनिकता के ग्रहण के मध्य मानवता को सर्वोपरि स्थान देते उनके उपन्यास समय के झरोखे खोलते हैं|बाजारीकरण,वैश्विकग्राम ,तकनीकीकरण के अंधे दौर में भटकता आम आदमी उनके प्रिय विषय हैं|लेकिन उनकी वैश्विक दृष्टि जितनी व्यापक है ,उतनी ही अपनी जमीन पर टिकी है|उनके कथ्य सामान्य स्त्री, परिवार,बच्चे और हाशिए की कहानी नहीं भूलते | बहुआयामी प्रयोग एवं परिवर्तन के बावजूद उनकी कहानियां दीर्घ कालावधि के सामानांतर चलती रही हैं|उनके रचना कर्म में समय के सत्य,तथ्य एवं यथार्थ निर्द्वंद्व भाव से पल्लवित होते हैं |संवेदनशील भाव एवं सरल भाषा उनके कहन को गति प्रदान करते हैं |उदाहरण के लिए उनकी समकालीन कहानी ‘विकास’का अध्ययन किया जा सकता है|
आरम्भ में ममता कालिया ने अंग्रेजी में कविताएँ लिखीं |किन्तु रवीन्द्र कालिया और इलाहबादी साहित्यकारों की सोह्बत ने उन्हें हिंदी की लेखिका बना दिया |उनके शब्दों में –‘…एक मोड़ तब आया, जब मैं अच्छी खासी नौकरी छोड़कर मुंबई से इलाहाबाद आयी |आयी तो मैं पैर पटकती,लेकिन यहाँ के हिंदी प्रेमी वातावरण ने अपने अंदर मुझे शोख लिया| चोटी के लेखक महादेवी वर्मा,श्रीपत राय,अमृत राय अमरकांतजी,पन्त,इलाचंद्र जोशी साक्षात् मेरे सामने थे|सबने दोस्ताना व्यवहार किया|किसी ने ऐसी अकड़ नहीं दिखायी कि मैं लिखने से विरक्त हो जाऊं|वह इस बात की बड़ी कदर करते थे कि एक युवा लेखिका ,जिसकी पढ़ाई की भाषा अंग्रेजी है,वह अपने को आजमाना चाहती है हिंदी में| सभी समान स्तर पर बात करते |इसलिए मैंने अंग्रेजी का पल्ला छोड़ दिया और पूरी तरह हिंदी में समा गयी|’
हिंदी में इस कदर समाना हुआ कि हिंदी के लगभग सभी विधाओं में उन्होंने लिखा |उनके दस उपन्यास,अठारह कथा संग्रह ,पाँच कविता संग्रह,छः संस्मरण और तीन निबंध संग्रह हैं|इसके अतिरिक्त उन्होंने दो अनुवाद ,एक संपादन किये और महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा की इंग्लिश पत्रिका ‘Hindi’ की संपादक रही हैं|अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका ने अनेकों प्रतिष्ठित पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं|वह अमेरिका,जापान,इंग्लैण्ड,दक्षिण अफ्रीका ,नेपाल और हंगरी के हिंदी कार्यक्रम में उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं|
उनकी कविताएँ ‘खाँटी घरेलू औरत’ के दैनंदिन संघर्ष और प्रतिरोध की कविताएँ हैं|वह चुप रहने को तैयार नहीं और बोलने के मासूम विद्रोह से अपना अधिकार जताती है|यह अधिकार उत्कट ,उच्छृंखल नहीं-‘समरसता ही सम्बन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की’ की तर्ज पर है| मण्डन अन्तर्निहित खण्डन, ममता कालिया की सृजनात्मकता की विशिष्ट विशेषता है|उनकी सद्यः लिखी कुछ कविताएँ बताती हैं कि वह दिल से कवि हैं और दिल समय के जाल में फँस गया है |इसीलिए वह कहती हैं –‘ I want a brand new heart…’ क्योंकि उन्हें ‘pacemaker’ नहीं ‘peacemaker’ चाहिए |कितनी भावगर्भित पंक्तियाँ !
हिंदी कथा साहित्य के व्यापक परिदृश्य पर उनका स्त्री विमर्श, एक संतुलित विमर्श का परचम है|जहाँ स्त्री और पुरुष को समान कटघरे में रखने की कोशिश में वह मानवीय विमर्श करती नजर आती हैं|यहाँ नारी अपनी अस्मिता की तलाश में है ,किन्तु पुरुष को पूर्णतया नकारती नहीं|साथ चलने की कोशिश में संकुचित और कट्टर मानसिकता प्रतिघाती बना देता है|ममता कालिया के अनुसार-‘जब हम कहते हैं कि हम स्त्रीवादी हैं, तो इससे यह ध्वनि निकलती है कि हम पुरुष विरोधी हैं| समाज परिवार से और परिवार स्त्री-पुरुष दोनों से संभव होता है ।परिवार में हमें स्त्री पुरुष दोनों चाहिए,दोनों के समान अधिकार ,मोहब्बत चाहिए ।विमर्श में हम विचार चाहते हैं,संवाद चाहते हैं,विवाद चाहते हैं,केवल अतिवाद नहीं चाहते।’ यह ममता कालिया के स्त्री विमर्श का व्यावहारिक और समुचित दृष्टिकोण है|इसी प्रकार लेखन में देहमुक्ति के नाम पर केवल देह के वर्णन में लिप्त होने पर उन्हें एतराज है|चटकारे लेकर देहधर्मी कथा कहना–सुनना उन्हें स्वीकार नहीं|वह मानती हैं कि लेखिकाओं को देह को लेकर उच्छृंखल नहीं होना चाहिए,क्योकि उससे उनकी लड़ाई पिछड़ जाती है|यौन हिंसा की बहुत चिंता है उन्हें मगर इस हिंसा के वर्णन में लेखक आग को संप्रेषित करें ,देह राग को नहीं|वह मानती हैं इस तरह के लेखन में गंभीरता नहीं रह जाती | तात्पर्य यह कि हिंसा के मूल कथ्य की कड़वाहट बनी रहे और स्त्री विमर्श मात्र देह विमर्श बन कर न रह जाए |
ममता कालिया का उपन्यास ‘दौड़’ उत्तरआधुनिकता के दौर में मिल का पत्थर है|बाजार के टारगेट ,टारगेट का तनाव और उससे जूझते युवाओं के अथक यांत्रिक थकन की दस्तावेजी कहानी है|भुमंडलीकरण की सारी विडम्बनाओं के साथ यह उपन्यास मनुष्य को बाजार में परिवर्तित करने के कारणों की समसामयिक पड़ताल करता है|उनकी अनगिनत कहानियाँ , इस सदी के दो दशकों का आईना हैं|नये दौर के अर्थबोध के साथ |
ममता कालिया के दो जीवंत संस्मरण ‘रविकथा’ और ‘जीते जी इलाहबाद’ इन दिनों चर्चाओं में हैं|वह अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं –‘हिंदी में प्रायः हर विधा का जल्द ही सीमेंटेड ढांचा बन जाता है|संस्मरण विधा के अंतर्गत आप किसी महापुरुष के बचपन ,यौवन ,संघर्ष और सफलता की कथा कहते हैं …मेरी इच्छा रवि को न तो विशिष्ट बनाने की थी ,न महापुरुष|तमाम गड़बड़ियों के सहित वह आदमी मुझे मिला था…किसी रात मैं उनसे यह नहीं कह पायी कि कल से तुम भले मानस बन कर जियो ..ऐसे बेढ़ब रोजनामचे में मुझे इस संस्मरण विधा की कायापलट तो करनी ही थी|’ और रविकथा उनके शब्दों में ‘मृत्युकथा’ बनते-बनते एक खिलखिलाता संस्मरण बन गया| ‘जीते जी इलाहाबाद’में बकौल ममता कालिया ‘शहर को पुड़िया में बाँधकर नहीं ला सकते’ ,लेकिन इस संस्मरण में इलाहाबाद शहर वह थैले में भरकर ले आयी हैं मय साज-ओ-सामान के |
साहित्य समय और समाज दोनों को बचाने की क्षमता रखता है,यही इसका औचित्य है|अगर साहित्य के औचित्य की बात करें, तो आज के निरंतर परिवर्तनशील समय में, समय को दर्ज करने का अमूल्य अवदान ममता कालिया के साहित्य का औचित्य है|
लेख -मीना झा

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कविताएं

दार्जिलिंग जाते हुए

महानंदा और तीस्ता के किनारे की सड़क पर
केरल से भी कद्दावर पेड़ों के जंगल।
दूसरी तरफ पानी के सोते
जगह जगह तख्तियां,
“हाथियों को जाने की जगह दें”
जलाशय बहुत गहरा है,सावधान”
रात के पंछी,कीट,पतंगे
अपनी फड़फड़, चिकपिक और भनभन के साथ
बजा रहे हैं जंगल का वाद्य वृंद
नेटवर्क आने न आने के बीच
फोन मेरे हाथ में झुनझुना है बस।
फेसबुक पर संदेश हैं,तस्वीरों में गतिरोध है
व्हाट्सएप पर पूरी तरह अवरोध है।
जीवन की इन दो लतों का कोई उपचार नहीं।
नींद की गोली लाई चने जैसी बेकार,नागवार।
दोस्तों से दूर
छुट्टी है क्रूर।
लिखने का मन है प्रेमकहानी।
याद आती है मधु कांकरिया की बात सयानी
“जो लोग जीवन में नही आ पाते
वे कहानियों में ही जगह बनाते हैं”

मेरा कवच

उपस्थित होना ही होना नही होता
कोई अनुपस्थित हो कर भी होता है
हर घड़ी मेरे पास
हर फोन पर सलाह देने वाला
हर गड्ढे से बचाने वाला
हर बीमारी का इलाज करने वाला
हर जरूरत को अग्रिम जान लेने वाला
उसकी बातें निर्भीक होती थीं और सटीक।
वे झट से जाकर दिमाग में बैठती थीं।
जब उसे बुलाना होता है
में उसके कपड़े पहन कर देखती हूं चुपचाप
वह मुझे पूरा ढाप लेता है
कवच की तरह।

मेरे अंधेरे में

सिर्फ एक जुगनू था
मेरी फुलवारी में
सिर्फ एक गुलाब
मेरे आकाश में सिर्फ एक तारा था,
मेरी नदी में
सिर्फ एक नाव।
एक ही एक पर टिका था जीवन
जैसे इकतारे पर गाया गया अभंग।
उदास,अकेला,अधूरा।
और भी नदियां थीं
जो तुम तक उमड़ती थीं।
मेरे पास प्यास थी
तुम्हारे पास पानी
जब भी देखी कोई नदी तुम तक
उमड़ती हुई
मैने बस इतना किया
अपनी प्यास को ही पी लिया।

दोस्ती

जैसे दवाओं की
वैसे दोस्तियों की भी
एक तारीख होती है ,
निष्प्रभावी होने की।
वह कहीं लिखी नही होती।
हम नहीं पूछ सकते
2019 के दोस्त से,
सन 2022 में तुम कहाँ हो
2023 में कहां रहोगे।
समझदार दोस्त जाते हुए
अपनी कोई निशानी नहीं छोड़ जाते
माचिस की डिबिया के सिवाय।
वे नहीं रखते हमारी चिट्ठियां
अंदर या बाहर की जेब में
वे बहुत अच्छे पति और पिता बनते जाते हैं
दुनिया समाज के रिश्ते निभाते हैं।
हम भी कोई नष्ट नहीं होते,
मर्मान्तक कष्ट नहीं होते।
हम दायीं की जगह बायीं करवट सोने लगते हैं
मोबाइल के सन्नाटे को नींद की गोली बना लेते हैं।
सपनों में वह कभी कभार दिखाई दे जाता है।
हम उसकी तरफ पीठ कर जाते हैं।
आखिकार
एक इतवार
हम सफाई के नाम पर
कुछ किताबें,अगली कतार से उठा कर
पिछली कतार में सरका देते हैं।

Brand New Heart

I want a brand new heart
This one has gone oversmart .
Always planning and plotting,
It’s already showing
signs of rotting.
Like a nut hard to crack.
It never leaves it’s selfish track.
On two occasions it has failed me miserably.
People say I need a pacemaker.
But I know I need a peacemaker.

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