Monday, December 9, 2024

मनोरमा एक प्रखर पत्रकार हैं और देश और समाज के ज्वलंत मुद्दों पर अपनी तीखी टिप्पणियों से हस्तक्षेप करती हैं।मूलतः बिहार की
मनोरमा,इन दिनों बंगलुरु में रहती हैं और फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता करती हैं विशेषतौर पर “दैनिक भास्कर” और :स्त्रीकाल” के लिए। 

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कविताएं

1 प्रेम

मौसमों में प्रेम होता है या प्रेम में सारे मौसम होते हैं,
कोई पूछता है कितने बसंत, कितने सावन,
कितनी सर्दियां कितनी गर्मियां, जिसमें रहता है प्रेम?
बचपन से साथ चलते कई बिंब, रात,चांद,आकाश,
सुनी दोपहरें, अकेली सड़कें,शामें….और एंकात
चलते रहे हैं साथ—साथ
सारे मौसमों में होते हुए फिर भी अछूते
फिर कोई पूछता है तुमने किया है प्रेम?
तुम कब तक कर सकती हो प्रेम ?
मुझे पूछना होता है, क्या कर दिए हैं तुमने अपने सारे ख्वाब बयान?
निकल आती हूं मैं उससे बाहर अकेली सड़क पर
..रूककर..फिर लौट जाने को अपने ख्वाब में
शहर, चेहरे, अबतक की सारी हवायें, सारा धूप, सारे फूल और सारी तितलियां….
ठीक ठीक किस पर रख दूं अपनी अंगुली और कह दुं
सारी उदासियों और मृत्यु की परछाईयों तक ये सारे चुभन ही उजाले हैं मेरे।

2

तुम्हें सोचते  ही बदल जाती है सारी खुदाई
ये समय वो समय,सारी दुनियादारी
होने लगती है सरहदों के पार
चलने लगती हूँ मैं, अनंत तक जाती सड़क पर ….
मेरी किसी एक नींद के सिरहाने
जो रख छोड़ा था तुमने अपना स्पर्श
जागते ही छिपा लिया था मैंने उसे खुद में
जैसे सर्दियों में धूप को बदन में
आना तुम्हारा, उतार लाता है
आसमान  मेरे कमरे में
खींच लाता है लकीरें चांदनी की चाँद से
और इस रौशनी में बस
अपनी नींद की उम्र कर देना चाहती हूँ मैं
 सृष्टि के आखिर तक !

3

मैंने अपनी हथेली में नहीं देखी तुम्हारी लकीर
मैंने होश में कभी कहीं नहीं लिखा तुम्हारा नाम
मैंने पढ़ने से बचना चाहा तुम्हारा प्रेम
मैंने हर बारिश में नकारना चाहा
तुम्हारा देखना मुझे पहली बार
लेकिन,तुम्हारी खुशबू, तुम्हारी आहटें ही
गर्मियों से सर्दियों तक सबसे बड़ी कश्मकश है
प्रेम का आखिरी लफ्ज़…अलविदा कहने में….

4

ठीक ठीक मेरे अलफ़ाज़
ठीक ठीक मेरे अहसास
घोल दिया करती हूँ जिन्हें मैं
अक्सर आसमान में,
ठोस से सीधे हवा में
लौटते हो जब भी तुम
मेरे अल्फ़ाज़ों, मेरे अहसासों
की जमीन पर,
लौट आती है पूरी नदी
वापस मेरे बदन में!

5

वो क्या होता है जो एक लम्हे में हो जाता है
वो क्या होता है जो एक लम्हे में खत्म हो जाता है
तिश्नगी-ए-इश्क़ और अलहदगी
ख़लिश बढ़कर आज़ार हो जाता है!

6

मौसम कोई हो
पुरानी पहचान की हवाएं
सूकून देती हैं और….
सारे छूटे,अधूरे शब्द
पकड़ में आते रहें तो
अपने से लगते हैं
क्या इन खामोश हवाओं को
मालूम होता है
हम उनसे पुराने शब्द
दोहराने की प्रार्थनाएं भी करते हैं,
नहीं तो फ़रवरी की हवाएं भी
अप्रैल सी उचाट  लगती हैं !

7

देह चुक जाती है,
ज़िन्दगी चुक जाती है
पर… मन रह जाता है
मौत के बाद भी ….
पूरी तरह मिटटी होने से पहले
 कोई टुकड़ा आसमान का
आँखों में समेटे!
कुछ है, जो साथ ले जाना नहीं चाहता
या कुछ है जो उसे जाने नहीं देता
और ……
ऐसे ही आखिरी पलों में
बना लेता है कोई ईश्वर
मिन्नतें करता हुआ
 वापसी की !

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