निधि मिश्रा
1994 के उत्तरार्ध में कलकत्ता, पश्चिम बंगाल में जन्म। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से स्नातक। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली से हिंदी साहित्य में एम.ए । वर्तमान समय में दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी।
निधि श्री उपनाम से शुरुआती लेखन।
परिकथा, आजकल, पाखी, बहुमत, नई धारा, दस्तक टाइम्स पत्रिका में कहानियां प्रकाशित।
कहानी
‘स्टैंडर्ड’
पैंट्री बॉय ने आ कर नाश्ता सर्व किया था। तेज़ रफ़्तार से दौड़ती राजधानी के एसी टू टायर डिब्बे में बैठकर जब उन्होंने हाथ से ब्रेड रोल तोड़ा, उसे चटनी में बढियाँ से घिसा, जिससे चटनी अंदर भरे आलू तक लग जाये और फिर उंगलियां चाटते हुए उसे खत्म किया तो अक्षिता का चेहरा तमतमा गया।
“हाउ डर्टी इज़ योर फादर!”
“अरे धीरे” हड़बड़ाहट में कुणाल ने कहा।
उन्होंने सुन तो लिया था, पर बेखबर बने रहे। हाँ सामने बैठे एक लड़के ने सर उठाकर उनकी तरफ देखा, फिर एक बार अक्षिता और कुणाल की तरफ और फिर अपनी गोद में रखे लैपटॉप पर वापस आँखे गड़ा कर बैठ गया।
वे खिड़की से सट कर बैठे थे। बगल में बेटा था और उसके बगल में उनकी बहू। खिड़की पर लगे नीली धारियों वाले पर्दे को हटाकर बाहर देखने लगे थे वे।
पीछे छूटता शहर। भागती पटरियाँ। थोड़ी देर में संगम के आने पर उन्होंने हाथ जोड़ा। सुरभि के साथ हर साल कुम्भ के मेले में आते थे। सुरभि, उनकी पत्नी। उँगलियां पॉकेट को टटोलते हुए सिक्के तक जा पहुंची। मगर क्या फायदा? ये खिड़की तो खुल नहीं सकती। संगम में पैसे नहीं डाल पाएंगे वे। जब तक उठकर गेट तक पहुंचेंगे गाड़ी आगे निकल चुकी होगी।
बड़ी निरीहता से खिड़की के कांच पर हाथ रखकर रह गए।
कुणाल सिंह आज ट्रांसपोर्ट सेक्टर में बड़ा नाम है। कलकत्ता के साल्ट लेक में अपना मकान है। अपनी कई गाड़ियां हैं। अक्षिता, उसकी पत्नी एक जिम चलाती है। कुणाल के पिता पोस्ट ऑफिस से रिटायर्ड हैं। अब तक इलाहाबाद के अपने छोटे से घर में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। पत्नी गुज़र गयी। बेटे को मजबूरन उन्हें अपने साथ ले जाना पड़ रहा है। रिश्तेदारों और दोस्तों ने कह कह कर नाक में दम कर दिया था।
कई बार व्यक्ति न चाहते हुए भी जब कुछ करने को मजबूर हो जाता है, तो उस काम को करते वक्त उसे जितना गुस्सा आता है और जितनी चिड़चिड़ाहट होती है, अक्सर उसका शिकार कोई निर्दोष व्यक्ति ही होता है। इस समय यही हो रहा था उनके साथ। कुणाल तो किसी तरह खुद को सम्हाल कर चुप था पर अक्षिता बार बार जैसे ज़हर उगल रही थी। कभी उनके खाने के तरीके पर उसे ऐतराज़ होता। कभी उनकी भाव भंगिमाएं उसे चीप लगतीं। कभी उनके झुक कर बैठने का तरीका हास्यायस्पद लगता।
वे सब कुछ नज़रअंदाज़ कर दे रहे थे।
इलाहाबाद से हावड़ा तक का सफर। बेल्ट लगे पैंट को पहनकर ज़्यादा देर बैठना कष्टकारी था। और फिर लेट पाना तो बहुत ही मुश्किल। उन्होंने झुक कर सीट के नीचे से अपना बैग बाहर घसीटा। उसे खोलकर सफेद पन्नी में लिपटी नीली लुंगी बाहर निकाली और उसे सीट में रखकर बैग वापस बन्द करने लगे। अक्षिता ने कुणाल को इशारा किया..
“ये आदमी..” और फिर दांत पीसकर रह गयी।
उन्होंने ये भी देखा। अभी तक सोच रहे थे पैंट के ऊपर से लुंगी पहन कर नीचे से पैंट उतार देंगे। पर अब हिम्मत नहीं हुई। एक बार ये भी सोचा कि इसे वापस बैग में रख दें। लेकिन कसा हुआ पेट, बड़ी देर से दिक्कत हो रही थी।
वे उठकर चुपचाप वॉशरूम की तरफ चले गए। ट्रेन की जरकिंग बाथरूम में ज़्यादा महसूस होती है। उन्हें अक्सर घबराहट में कँपकँपी होने लगती है। इस जरकिंग ने न जाने क्यों उनकी घबराहट को और बढ़ा दिया था। कांपते हाथों से वाशरूम का दरवाजा बंद किया और किसी तरह कपड़े बदले।
वापस लौटे तो अक्षिता किसी मैगज़ीन में डूबी थी। कुणाल फोन पर किसी से बातें कर रहा था। उसका कोई दोस्त रहा होगा। सामने वाली सीट अब खाली हो गयी थी। गया जंक्शन से गाड़ी आगे बढ़ी थी। वो लैपटॉप वाला लड़का वहीं उतर गया होगा शायद।
वे चुपचाप सामने वाली सीट पर लेट गए और कम्बल को अपनी तरफ खींच लिया। ए सी का टेम्प्रेचर ज़्यादा कम कर रखा है लगता है। उन्हें ठंड लगने लगी थी।
“उत्तर पाढा वाले क्लाइंट के साथ मीटिंग कैंसिल करनी पड़ गयी। “कुणाल ने कहते हुए अपने पैर उनकी सीट पर टिका दिए और थोड़ा नीचे की ओर खिसक कर बैठ गया।
“पापा को लेने इलाहाबाद आना पड़ा। हाँ..माँ को भी अभी ही मरना था यार!”
कुणाल की बातें जारी थीं
और सुनने की उनकी इच्छा नहीं हुई। आंखें बंद कर करवट फेर ली उन्होंने।
घर पहुँचने के बाद उन्हें सबसे ऊपर वाले कमरे में ले जाया गया। इतनी सीढ़ियां चढ़ने पर हफ़ी आने लगी थी उन्हें। कुणाल तो ये बात जानता है। फिर भी…
“पापा ये आपका कमरा। कुछ चाहिए हो तो ये बेल बजा देना।” साइड टेबल पर रखी बेल दिखाते हुए उसने कहा-
” सपना आ जायेगी, उससे कह देना।”
सपना उस घर में काम करती है। वहीं खाती है, वहीं रहती है।
वह फिर नही रुका। उन्होंने रोकना चाहा था। पर रोक नहीं पाए।
अपने बच्चों को हम हमेशा आगे बढ़ना ही तो सिखाते हैं। वो आगे बढ़ जाते हैं और इस क्रम में हम कहीं पीछे छूट जाते हैं। वो हमारे सामने हो कर भी हमसे बहुत दूर होते हैं। वहां जहाँ हम उन्हें छू भी नहीं सकते। और वो हमें वहां से छूना नहीं चाहते।
कुणाल सीढियाँ उतर कर कब का जा चुका था। वे कुछ देर तक वहीं कमरे के दरवाजे से सटकर खड़े रहे थे और फिर धीरे से आकर पलँग पर बैठ गए।
“अरे ये कैसा गद्दा है!” उन्होंने गद्दे को देखा
जिस जगह बैठो वो जगह नीचे हो जाती है। कितना अजीब है। लगता है बैठे नहीं हैं, धँस गए हैं।
उनके कलकत्ता आने की वैसे तो वहां ज़्यादा लोगों को खबर नहीं थी। जो जानते थे उन में से कभी कोई उनसे मिलना चाहता तो अक्षिता ये कह कर रोक देती कि-
“यू नो पापा आज कल योगा मेडिटेशन वैगेरह प्रैक्टिस करते हैं। इसीलिए उन्होंने सबसे ऊपर का रूम चूज़ किया है। जिससे आते जाते लोगों से उनको डिस्टर्ब न हो।”
वो तो अनिर्बान ज़िद कर के एक दो बार ऊपर पहुँच गया, पर कुणाल भी साथ साथ ही रहा। उसके हर बात का जवाब कुणाल दे देता और वे बस सिर हिला देते। अनिर्बान कुणाल के स्कूल का दोस्त था और अब बिज़नेस पार्टनर भी।
पूरे घर से अलग थलग ऊपर का कमरा। जहाँ घन्टी बजाए बिना कोई नहीं जाता था। सारा दिन अकेले भूत की तरह पड़े रहना। कभी कभी उठकर कमरे में ही टहलने लगते। खुद से ही बोल बोल कर बातें करने लगे थे अब। कम से कम ये एहसास ही हो जाता था कि किसी से बात कर रहे हैं। कमरे में लगी घड़ी को देखकर बोलते- “अरे भाई कितना बज गया है!” और फिर उत्तर भी खुद ही पा लेते “अच्छा साढ़े आठ बजे हैं, चलो भई खाना मंगाया जाए। घन्टी करो अपना काम तुम।” और फिर ये कहकर घन्टी बजा दिया करते।
इलाहाबाद कितना अच्छा था। दुआर में चारपाई डाल कर बैठ जाते थे। आते जाते लोगों से दुआ सलाम होता रहता था। उन्हें रह रह कर पत्नी की याद आती। अपना घर याद आता। यहां तो कोई बात पूछने वाला भी नहीं।
उन्हें क्या चाहिए था? बस थोड़ा सा अपनापन। आधे पेट ही खाना मिले पर कोई प्यार से बात करने वाला तो हो। यहां गले तक भरा रहता है, पर कोई बोलने पूछने वाला नहीं। सोचा था बेटे बहु के पास रहेंगे तो मन बहलता रहेगा। उनकी गृहस्थी, घर, सुख दुःख- समय बीतते देर न लगेगी। सुरभि चली ही गयी है, उन्हें भी अब ज़्यादा वक्त थोड़े रहना है। सोचते थे कलकत्ता जाकर उसकी याद कम आएगी। पर जब से यहां आए हैं वो और याद आती है। बहुत याद आती है।
उनके कमरे की खिड़की पीछे वाले पार्क के तरफ खुलती थी। सुबह सुबह कितने लोग टहलते कसरत करते दिखते, ग्रुप्स में खड़े हो कर हाथ उठा उठा कर हँसते दिखते। उनका भी मन हुआ। कई दिन से सोच रहे थे। पर कुणाल कभी मिलने आता ही नहीं था कि उससे कह पाएं।
“थक जाता होगा। बिज़नेस कोई छोटी बात है। अपने बेटे से कैसी शिकायत ? आखिर ये सब उसी की बदौलत तो है।”
खुद ही खुद से कहकर खुद को समझा लेते थे वे।
पर इंसान आखिर कब तक अकेले मूक बना एक कमरे में बंद रहे। अकेलापन बहुत ज़हरीला होता है। फिर उनकी उम्र तो और अकेला करने वाली थी।
सपना खाना देने वक्त पर आ जाती थी। पर उससे क्या बात करते वे? थोड़ा बहुत हाल चाल पूछ लेते थे कभी कभार। अक्षिता और कुणाल को पूछ लेते थे। वह भी ज़्यादा नहीं रुकती थी वहां। उसने बताया था -“मैडम ने आपसे ज़्यादा बात वात करने को मना किया है।”
कई बार फोन कर के इलाहाबाद वाले पड़ोसियों ने हाल चाल लिया था।
“अरे सब बहुत बढियां है हियां। अपन बताओ!” आवाज़ में कृत्रिम उल्लासिता भर कर कहते। सुनने वाले उनके चेहरे के हाव भाव नहीं देख सकते थे। कुछ लोग उनके लड़के को दुआएं देते तो कुछ उनकी किस्मत से ईर्ष्या करते। फोन रख देने के बाद अक्सर उनका मन किसी शून्य में खो जाता था। वे जहां के तहां बैठे रह जाते।
दुःख में होने पर उतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी उस दुःख को किसी से न कह पाने की स्थिति में होती है।
एक दिन बड़ा सोच समझ कर कुणाल को फोन लगाया था। अभी आधी बात कही ही थी कि वह बीच में बरस पड़ा-
“मीटिंग में था पापा मैं। मुझे लगा ऐसा क्या हो गया कि आप फोन कर रहे हैं। एक ही घर में रहते हैं यार…अरे हद करते हैं आप!”
वे बड़ा आहत हुए। नाराज़ भी हुए। ऐसे बात करता है अपने बाप से।सहसा नज़र बगल में रखी बेल पर पड़ी। वे बड़ी देर तक उसे देखते रहे। आँखे भर आईं। गले में पड़े गमछे को हाथों में लेकर आंखों को पोछा। उन्हें लगा जैसे उनका पूरा का पूरा वजूद उस बेल में सिमट कर रह गया है।
सोचा रात में सपना से कहकर उसे बुलाएंगे। लेकिन फिर लगा नहीं, खुद ही नीचे जाना ठीक होगा। कुणाल की आवाज़ सुनाई दी तो वे धीरे से अपने बिस्तर से उठे, कमरे से बाहर आते वक्त लाइट बन्द की और फिर आगे बढ़ कर सीढियाँ उतरने लगे। अक्षिता ने उन्हें उतरते हुए देख लिया-
“वहीं रुकिये! क्या बात है? नीचे क्या काम है? सपना नहीं सुन रही है?घन्टी की आवाज़ तो आयी नहीं अभी आपकी।”
“अरे पापा.. पार्क में जाना चाहते हैं न” कुणाल बीच में बोल पड़ा।
आज मीटिंग में फोन कर के यही कह रहे थे मुझसे” अक्षिता से बोला
(उनकी तरफ पलट कर देखते हुए) अरे तो जाईये। कौन रोक रहा है आपको।”
इसके बाद वो दोनों अपने में व्यस्त हो गए। सामने टी वी चल रहा था। वे सीढ़ियों पर खड़े थे। खड़े खड़े टी वी देखने लगे।
सहसा अक्षिता बोल पड़ी-
” कह दिया गया है न, चले जाना पार्क में। अब क्या? हाँ? और क्या?”
जवाब कोई नहीं था उनके पास। सपना किचन के पास खड़ी बड़ी मजबूर सी उन्हें देख रही थी। उन्होंने एक बार उसकी ओर देखा फिर धीरे धीरे सीढियाँ चढ़ गए।
बेटे बहू की इस बेरुखी का कारण उन्हें समझ नहीं आता था।
वो तो कुछ भी नहीं करते थे। कुछ बोलते भी नहीं थे। उनकी ज़िंदगी में दखल भी नहीं देते थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसका कारण उनका कुछ न करना ही हो। पर वे क्या कर सकते हैं? हर काम के लिए तो नौकर हैं।
लेकिन नौकर हैं तो क्या, उनका भी तो घर है, उनकी भी कुछ ज़िम्मेदारी है।
तीन दिन बाद डिनर के वक्त सपना आ कर उन्हें नीचे लिवा ले गयी। कुणाल कोहनी को टेबल पर सटाये गालों पर हाथ रखकर बैठा था। अक्षिता सामने गुस्से में टहल रही थी। उन्हें देखकर बोली-
“लो आ गए। चैन मिल गया होगा अब आपको! इसीलिए पार्क में जाना था। मुझे समझ नहीं आता है कि तुम बाप हो या दुश्मन”
वे हड़बड़ा से गए। अचानक हृदय की गति तेज़ हो गयी।
(जब से सुरभि गयी है ज़रा ज़रा सी बात में व्याकुल हो जाते हैं। रो पड़ते हैं। घबराहट होने लगती है। डर लगने लगता है उन्हें। पता नहीं ऐसा क्यों होता है। )
उस वक्त भी शरीर में एक अजीब सी कम्पन महसूस हुई। लगा पैरों से किसी ने खड़े होने की शक्ति छीन ली है। कुर्सी पकड़ कर खड़े हुए तो सपना ने आकर दूसरी कुर्सी आगे खींच, उन्हें सहारा देकर बैठाया। बहु की बात का प्रतिकार नहीं कर पाए वे। सीने के भीतर ज़ोरों से धक धक महसूस हो रही थी। आंखों में आंसू भर गए। उन्होंने कातर नेत्रों से बेटे की ओर देखा..
“ये सब क्या नौटंकी लगा रखी है आपने पापा?”
उसकी आवाज़ में एक ठंडापन था।
“अरे पूछो पूछो, तमीज़ इलाहाबाद के स्टेशन में छूट गयी थी क्या इनसे। या वहां भी यही सब चलता था। भई हम रिस्पेक्टेड लोग हैं। गले में गमछा डाल कर बाहर घूमते हैं। जैसे कोई गुंडा मवाली हों। न चलने का ढंग है, न बोलने का सलीका। किसी से बात करते हैं तो दोनों हाथों को उठाकर सर पे रख लेते हैं, जैसे कोई पहाड़ टूट गया हो और इनके सर पर ही गिरने वाला हो।”
वो कुणाल के बगल में जाकर बैठ गयी थी। हाथ हिलाकर फिर बोली-
“और आज कल सब्ज़ी लेकर आते हैं लौटते वक्त। क्या दिखाना क्या चाहते हैं? पेंशन की गर्मी चढ़ी है? भई नौकर नहीं है घर में? मोल भाव करते हैं ठेले वालों से खड़े होकर यार। सोसाइटी में बाते फैलने में वक़्त लगेगी क्या कि बुड्ढे बाप को घर लाकर नौकर बना दिया!”
वे चुपचाप सारी बातें सर झुकाकर सुनते रहे। शिकायतों की फेहरिस्त लम्बी थी। कुणाल रह रह कर झुंझला रहा था।
“ये माँ से पहले क्यों नहीं मर गए। हैं तो शुरू से ही गंवार। न जाने कहाँ से नाक कटवाने के लिए यहाँ ले आया इन्हें।”
उनकी तरफ घूमकर बोला
“पापा! दिस इज़ द फर्स्ट एन्ड लास्ट वार्निंग टू यू। अब ऐसी हरकत की तो आपको ओल्ड एज होम छोड़ आऊंगा। वैसे तो आपकी व्यवस्था वहाँ भी अच्छी ही करूंगा, जैसे यहां की है लेकिन साथ नहीं रख पाऊंगा आपको।”
बहु की बातों से कष्ट तो हुआ था, पर बेटे का यह कह देना। कलेजा मुंह को आ गया था उनका। वे सर झुकाए बैठे रहे थे। कुणाल उठ कर कमरे में जा चुका था। अक्षिता की कोई सहेली आ गयी थी। बाहर से गार्ड ने आ कर इत्तिला किया था। वह ड्रॉइंग रूम में चली गयी थी। सपना किचन के कामों में लग गयी थी। आस पास एकदम सन्नाटा था। किचन से नल चलने की आवाज़ और बर्तनों की खटपट उस सन्नाटे में उन तक पहुंच रही थी। बाहर कुछ कुत्ते भौकने लगे थे। अक्सर रात में भौंकने लगते हैं। उन्हें पल भर को लगा कि ये भौंकते हुए कुत्ते उनसे बेहतर हैं।
वे वहीं बैठे रह गए थे। न जाने कितना कुछ टूटा था उनके भीतर, जिसकी आवाज़ को वो सन्नाटा लील गया था। उठने की हिम्मत नहीं हुई। फफक के रो पड़े थे वे। दोनों हाथों से चेहरे को ढक लिया था। सिसकियों को दबाने का भरसक प्रयास किया पर वो बाहर निकल ही गयीं। टूटे मन की तड़पती सिसकियां!
अक्षिता और उसकी सहेली आवाज़ सुनकर अंदर आ गईं। कुणाल बेड रूम से बाहर निकल आया। सपना मांजते हुए बर्तनों को छोडकर किचन गेट पर आ कर रुक गयी। ऐसे, जैसे इस से आगे इस वक्त नहीं बढ़ सकती थी वह।
वे झटपट आंसू पोछ कर खड़े हए। सफेद शर्ट पहनी थी उन्होंने और नीचे नीले रंग की लुंगी। गले में सफेद गमछा था। सर झुकाए, एक हाथ से सीने तक झूल रहे गमछे को पकड़े, थरथराते पैरों से वे तेज़ी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगे।
“हू इज़ दिस मैन? तुम्हारा कोई रिश्तेदार है?”
अक्षिता की सहेली ने पूछा लिया था।
वह इस के लिए तैयार नहीं थी।
“नहीं ये..” अचानक नज़र सामने खड़ी सपना पर पड़ी
“ये सपना के गांव से है। यहां काम ढूंढने आया था तो हमने काम मिल जाने तक अपने घर में जगह दे दी। सपना की पहचान का है इसीलिए।” और सपना को उनके पीछे ऊपर जाने का इशारा किया।
वे अभी सीढियाँ चढ़ ही रहे थे। उन्होंने सुना। उन्हें लगा जैसे किसी ने शीशा पिघला कर उनके कानो में डाल दिया हो। फिर भी रुके नहीं, न पीछे मुड़े। ऊपर के दांतों से नीचे के होंठ काट लिए और आंखे भींच कर चढ़ते गए।
कुणाल ने सर हिलाते हुए अपनी टाई ढीली की और बेडरूम में वापस चला गया।
“ओह!किसी तरह इज़्ज़त बची! अक्षिता हैज़ प्रेजेंस ऑफ माइंड।” उसने ए सी ऑन कर रिमोट बेड में फेंकते हुए सोचा।
अक्षिता अपनी सहेली के साथ वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ गयी।
“कितने हेल्पफुल हो तुम यार। कितना बड़ा दिल है तुम लोगों का। काम न मिलने तक अपने घर में रहने दिया है। दिस मैन मस्ट भी वेरी थैंकफुल टू यू”
सहेली ने ऊपर चढ़ती सपना और उसके गांव के उस पहचान वाले को देखते हुए कहा।