Wednesday, December 4, 2024
पल्लवी गर्ग
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पल्लवी गर्ग एक शिक्षाविद उद्यमी हैं। कानपुर में दो विद्यालयों का बीस वर्ष से अधिक से संचालन करने वाली पल्लवी, गाथा ऑनलाइन ऐप्प और कहकशाँ शायरी की एक बहुत सक्रिय और वरिष्ठ सदस्य हैं।
इन्होंने गाथा एप्प के लिए धर्मवीर भारती जी की सम्पूर्ण काव्य संग्रह- “कनुप्रिया” व अमृता प्रीतम जी के काव्य संग्रह- “मैं तुम्हें फिर मिलूँगी” को अपनी आवाज़ दी है।
इन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, IIT कानपुर, प्रयागराज, साधना TV चैनल के कई कार्यक्रमों का कुशल संचालन व संयोजन किया है।
इनकी साझा संकलन प्रकाशित हुई है जिसके लिए इनको उज्जैन में काव्य-मनीषी सम्मान से सम्मानित किया गया।
गृहलक्ष्मी वेबसाइट पर इनकी प्रगतिवादी कविताएं पढ़ी जा सकती हैं। गत वर्ष दिल्ली की एक प्रतिष्ठित मैगज़ीन Spur में इनकी जीवनी प्रकाशित हुई और इनको सम्मानित किया गया।

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कविताएं

ख़यालों की पतंग

उड़ी जो पतंग आसमाँ में
डोर उसकी नहीं थमी
ख़्यालों की पतंग ने
बड़ी ऊँची उड़ान भरी

मन भी उड़ चला दूर कहीं!

कुछ देर रही जो नज़र से दूर
तो डोर खींच ली धीरे से…
ड़र है वो कट न जाए कहीं ,
अनजान राह पे दूर निकल;

वो राह भटक न जाए कहीं!

कट गई वो पतंग, तो बहुत कुछ खो जाएगा;
सहेजने लायक यादों तक,
चुलबुली सी बातों तक,
बीते वक़्त की राहों तक,

मन भला कैसे पहुँच पायेगा!

 ढील दे डोर को
मज़बूती से थामा;
धीरे से डोर समेट
यादों की दुनिया में 
उड़ान भरती पतंग को
संभाल कर उतारा 

एक आह भर! उसे जी भर निहारा!

फिर लपेट दिया माँझा
उन खूबसूरत पलों का,
उन बातों का,
उन यादों का….  
….या यूँ  कहो, जीवन की पूँजी का!

पोटली यादों की

खुल के बिखर गई
तमन्नाओं की ख़्वाहिश से नहाई
खुशबू के धागों से बंधी
छोटी सी पोटली यादों की

 कुछ ख्वाब उसमें 
मोतियों से पिरोए मिले 
एक लम्हा भी संजोया मिला 
जो गुज़रा तुम्हारी बाहों में 

 अनकहे जज़्बातों का सिलसिला भी है उसमें

कुछ सवाल, जो रह गए थे अनसुलझे
कुछ पल मिले खुशियों के
कुछ फेहरिस्त मिली मेरी फरमाइशों की
कुछ सपने मिले 
जिनमे समाए थे आँसू और मुस्कान

 और टटोला, तो मिले 
बेवजह अलफ़ाज़, बेमतलब एहसास
सन्नाटों के शोर;
जो गूँज रहे अब तक कानों में 
और मिल के दे रहे चोट

   खुलती ही जा रही है वो पोटली 

बस; अब और नहीं, और नही!!!

बांध के रख दिया उसे, एक कोने में 
 तसल्ली से खोलेंगे 
जब हम साथ होंगे….
क्या कुछ घुट रहा है अनसुलझा,
उस छोटी सी पोटली में
हम तब देखेंगे 

चलो, फिर ऐसा करेंगे,
सब शिकायतों को दर-किनार कर,
भरेंगे उसमे थोड़ा और प्यार,
थोड़ा और दुलार,
कुछ ताज़ा मुस्कुराते कतरे,
खनकती सी हंसी,
एक बड़ा टुकड़ा ख़ुशी!

खुल के अचानक फिर किसी दिन,
बिखर गई जो वो पोटली,
तो उसमे बंधी ताज़े इत्र की खुशबू
हर ओर बिखर जायेगी 
कितना भी हो ग़मगीन समा,
वो भीनी सी,
भीगी सी खुशबु,
ख़ुशनुमा सा एहसास 
हर ओर जगा जाएगी 

बातें

तेरी मेरी बातें बस बातें नही, एक सिलसिला है
न इनका कोई ओर न कोई छोर
पटरी पे बेतहाशा दौड़ती रेल की तरह
कभी हिचकोले खातीं, कभी सरपट भागती जातीं
कभी मंज़िल तलाशतीं, कभी सफर का लुत्फ उठातीं

तेरी मेरी बातें बस बातें नही, मौसम हैं
कभी शीत लहर सी दहलातीं
कभी पतझड़ सी मुरझा जातीं
कभी बसंत की बन दोनों को बहका जातीं
कभी अपनी ऊष्मा से दहका जातीं

तेरी मेरी बातें बस बातें नही, तेरा मेरा जीवन है
कभी प्रेम की मिश्री सी घुल जातीं
कभी अपने दंश से चोटिल कर जातीं
एक दूजे के ज़ख्म पे मरहम लगातीं

थोड़ा सा तुझे मुझमे और मुझे तुझमे, जीवित कर जातीं

 

ईश्वर का रहस्य

मानो कल ही कि तो बात है, 
वह घंटों बतियाता
मुझे छेड़ जाता
अपने रंग में रंग मुझे
खुद मेरे रंग रंग जाता

हर पल, हर दिन,
वह मेरा साथ निभाता

फिर अचानक एक दिन
चला गया वो,
बिना कोई आहट किए
फिर कभी न आने के लिए!

दिनों दिन, उसकी एक हलचल के लिए
मन छटपटाता
उसकी परछाईं पकड़ने को आतुर हो 
दिन रात उसकी राह तकता
उसके रंगों के कैनवास में
रंग जाने को आतुर हो जाता

पर वह नही आता

न जाने कैसी माया है ये ईश्वर की
कैसा रहस्य है ये
किसी को इतने पास ला,
यूं अचानक कैसे 
उसे इतना दूर ले जाता 
कि ख़्यालों में तो वो बसता,
दिल हर पल खुद को 
उसके रंगों में रंगा पता
पर हाथ उसे कभी छू न पाता

उसकी कमी की कसक लिए 
जीवन चलता जाता…

कितना भी जानना चाहो;
ईश्वर का ये रहस्य, रहस्य ही रह जाता

कविता लिखती हूँ

कविता लिखती हूँ, मैं
समाज का दर्पण हूँ!
किसी का दर्द उधार लेती,
किसी के प्रेम को
खूबसूरत जामा पहनाती,
किसी के आँसू पे खुद
आँसू बहाती हूँ,
समाज की कुरीतियों पे
अपना रोष दिखाती हूँ!

कविता लिखती हूँ, मैं
कोमलहृदया हूँ!
अपने शब्दों को
माला में पिरोती,
सबके दिल की बात
अपना कर,
अपनी कलम से
दुनिया तक पहुंचाती हूँ!

कविता लिखती हूँ, मैं
ईमानदार हूँ!
अपनी आलोचना
सिर आंखों पर उठाती,
किसी का हाथ थाम
उसको फ़लक की
राह दिखाती,
फूलों की खुशबू
जहां में उड़ाती हूँ!

कविता लिखती हूँ, मैं
तड़पती हूँ!
किसी की चीख
से मचलती,
किसी के आक्रोश
से दहकती,
किसी की भूख
से दहल जाती हूँ!

कविता लिखती हूँ, मैं
थिरकती हूँ!
पाज़ेब के घुंघरू
की रुनझुन बनती,
बारिश की
धुन में गाती,
कहानियों को
सितार के तार में
पिरोती जाती हूँ!

अपनी कविताओं में
मैं, हंसती,
रोती, बारिश बन बरसती,
गुनगुनाती, गुदगुदाती
रोष दिखती हूँ…
मैं सिर्फ आप बीती
नहीं बताती हूँ!

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