Wednesday, November 13, 2024
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श्रीमती पल्लवी मुखर्जी
जन्म -26th नवबंर
रामानुजगंज सरगुजा
शिक्षा-स्नातक, संगीत विशारद
संप्रति-बिजुका ब्लॉग, लिट्रेचर पांईट, गूंज, हिंदीनामा, साहित्यधारा अकादमी, लेखनी,समकालीन परिदृश्य, पोषम पा,उतकृष्ट पत्रिका छत्तीसगढ़ आस-पास,बहुमत,
दुनिया इन दिनों,जनसंदेश टाईम्स, पाखी,अनुगूंज, कविकुंभ,वागर्थ, दोआबा,आजकल, में कविताएँ प्रकाशित, दस सांझा संकलन,कुछ कविताओं का अंग्रेजी में और बांग्ला में अनुवाद,

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कविताएं

विलुप्त हो जाती है स्त्रियाँ

उसने जी लिया था
अपने हिस्से का जीवन
शायद……….
 
उसके पैरों के निशान
पगडंडियों पर
मिल जायेंगे 
तुम्हें
 
उसके पंजों का
छापा भी
दीवार पर 
तुम्हें मिलेगा
जिसे उसने
पाथा था उपले थापते हुये
बड़े प्रेम से
बड़े जतन से
बड़े  इतमीनान से
 
घर के फर्श को
लीपते हुये भी
छोटे-छोटे पैरों के चिन्ह
छूट गये थे
जो तुम्हें
नहीं दिखाई देंगे
 
उसने कोई निशान
ढिबरी  बारते हुये भी
छोड़ा  होगा
जब सूरज
डूब रहा होगा चोरी-चोरी
अस्तांचल की ओर
 
सूरज की
लुका-छिपी का खेल
उसकी  लटों से
खेलते हुये
उसके चूल्हें की हांडी में
झांका होगा
 
खोली के भीतर की उदासी को
बचाया होगा उसने
पूरी शिद्दत से
 
एक स्त्री
इसी तरह
बचाती रहती है
तमाम उदासी,थपेड़ों
और  उन अंधेरों को
जिसमें सीलन होती है
दीवारों पर
लगी होती है काई
 
स्त्री
खरोंचती है
तुम्हारे भीतर की काई भी
 
स्त्रियाँ
इसी तरह
विलुप्त हो जाती हैं
छोड़ जाती है एक
निशान प्रेम का
जो
तुम्हारे माथे पर
अंकित होता है

हवा के कानों में

उन्होंने उस वृत के चारों ओर
चक्कर काटना छोड़ दिया है
जहाँ खड़े हो तुम
 
गठरी की तरह
बैठी हुई वे
उतार रही हैं
अपने जीवन के
उन तमाम दुःखों को
जो अनंत काल से
खरोंचे जा रहे थे
 
उन घावों की तरह
वे नहीं चाहती भरना इन्हें 
जो टीसते रहते हैं
अर्धरात्रि में
जब आँगन का पारिजात
भीगता रहता है ओंस में
 
वे इन झुरियों के भीतर
धंसी हुई पीड़ाओं को
धकेल देना चाहती हैं
किसी ब्लैक होल के भीतर
और खुद को
झटककर
आ जाना चाहती हैं बाहर
 
नीले आकाश के नीचे
बुलबुलों के साथ
छेड़ देना चाहती है
मालकौंस
 
तमाम मायूसियों और
उदासियों को खूंटी पर टाँग
वे निकल पड़ी हैं
आकाश के कैनवास पर
काढ़ने के लिये
तमाम रंग -बिरंगे फूल
 
हवा के कान में
झूल रहे है
खुशबुओं के झुमके

स्त्री बूढ़ी हो जाती है

स्त्री
बूढ़ी हो जाती है
धीरे-धीरे
 
छुपा देती है
अपनी अल्हड़ता
शहतूत की किसी टहनी पर
 
बूढ़ी होती स्त्री
अपने बचे हुये दिनों में
फेरती है मनकों की माला
घर के किसी कोनें में
गठरी की तरह
 
बुदबुदाते उसके होंठ
टिक जाते हैं साँकल पर
 
और तुम
फेर लेते हो
अपनी दृष्टि
 
दरअसल
स्त्रियों की जड़ों मे ही होते हैं
झुर्रियों के बीज
 
तुम्हारे सींचनें से
अंकुरित होकर
उपजाऊ हो जाती हैं
इनकी तमाम पीड़ाएं
 
समय के
वृत में घूमती हुई स्त्री
आलिंगन कर लेती है
इन रेखाओं से
 
छोड़ जाती है
कुछ बीज
पुनः अंकूरण के निमित्त

वह औरत

उस गली पर मैं खड़ी हूँ
जहाँ से मेंरे घर की छत
साफ़ नज़र आती है और
गली के इसी मोड़ पे खड़ी है वह
जिसके सर पर छत नहीं है
और न ही उसके हिस्से की ज़मीन
उसके हिस्से एक गुलमोहर का पेड़ ज़रूर है
जिसके नीचे उसका रैन बसेरा
पत्थरों से बने चूल्हे के ऊपर
चढ़ी है एक पिचकी हुई
एल्युमिनियम की डेचकी
वह डरती नहीं है
गर्मी के इन खौफनाक दोपहरों से
और न ही
काली अंधियारी रातों से
वह जानती है
हर दिन उसकी मुट्ठी में एक सुबह होती है
और गुलमोहर के ढेर सारे फूल भी
अपनी साड़ी के भीतर
हसिया खोचंकर
जूड़े में सजा लेती है गुलमोहर
और खनकती हंसी के साथ
मुझे ऐसे ताकती है जैसे
मैं उसकी हंसी छीन लेना चाहती हूँ और
चुनवा देना चाहती हूं
किसी किले में
 
पल्लवी मुखर्जी

सीरिया की रोटी

नहीं चाहती
कि तुम्हारी रोटी का
निवाला
जला हुआ हो
जैसे कोई शहर
जलता है
सीरिया की तरह
 
बदहवास से भागते
खून से लथपथ
बच्चों की शक्ल
उभर जाये
उस रोटी में
 
एक बार 
जल जाने के बाद
दुबारा
उस स्थिति में
लौटना
कहाँ संभव होता है
 
कहाँ गये
वे तमाम बच्चें
जो बंदूकों और बारूदों की
भेंट चढ़ गये
 
बारूदों की आँखों में
पट्टी होती हैं जो
मसूम बच्चों के
चिथड़े उड़ा देती है
 
सीरिया की व्यवस्था
बच्चों के फटे हुये 
कपड़ों की तरह
दिख रही है
 
एक अदद
फूली हुई रोटी की
करती हूँ कवायद
ताकि धरती
बची रहे
सीरिया बनने से
 
पल्लवी मुखर्जी
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