Friday, November 29, 2024
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मध्यप्रदेश के शिवपुरी शहर की मूल निवासी । 
सम्प्रति – मध्यप्रदेश राज्य पुलिस सेवा अधिकारी। वर्तमान में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ में ए.आई.जी के रूप में पदस्थ।
 
प्रकाशन-  एक व्यंग्य संग्रह ‘अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा’  प्रकाशित।
एक कविता संग्रह ‘ तुम जहाँ भी हो ‘ प्रकाशित !
एक यात्रा संस्मरण तथा एक प्रेमकथाओं का संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
 
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता ,कहानी ,व्यंग्य व यात्रा संस्मरणों का नियमित रूप से प्रकाशन !
 
विविध – लेखन के अतिरिक्त यात्राओं,संगीत व फोटोग्राफी का शौक ! खासकर बर्ड फोटोग्राफी में विशेष रुचि। विभिन्न पत्रिकाओं व पुस्तकों के कवर के रूप में तस्वीरों का प्रकाशन ।
 
पुरस्कार- कविता संग्रह ‘ तुम जहाँ भी हो ‘ के लिए मध्यप्रदेश का वागीश्वरी सम्मान वर्ष 2020 के लिए प्राप्त ।
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कविताएं

रो लो पुरुषो

बड़ा कमज़ोर होता है
बुक्का फाड़कर रोता हुआ आदमी
मज़बूत आदमी बड़ी ईर्ष्या रखते हैं
इस कमज़ोर आदमी से ।
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सुनो लड़की !
किसी पुरुष को बेहद चाहती हो ?
तो एक काम ज़रूर करना
उसे अपने सामने फूट-फूट कर रो सकने की सहजता देना
▪ 
दुनिया वालो
दो लोगों को कभी मत टोकना ।
एक दुनिया के सामने दोहरी होकर हंसती हुई स्त्री को
दूसरा बिलख-बिलख कर रोते हुए आदमी को
 
ये उस सहजता के दुर्लभ दृश्य हैं
जिसका दम घोंट दिया गया है
▪ 
ओ मेरे पुरुष मित्र !
याद है जब जन्म के बाद नहीं रोये थे
तब नर्स ने जबरन रुलाया था 
यह कहते हुए कि-
“रोना बहुत ज़रूरी है इसके जीने के लिए ।”
 
“बड़े होकर ये बात भूल कैसे गए दोस्त ?
▪ 
रो लो पुरुषो , जी भर के रो लो
ताकि तुम जान सको कि
 
छाती पर से पत्थर का हटना क्या होता है
▪ 
ओ मेरे प्रेम
आखिर में अगर कुछ याद रह जाएगा तो
वह तुम्हारी बाहों में मचलती पेशियों की मछलियाँ नहीं होंगी
 
वो तुम्हारी आँख में छलछलाया एक कतरा समन्दर होगा
▪ 
ओ पुरुष!
स्त्री जब बिखरे तो उसे फूलों-सा सहेज लेना
 
ओ स्त्री! 
पुरूष को टूटकर बिखरने के लिए थोड़ी-सी ज़मीन देना।

यात्रा

पेड़ हमेशा एक जगह खड़ा दिखाई पड़ता था
पेड़ की जड़ें केंचुओं से सटी सरकती हुई धरती के भीतर मीलों तक घूम आती थीं 
पत्तियां परिंदों की पीठ पर बैठ जब-तब आकाश की सैर कर आतीं
 
एक पूरे जीवन में पेड़ सारी दुनिया कई बार  घूम लेता
नदी किनारे रहते पेड़ पानी के भीतर भी तैर आते
संसार का सारा पानी एक ही पानी है
जैसे सारी हवा एक ही हवा है
 
पेड़ के नीचे थके-हारे सोये लकड़हारों के स्वप्न में पेड़ सफर की कहानी कहता
जब पेड़ सोता तब उसके स्वप्न में जानवर अपनी गाथाएं कहते
जानवरों के सपनों में परिंदों के किस्से होते हैं और 
मछलियों की नींद में नावें अपनी यात्रा की कहानियां सुनाती हैं
 
सपनों में देखी गईं अदृश्य जगहें और घटनाएं दरअसल किसी और का यात्रा वृतांत है 
नींद किस्सागोई का सबसे रोचक ठिकाना है।
 
एक पेड़ इतनी यात्राएं करता है कि उसकी सन्तानें विश्व भर में फैली हैं
 
मैं एक सेमल का वृक्ष  हूँ और सेमल का लाल पुष्प मेरा हृदय है
संसार की सारी कोशिकाएं एक ही  कोशिका हैं
 
देह जब सबसे थिर होती है
चिर यायावर मन तब भी जाने कहाँ कहाँ की यात्रा पर रहता है
मन की यात्रा के किस्से प्रेमी के स्वप्न में दर्ज होते हैं
 
जब मैं उदास होती हूँ तो आँगन में खड़ा आम मुरझाया-सा लगता है
मैं पूछती हूँ उसकी बूढ़ी छाती से लिपटकर
ए मेरे पुरखे …क्या संसार के सारे मन भी एक ही मन है ?

सीख

किसी को सुबकने का एकांत देना दुःख का सम्मान करना है
किसी की हँसी में साथ देना खुशी की कद्र करना है
 
थाली किसी की भी हो,
उसके पहले निवाले पर भूखे का हक़ है।
प्रेम पर प्रथम अधिकार नमी खो चुके हृदय का है
 
कुछ सीखें कोई गुरु नहीं दे सकता
यह आत्मा को स्वयं सीखना होता है समय की धार पर घिसकर
 
बूढ़ी आंखें जो देख पाती हैं मोतियाबिंद के बावजूद
वो दृश्य जवानी के हिस्से नहीं आते।
 
और जो अगर इतना जान गयी  है तुम्हारी आत्मा
तो समझ लो
वह चौकन्ने बारहसिंगा की आंखों में भरोसा चीन्ह सकती है
किसी कछुए की मंथर गति को श्वास से जोड़ सकती है
किसी चटटान के अदृश्य अश्रुओं से भींज सकती है
किसी फागुन की भोर में महुए की टपक भर से इश्क़ के नशे में झूम सकती है 
 
समय एक नदी है 
मनुष्य वो अनगढ़ पत्थर जिसे सदियों से तराश रही है जल-धार ।
 
जो तेज़ धार में चूर-चूर होकर रेत नहीं हुए 
वही कहलाये शिव 
उन्हीं को तो मिल सका सौभाग्य 
प्रकृति को अर्धांग के रूप में धारण करने का।

अनामंत्रित

वो रोज़ तयशुदा वक़्त पर आता था
कभी अख़बार पढ़ने के बहाने
कभी घर के पके अमरूद देने के बहाने
तो कभी पेंचकस या गुलाब-कटर मांगने के बहाने
 
और फिर बैठा रहता घण्टों।
 
घर भर के लिए वो अनामंत्रित था 
लेकिन अपने घर में अनचाहा सदस्य होने से बेहतर है
दूसरों के घर अनचाहा मेहमान होना
सो चला आता था रोज़ इस घर में ..
 
बरामदे में बेंत की कुर्सी पर सिकुड़ा बैठा अखबार फैलाकर पढ़ता रहता
सबसे आंखें चुराते हुए,
कभी कभार कोई वज़नी सामान उठाने में गृह स्वामिनी की मदद कर देता
कभी छोटे बालक को गणित का सवाल हल करवा देता।
कानों में पड़ने वाले एक-आध कटाक्ष को वह अनसुना कर देता।
 
कभी चाय नहीं पीता, कभी शिकंजी नहीं पीता,
नाश्ते के लिए कहता रहा सदा कि पेट भरा हुआ है ,नहीं खा सकेगा
पानी कभी-कभी पी लिया करता गर्मियों में 
पंखा चलाने को भी कभी नहीं कहा उसने
 
वह कृतज्ञता से भर उठता चाय-पानी पूछने भर से
वह एक भी बार चाय पीकर इस पूछे जाने के सिलसिले को खत्म नहीं करना चाहता था
इससे दोनों का सम्मान बना हुआ था।
 
उसके चेहरे पर जाने क्या लिखा था विवशता की भाषा में
जो पढ़ सकी थी इस घर की स्वामिनी 
कि कभी नहीं पूछा कि
‘ रोज़ क्यों आ जाते हो ?’
 
दोस्त कभी रहे होंगे उसके ,जो अचानक से अदृश्य हो गए थे
मोहल्ले की पान की दुकान पर उसका ख़ाता कब का बन्द हो गया था
सुबह शाम घिसे तले के जूते पहन घण्टों वॉक किया करता
पार्क में कदम्ब के नीचे बेंच पर अक्सर किसी किताब में नज़रें गड़ाए दिखाई पड़ता 
 
वह उतना न्यूनतम आदर भी नहीं चाहता था
जितना अधिकार जन्म लेते ही मिल गया था उसे एक  मनुष्य होने के नाते 
बस घोर निरादर की जलालत से खुद को बचाने की कोशिश में था,
सैंतीस बरस का वह बेरोजगार युवक इन दिनों।

जब मैंने 'ना' कहा

मैंने पहली बार जब ‘ना’ कहा
तब मैं 8 बरस की थी
“अंकल नहीं .. नहीं अंकल ‘
एक बड़ी चॉकलेट मेरे मुंह में भर दी अंकल ने
मेरे ‘ना’ को चॉकलेट कुतर कुतर कर खा गई
मैं लज्जा से सुबकती रही
बरसों अंकलों से सहमती रही
 
फिर मैंने ‘ना’ कहा रोज़ ट्यूशन तक पीछा करते उस ढीठ लड़के को
‘ “ना ,मेरा हाथ न पकड़ो “
ना ,ना… मैंने कहा न  ” ना “
मैं नहीं जानती थी कि “ना “एक लफ्ज़ नहीं ,एक तीर है जो सीधे जाकर गड़ता है मर्द के ईगो में
 
कुछ पलों बाद मैं अपनी लूना सहित औंधी पड़ी थी
मेरा ” ना” भी मिट्टी में लिथड़ा दम तोड़ रहा था
 
तीसरी बार मैंने “ना” कहा अपने उस प्रोफेसर को
जिसने थीसिस के बदले चाहा मेरा आधा घण्टा
मैंने बहुत ज़ोर से कहा था  ” ना “
 
“अच्छा..! मुझे ना कहती है
“और फिर बताया कि
जानते थे वो मैं क्या- क्या करती हूँ मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ
अपने निजी प्रेमिल लम्हों की अश्लील व्याख्या सुनते हुए मैं खड़ी रही बुत बनी
 
सुलगने के वक्त बुत बन जाने की अपराधिनी मैं
थीसिस को डाल आयी कूड़ेदान में और
अपने ‘”ना ” को सहेज लायी
 
वो जीवनसाथी हैं मेरे जिन्हें मैं कह देती हूँ कभी कभार
” ना प्लीज़ ,आज नहीं “
वे पढ़ेलिखे हैं ,ज़िद नही करते
झटकते हैं मेरा हाथ और मुंह फेर लेते हैं निःशब्द
मेरे स्नेहिल स्पर्श को ठुकराकर वे लेते हैं ‘ना’ का बदला
 
आखिर मैं एक बार आँखें बंद कर झटके से खोलती हूँ
अपने “ना “को तकिए के नीचे सरकाती हूँ
और
उनका चेहरा पलटाकर अपने सीने पर रख लेती हूँ
मैं और मेरा ‘ना’ कसमसाते रहते हैं रात भर
 
ना ” क्या है ?
केवल एक लफ्ज़ ही तो जो बताता है मेरी मर्ज़ी
खोलता है मेरे मन का ताला
कि मैं नहीं छुआ जाना चाहती तुमसे
कमसकम इस वक्त
 
तुम नहीं सुनते
तुम ‘ना’ को मसल देते हो पंखुरी की तरह
कभी बल से ,कभी छल से
और जिस पल तुम मेरी देह छू रहे होते हो
मेरी आत्मा कट कट कर गिर रही होती है
 
कितने तो पुरुष मिले
कितने ही देवता
एक ऐसा इंसान न मिला जो
मुझे प्रेम करता मेरे ” ना ” के साथ
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किताबें

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