कविताएं
पिता का मोबाइल नंबर
एक स्त्री का डर
नाक पर
इन दिनों पड़ती है जैसे ही नज़र
किसी के चेहरे पर
झट से आँख टिक जाती है नाक पर
नाक क्या छोटा सा टापू कह सकते हैं इसे
जो सागर से चेहरे पर बनाए हुए है सबसे ऊँचा स्थान
दो आँखें इसमें तैरती हुई दो नाव की माफिक
ज्यों टिकी हो इस टापू के अंतिम छोर पर
चेहरे पर तरह-तरह की भंगिमाएँ सागर की ऊँची नींची लहरों सी
मैं देखती हूँ संपूर्ण दृष्य पर आँख है कि टिक जाती है नाक पर
हर चेहरे पर है बिल्कुल अलग तरह की नाक
कोई इतनी छोटी कि भ्रम हो कि है भी या नहीं
कोई ऐसी कि आकाश भेदने को तैयार
कोई ऊपर से पतली नीचे से चौड़ी
कोई ऊपर से नीचे तेजी से भागती हुई
कोई नीचे से बिल्कुल गोल ऊपर को उठी हुई
कोई नुकीली त्रिभुजाकार
कोई थोड़ी टेढ़ी तोते की चोंच सरीखी
जितनी नाक उतनी आकृति
जितनी नाक उतने भेद
प्रकृति की अद्भुत संरचना
जिसने जाना बस श्वास का आना जाना
जिसने जाना बस इस जीवन की लय
देह में दौड़ते लहु का स्पंदन
ऊष्मा स्नेह ……
पर हमने रख दिया इसी पर
मान सम्मान अपमान ……..।