Sunday, December 8, 2024
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नाम – पूनम शुक्ला
जन्म तिथि
26 जून 1972 
जन्म स्थान – बलिया , उत्तर प्रदेश 
 
शिक्षा – बी ० एस ० सी० आनर्स ( जीव विज्ञान ), एम ० एस ० सी ० – कम्प्यूटर साइन्स ,एम० सी ० ए ० । कुछ वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा प्रदान की । अब कविता एवं गद्य लेखन मे संलग्न ।
 
कविता संग्रह “ पिता का मोबाइल नम्बर “ प्रकाशन संस्थान, दिल्ली द्वारा 2023 में प्रकाशित 
कविता संग्रह ” उन्हीं में पलता रहा प्रेम ” किताबघर प्रकाशन , दिल्ली द्वारा 2017 में प्रकाशित 
कविता संग्रह ” सूरज के बीज ” अनुभव प्रकाशन , गाजियाबाद द्वारा 2012 में प्रकाशित ।
 
 
*सभी प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
 
संपर्क 
पूनम शुक्ला 
फ्लैट नम्बर :  ए 201 
द्वितीय तल 
रुतु प्लैटिना काम्प्लैक्स 
ईवा माल के बगल में 
मान्जलपुर, वदोदरा 
गुजरात
390011 
ई मेल आइडी – [email protected]
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कविताएं

पिता का मोबाइल नंबर

एक जादुई नंबर सा था पिता का मोबाइल नंबर 
जिसे डायल करते ही सुनाई पड़ने लगती थी 
पिता की आवाज 
जीवन के प्रति प्रेम और उल्लास से भरी हुई 
 
हमेशा उनकी आवाज मुस्कुराती सी लगती 
ज्यों बैठे हों वे किसी फूल के बाग में 
सुबह की लालिमा बिखरी हो उनके इर्द गिर्द 
बच्चे चहक रहे हों 
और कोई उत्सव का माहौल हो 
 
उत्सव का धुंधलका अक्सर माँ की आवाज से टूटता 
माँ कहती अपने दुख 
माँ की आवाज उसी फूल के बाग में 
हरी दूब पर पसरी और सुस्ताती हुई 
अपनी व्यथा कथा कह जाती 
तभी पिता की आवाज उस व्यथा को काटती 
कोई खुशखबरी सुनाओ 
कोई अच्छी बात बताओ 
 
उस जादुई नंबर का जादू 
अब विलीन हो गया है कहीं
अब बस एक सुनसान सी रात है 
जहाँ माँ चाद सी 
और पिता तारों से दिखते हैं 
मैं कुछ कहना चाहती हूँ 
रास्ते में मेरी आवाज खो जाती है 
नंबर डायल करती हूँ 
पर अब न पिता की आवाज आती है न माँ की।

एक स्त्री का डर

जब लड़कियाँ चलती हैं 
गली मुहल्लों के रास्ते 
वे रास्ते थामते हैं उनकी सिहरी हुई देह 
कच्ची सड़कों पर उड़ती हुई धूल 
रोज सहलाती है उनका बुझा हुआ मन 
बुझे हुए रास्तों के बल्ब 
जल जाना चाहते हैं 
उनके डरे कदमों की आहट से
दरअसल बहुत डरती हैं स्त्रियाँ 
स्त्रियाँ बनने से पहले 
 
स्त्रियाँ बनते ही बदल जाता है उनका डर 
अब डर आगे नहीं उनके पीछे चलता है 
कभी-कभी रास्ता भी उन्हें ताकता रह जाता है 
वे बुझे हुए बल्बों के बीच 
चाँद से रोशनी माँग लाती हैं 
उड़ती हुई धूल के बीच 
अपने मन में फूल टाँकती हैं 
तपती दोपहर उन्हें शीतल छाँह लगती है 
और अपना शीतल घर जलती हुई भट्ठी 
जहाँ घुसते ही डर उनके सामने खड़ा हो जाता है
 
वे सिहरती हैं तानाशाहों की आवाज़ पर 
वे सहमती हैं बच्चों की चीख पुकार पर 
वे जली कटी सुनते हुए भी जलने नहीं देतीं रोटी
वे तीखी आवाजों के बीच कुछ मीठा परोसती हैं 
कलह के बीच वे पालती हैं शांति के कबूतर
इस तरह धीरे-धीरे वे अपने विशाल डर को 
अपना मित्र बनाती हैं 
धीरे-धीरे समय बीतता है 
बच्चे बड़े होते हैं धीरे-धीरे
धीरे-धीरे छोटा होता जाता है एक स्त्री का डर ।

नाक पर

इन दिनों पड़ती है जैसे ही नज़र
किसी के चेहरे पर
झट से आँख टिक जाती है नाक पर
नाक क्या छोटा सा टापू कह सकते हैं इसे
जो सागर से चेहरे पर बनाए हुए है सबसे ऊँचा स्थान
दो आँखें इसमें तैरती हुई दो नाव की माफिक
ज्यों टिकी हो इस टापू के अंतिम छोर पर
चेहरे पर तरह-तरह की भंगिमाएँ सागर की ऊँची नींची लहरों सी
मैं देखती हूँ संपूर्ण दृष्य पर आँख है कि टिक जाती है नाक पर
हर चेहरे पर है बिल्कुल अलग तरह की नाक
कोई इतनी छोटी कि भ्रम हो कि है भी या नहीं
कोई ऐसी कि आकाश भेदने को तैयार
कोई ऊपर से पतली नीचे से चौड़ी
कोई ऊपर से नीचे तेजी से भागती हुई
कोई नीचे से बिल्कुल गोल ऊपर को उठी हुई
कोई नुकीली त्रिभुजाकार
कोई थोड़ी टेढ़ी तोते की चोंच सरीखी
जितनी नाक उतनी आकृति
जितनी नाक उतने भेद
प्रकृति की अद्भुत संरचना
जिसने जाना बस श्वास का आना जाना
जिसने जाना बस इस जीवन की लय
देह में दौड़ते लहु का स्पंदन
ऊष्मा स्नेह ……
पर हमने रख दिया इसी पर
मान सम्मान अपमान ……..।

माँ की इच्छा

अक्सर माँ कहती मुझसे पहले 
अगर चले जाते तुम्हारे पिता 
तो कितना अच्छा होता 
 
एक स्त्री के विधवा जीवन को 
पूरी तरह जानती हुई भी माँ 
पिता के पहले चले जाने की दुआएँ करती 
 
क्या माँ की इच्छा नहीं रही होगी 
कि उनका अंतिम संस्कार करते पिता 
क्या वे नहीं चाहती होंगी कि 
उनके पार्थिव शरीर का भी हो श्रृंगार 
सुहागिन ही उठे उनकी डोली 
सूर्य की तरह दमके उनके माथे पर बिन्दी 
माँग में भरा लाल सिंदूर जीवन की ढ़लती शाम को 
ढ़लते सूरज की लालिमा सा रोशन करे 
उनके भी हाथों में खनके काँच की चूड़ियाँ 
उनका सिन्होरा साथ ही जाए उनके साथ 
 
पर माँ मर कर भी नहीं देख सकती थी 
पिता का दुख 
उन्हें डर था कि उनके 
सभी बेटे मिल कर भी 
शायद पिता की देख रेख न कर पाते 
उन्हें डर था कि पिता अकेले 
सुबह और शाम किस तरह बिताते 
उन्हें डर था कि उदास दिनों में 
पिता गुमसुम बैठे रहते,किससे बतियाते ?
 
दर बदर हो जाते पिता 
 
कैंसर की पीड़ा झेलती हुई भी 
माँ पहले जा नहीं सकी पिता को छोड़कर
रिश्तेदार बाट जोहते रहे उनकी मौत की 
पर माँ की साँसें रुकी नहीं 
लड़ती रहीं वीभत्स काल से 
 
कैंसर कोशिकाएँ बिना रुके 
विभाजित होती रहीं उनके भीतर 
पर वे बाँट नहीं पाईं माँ का 
पिता से किया हुआ प्रेम 
कैंसर कोशिकाएँ करती रहीं
उनके भीतर एक युद्ध
पर उनकी जीवटता के आगे 
परास्त होती रहीं 
 
माँ की साँसें पिता से एक मास अधिक चलीं 
माँ पिता के क्रिया कर्म में 
पूरी तन्मयता से डटी रही
अपने बेटों के मतभेदों के बीच 
पिता के सारे कर्म कांड बखूबी निभाती रही
नित्य नए युद्ध की तरह बीते बारह दिन 
अंतत: काम के बाद 
पिता को पूरी तरह अलविदा कर ही 
माँ ने चैन की साँस ली
 
माँ सुनती रही लोगों के बोल 
तुम्हारा कैसा दुर्भाग्य है अम्मा 
कि खुद बैठी हो मृत्यु की शैया पर 
और पहले मालिक ही मृत्यु को प्राप्त हुए 
पर माँ ने उसे अपना दुर्भाग्य कभी नहीं माना 
माँ बस धीरे से बुदबुदाती 
क्या पता है इन लोगों को 
क्या कहूँ इनलोगों से ?
 
जीवन भर पिता को सँभालती रही माँ 
कभी उनकी छूटी हुई चीजें थमाती 
कभी उनके संघर्षों पर अपनी राय देती 
पिता का साथ देती हुई माँ 
जीवन भर चलती रही उनके पीछे 
और मृत्यु की राह पर भी 
उनकी देख रेख करती 
उनके पीछे चली गई ।

पीछे रह जाना

पीछे रह जाना 
हमेशा पिछड़ जाना नहीं होता 
 
ठीक उसी तरह 
जैसे रेलगाड़ी का 
सबसे पीछे वाला डब्बा 
और उसमें बैठा हरी झंडी लहराता गार्ड 
 
जैसे सबकी चाल ढ़ाल नापता हुआ 
पंगडंडी पर चलता 
सबसे पिछला आदमी
 
जैसे अपने छोटे से बच्चे के पीछे 
दौड़ते हुए पिता 
 
जैसे पीछे से आती हुई 
हमारा साथ देती कोई आवाज़
 
जैसे पिता के पीछे चलती हुई माँ ।
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किताबें

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