Tuesday, May 14, 2024
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  पूनम सिंह
 
जन्म – 24 सितम्बर , बिहार प्रांत के पूर्णिया जिले के एक गाँव जलालगढ़ में 
 
शिक्षा – एम. ए. , पीएच. डी.
 
 90 के दशक से साहित्य की सभी महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित 
 
 कविता संग्रह 
 ऋतुवृक्ष,  लेकिन असंभव नहीं,  रेजाणी पानी,  उजाड़ लोकतंत्र में
 
कहानी संग्रह
कोई तीसरा,  कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियाँ,  सुलगती ईंटों का धुआँ,  खर-पतवार
 
आलोचना
धर्मवीर भारती की काव्य चेतना,  रचना की मनोभूमि,  पाठ का पाथेय,  साहित्य का संवादी स्वर
 
संकलन संपादन 
 
जन मन के कवि केदार,  पुश्तैनी गंध, प्रतिरोध के स्वर (काव्य पुस्तक)
 
‘सामु 92’ साक्षरता गीतों का संकलन, संपादन और समाजशास्त्रीय अध्ययन – 
 
  पुरस्कार 
कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
 
राजभाषा विभाग, बिहार सरकार द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान 2020
 
अन्यान्य  
 
कोरोना काल की कविताओं का अँग्रेजी एवं चीनी भाषा में अनुवाद :
 
दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में भागीदारी। संप्रति :-            पूर्व अध्यक्ष, 
 
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
 
एम० डी० डी० एम० कॉलेज 
 
            मुजफ्फरपुर , बिहार 

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कविताएं

पृथ्वी - कहाँ हो तुम

लंबे समय से प्रतिकूल लहरों के बहाव में हूँ 

नहीं जानती पानी का यह रेला 

कहाँ बहा ले जायेगा मुझे 

विकराल जल प्रपातों की उत्ताल लहरों पर 

मैं चित पड़ी हूँ या पट

मुझे नहीं मालूम 

मेरी आखों के सामने 

न कोई वस्तु है न विचार 

न प्रतिकार है न स्वीकार

बस कोहरे का एक समुद्र है 

जिसका न कोई ओर है न छोर 

 

निष्क्रिय आवेग से भरी मेरी चेतना में 

शत् शत् सूर्य के तिरोहित होने का 

नीला अंधकार व्याप्त है 

आकाश गंगा में डूब गये हैं 

रूपहले नक्षत्र

रूप रंग रस गंध से भरी पृथ्वी

कहाँ हो तुम ?

 

ओ मेरी आत्मा की राग भरी रोशनी                          

कहाँ हो तुम ?

धरती का धीरज लेकर

गहन गुह्यलोक में 

विस्थापित मेरी चेतना 

तुम्हें टेर रही है 

पृथ्वी – पृथ्वी – पृथ्वी

कहाँ हो तुम ?

बारिश

इस रेत समय में 

जब झरे पीत पत्तों से 

मेरे मन का आँगन पटा है 

तुम ‘बारिश’ पर कविता लिखने को 

कह रहे हो 

तुम्हें कैसे बताऊँ कि 

पत्थर समय में

हरी गंध पर कविता लिखना 

कितना कठिन है मेरे लिए 

 

सच कहो-अब कब आते हैं 

विरही यक्ष का प्रणय निवेदन लेकर 

अषाढ़ के बादल ?

कहाँ उठती है धरती की कोख से 

पहली बाछौर की वह सोंधी गंध ?

कब लगते हैं अमराईयों में 

सावन के झूले ?

उल्लास का पावस 

कहाँ बरसता है अछोधार 

किस रेत किस खेत में ?

मन के किस आँगन किस कानन में ? 

बताओ ना मुझे मेरे मीत

 

आज बारिश होती है 

तो धरती की देह से फूटती है 

बारूदी गंध 

लाल धार बन बहने लगता है पानी

आग की लपटों   

मौत की चीखों के बीच

बादलों की जलतरंग सी हँसी

मैं कैसे सुनूँ ?

कैसे लिखूँ इस मरन्नासन बेला में 

बारिश पर कविता 

तुम्ही बोलो ?

बहुत याद करती हूँ उन दिनों को 

जब भटकती हवाओं के साथ 

कोरस गाते झूमते मंडराते 

आते थे अषाढ़ के बादल 

झमाझम बरसने लगता था पानी 

बादलों की झुनझुने सी हँसी सुन

हाय ! किस तरह

पुलक से भर आँगन के ओरियाने 

कागज की नाव तैराने 

नंगे पाँव दौड़ जाते थे हम

मन की डोगियो में उल्लास की 

रंग बिरंगी मछलियाँ पकड़

तब कितने खुश होते थे हम 

आज घोषणाओं की बारिश में 

जब तैरती है असंख्य कागज की नावें 

और निरंतर बढ़ता जाता है 

पानी का शोर 

मैं बचपन की उस नाव को 

कोशी की धार में 

हिचखोले खाती देख रही हूँ

मेरा बचपन विस्थापित हो रहा है मेरे मीत 

मैं ‘बारिश’ पर कविता लिखूँ 

तो क्या लिखूँ-बोलो ?

 

देखो ! उत्सव की तरह कैसे  

मेगा शिविर में हो रही है 

राहतों की बारिश

सुर्खियों में आने के लिए 

किये जा रहे हैं कई जतन

सार्वजनिक झूठ के बीच

कितनी धूम से निकल रहा है 

सच का जनाजा

राहतों की इस बरसात में 

सूखे होठों की प्यास किस कदर बढ़ गई है 

इस प्यास के आगे 

कैसे लिखूँ मैं पावस की जलधार 

तुम ही कहो

 

निष्क्रिय उत्तेजना से भरा यह

कैसा कठिन संत्रास का समय है 

आकाश में मंडरा रही हैं चीलें 

देश की सरहद को घेरते 

हर दिशा से उठ रहे हैं काले मेघ

क्या इस सदी की यह 

सबसे भीषण बरसात होगी ?

 

आशंकाओं से घिरा व्याकुल मन लिए

मैं सोच रही हूँ 

उस प्रलंकारी जल प्रपात में 

क्या ‘बारिश’ पर लिखीं कविताएं

मनु की नाव बन 

हर घर तक जायेंगी

सबको पार उतारेंगी

बताओ न मेरे मीत !

इरोम शर्मिला तुम उदास क्यों हो

 (लोकतंत्र का शोकगीत)

तुमने लोकतंत्र के स्याह पन्ने पर 

रोशनी का एक हर्फ लिखा  

वह पर्याप्त है इरोम 

काले अक्षरों के बीच 

जुगनू की तरह जगमगाने के लिए 

 

जीवन जीने की ताकत 

पैदा करने वाली तुम

इस हार से आक्रांत क्यों हो इरोम ?

तुम्हें तो पता है 

देश साहस, संकल्प और 

आत्मबलिदान का उत्सव 

कभी नहीं मनाता 

वह मूल्यों के अपकर्ष का 

जश्न मनाता है 

 

उस जश्न के बीच 

नब्बे के आँकड़ों से तुमने 

लोकतंत्र की उम्र बताई 

राजनैतिक वर्णमाला की सारी क्रियाएँ

सारे वर्ण और संज्ञाओं को 

परिभाषित किया 

बिना कुल गोत्र तय किये 

नक्षत्रों की दिशा बदलने को आतुर हुई 

अपने बोध में यह 

अप्रत्याशित का आह्वान है इरोम

फिर तुम उदास क्यों हो ?

 

तुम सुबह की रोशनी 

अंधेरे को मात देती 

मनुष्यधर्मी प्रतिपक्ष का 

निरन्तर सृजन करती 

तुम्हारा जीवन कभी राजनीति का 

अनुवाद नहीं हो सकता  

वह मनुष्यता का मूलपाठ है 

जिसे अपनी ठठरी देह की 

पसलियों के बीच 

सोलह वर्षों से सहेज कर रखा है तुमने 

दुनिया को बेहतर बनाने के लिए

 

भोर के उजास में धुला तुम्हारा चेहरा 

भारत माँ का दीप्त भाल है 

जहाँ से फूटती है एक सुगंध

मनुष्यता की 

तुम उदास मत होओ इरोम शर्मिला 

 

जो दूसरों के लिए 

अपनी जिन्दगी हारता है 

वह अपराजेय होता है

यह तुम नहीं 

यह तो देश हारा है

इस आत्महीन निष्करुण समय में 

मनुष्य का ईमान हारा है

 

तब भी अस्थियों के कोटर में धँसी 

तुम्हारी आँखें रोशन हैं

उस लौ में ही 

स्थिर है कहीं 

हवाओं में सांस लेता 

अघोषित समय का 

एक अप्रत्याशित क्षण

तुम उदास क्यों हो इरोम शर्मिला ?

शाहीनबाग की औरतें

उजाड़ लोकतंत्र में 

शाश्वत बसंत की तरह उतरी हैं 

शाहीनबाग की औरतें 

इन्हें भोर के उजास की तरह देखिए

अनदेखी खुशी की तरह महसूसिये

ये दुनिया की सबसे सूबसूरत औरतें हैं

अप्रतिम रसायन से निर्मित 

शब्दातीत सौंदर्य

 

अभिन्नता की उष्मलता से बँधी 

राजपथ पर बैठी इन 

अनमोल गठरियों को देखिये 

ये उत्खनन से बाहर निकली 

अदृश्य नदी की सौगातें हैं

भारत माता के होठों पर 

प्रार्थनावत स्वर में अवतरित 

संस्कृति का गान

 

इन्हें मंदिर की घंटियों 

मस्जिद की अजानों 

नगाड़े के शोर व गोली के जोर में 

आत्मा के संगीत की तरह सुनिये 

ये बारिश हैं जेठ की दोपहर की

रुपहली हँसी हैं माधवी बसंत की 

गहन रात्रि में इन्हें रोशनी की 

नई इबारत की तरह पढ़िये 

 

शाहीनबाग की औरतें महज औरतें नहीं

एक समूचा कालखण्ड हैं

बहुविध शैलियों में अघोषित दिक्काल का 

समय सुन रहा है जिसकी पदचापें

राजपथ महसूस कर रहा है 

जिसकी धमक अपने सीने पर

 

अभिधा में प्रस्तुत लोकतंत्र का 

नया इतिहास रचती 

इन औरतों को देखिये

ये नया पाठ हैं संविधान का

राग भरी आँखों से 

इस विशद पाठ की 

व्याख्या कीजिए हुजूर

इन्हें ‘गोली मत मारिये’

 

‘गोली मारना’ हिन्दी का 

बहुत पुराना मुहावरा है 

जो अंहकार के उन्माद से गुजर कर 

शाहीनबाग की औरतों तक पहुँचा है 

और प्रेम की सौगात पाकर 

तमंचे में लौट गया है

आमीन !

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किताबें

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