प्रकृति करगेती
जन्म- १६ मार्च १९९१
जन्म- १६ मार्च १९९१
जन्मस्थान- बासोट, उत्तराखंड
कविता संग्रह- शहर और शिकायतें ( राधाकृष्ण प्रकाशन, २०१७ )
सोशल मीडिया हैंडल- https://www.instagram.com/prakriti.kargeti/
हंस, आलोचना, पाखी, कथा, प्रभात खबर, लल्लनटॉप, जानकीपुल जैसी पत्र पत्रिकाओं में कहानी और कवितायेँ प्रकाशित। पटकथा लेखन में सक्रीय।
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कविताएं
इस साल अमलतास नहीं देखा
इस साल अमलतास नहीं देखा
हथेलियाँ देखी
हथेलियों पर कल्पना में देखा अमलतास
इस साल
हथेलियाँ इतनी धोयी कि
महसूस नहीं हुई कोमलता
इस साल मई के महीने में
तन्हा झरा अमलतास
रोया खाली फुटपाथों पर
इस साल,
उसके कई चाहने वाले नहीं रहे
वह भी नहीं
जो अक्सर उसके साथ तस्वीर खींचता था
वो अकेला नहीं था
इस पूरे शहर ने कविता बनाया था अमलतास को
झुलसती गर्मी में सुकून देने वाली कलाकृति
लेकिन इस साल वह चीखा ज़ोरों से कि
“जलाने को अगर लकड़ी नहीं, तो मुझसे ले लो
ले लो मेरा अंग अंग
मैं शिकायत नहीं करूँगा मेरे शहर ।”
अब उसके फूलों का पीला रंग धुंधला रहा है
उसकी कराह कहती है
कि अब वह सोने का झरना नहीं है
मैं उससे कहने को सुकून भरे दो शब्द ढूंढती हूँ
और हथेली के ख्याली फूलों से
बस इतना कह पाती हूँ
कि अमलतास
ये तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम
शहादत की बात करते हो
पर तुम्हें अभी बहुत कुछ देखना है
इंसानों के स्वार्थ के लिए
शहीद मत होना अमलतास
इंसानों की दुनिया न बच पाए तो भी क्या ?
तुम दूर टापुओं से आये पक्षियों के लिए
बचे रहना
बचे रहना तुम अमलतास
गरमा गरम बहस के बीच
गरमा गरम बहस के बीच
पूछ दिया है किसी ने कि
“परदे अच्छे लग रहे हैं।
कहाँ से लिए ?”
अब,
इस लगभग प्रासंगिक बहस के बीच
अप्रासंगिक जानकारियों के
पंख फड़फड़ाने लगे हैं
जैसे
“कॉटन के परदे सबसे अच्छे होते हैं”
“इनका उजला रंग, कमरे के बड़े होने का आभास देता है”
“इन्हें न, दो इंच सिल देना नीचे से”
“और सुनो धोते समय कपड़ों के साथ मत मिलाना”
“हाँ सही कहती हो, पहली बार तो ज़रूर रंग छोड़ेंगे”
और इस तरह
पर्दों से रिसती पुरवाई ने
बहस की तपिश को शांत कर दिया है
अब लगभग प्रासंगिक बहस
पर्दों के पीछे जा छुप गयी है
उसके सिर्फ़ जूते नज़र आ रहे हैं
सभी बातों में मशरूफ़ हैं
“आपके घर की साज-सज्जा में काफ़ी पर्सनल टच है”
“कितने इंच का टीवी है ?”
“सुना है बंजारा मार्किट में सामान सस्ता मिलता है”
“ये शीशम की लकड़ी है या आम की ?”
“अरे आपने इतनी तकलीफ़ क्यों की ?”
“अरे लीजिये न, ये शुगरफ्री हैं”
“हमारी तो एक फिक्स्ड दुकान है। सारी मिठाइयाँ न, वहीं से आती हैं”
“शुक्रिया। लेकिन, इससे न मुझे गैस हो जाती है”
किसी का ये कहना ही था कि एक डकार गूँज जाती है
अब,
बातें, खाना, मेहमाननवाज़ी
सब पच गयी है
परदे फिर से हिलने लगे हैं
लोग जाने लगे हैं
कि तभी
बहस,
पर्दों से बाहर निकल आयी है
और जाने वालों के सिर पर टपली मार
“धप्पा !” चिल्ला रही है
और जूते उतारे,
वो अपने मोज़ों की महक से पूरा कमरा
फिर से सड़ा रही है
शहर शांत हो जाता है
कभी कभी ये शहर बहुत शांत हो जाता है
जैसी चीखों के लिए रिक्त स्थान बन गया हो
पर जब वो कुछ समय पहले
आग में लिपटी हुई बाहर आयी थी
तब उग्र प्रतिक्रियायों का चलन नहीं था
अब भी नहीं है
यूँ तो शहर में शोर बहुत है
पर भावनाओं का शोर मचाने
एक दुबका कोना ढूँढने निकली तो देखा
कि उस जगह
सुंदरता के नाम पर
बुगनवेलिया की बेलें
एक पेड़ को खाये जा रही थी
लोगों के भाव तब भी संयत थे
उन्हें उसमें से अन्याय की बू नहीं आती दिखी
बल्कि करिश्मा दिखा कुदरत का
कि कैसे
वस्तुतः नीरसता को चढ़ सकता है गुलाबी रंग
वो भूल गए कि फूलों के संग,
उनके कई नुकीले सैनिक भी तैनात थे
जो बड़े प्यार से चीरने फाड़ने की सम्भावना
अपनी नोक पर नचाते थे
शायद उन्हीं से डरा बैठा था पूरा शहर
कि भले ही अंदर घट चुकी थी फ़ुकुशिमा दुर्घटना
कि दहकता था अंदर हमेशा एक माउंट फ़ूजी
कि सुनामी आये दिन आती थी
कि फट जाती थी ज़मीन आये दिन
जो भी हो रहा हो
फिर भी निर्देश थे कि चुप रहना था
निर्देश थे कि चुप रहकर उसे सदाचार कहना था
इस बीच वो जल रही थी
और चल रही थी
शहर के एक कोने से दूसरे कोने की ओर
शहर उसपर दैत्य बन ज़ोरों से हँस देता
तो उसे मंज़ूर होता
पर ये क्या ?
वो तो मुलायम मुस्कराहट का ‘मलहम’ लगा रहा था
और सबसे कह रहा था कि
देखो, देखो ज़रा
कि सबसे सुन्दर होते हैं
सीधे तंदूर से निकले लोग
गुंजाइश
आज ब्लाउज़ सिलकर आये हैं
हर एक में छोड़ा गया है
दो या तीन उँगलियों जितना मोटा मार्जिन
पर
ब्लाउज़ की हर बारीक़ी को समझाते हुए
नाप देते हुए ,
टेलर से किसी ने नहीं कहा कि
“ दीदी ज़रा गुंजाइश छोड़ देना”
एक तंग सी गली में दुकान है टेलर की
जहाँ से दो मोटरसाइकिल एक साथ गुज़रने की भी गुंजाइश नहीं
लेकिन वो गुंजाइश बेचने का व्यापार करती हैं
शायद वो भी जानती हैं कि
नए दायरों में बंधने के बाद भी
बची रहनी चाहिए ,
पँख फैलाने की गुंजाइश
बची रहनी चाहिए,
‘मैं’ कहने की गुंजाइश
गुंजाइश कि ग़लतियाँ करने की भी गुंजाइश हो
उनसे सीखने की गुंजाइश हो
अपनी भूख को भी जताने की गुंजाइश हो
सौभाग्यवती भवः तो सब कहते हैं
पर
खुश रहने की भी गुंजाइश हो
और जब
कमर के स्ट्रेच मार्क्स
पेटीकोट के नाड़े के निशानों से संग मिलकर
किसी बेल सा फैलने लगें
और चमड़ी हमारी थुलथुलाने लगे
तब भी बची रहनी चाहिए ,
हमें हमारे ही नाम से
पुकारे जाने की गुंजाइश
ग्लूस्टिक
रंगों के ढेरों उतार-चढाव
के सामने खड़े होकर
उसने पाया
कि उसके बारीक़ होंठों पर
चटक लाल लिपस्टिक भी नहीं दिखेगी
इसलिए
वो अपने स्टडी टेबल से
ग्लूस्टिक उठा लायी है
और शीशे के सामने
अपने ही मज़ाक पर मुस्कुरायी है
ग्लूस्टिक से
अपने होंठों को
बिना पते के किसी ख़त की तरह
चिपका दिया है
और अब शीशे पर
लिपस्टिक से
सुखी जीवन का फॉर्मूला
बार बार घिस रही है
जो कुछ इस प्रकार है:
चुप रहना इज़ इक्वल टू औरत का गहना
चुप रहना इज़ इक्वल टू औरत का गहना
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कहानी
झाड़ियाँ
ख़यालों के बवंडर उसके साथ ही रास्ते पर चल रहे थे। एक लेन थी उसके चलने की, जिसमें वो बवंडर के साथ था और दूसरी लेन थी उल्टी दिशा में जाती गाड़ियों की, जैसे वो विरोधाभास के सरसराते ख़याल हों। वो कभी-कभी चलते-चलते सर उठाकर दूसरी लेन को देख लिया करता। पर दूसरी तरफ़ की लेन का हर ख़याल पलक झपकने से पहले सरपट दौड़ते हुए आँखों से आगे निकल जाता। रुकने की कोई गुंजाइश नहीं थी। अपनी तरफ़ की लेन के बवंडर ने उसे थामे रखा था। वो प्यार के बारे में सोच रहा था।
कुछ समय पहले तक वो प्यार में था। प्यार के हर एहसास को जानता था। जिससे प्यार करता था या है, उसे भी। पर उस दिन वो ‘था’ और ‘है’ के बीचोबीच चल रहा था। बवंडर साथ लिए।
वो चलते-चलते, थक गया। शहर के इस हिस्से से वो ज़्यादा परिचित नहीं था। बवंडर लेकर भटकने पर ज़्यादा थकान लगती थी। उसे एक पार्क दिखा। पार्क यानी पेड़ की छाँव और शायद उसके नीचे एक बेंच। और दोपहर में भीड़ कम रहती, बच्चों का शोर-शराबा भी नहीं। यही सब सोचते हुए वो पार्क में चला गया। ये बात बिलकुल ठीक थी कि उस वक़्त बच्चे नहीं थे। और शोर-शराबा भी नहीं। वो एक बेंच पकड़कर बैठ गया। बैठते ही उसने सिर घुमाकर आस-पास की चीज़ों का ब्योरा लिया जैसे वो हमेशा करता था। जगहों का नक़्शा अपने आप बनकर सामने आ जाता था, जैसे अख़बारों में ‘मेज़’ का खेल। उसके लिए भी हमेशा सबसे ज़रूरी बाहर निकलने का रास्ता था। आज भी उसने बैठते ही बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ लिया था। थोड़ी आस-पास और नज़र घुमाई तो पूरे पार्क का एक रफ़ स्केच उसके ज़हन में धीरे-धीरे उतरने लगा। हाँ, अब वो आराम से बैठ सकता था। और बैठा ही था कि ध्यान आया साथ आया बवंडर, जिसे वो मैप बनाते हुए भूल ही गया था। उसने फिर से लोगों की तरफ़ देखा। वो भी किसी-न-किसी ख़ुमार में आस-पास का सब कुछ भूल चुके थे।
उसका मानना था कि दोपहर में पार्क में किसी का दिखना मतलब आलस का दिखना। पर वो आलसी नहीं था। उसे बस प्यार की थकान थी। लेकिन आस-पास उसे ढेर सारा आलस दिखा। एक झुंड में बैठे आदमी ताश खेल रहे थे। सुस्ता रहे थे। आस-पास उनका सामान भी रखा हुआ था। उसने अंदाज़ा लगाया कि वो अपने-अपने कामों से समय निकाल रोज़ जुआ खेलने आते होंगे। उसने कभी जुआ नहीं खेला। या खेला? नहीं, नहीं खेला। पैसों वाला तो बिल्कुल नहीं।
अभी तक उसका ध्यान नहीं गया था। पर जब गया तो देखा पूरे पार्क में जगह-जगह प्रेमी युगलों का जमावड़ा था। जो पत्थरों और झाड़ियों के पीछे छुपे बैठे थे। वो एक नज़र में नहीं दिखते थे। महबूबा के लाल, पीले, हरे दुपट्टे अपने आशिक़ों के और अपने चेहरे छुपाए दूसरी दुनिया में तैर रहे थे। पार्क के किनारे बहुत सारी झाड़ियाँ थीं, जिनके पीछे ये छुप सकते थे। पर ये सभी प्रेमी-युगल अपना-अपना तंबू गाड़कर बैठे थे। महबूबा के दुपट्टों का तंबू, जो कभी-कभी लहराता-इठलाता-सरकता प्रेमी-युगलों के डूबे हुए चेहरे दिखा दिया करता था।
उसे अपना समय याद आया, जब वो इसी तरह उसके साथ पार्कों, क़िलों और मक़बरों में घूमा करता था। उस शहर में प्यार करने की कोई और जगह थी ही नहीं। कम-से-कम उन दोनों के लिए तो नहीं थी। दोनों का घर नहीं था। दोनों हॉस्टल में रहते थे। मिलना हमेशा बाहर ही होता, और प्यार करना ऐसे ही बड़े पत्थरों की ओट पर। सबसे पहली बार जब उसने लड़की को चूमा था तो झेंपते हुए लड़की ने उसे एक फ़्रेंच गाने के बारे में भी बताया था–‘प्रेमिएर बेज़े एसौंज़े’, हाँ यही गाना था। उसने बताया था कि वो गाना भी पहले बोसे के बारे में था कि कैसे लड़का और लड़की ने एक पत्थर के पीछे छुपकर एक-दूसरे को बोसा दिया था। लड़की ये बताते-बताते ही शर्मा-सी गई थी। इसलिए आगे चलने लगी थी। उसके बाद दोनों के बीच इतनी ख़ामोशी छा गई कि लड़की बात करने का कोई अलहदा-सा विषय ढूँढने लगी। इधर-उधर नज़र दौड़ाई और फिर अचानक रुक गई। लड़का जो उसके पीछे-पीछे चल रहा था, रुक गया। लड़की ने बस एक बार मुड़कर उसे देखा और फिर तुरंत अपनी नज़रें नीची कर लीं। बायाँ पाँव उठाया और सँभालते हुए उसे एक चौकोर खाने में रख दिया। असल में वो पार्क में चलने वाले रास्ते पर खड़ी थी, जहाँ पर एक ही डिज़ाइन के ब्लॉक्स से रास्ता बनाया हुआ होता है। लड़की ने उसी में अपना एक खेल खोज लिया था। वो ब्लॉक के बीचोबीच अपने पैर रखना चाहती थी।
लड़का उसका ये बचपना देखकर मुस्कुरा रहा था। पर बस दिखावे के लिए उसने लड़की से पूछा, “अरे! क्या कर रही हो?”
लड़की ने जवाब दिया, “क्यों? जैसे तुमने नहीं किया कभी!”
लड़का बोला, “बचपन में!”
लड़की ने याद दिलाया, “परसों तुम बचपन में थे अपने?”
लड़के ने हैरानी से पूछा, “क्यों?”
लड़की हँस के बोली, “कल जब तुम मेट्रो के प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार कर रहे थे, तब दूर से मैंने तुम्हें देखा था। तुम फ़र्श को देखते हुए, उसके खानों में यहाँ से वहाँ कूद रहे थे।”
लड़का नाटकीय ग़ुस्से में बोला, “तुम जासूसी करती हो मेरी?”
लड़की ने अपना खेल जारी रखते हुए एक-दो ब्लॉक और पार किए और कहा, “मैं तो ये बता रही हूँ कि तुम शर्मिंदा मत हो। देखो, मैं भी करती हूँ।”
लड़का मुस्कुरा दिया और खेल में शामिल हो गया, पूछते हुए, “पर हम ऐसा क्यों करते हैं?”
लड़की थोड़ा सोचते हुए बोली, “हमें किसी-न-किसी खेल में उलझे रहना अच्छा लगता है। बंदर जैसा है न दिमाग़। एक डाल से दूसरी डाल। एक खाने से दूसरे खाने।”
लड़के ने इस बार गंभीरता से पूछा, “पर ये नियम किस बात के? कि खाने के बीचोबीच ही पाँव रखना है या उनके किनारों को ही छूना है?”
लड़की ने ये सुन लड़के के कंधे पर हाथ रख बिना नियम का पालन किए चलते-चलते कहा, “नहीं, ऐसा ज़रूरी नहीं है।”
फिर दोनों थोड़ी दूर चले, हाथ में हाथ डालकर। कि तभी लड़की रुकी और नाटकीय बौखलाहट में कहा, “अरे यार! इस बार सिर्फ़ बायाँ पाँव आगे रखकर चलना था। चलो, चलो फिर से शुरू करें।”
वो लड़के का उतरा हुआ चेहरा देखकर ज़ोरों से हँसने लगी। लड़के ने चिढ़कर विरोध नहीं किया। उसे तो वो ऐसी ही बचकानी हरकतें करती अच्छी लगती थी। वो उसके साथ चलने लगा।
वो दोनों ही अक्सर बाहर मिला करते। बस स्टॉप पर बैठकर सोचते कि कहाँ जाएँगे। एक एसी बस का पास बनवा लेते थे, जो पूरे दिन चलता था। वो हमेशा लड़की के लिए खिड़की वाली सीट छोड़ देता था। पास बनाने के बाद वो कहीं भी उतर सकते थे, या न भी उतरें। जब उतरते तो अक्सर पार्क, मक़बरों, या क़िलों के पास के बस स्टॉप पर। वहाँ से चलकर उन्हीं मक़बरों, क़िलों के कोने वो दोनों भी ढूँढा करते थे। पर कभी भी छुपते नहीं थे। ध्यान रखते थे कि वो दोनों नज़र में रहें–लोगों की। पर एक बार ऐसा भी हुआ कि वो नज़र चुराने के लिए एक स्तंभ के पीछे छुप गए। उन्हें पास ही में सीढ़ियाँ दिखीं। दोनों ही चल पड़े। और कोई नहीं देख रहा है, ये सोचकर एक-दूसरे को चूमने लगे। पर कोई देख रहा था। वो भी वहाँ का गार्ड। दोनों को ‘रंगे हाथों’ पकड़ लिया गया। दोनों ही घबराए। गार्ड ने उन्हें धमकाया और अपने ऑफ़िस ले जाने लगा और उनके आईडी कार्ड माँगने लगा। वो गिडगिड़ाए कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उसने लड़की के सिर पर हाथ रखकर क़सम भी खा ली कि दोनों ने कुछ नहीं किया था। पर क़सम से काम कहाँ चलने वाला था। गार्ड ने फिर धमकाया। फिर पचास रुपये में मान गया और गुर्राते हुए हिदायत भी दी, “अगली बार से ऐसे काम मत करना।”
दोनों ही वहाँ से बाहर निकल आए। लड़की तमतमाती हुई आगे चली जा रही थी, लड़का पीछे-पीछे। जब दोनों के क़दम मिले, तो लड़की ने तुनककर कहा, “तुमने मेरी झूठी क़सम क्यों खाई?”
लड़का हँसने लगा तो लड़की ने कहा, “हद्द होती है! हँस भी रहे हो ऊपर से!”
लड़के ने हँसी रोकते हुए कहा, “यार, तुम्हारी बात उस गार्ड की बात से भी ज़्यादा अजीब है।”
“गार्ड की कौन-सी बात?”
“अरे, यही कि ‘अगली बार से ऐसा मत करना’, ख़ुद जो वो घूस ले गया, उसका क्या?”
“चलो वापस जाकर, उसे मोरालिटी का ये लेसन दे आते हैं। चलो!”
“फ़ालतू मज़ाक़!”
“तुम झूठे और घूसखोर, दोनों हो गए आज।”
“पर पैसे तो तुम्हारी जेब से गए लड़की!”
“उधार समझकर दिया है। वापस करना। मैं घूस नहीं देती।”
लड़के ने हँसते-हँसते कहा, “हॉस्टल जाकर ज़रा सोचना अपने इस सिद्धांत पर।”
और ऐसे ही वो बातें करते-करते आगे उस क़िले के अंदर बने एक तालाब के पास आ खड़े हुए। हरी काई पूरे तालाब पर फैली हुई थी। इस हरेपन को तोड़ते हुए कुछ बतख़ भी तैर रहे थे। और तालाब के बीचोबीच एक पेड़ का स्याह तना था, जो एक तरफ़ को झुका हुआ था। लड़का उसे देखते हुए तालाब के किनारे आया और एक पत्थर पर बैठ गया। लड़की पास के ही एक-दूसरे पत्थर पर। लड़का तने को देख रहा था और लड़की लड़के को।
लड़की ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा, “थोड़ा सीरियस होते हैं।”
लड़के ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “मैं हमारे बारे में हमेशा से सीरियस था।”
“मेरा मतलब करियर को लेकर सीरियस। अब मिलना थोड़ा कम करते हैं न।”
“हम्म!” लड़के ने ये कहते हुए बस हाँ में सिर हिलाया। ये सोचते हुए लड़की से नज़र चुरा ली कि पता नहीं कौन-सा सच उसे लड़की की आँखों में दिख जाए जिसके लिए वो तैयार नहीं था तब।
अब वो बैठा था। तालाब के पास नहीं। पार्क में। लड़की के पास नहीं। अकेले। बवंडर अभी भी सिर पर मँडरा रहा था। आस-पास के लोग अभी भी प्यार में डूबे हुए थे। उसने उन सभी से नज़र हटाई। तभी उसे झाड़ियों में कुछ हलचल होती नज़र आई। वो ग़ौर से देखने लगा। झाड़ियों को एक तरफ़ करता एक वृद्ध आदमी वहाँ से निकला। उसने सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहना था। वो टहलता-टहलता उसी की तरफ़ आ रहा था। उसने सोचा ये वृद्ध भरी दोपहरी क्यों टहलने निकला था। पार्क में सुबह और शाम को कितने ही वृद्ध दिखा करते थे! दोपहर में सिर्फ़ जुआरी, प्रेमी युगल और नशेड़ी। वो तीनों में से कुछ भी नहीं लग रहा था। हो सकता है, वो भी उसी की तरह अकेला हो। वो मुस्कुरा रहा था। मुस्कुराते हुए उसके पास आया और बेंच पर बैठ गया। वो भी वृद्ध को देखकर मुस्कुरा दिया।
वृद्ध आदमी की बिन दाँतों वाली निश्छल मुस्कान उसे पसंद आई। वृद्ध ने पोपले शब्दों में पूछा, “अकेले बैठे हो यहाँ?”
उसने जवाब दिया, “हाँ।”
वृद्ध ने कहा, “सामने-सामने झूठ बोलते हो?”
उसने हैरानी से पूछा, “मतलब?”
वृद्ध ने उसके जाँघों पर हाथ रखते हुए कहा, “मेरे साथ तो बैठे हो। अकेले कहाँ?”
लड़का मुस्कुराया। वृद्ध आदमी भी। और उसकी आँखों में आँखे डालकर पूछा, “शैग करोगे?”
लड़के को लगा उसने कुछ ग़लत सुन लिया है। उसने पूछा, “क्या?”
वृद्ध ने हाथों का इशारा करते हुए फिर पूछा, “शैग करोगे? शैग… हिलाओगे?”
इस बार लड़के ने साफ़ सुना। घृणा का भाव एक तेज़ झरने जैसा आया और उसे भिगो गया। वो झटके से उठा और अपने बाहर निकलने के रास्ते की ओर दौड़ पड़ा। पीछे-पीछे बवंडर भी आया, पर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। न बैठे वृद्ध को, न पीछे दौड़ते बवंडर को। जब वो रुका तब उसने ख़ुद को दूसरी लेन पर खड़ा पाया, जहाँ से गाड़ियाँ सरसराती हुई निकलती जा रही थी। वो स्थिर था।
उसने सोचा कि जैसे वो पार्क की भूलभुलैया से आसानी से बाहर निकल गया, क्या वो अपनी मानसिक भूलभुलैया से बाहर निकल पाएगा? और वो बूढ़ा आदमी? वो तो भूलभुलैया में नहीं, झाड़ियों में खोया था। उसे अब उस बूढ़े आदमी से सहानुभूति महसूस हुई। और ये एहसास हुआ कि वो ख़ुद और वो बूढ़ा आदमी, दोनों ही उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर कितने अकेले थे!
ख़यालों के बवंडर उसके साथ ही रास्ते पर चल रहे थे। एक लेन थी उसके चलने की, जिसमें वो बवंडर के साथ था और दूसरी लेन थी उल्टी दिशा में जाती गाड़ियों की, जैसे वो विरोधाभास के सरसराते ख़याल हों। वो कभी-कभी चलते-चलते सर उठाकर दूसरी लेन को देख लिया करता। पर दूसरी तरफ़ की लेन का हर ख़याल पलक झपकने से पहले सरपट दौड़ते हुए आँखों से आगे निकल जाता। रुकने की कोई गुंजाइश नहीं थी। अपनी तरफ़ की लेन के बवंडर ने उसे थामे रखा था। वो प्यार के बारे में सोच रहा था।
कुछ समय पहले तक वो प्यार में था। प्यार के हर एहसास को जानता था। जिससे प्यार करता था या है, उसे भी। पर उस दिन वो ‘था’ और ‘है’ के बीचोबीच चल रहा था। बवंडर साथ लिए।
वो चलते-चलते, थक गया। शहर के इस हिस्से से वो ज़्यादा परिचित नहीं था। बवंडर लेकर भटकने पर ज़्यादा थकान लगती थी। उसे एक पार्क दिखा। पार्क यानी पेड़ की छाँव और शायद उसके नीचे एक बेंच। और दोपहर में भीड़ कम रहती, बच्चों का शोर-शराबा भी नहीं। यही सब सोचते हुए वो पार्क में चला गया। ये बात बिलकुल ठीक थी कि उस वक़्त बच्चे नहीं थे। और शोर-शराबा भी नहीं। वो एक बेंच पकड़कर बैठ गया। बैठते ही उसने सिर घुमाकर आस-पास की चीज़ों का ब्योरा लिया जैसे वो हमेशा करता था। जगहों का नक़्शा अपने आप बनकर सामने आ जाता था, जैसे अख़बारों में ‘मेज़’ का खेल। उसके लिए भी हमेशा सबसे ज़रूरी बाहर निकलने का रास्ता था। आज भी उसने बैठते ही बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ लिया था। थोड़ी आस-पास और नज़र घुमाई तो पूरे पार्क का एक रफ़ स्केच उसके ज़हन में धीरे-धीरे उतरने लगा। हाँ, अब वो आराम से बैठ सकता था। और बैठा ही था कि ध्यान आया साथ आया बवंडर, जिसे वो मैप बनाते हुए भूल ही गया था। उसने फिर से लोगों की तरफ़ देखा। वो भी किसी-न-किसी ख़ुमार में आस-पास का सब कुछ भूल चुके थे।
उसका मानना था कि दोपहर में पार्क में किसी का दिखना मतलब आलस का दिखना। पर वो आलसी नहीं था। उसे बस प्यार की थकान थी। लेकिन आस-पास उसे ढेर सारा आलस दिखा। एक झुंड में बैठे आदमी ताश खेल रहे थे। सुस्ता रहे थे। आस-पास उनका सामान भी रखा हुआ था। उसने अंदाज़ा लगाया कि वो अपने-अपने कामों से समय निकाल रोज़ जुआ खेलने आते होंगे। उसने कभी जुआ नहीं खेला। या खेला? नहीं, नहीं खेला। पैसों वाला तो बिल्कुल नहीं।
अभी तक उसका ध्यान नहीं गया था। पर जब गया तो देखा पूरे पार्क में जगह-जगह प्रेमी युगलों का जमावड़ा था। जो पत्थरों और झाड़ियों के पीछे छुपे बैठे थे। वो एक नज़र में नहीं दिखते थे। महबूबा के लाल, पीले, हरे दुपट्टे अपने आशिक़ों के और अपने चेहरे छुपाए दूसरी दुनिया में तैर रहे थे। पार्क के किनारे बहुत सारी झाड़ियाँ थीं, जिनके पीछे ये छुप सकते थे। पर ये सभी प्रेमी-युगल अपना-अपना तंबू गाड़कर बैठे थे। महबूबा के दुपट्टों का तंबू, जो कभी-कभी लहराता-इठलाता-सरकता प्रेमी-युगलों के डूबे हुए चेहरे दिखा दिया करता था।
उसे अपना समय याद आया, जब वो इसी तरह उसके साथ पार्कों, क़िलों और मक़बरों में घूमा करता था। उस शहर में प्यार करने की कोई और जगह थी ही नहीं। कम-से-कम उन दोनों के लिए तो नहीं थी। दोनों का घर नहीं था। दोनों हॉस्टल में रहते थे। मिलना हमेशा बाहर ही होता, और प्यार करना ऐसे ही बड़े पत्थरों की ओट पर। सबसे पहली बार जब उसने लड़की को चूमा था तो झेंपते हुए लड़की ने उसे एक फ़्रेंच गाने के बारे में भी बताया था–‘प्रेमिएर बेज़े एसौंज़े’, हाँ यही गाना था। उसने बताया था कि वो गाना भी पहले बोसे के बारे में था कि कैसे लड़का और लड़की ने एक पत्थर के पीछे छुपकर एक-दूसरे को बोसा दिया था। लड़की ये बताते-बताते ही शर्मा-सी गई थी। इसलिए आगे चलने लगी थी। उसके बाद दोनों के बीच इतनी ख़ामोशी छा गई कि लड़की बात करने का कोई अलहदा-सा विषय ढूँढने लगी। इधर-उधर नज़र दौड़ाई और फिर अचानक रुक गई। लड़का जो उसके पीछे-पीछे चल रहा था, रुक गया। लड़की ने बस एक बार मुड़कर उसे देखा और फिर तुरंत अपनी नज़रें नीची कर लीं। बायाँ पाँव उठाया और सँभालते हुए उसे एक चौकोर खाने में रख दिया। असल में वो पार्क में चलने वाले रास्ते पर खड़ी थी, जहाँ पर एक ही डिज़ाइन के ब्लॉक्स से रास्ता बनाया हुआ होता है। लड़की ने उसी में अपना एक खेल खोज लिया था। वो ब्लॉक के बीचोबीच अपने पैर रखना चाहती थी।
लड़का उसका ये बचपना देखकर मुस्कुरा रहा था। पर बस दिखावे के लिए उसने लड़की से पूछा, “अरे! क्या कर रही हो?”
लड़की ने जवाब दिया, “क्यों? जैसे तुमने नहीं किया कभी!”
लड़का बोला, “बचपन में!”
लड़की ने याद दिलाया, “परसों तुम बचपन में थे अपने?”
लड़के ने हैरानी से पूछा, “क्यों?”
लड़की हँस के बोली, “कल जब तुम मेट्रो के प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार कर रहे थे, तब दूर से मैंने तुम्हें देखा था। तुम फ़र्श को देखते हुए, उसके खानों में यहाँ से वहाँ कूद रहे थे।”
लड़का नाटकीय ग़ुस्से में बोला, “तुम जासूसी करती हो मेरी?”
लड़की ने अपना खेल जारी रखते हुए एक-दो ब्लॉक और पार किए और कहा, “मैं तो ये बता रही हूँ कि तुम शर्मिंदा मत हो। देखो, मैं भी करती हूँ।”
लड़का मुस्कुरा दिया और खेल में शामिल हो गया, पूछते हुए, “पर हम ऐसा क्यों करते हैं?”
लड़की थोड़ा सोचते हुए बोली, “हमें किसी-न-किसी खेल में उलझे रहना अच्छा लगता है। बंदर जैसा है न दिमाग़। एक डाल से दूसरी डाल। एक खाने से दूसरे खाने।”
लड़के ने इस बार गंभीरता से पूछा, “पर ये नियम किस बात के? कि खाने के बीचोबीच ही पाँव रखना है या उनके किनारों को ही छूना है?”
लड़की ने ये सुन लड़के के कंधे पर हाथ रख बिना नियम का पालन किए चलते-चलते कहा, “नहीं, ऐसा ज़रूरी नहीं है।”
फिर दोनों थोड़ी दूर चले, हाथ में हाथ डालकर। कि तभी लड़की रुकी और नाटकीय बौखलाहट में कहा, “अरे यार! इस बार सिर्फ़ बायाँ पाँव आगे रखकर चलना था। चलो, चलो फिर से शुरू करें।”
वो लड़के का उतरा हुआ चेहरा देखकर ज़ोरों से हँसने लगी। लड़के ने चिढ़कर विरोध नहीं किया। उसे तो वो ऐसी ही बचकानी हरकतें करती अच्छी लगती थी। वो उसके साथ चलने लगा।
वो दोनों ही अक्सर बाहर मिला करते। बस स्टॉप पर बैठकर सोचते कि कहाँ जाएँगे। एक एसी बस का पास बनवा लेते थे, जो पूरे दिन चलता था। वो हमेशा लड़की के लिए खिड़की वाली सीट छोड़ देता था। पास बनाने के बाद वो कहीं भी उतर सकते थे, या न भी उतरें। जब उतरते तो अक्सर पार्क, मक़बरों, या क़िलों के पास के बस स्टॉप पर। वहाँ से चलकर उन्हीं मक़बरों, क़िलों के कोने वो दोनों भी ढूँढा करते थे। पर कभी भी छुपते नहीं थे। ध्यान रखते थे कि वो दोनों नज़र में रहें–लोगों की। पर एक बार ऐसा भी हुआ कि वो नज़र चुराने के लिए एक स्तंभ के पीछे छुप गए। उन्हें पास ही में सीढ़ियाँ दिखीं। दोनों ही चल पड़े। और कोई नहीं देख रहा है, ये सोचकर एक-दूसरे को चूमने लगे। पर कोई देख रहा था। वो भी वहाँ का गार्ड। दोनों को ‘रंगे हाथों’ पकड़ लिया गया। दोनों ही घबराए। गार्ड ने उन्हें धमकाया और अपने ऑफ़िस ले जाने लगा और उनके आईडी कार्ड माँगने लगा। वो गिडगिड़ाए कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उसने लड़की के सिर पर हाथ रखकर क़सम भी खा ली कि दोनों ने कुछ नहीं किया था। पर क़सम से काम कहाँ चलने वाला था। गार्ड ने फिर धमकाया। फिर पचास रुपये में मान गया और गुर्राते हुए हिदायत भी दी, “अगली बार से ऐसे काम मत करना।”
दोनों ही वहाँ से बाहर निकल आए। लड़की तमतमाती हुई आगे चली जा रही थी, लड़का पीछे-पीछे। जब दोनों के क़दम मिले, तो लड़की ने तुनककर कहा, “तुमने मेरी झूठी क़सम क्यों खाई?”
लड़का हँसने लगा तो लड़की ने कहा, “हद्द होती है! हँस भी रहे हो ऊपर से!”
लड़के ने हँसी रोकते हुए कहा, “यार, तुम्हारी बात उस गार्ड की बात से भी ज़्यादा अजीब है।”
“गार्ड की कौन-सी बात?”
“अरे, यही कि ‘अगली बार से ऐसा मत करना’, ख़ुद जो वो घूस ले गया, उसका क्या?”
“चलो वापस जाकर, उसे मोरालिटी का ये लेसन दे आते हैं। चलो!”
“फ़ालतू मज़ाक़!”
“तुम झूठे और घूसखोर, दोनों हो गए आज।”
“पर पैसे तो तुम्हारी जेब से गए लड़की!”
“उधार समझकर दिया है। वापस करना। मैं घूस नहीं देती।”
लड़के ने हँसते-हँसते कहा, “हॉस्टल जाकर ज़रा सोचना अपने इस सिद्धांत पर।”
और ऐसे ही वो बातें करते-करते आगे उस क़िले के अंदर बने एक तालाब के पास आ खड़े हुए। हरी काई पूरे तालाब पर फैली हुई थी। इस हरेपन को तोड़ते हुए कुछ बतख़ भी तैर रहे थे। और तालाब के बीचोबीच एक पेड़ का स्याह तना था, जो एक तरफ़ को झुका हुआ था। लड़का उसे देखते हुए तालाब के किनारे आया और एक पत्थर पर बैठ गया। लड़की पास के ही एक-दूसरे पत्थर पर। लड़का तने को देख रहा था और लड़की लड़के को।
लड़की ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा, “थोड़ा सीरियस होते हैं।”
लड़के ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “मैं हमारे बारे में हमेशा से सीरियस था।”
“मेरा मतलब करियर को लेकर सीरियस। अब मिलना थोड़ा कम करते हैं न।”
“हम्म!” लड़के ने ये कहते हुए बस हाँ में सिर हिलाया। ये सोचते हुए लड़की से नज़र चुरा ली कि पता नहीं कौन-सा सच उसे लड़की की आँखों में दिख जाए जिसके लिए वो तैयार नहीं था तब।
अब वो बैठा था। तालाब के पास नहीं। पार्क में। लड़की के पास नहीं। अकेले। बवंडर अभी भी सिर पर मँडरा रहा था। आस-पास के लोग अभी भी प्यार में डूबे हुए थे। उसने उन सभी से नज़र हटाई। तभी उसे झाड़ियों में कुछ हलचल होती नज़र आई। वो ग़ौर से देखने लगा। झाड़ियों को एक तरफ़ करता एक वृद्ध आदमी वहाँ से निकला। उसने सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहना था। वो टहलता-टहलता उसी की तरफ़ आ रहा था। उसने सोचा ये वृद्ध भरी दोपहरी क्यों टहलने निकला था। पार्क में सुबह और शाम को कितने ही वृद्ध दिखा करते थे! दोपहर में सिर्फ़ जुआरी, प्रेमी युगल और नशेड़ी। वो तीनों में से कुछ भी नहीं लग रहा था। हो सकता है, वो भी उसी की तरह अकेला हो। वो मुस्कुरा रहा था। मुस्कुराते हुए उसके पास आया और बेंच पर बैठ गया। वो भी वृद्ध को देखकर मुस्कुरा दिया।
वृद्ध आदमी की बिन दाँतों वाली निश्छल मुस्कान उसे पसंद आई। वृद्ध ने पोपले शब्दों में पूछा, “अकेले बैठे हो यहाँ?”
उसने जवाब दिया, “हाँ।”
वृद्ध ने कहा, “सामने-सामने झूठ बोलते हो?”
उसने हैरानी से पूछा, “मतलब?”
वृद्ध ने उसके जाँघों पर हाथ रखते हुए कहा, “मेरे साथ तो बैठे हो। अकेले कहाँ?”
लड़का मुस्कुराया। वृद्ध आदमी भी। और उसकी आँखों में आँखे डालकर पूछा, “शैग करोगे?”
लड़के को लगा उसने कुछ ग़लत सुन लिया है। उसने पूछा, “क्या?”
वृद्ध ने हाथों का इशारा करते हुए फिर पूछा, “शैग करोगे? शैग… हिलाओगे?”
इस बार लड़के ने साफ़ सुना। घृणा का भाव एक तेज़ झरने जैसा आया और उसे भिगो गया। वो झटके से उठा और अपने बाहर निकलने के रास्ते की ओर दौड़ पड़ा। पीछे-पीछे बवंडर भी आया, पर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। न बैठे वृद्ध को, न पीछे दौड़ते बवंडर को। जब वो रुका तब उसने ख़ुद को दूसरी लेन पर खड़ा पाया, जहाँ से गाड़ियाँ सरसराती हुई निकलती जा रही थी। वो स्थिर था।
उसने सोचा कि जैसे वो पार्क की भूलभुलैया से आसानी से बाहर निकल गया, क्या वो अपनी मानसिक भूलभुलैया से बाहर निकल पाएगा? और वो बूढ़ा आदमी? वो तो भूलभुलैया में नहीं, झाड़ियों में खोया था। उसे अब उस बूढ़े आदमी से सहानुभूति महसूस हुई। और ये एहसास हुआ कि वो ख़ुद और वो बूढ़ा आदमी, दोनों ही उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर कितने अकेले थे!
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