Tuesday, May 14, 2024

प्रमिला वर्मा
पीएचडी, १६अगस्त ,जबलपुर (मध्यप्रदेश  में  जन्म)
पिछले 30 वर्षों से लगातार लेखन ।सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां लेख प्रकाशित।
स्त्री विमर्श पर “सखी की बात” स्थाई स्तंभ जो साँध्य दैनिक में 10 वर्ष चला ,चर्चित रहा।  कुछ कहानियों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद।कई संग्रहों में कहानी संकलित।
6 कहानी संग्रह, संयुक्त उपन्यास “हवा में बंद मुट्ठियां” दूसरा संस्करण “ख़्वाबों के पैरहन”
विदेशी संस्कृति पर शोधात्मक उपन्यास “राॅबर्ट गिल की पारो” अजंता की खोज पर आधारित प्रेम कहानी।
संपादित कथा, कविता संग्रह  आदि प्रकाशित ।
20 वर्ष तक अखबारों में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत।
: दि संडे इंडियन पत्रिका में 21वीं सदी की 111 हिंदी लेखिकाओं में एक नाम।
:अविभाजित मध्यप्रदेश के तीसरे  कथा खंड में  कहानी  संकलित।
“बीसवीं  सदी की महिला लेखिकाओं ” के नौवें खंड में कहानी ।
: महिला रचनाकार: अपने आईने में  आत्मकथ्य , पुस्तक  रुप में प्रकाशित।
:स्वयंसिद्धा -अक्षरपर्व, मध्य प्रदेश की शिखर पर पहुंची महिलाओं की वेबसाइट पर।
: सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय विजय वर्मा की स्मृति में हेमंत फाउंडेशन की स्थापना। ट्रस्ट की संस्थापक/ सचिव। जिसके  अंतर्गत 20 वर्षों से विजय वर्मा कथा सम्मान एवं  हेमंत स्मृति कविता सम्मान  प्रदान करना।
राष्ट्रीय एवं राज्य  पुरस्कारों से सम्मानित।
सोशल एक्टिविस्ट फॉर वुमन एंपावरमेंट ।
जंगलों की देश, विदेश की सैर उसी दौरान कुछ मुद्दों पर लेखन, शोध आदि।
चिड़ियों पर विशेष शोध हेतु पक्षी विशेषज्ञ श्री सलीम अली के साथ सुदूर रोमांचक समुद्री यात्राएं।
संपर्क/
Email-id. vermapramila16 @ gmail.com

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कहानी

मां और मिन्नी
 
मैं जानती हूं कि अब बुआ क्या कहेंगी… मैं अपराध बोध से सिहर उठती हूं, और सच ही बुआ बोल उठती हैं, जो धीमे-धीमे भूमिका बांध रहीं थीं”सब तेरे ही कारण हुआ मिन्नी क्या तू नहीं जानती?”
 मैं अपनी डबडबायी आंखें उनकी ओर उठा देती हूँ। वे कहतीहैं। “चिट्ठी पर पड़े तेरे वे दो बूंद आंसू, क्या तेरी मां नहीं पहचान सकी थी, जिसने तुझे नौ महीने कोख में रखा। ”
 चार साल हो चुके थे उस घटना को। वे क्षण आज भी वैसे ही जीवंत थे जैसे तब ….आज जब वह दुल्हन बनने जा रही थी, बुआ ने उसे कठघरे में ला खड़ा किया था।
कालेज के प्रथम वर्ष में वह थी। हां! वह दिन उसे अच्छी तरह याद है जब मां ने रोते हुए बुआ को फोन किया “ फोन पर कुछ नहीं बता सकूंगी, तुरंत ही आ जाओ।”
 मां की सखी भी, ननद भी, बुआ तुरंत ही चल पड़ी थीं, और अगले दिन मां के समक्ष थीं।
 घर में ऐसा कुछ घटित हुआ था कि वह कालेज नहीं जा पाई थी। मां बुआ का हाथ पकड़कर लगभग घसीटती हुई वहां ले गई थी, जहां पापा बैठे थे…
“लीजिए! जीजी, इन्हीं से पूछिए मेरा क्या दोष है?” बुआ ने सारी बातें सुनी थीं और तैश में आकर कहा था- “यह क्या जगदीश! तुम्हें जरा भी शर्म नहीं, बेटी जवानी में कदम रख चुकी है और तुम्हें रंगरेलियां मनाने की सूझी है।“
पापा में कहीं अपराध बोध नजर नहीं आ  रहा था, कोई पछतावा चेहरे पर नहीं था। ईजीचेयर पर  बैठे वे सिगरेट पी रहे थे। पास ही उनके सूटकेस तैयार रखा था। अच्छा हुआ जीजी तुम आ गई। वे बोले थे-“ ये तुम औरतों का काम है कि साथी पसंद हो या न हो, उसी के साथ सर झुकाकर जीते चले जाना, मुझसे यह नहीं हो सकता।“
“तो तुम शादी के सत्रह साल बाद निम्मो को छोड़ना चाहते हो?”
“छोड़ना चाहता नहीं हूं, छोड़ दिया है, मैं क्लैरा के साथ इटली जा रहा हूं, वही रहूंगा।”
अब क्या बाकी था कहने को। पापा की गंभीर गर्जना सुन मां का चेहरा सफेद बर्फ सा हो आया था। सदैव खामोश रहने वाली मां आज भी खामोश थीं। जहां अधिकारों के लिए लड़ा जा सकता था, जहां ससुराल का कोई बड़ा व्यक्ति साथ था… वहां भी वे चुप थीं।
“तो इस लड़की का क्या होगा? यह तुम्हारी भी तो बेटी है।”
 बुआ ने अंतिम वाक्य अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था, लेकिन यह प्रहार भी खाली गया।
“हां है तो, लेकिन यह पालेंगी आपकी निर्मला जी, एम.ए., पी. एचडी., प्रोफेसर है… और क्या?”
“तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगे जगदीश।” बुआ रोने लगी थीं। शायद उन्हें अपनी हार का अंदाजा नहीं था।
“दो जीजी, और शाप दो, तुम औरतें न स्वयं जीती हैं न दूसरों को ही जीने देती हैं।”
पापा उठकर जाने लगे तो बुआ ने रास्ता रोकने की कोशिश की थी,” ऐसे तुम नहीं जा सकते जगदीश…”
 लेकिन सब कुछ निरर्थक… वे जा चुके थे। हम सबके बीच एक खाली दायरा पसरा पड़ा था… जैसे सभी अपनी कैद भुगत रहे थे… अलग थलग… मां के अंदर किन भयानक तूफानों ने उपद्रव मचाया होगा… अब महसूस कर सकती है वह… डब… डब!
आंखें भर आईं… क्यों पुरुष का सहारा इतना जरूरी है… क्या पुरुष के बगैर नारी दो कदम भी नहीं चल सकती। लेकिन चली थीं मां… दो कदम नहीं… हजार कदम… फिर भी उनके अंदर हर वक्त कुछ टूटता ही रहता था… मिन्नी का सहारा तब था… क्यों मां अनिर्णित रहीं…
क्यों? क्यों? जानती नहीं थीं कि जब मिन्नी चली जाएगी तब? कितनी ही रातें मां को आंचल मुंह में ठूंस कर रोते देखा था, जिस पति के साथ हर कदम पर मां चली थीं वहीं उन्हें कितना प्रताड़ित करके चला गया.। … इतनी छोटी सी भी वह नहीं थी कि समझ नहीं पाती… यूं टूट जाते हैं संबंध… मानो कांच के बने थे… टकरा गए और हो गए चकनाचूर… आहत अभिमान से फिर शायद कभी मां ने चेहरा ऊपर भी नहीं उठाया होगा… तिरस्कृत नारी…
“क्या हुआ निर्मला को?” पहली बार हरीश अंकल से मां का नाम सुना था, मां बीमार पड़ी थीं, बुआ और मैं उन्हें घेरे बैठे थे, मां नीचे नजर किए थीं मानो अपराध उन्होंने किया हो।
हरीश अंकल तलाकशुदा थे। सुनते हैं पंद्रह दिन भी उनकी पत्नी उनके साथ नहीं रहीं थीं, वे किसके मित्र थे वह नहीं जानती लेकिन वे पापा और मां दोनों के ही मित्र प्रतीत होते थे। मां उनको देखते ही अपनी कारा में कैद हो जाती थीं। वे मूर्तियां बनाते थे, चाहें हाथ में मिट्टी का लौंदा दे दो या संगमरमर का टुकड़ा… वे सामने वाले की हूबहू मूरत बनाकर रख देते।
बुआ भी कितने दिन रुक सकती थीं, मकान भी पापा को होटल की तरफ से मिला था, अत: खाली करना पड़ा… एक छोटे से घर में मां और वह… हरीश अंकल उसी से बात करते रहते और फिर चले जाते। मां ने अपने को इस तरह अपने बनाए कारागार में कैद कर लिया था कि निकलना ही नहीं चाहती थीं। न उनके चेहरे पर हंसी आती, न कोई वाक्य बनते… वह जल्दी आ जाती तो वही खाना बना लेती।
मां खाने की तारीफ करतीं, तारीफ में भी हंसती और उनकी खोखली हंसी स्पष्ट ही नजर आती… कितना तकलीफदेह होता जा रहा था जीवन… मानो जीने की सारी शर्ते ही समाप्त हो गई हों… मां रात बैठी दूसरे दिन के लेक्चर की तैयारी कर रहीं थीं और वह उनका बिस्तरा ठीक करते हुए मसहरी लगा रही थी।
“तुम चलोगी मिन्नी! कल” उन्होंने बगैर किसी भूमिका के कहा था।
“कहां?”
“कल हरीश माथुर की कलाकृतियों की प्रदर्शनी है, उद्घाटन के अवसर पर उन्होंने चाहा है… हम दोनों जरूर आएं।”
 सहसा खिल उठी थी वह… चलो कारागार से निकलने का प्रयास तो किया मां ने। 
दूसरे दिन शाम पांच बजे प्रदर्शनी के उद्घाटन पर वे दोनों उपस्थित थीं। आर्ट गैलरी के दरवाजे पर वे शायद हमारा ही इंतजार कर रहे थे। 
“चलो निर्मला जल्दी… अरे हमारी बिटिया भी साथ है…” उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा। आर्ट गैलरी में वह घूम-घूम कर मां के साथ मूर्तियां देख रही थी… वाह कितनी जीवंत… कितनी अच्छी… यह देखो मां… मां… वह… और! और ! एक मूर्ति पर उसकी आंखें पत्थर हो गई… अरे! यह तो… सहसा उसने होंठ भींच लिए थे ढेर सारा पसीना पैर के तलुवों से निकला और सैंडिल पर जम गया। हथेलियां माथा… पसीने से भर उठा… सामने मां की मूर्ति थी… सीने पर से आंचल आधा सरका हुआ… एक उरोज नग्न… हां… वे मां ही थीं… मूर्ति के नीचे लिखा था ‘नॉट फॉर सेल ‘
खड़े रहना भी उसका दूभर हो चुका था। मां अपराधी सी खड़ी थीं। वह तेजी से बाहर निकली तो वे भी पीछे भागीं, रिक्षा किया और दोनों सीधे घर पर… ढलका आंचल… नग्न उरोज… मां! मां! कहां हो तुम?
“मिन्नी खाना खा लो।”
“नहीं, मुझे भूख नहीं है।”
दोनों ही भूखे जागते अपराधी से पड़े थे। यदि मां के आंसू आंखों से लुढ़क रहे थे तो उनके भी लुढ़क रहे थे। सुबह भी दोनों के बीच अबोला था। खाना चाय कुछ भी नहीं किसी ने कुछ नहीं खाया पिया। शाम को कालेज से वह लौटी तो वे सिर पर पट्टी बांधे लेटी थीं। उसने उनकी ओर देखा और थरथरा उठी। चौबीस घंटों में मानों मीलों फासला तय कर डाला था दोनों ने।
 एक कचुआइट से देह कांप उठी। जाकर उनका माथा छुआ और भागकर एक क्रोसिन लाकर उन्हें दी।
वे निःशब्द रो रहीं थीं। दोनों हाथों से उसके हाथों को पकड़ रखा था। उन्होंने आंखें बंद कर लीं। वह धीमे-धीमे उनका सिर दबाती रही… आंखों के समक्ष ढलका आंचल था और एक उरोज नग्न… उसने धीमे से उनके व्यवस्थित आंचल को ठीक किया, मानो वह अव्यवस्थित था और उसने… वे सो रहीं थीं। …क्या वे सचमुच सो रहीं थीं। वह टेबिल पर आई तो देखा वहां एक पत्र पड़ा था।
शायद जानबूझकर… वैसे ऐसा कुछ भी नहीं था जो उससे छुपा हो… या मां ने छुपाया हो…  पत्र बुआ का था-
निम्मो, फैसला तो मिन्नी को ही करना होगा… हम जानते हैं वह बड़ी हो चुकी है… उसके फैसले को अहमियत देनी होगी… हरीश जो चाहते हैं, वह उचित ही है। उन्होंने मुझे स्पष्ट लिखा है कि वे मिन्नी को एक पिता से बढ़कर प्यार देंगे। जो तुम्हारा प्राप्य होगा वह तुम लोगी… मान जाओ निम्मो… जब तक तुम्हारे साथ मिन्नी है तुम जी लोगी… फिर बाद में क्या होगा? कभी सोचा है कि जिंदगी की इस दोपहर में किसी के साथ की कितनी जरूरत महसूस होती है? भूल जाओ कि जगदीश कभी तुम्हारी जिंदगी में आया भी था। बहन होकर कह रही हूं। जब वह अपनी जिंदगी जी सकता है तो तुम्हें भी अपने बारे में सोचने का भरपूर हक है। सच पूछो तो तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है? … केवल सैंतीस वर्ष… निम्मो! मैं तुमसे बहुत बड़ी हूं… मेरा कहना मान लो… मिन्नी को स्पष्ट बताकर पूछो कि क्या करना है… फिर मैं आ जाऊंगी।
फिर वही हालत उसकी… हाथ पैर माथे पर पसीना… लगा कि प्रदर्शनी में लगी मूर्ति ठठाकर हंस रही हो… आंखों से आंसू गिर रहे थे और पत्र पर गिरे वे दो आंसू… इंक फैल चुकी थी… उसने हड़बड़ी में पत्र तह करके लिफाफे में रख दिया। ऐसा मानो खोला ही नहीं था… आंखें बंद कीं तो मां का ढलका आंचल… पत्र… एक नग्न स्तन… षड्यंत्र! उसके चारों तरफ षड्यंत्र  रचा जा रहा हो मानो, जिसमें हरीश अंकल, मां… बुआ सभी शामिल हैं। सब कुछ हाथ से छूट रहा था। पापा कहीं खो गए थे और अब मां… आंख लगी तो अपने आपको एक ऊंचे पर्वत पर खड़े देखा… और फिर क्षणांश में ही… यूं लुढ़की कि मुंह से एक चीख निकल गई, मां… लगभग दौड़ते हुए  उसके नजदीक आई थीं।
“क्या हुआ मिन्नी? … मेरी बेटी… ” 
बुखार से उनका शरीर तप रहा था।” कुछ नहीं” उसने उनके हाथ झटक दिए थे। सुबह नींद खुली तो वे किचन में खटर-पटर कर रही थीं। लगभग स्वस्थ सी, टेबिल पर से पत्र गायब था… मानो कहीं कुछ हुआ ही नहीं। उन्होंने उसकी पसंद का खाना बनाया था और दोनों खा रहे थे चुपचाप…
अपने-अपने दायरों में कैद। मां फिर अपनी कारागार में कैद हो चुकी थीं, जिंदगी ने फिर बहना शुरू कर दिया था। क्या कुछ नहीं घटा था अड़तालीस घंटों में।
पच्चीस दिन हो चुके थे और हरीश अंकल को घर आते नहीं देखा, एक दिन यूं ही कॉलेज से लौटते हुए वह उनके घर की तरफ चल पड़ी थी, हां! तमाम षड्यंत्रों को भोगते हुए उसने सोचा था कि कहीं तो उनके लिए स्नेह का दीप उसके अंदर प्रज्ज्वलित है जिसको महसूसते हुए वह उस ओर खिंची जा रही है… यह क्या… ताला लगा था उनके फ्लैट में ।
वह अचकचा कर खड़ी हो गई। सामने से आते दिखे थे उनके पड़ोसी डॉ. मिश्रा।
“अरे मीनाक्षी तुम?”
“कहां हैं हरीश अंकल?”
“अरे, तुम्हें नहीं मालूम? वे तो पंद्रह दिन हुए यहां से चले गए। बाद में पता चला कि उन्होंने जबरदस्ती अपना ट्रांसफर करवाया था शिलांग का”
 फिर वह रुकी नहीं। अब रास्ता साफ था…
षड्यंत्र समाप्त हो चुका था। षड्यंत्रों पर उसने विजय पा ली थी। एक खुशी से उसका समूचा बदन हिलोरें ले रहा था। पांव तेजी से बढ़ रहे थे… मां को बताना होगा, तो क्या मां को मालूम नहीं था… मालूम नहीं तो उसे बताया क्यों नहीं… घर आते ही उसने मां के गले में बांहें डाल दी थीं। मानो बरसों की बिछड़ी मां आज मिली हों…
पच्चीस दिनों की दूरी मिनटों में सिमट गई थी… दोनों रो रही थीं, शायद एक दूसरे को संपूर्ण पाकर।
 
 
मेहंदी लगवाते हाथ बरबस कांपे थे। वे कितनी व्यस्त थीं। रह-रहकर भर आईं उनकी आंखें। कितनी स्वार्थी हो उठी थी तब वह… जब मां ने एक सहारा पाना चाहा था…या एक प्रेम से भरा साथी…… और आज जब वह ससुराल जा रही है… क्या आज भी उसके अंदर उतना ही स्वार्थ है… फिर क्यों मां को लेकर वह पिघल-पिघल जा रही है… तो मां को मालूम था कि उसने वह पत्र पढ़ लिया था… मिन्नी! पत्र पर गिरे वे तेरे दो बूंद आंसू…
 फिर वैसी ही तलुओं में चुनचुनाहट… माथे पर पसीना… वे भाग कर आईं-” क्या हुआ मिन्नी?”
“कुछ नहीं” उसने भरपूर गहराई से उन्हें देखा था, तब मां छूटी जा रही थीं… आज वह… क्या अंतर था?
“लो ,जगदीश ने बेटी के ब्याह का फर्ज पूरा कर दिया ।(हाथ में गुलाबी रंग का कागज हिलाती बुआ आई थीं,) बधाई का तार भेजा है इटली से।”
मां ने नजरें उठाकर भी नहीं देखा जिस टेबिल पर बधाई तार पड़ा था उसी पर पंडित हलवाई लड्डुओं से भरा टोकरा रख गया। बस हल्का सा गुलाबी कागज बाहर झांक रहा था।
“लो आ गए हरीश भी।” बुआ ने दूसरा समाचार सुनाया। मां अन्मयस्क हो उठीं। जल्दी से आंचल को सिर पर ढका और दूसरे कमरे में उतनी ही खामोशी से चली गईं
“अरे! इतनी बड़ी हो गई हमारी बेटी।” वे चहक कर उसकी तरफ बढ़े और वह भरपूर उनसे लिपट कर रोने लगी। वे पितृतुल्य उसे अपने चौड़े सीने में लपेटे रो रहे थे और कह रहे थे-” अरे, पगली रोती है… देख! यह दिन तो हर लड़की की जिंदगी में आता ही है… फिर अपनी मां की तरफ देख… उसने जगदीश का फर्ज पूरा किया है आज। ” 
मां न जाने कब टेबिल के पास आकर खड़ी हो गई थीं और लड्डुओं के टोकरे पर चमकीली पन्नी चढ़ाने लगी थीं।
“यहां तो लगता है सारी तैयारी हो चुकी है, शायद हम ही बहुत देर से पहुंचे।”
मां ने बगैर नजरें उठाए ही कहा था- “नहीं अभी सारी तैयारी कहां हुई?”
बुआ ने आकर मां को टोका था,” यह क्या निम्मो, इतनी दूर से हरीश आए हैं, न चाय… न नहाने का पानी।”
“हां! हां!” मां फिर अव्यवस्थित हो गई थीं। उन्होंने भर नजर भी नहीं देखा था हरीश अंकल की ओर।
वह आखिरी रात थी मां के साथ उसकी जब उसने लेटे हुए मां की कमर में हाथ डाल दिया था।
चार साल पीछे छोड़ा प्रश्न आज भी वैसा ही उसके समक्ष खड़ा था। फैसला    उसे ही करना था।
“मां, कैसे रहोगी तुम अकेली?”
“मेहंदी बहुत सुर्ख रची है न मिन्नी?”
उन्होंने उसके हाथों को सहलाते हुए कहा।
“मां! बात को टालो नहीं।“
उन्होंने एक गहरी सांस खींची थी जैसे अंधे कुएं से निकला कोई वाक्य हो।  “मिन्नी!
मेरी चिंता मत करो… किसी के हिस्से में ईश्वर सुख देना भूल ही जाता है..”
. फिर एक सोने का बहाना… फिर अपराधी वह… एक दीर्घ चुप्पी… फिर अपनी कारागार में कैद मां… क्यों मां को किसी के उत्तर की प्रतीक्षा थी… क्यों उन्होंने फैसला उस पर छोड़ा था… और वह पीछे छोड़े चार वर्ष… जिसकी हवा में तब सांस लेना भी मुश्किल लगा था उसे… स्पष्टत: मां जाग रही थीं… कि मिन्नी उठे… और आंचल भर दे उनका खुशियों से… वह ऐसा कर भी सकती है… लेकिन वे क्या अब मानेंगी? क्या बिगड़ा था? चार ही वर्ष तो बीते थे… जानने समझने को चार वर्ष… शायद तब का निर्णय मां के प्रति घृणा भर देता… लेकिन आज… आज जब वह वही सब कुछ कहना चाह रही है तो वे मानों कुछ सुनना ही नहीं चाहतीं… आज वे सचमुच संगमरमर की मूर्ति बन गई हैं… जो चार साल पहले प्रदर्शनी में देखी थी… अडोल, जी चाहा झकझोर दूं… क्यों अपने को अवहेलित करती हो मां… जीने का हक तुम्हें तब भी था… आज भी है… फिर क्यों अनिर्णीत रहती हो… क्यों सहारा ढूंढ़ती हो कि कोई तुम्हारे भाग्य का फैसला करे… और तुम उस धारा में बह चलो… तुम्हारा अपना कोई प्रवाह नहीं है मां… जिधर धारा बही तुम बहीं… क्यों सजा देती हो अपने को…
“मां!”
“क्या  है मिन्नी? सो जाओ।“
हरीश अंकल सुबह ४ बजे जाग पड़े और ऐसे काम में जुटे कि न नाश्ते का होश न चाय का। भागते-भागते बुआ की जिद पर दो कौर खाए होंगे। स्पष्ट दिख रहा था कि बेटी ब्याहना इतना सरल काम तो नहीं। उन्हें देखकर मां के अंदर भी नई स्फूर्ति ने जन्म ले लिया था। भाग-भाग कर वे काम में जुटी हुई थीं।
शाम को बारात दरवाजे पर थी। हरीश अंकल यूं आधे-आधे झुके जा रहे थे जैसे एक पिता लड़के वाले के समक्ष… देखिए कुछ कमी तो नहीं रह गई… इतनी लगन…अपनों के प्रति समर्पण… कि मां पीछे रह गई। आगे थे वही… विदाई का क्षण निकट था। विदाई की इस बेला में मां फिर वही सफेद… जैसी तब… जब पापा उन्हें छोड़कर जा रहे थे… उसके गालों पर निरंतर ढलकते आंसू… मां से लिपट कर रोते हुए जब काफी देर हो चुकी तो उन्होंने ही आकर उसे अपनी तरफ घसीटा था।
एक मौन… पसरा पड़ा था। केवल सिसकियों की आवाज थी। उसने मां की तरफ इशारा किया तो पुन: उन्होंने उसे अपने सीने से लगा लिया था मानो कह रहे हों… मैं तो हूं ना मिन्नी… जिस बात की स्वीकृति उसे चार वर्ष पूर्व देनी थी, आज वह दे पा रही थी… उसकी आंखों की मौन भाषा को वे ही पढ़ सकती थीं… मां क्यों कोई आड़ लेती हो, क्यों अपने प्राप्य को गले नहीं लगातीं… बुआ चुप थीं… मां चुप थीं… वे चुप थे… शायद समय थम सा गया था… नहीं, मां! आज कोई कारागार तुम्हें कैद नहीं करेगा… तुम्हें जीना है मां… जीना है… वह भागकर पुन: मां से आकर लिपट गई। फिर उनकी तरफ इशारा किया… मानो कह रही हो कि चार साल लग गए इस व्यक्ति को पिता रूप में स्वीकारने में… मां ने पुन: उसे भींचकर लिपटा लिया और कानों के पास बुदबुदायीं… नहीं मिन्नी नहीं… अब वह सब संभव नहीं…. अब तो मेरा अकेलापन ही मेरी नियति है। तुम फलो फूलो इसी चाहत में मेरे पल छिन समर्पित रहेंगे… और डबडबायी आंखों से विदा होती मिन्नी देख रही है… कारा के पट खुल रहे हैं और मां उसमें समाती जा रही है… अतीत, वर्तमान, भविष्य सब एक सूक्ष्म परछाईं बन गए हैं… यह परछाईं मां की है और वह फूट-फूट कर रो पड़ी।
प्रमिला वर्मा

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कविताएं

सुबह के अंधेरे

दर्द की
 कोई लहर थी भीतर
 मचा रही थी हलचल
 बाहर आने को 
डर था 
कहीं फट न पड़े
 और बन ना जाए 
बवंडर
यह लहर
 
  
उबला था  भीतर 
बहुत कुछ 
बह चला था
 अश्रुओं की धार बनकर 
धार ने बना दी थी 
एक लंबी पगडंडी
 पर सूखी थी
 गीली न थी 
वो
 मेरी पगडंडी
 
बस चरमराहट थी
हर तरफ फैली
सूखे पत्तों की 
और सूखे पत्तों पर 
उभरता हुआ 
एक चेहरा 
चेहरा तुम्हारा 
 
 नहीं !
नहीं पहचानती 
मैं तुम्हें
 पहचानूंगी भी नहीं
 क्यों आते हो 
जिंदगी में
 बार-बार मेरी 
कभी बन चेहरा 
बन कर सांसें कभी 
 
क्या सोचते हो
 मेरी सांसे तुम्हारी हैं? 
तुम तो 
हो चुके थे गुम 
मेरी स्मृतियों से 
जैसे सुबह होने पर
 आसमाँ से तारे
 
जीती हूं 
मैं अकेली
 और मेरे पास है 
दम तोड़ती रात 
और सुबह के अंधेरे …
 
और उन अंधेरों में 
जब टटोलूं खुद को
 पाती हूं वही पत्ते 
और उन पत्तों पर 
बस एक चेहरा
चेहरा तुम्हारा 
 
हां !
मेरी सांसों पर
 लिखी है 
बस एक इबारत
 तुम्हारी ही इबारत 
 पढ़ती हूं 
जिसे दिन रात 
हर पल
सुबहो शाम… 
 
तुम ही बताओ 
क्या करूं मैं आखिर 
सुबह के इन
 अंधेरों का!

मुझ में समुद्र

पूछती हूं समुद्र से
उसकी
उफनती लहरों से
क्यों मुझ में 
एक ठंडक तारी
 
समुद्र!
क्या दोगे मुझे 
थोड़ी सी उद्विग्नता
ताकि पलटकर 
उतार सकूं 
अपना रोष
इस बेदर्द 
जहां पर
 
समुद्र!
तुम लहरों के संग
करते हो हाहाकार 
सन्नाटे में 
हवाओं के साथ 
सुनाई देती है
तुम्हारी चीखें 
 
मैं खिड़की 
बंद कर देती हूं
फिर भी 
दरारों से आती है
तुम्हारी 
चीखों की आवाज
 
समुद्र!
क्या चीखना 
हाहाकार करना ही 
है तुम्हारी नियति?
 
समुद्र!
क्यों बांध नहीं लेते
अपने पैरों में घुंघरू 
ताकि मैं 
खोल कर खिड़की 
सुन सकूं 
तुम्हारे घुंघरूओं की
छम छम
और गा सकूं 
कोई गीत मनभावन
रोष और उद्विग्नता से ना सही 
थोड़े अनुराग
दिल की गहराइयों से 
 
हवाओं की सुरीली
बांसुरी से 
ला सकूं
अपने प्रिय को 
खुद तक 
इस पार
 
समुद्र!
बांधोगे न घुंघरू?

सदी की हवाएँ

हवाएँ
भागती आईं
वे मुड़ी हैं इस बार
इतिहास के
उन
सफों की तरफ
जहां कुछ शब्द हैं खड़े
लाल-लाल आँखें लिए।
ठहरो !
यह चिंता का विषय है
कि
सदी की खौफनाक हवाएं
इतिहास की ओर मुड़ी हैं
और,
एक पूरी की पूरी जमात 
मूक सी खड़ी है।
प्रमिला वर्मा

अंतहीन महाभारत

युद्ध कि वह एक भयानक रात थी।
निःशब्द रात ।
बज उठता था सायरन
भयभीत कर जाता था
हर पल।
कहीं दूर बज उठती थीं
गोलियों की गूंज, धुआं, टैंकर की घरघराहट
सुबह! निर्दोष
लाशों को ढोते
ग्रामवासी।
फिर वही रात,
फिर वही सुबह,
कि अचानक!
बूटों की आवाज़ ,
घर की देहरी पर आकर थमी।
थरथराहट उठीं बेटियां
मूक बन गए पिता।
बेटे ने संभाली ज़ग लगी बंदूक। नहीं बचा पाया,
बहनों के वस्त्रों को।
चीरहरण के बीच गूंजी
मर्मांतक चीख।
पिता घर की म्याल पर लटके कांपते पैर,
फिर स्थिर होती देह ।
मां ने फटी- फटी आंखों से ,
देखा।
और सुनी ,बेटे की अंतिम चीख। सुबह होने को थी,
हल्का उजाला पसरा पड़ा था, झोपड़ी के अंदर।
अब सायरन से भयभीत नहीं थी मां …..
युद्ध थम चुका था, उसके भीतर का।
बचा क्या था, दांव में लगाने को?
बेटियां, पति, पुत्र या वह स्वयं?
माँ रुपी युधिष्ठिर ने सब कुछ गंवा दिया था।
एक और अंतहीन महाभारत में।

…………………………

किताबें

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