Wednesday, September 17, 2025
...................

प्रियंका ओम
ईमेल – pree.om@gmail.com
रहवास – तंज़ानिया (अफ्रीका )
स्थाई पता – जमशेदपुर ( झारखण्ड )
शिक्षा :- अंग्रेज़ी साहित्य से स्नातक
प्रकाशित किताबें :- “वो अजीब लड़की (कहानी संग्रह, जनवरी 2016 )
“मुझे तुम्हारे जाने से नफ़रत है “ ( कहानी संग्रह जनवरी 2018 )
दिन हुए दिवंगत ( कहानी संग्रह 2023 ) के अलावा विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में कहानी प्रकाशित।

………………..

कहांनी

हाँ, आख़िरी प्रेम 
——————-

हमदोनों को यहां आये काफी देर हो चुकी है, इतनी देर कि यहां मौजूद लगभग सभी चीज़ें उसे जानी-पहचानी लगने लगी हैं। जिसमें दीवार पर टंगी पेंडुलम वाली पुरानी घड़ी सबसे महत्वपूर्ण है. आते ही उसकी पहली नज़र इस घड़ी पर पड़ी थी और मेरे आ जाने तक वह इसे कई मर्तबा देख चुकी हैं. वैसे तो वह अपनी कलाई में बंधी घड़ी या हाथ में पकड़े मोबाइल में समय देख सकती थी, लेकिन आंखों के ठीक सामने टंगी बड़ी सी पेंडुलम वाली घड़ी को देखना उसे भला लगता रहा !
वह ठीक समय पर आई थी. मैं देर से आया था. अमूमन लड़का जल्दी आता है और लड़की देर से आती है, लेकिन यह लड़की समय की बहुत ही पाबंद है. इसे समय से पहुंचना अच्छा लगता है और मुझे हमेशा ही देर करने की आदत है. हालांकि मैं लड़की से मिलने ठीक समय पर पहुंच जाना चाहता था इसलिये मोबाइल अलार्म की पहली पुकार पर उठ गया था, लेकिन उठने के देर बाद तक उसके ख्यालों से लिपटा बिस्तर पर ही पड़ा रहा. मुझे दुरुस्त याद रहा आज लड़की से मिलने जाना है लेकिन मैं लड़की के ख़यालों से दूर नही होना चाहता था. जबकि मेरा मन ठीक चल कर उस कैफ़े में अलसुबह पहुंच चुका था जहां मिलना तय है. तब जब कैफे के अधिपति ने दरवाज़ा भी नही खोला था, तब जब ख़िदमतगार ने बुहार भी नहीं लगाई थी और तब, जब रात भर की सीली बदबू गदराये बादलों की भांति मोटे-मोटे गद्दों सी बिछी हुई थी. इन सबसे बेफ़िक्र मैं अपनी सबसे पसंद की कोने वाली कुर्सी पर जा बैठा. मेरी तरह यह कुर्सी अकेला नहीं है. इसके साथ एक और कुर्सी है और यह दोनों कुर्सियां एक गोल मेज़ से लगी हैं. सिर्फ़ यही एक मेज़ दो कुर्सी वाली है, बाक़ी सारी तीन या चार वाली. ज़्यादातर मैं अकेला आता हूं इसलिये मुझे यह दो कुर्सी वाली मेज़ अधिक उपयुक्त लगती है. कभी भूले से कोई यार दोस्त मिल जाए तब भी मुझे यही जगह ठीक लगती है. बाज दफा दुनिया से गैरवाकिब हो एक तवील एकांत की चाह में शहर के भीड़भाड़ से दूर बसा यह कैफ़े मुझ जैसे दुश्चिंताओं के दोराहे पर खड़े आदमी के लिए बहिश्त मालूम पड़ती है। मैं यहाँ बारहा आता हूँ, बार-बार आने से यह जगह मुझे अपनी लगने लगी है. इतनी अपनी कि कभी कभी मेरा मन होता है कि यहां अपना नाम लिख दूं. कुर्सी पर, मेज़ पर और लड़की की हथेली पर भी ।
वह लड़की जो आज मुझसे मिलने आने वाली है, वह आएगी और उसके आते ही मौसम ख़ुशनुमा हो जायेगा. रात भर की सीली बदबू कॉफ़ी और अदरक कुटी चाय की मिश्रित सोंधी खुशबू में बदल जायेगी. वर्षों पुराना ईरानी कैफ़े किसी अत्याधुनिक कैफ़े में तब्दील हो जायेगा. काठ निर्मित कुर्सी मेज़ प्लास्टिक की फ़ैन्सी चेयर टेबल में परिवर्तित हो जायेगी. दीवारों पर रंग बिरंगे फूल खिल उठेंगे और उनपर मँडराती तितलियाँ मुझे बेतरह याद दिलायेंगी कि इस वक़्त तितली जैसी ही एक लड़की मेरे सामने बैठी है. हां, लड़की तितली है, रंग बिरंगी पंखों वाली तितली ! कितने तो रंग हैं इस लड़की के, मुझे जब भी लगता है मैं इसे जानने लगा हूं,समझने लगा हूं, तब कुछ अलग कह मुझे चौंका देती है ।
लड़की को चौंकाने की आदत है. कल रात बीप की आवाज़ के साथ चौंका दिया था “एक कॉफ़ी पीने जितना वक़्त होगा तुम्हारे पास ?”।
मैंने जवाब में बहुत सारे फूल भेजे. मुझे फूल भेजने की आदत है. हालांकि मुझे लड़की की पसंद का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं, वह कौन सा फूल हो जो लड़की के मिजाज़ को सुहाये. और रिझाये।

तिस पर लड़की फूल चुनकर अपनी मुस्कान रख देती है, मैं उसकी मुस्कान ओढ़ सो जाता हूं. सपने में लड़की श्रीदेवी है, पीले रंग की सिफ़्फ़ोन साड़ी पहन बारिश में नाचती-गाती है और मैं विनोद खन्ना की तरह दूर खिड़की पर खड़ा उसे देखता हूं. एक ज़ाहिर सा जुदा ख़याल ये है कि मुझे बारिश नहीं, लड़की पसंद है ।
आज बहुत बारिश हो रही है, पिछले कई दिनों में ऐसी बारिश नहीं हुई थी. मौसम बारिश का है भी नहीं. दरअसल ये गर्मी और ठण्ड के बीच का मौसम है. इस मौसम का मिजाज़ बचकाना है. धूप और बारिश आपस में आंख मिचौली खेलते हैं. कभी तो आसमान में काले बादल घिर आते हैं और झमाझम बारिश. फिर पता नहीं, अचानक कहां ग़ायब हो जाते हैं और धूप खिल आता है. उसके कैफ़े आने के उपलक्ष्य में मैंने मन ही मन मौसम के देवता से बरसने की विनती की थी।
लड़की को बरसते मौसम में किताब पढ़ते हुए कॉफ़ी पीना बेहद रूमानी लगता है और मुझे अदरक वाली चाय के साथ पकोड़े खाते हुए लड़की से बातें करना. लड़की गूढ़ बातें करती है. एक बार उसने कहा “अगले जन्म में मैं कैबरे डांसर होना चाहती हूं. जोशीले संगीत की धुन पर भड़कीले कपड़ो में नाचते गाते हुए कामुक पुरुषों का मन बहलाना चाहती हूं“ तो एक दफा कहा “ताजमहल काले रंग में नाहद खूबसूरत होता” अक्सर उसकी बातों के अर्थ मुझे बेचैन करते हैं.
मैं बेचैनी से पहलु बदलता हूं. कितना असाध्य है प्रेम. 
और जो प्रेम को साध ले?   
“वह दो कौड़ी का आदमी हो जाता है.” लड़की ने सहजता से कहा ।
 
मैं मुस्कुराता हूं. ऐन उसी वक़्त मोबाइल स्क्रीन पर एक संदेशा कौंधता है, लड़की के नाम का. उसने लिखा है “मुझे समय पर पहुंचना अच्छा लगता है और इंतज़ार करना नाहद उबाऊ” लड़की की कही बातें मेरे भीतर कहीं गहरे बैठ जाती है. मैं उसकी कही बातों की गांठ बांध रख लेता हूं. मन के संदूकची में. बिन ताले वाली संदूकची. कभी किसी निरीह एकांत में संदूकची में घुस तमाम गांठे खोल देता हूं.
एक दिन उसने कहा “मेरी कहानी का मुख्य किरदार ऐनक लगाता है.” और तब से ऐनक चढ़ा मैं स्वयं को नायक की तरह देखता हूं. ऐसे तो मैं ऐनक बारह साल की उम्र से लगाता आ रहा हूं और पहली बार जब ऐनक चढ़ा स्कूल गया था तब सहपाठियों ने खूब मजाक उड़ाया था. इसलिए ऐनक को कभी नायक तत्व की तरह नहीं देख पाया, लेकिन लड़की ने कहा – मैं उसकी कहानी का नायक हूं.
लड़की कहानियां लिखती है, विशेषकर प्रेम कहानियां.
मैंने पूछा “क्या तुमने कभी प्रेम किया है?’
उसने साहिर भोपाली के प्रसिद्ध ग़ज़ल के मतले की पहली पंक्ति को अपने ताल्लुक ढाल दोहरा दिया “दर्दे दिल में मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं“ 
और तुरंत ही प्रश्न गेंद की तरह मेरी ओर उछाल दिया “और तुमने?”
प्रत्यक्ष में ‘नहीं’ कह मैं मन ही मन ‘ फ़ैज़ ‘ को बुदबुदाया “और भी दुःख है जमाने में मोहब्बत के सिवा”
लड़की ने जैसे सुन लिया “क्या दुःख है तुम्हे?”
“दुःख तो ये है कि कोई दुःख नहीं”
“जितना सोचते हो, उतना लिखते क्यूं नहीं?”
सब लिखा जा चुका है. पीला कुर्ता, धानी दुपट्टा, बड़ा चेहरा और छोटी आंख …
और?
”आख़िरी प्रेम.”
”आख़िरी प्रेम?”
”हाँ, आख़िरी प्रेम.”
लड़की को बेचैनी होने लगती है, प्रेम भी कभी पहला, दूसरा या आखिरी हुआ है? प्रेम तो एक निर्बाध दरिया है जो निरंतर बहता रहता है ।
मैं उसकी बेचैनी अपने भीतर महसूस करता हूं. उस वक़्त मैं पसीने से लस्त उसकी ठंडी हथेलियों के मध्य अपनी ऊंगली रख उससे कहता हूं “ प्रेम बेचैनियों भरा कुंड है और प्रेमिल चाहनायें समूह नृत्य में लिप्त अनगिनत मतस्य“
“नहीं, ओक्टोपस, आठों भुजाओं से जकड़ रखने वाली” लड़की ने मुस्कुराते हुए यूं कहा जैसे उसके भीतर कुछ छटपटा रहा हो. उसके होंठ सूख गए थे, आंखें तरल हो गई थी. उंगलियां कॉफ़ी के कप पर कस गई थी ।
कभी-कभी तो लड़की बंद किताब सी लगती है, जिसे मैं हर्फ़ दर हर्फ़ पढ़ना चाहता हूं और कभी-कभी उर्दू की तरह इश्क में बिखरी हुई लगती है, जिसे समेट मैं कुछ ऐसा रच देना चाहता हूं जो उस जैसा ही अलहदा हो.
वह बेहद अलहदा है, मैं उसे परतों में लिपटी गुलाब की तरह कभी नहीं देख पाया, ना ही ख़ुशबू बिखेरती मोगरा लगी, दोपहर में भी वह मुझे सुबह की पहली किरण सी खिली हुई सुगंधित कनेर लगी ! 
वह धवल कनेर सी कोने वाली कुर्सी पर बैठी थी. उसका चेहरा झुका था. वह कोई किताब पढ़ रही थी. पास ही रखी कॉफ़ी की एक खाली प्याली और गद्य में आकंठ डूबी वह. वह दरवाजे की ओर नहीं देख रही थी, वह मेरी राह नहीं तक रही थी. वह प्रतीक्षा में बेचैन नहीं थी. प्रणय की आभा से भरी. अनुरक्ति के आलोक से दीप्त और गरिमा की प्रस्तुत तस्वीर वह । 
कुछ देर मैं उसे देखता हूं. कुछ और देर तक देखना चाहता हूं लेकिन उसके पूर्व निर्देशानुसार बैरा एक कॉफ़ी और एक अदरक वाली चाय के साथ भजिये रख जाता है.
उसने किताब से सर उठा कर पूछा “तुम कब आये?” और ऐसा पूछते हुए उसने उल्लू की आकृति वाली बुकमार्क अधूरे पढ़े पन्नों के बीच रख किताब बंद कर दिया. आंखों से ऐनक उतार बगल में रखे बैग के किसी भीतरी खोह से केस निकाल उसमें रखते हुए वह मेरी ओर देख मुस्कुराई.
“जब तुम किताब पढ़ रही थी…” कहते हुए मैंने किताब पर नज़र डाली, फ्रान्ज़ कक्फा की ‘लेटर्स टू मिलेना’ थी.
सफ़ेद पारदर्शी टॉप और रॉयल ब्लू जींस पहने वह बेहद संजीदा लग रही थी. टॉप के भीतर से स्पष्ट दिखाई देते नीले रंग के फ्लोरल ब्रा पर उसके शैम्पू किये खुले बाल बिखरे हैं. आज से पहले मैंने कभी उसके कपड़ों पर गौर नहीं किया था. न जाने क्यूं आज कर रहा था. उसने गहरा पिंक लिपस्टिक लगाया है. मैनिक्योर्ड उंगलियों के नेल भी पिंक रंग से रंगे हैं. बायीं अनामिका में छोटे-छोटे हीरे से घिरे बड़ी सी रूबी जड़ित अंगूठी, गले में पतली सी चेन से लटकता मैचिंग पेंडेंट और दांई कलाई में स्लीक घड़ी. लड़की ज़्यादातर हलके रंग के कपड़े पहनती है. मैं उसे किसी अन्य रंग के कपड़ों में नहीं सोचता. वह जो पहनती है, मुझे वही मुग्ध करता है.
हंसिनी मेरे समक्ष है और मैं बेहद मुग्ध भाव से उसे निहार रहा हूं.
“तुमको देखा तो ये खयाल आया …” मेरे जेहन के आत्ममंथन को भाषा और भंगिमा देता यह गीत कैफ़े के पुराने रिकॉर्ड में धीमे धीमे गुनगुना रहा था. मेरी दशा गीत के आख्यायक सरीखे ही है, यह जानते हुए भी कि मेरी बेसकूं रातों का सवेरा एक नायिका ही है, मैं तमाम सुबहों से महरूम हूं ।
“कैसे आना हुआ?” बेखुदी में एक ग़ैरज़रूरी सवाल पूछता हूं.
”लाइब्रेरी से किताबें लेनी थी और कुछ अन्य ज़रूरी काम थे.”
मुझसे मिलना ज़रूरी कामों में से एक नहीं था, सोचता मैं टेबल पर अपनी दोनो कांपती कोहनी को दृढ़ता से टिकाए सामान्य बने रहने की कोशिश करता हुआ उसके कुछ कहने का इंतज़ार करता हूं. मैं कुछ कहना नही चाहता, वह जो भी कहेगी वही मान्य होगा. यह अबोला समझौता है. वैसे भी हमारे बीच सबकुछ बिनबोला ही रहा है अब तक और अब मैं उसके बोलने की प्रतीक्षा कर रहा हूं.
“प्रेम लिखना बहुत सरल है किंतु प्रेम में होना दुष्कर.” उसने टेबल से कार की चाभी उठाते हुए कहा और दरवाजे से बाहर चली गई।
मैं उसके मुड़कर देखने की प्रतीक्षा करता रहा. मैं उसकी प्रतीक्षा का आदी हूं.
ठंडी बेमज़ा चाय की छोटी छोटी घूंट भरता मैं उसके जाने के बहुत देर तक पशोपेश में रहा. वह क्यूं आई थी? क्या कहने आई थी ? उसने जो कहा उसका अर्थ क्या है ?|
मैं उसकी पंक्ति दोहराता हूँ  “प्रेम लिखना बहुत सरल है किंतु प्रेम में होना दुष्कर.” |
मैं लेखक नहीं हूँ, प्रेम कहानी लिखना सरल है या दुष्कर मैं नहीं जानता अलबत्ता प्रेम में होना निश्चित ही दुसाध्य है |

कुछ दिन पहले मैंने ही कहा था “उधर आती हो तो, कॉफ़ी के लिये…” मैंने बात अधूरी छोड़ दी थी.

सबके सामने यूं कहा था मानों ख़ास आमंत्रण ना देकर बस खानापूर्ति की हो. मैं किसी ख़ास तरह के निमंत्रण देने की स्थिति में था भी नहीं, लेकिन उसका मैसेज आने तक मैं अपनी उसी अधूरी बात में जीता रहा और वह मुझमें.

इन दिनों कुछ अलग सी दुश्वारियों में जी रहा था. मैं क्या कर रहा था, क्या चाहता था, कुछ समझ नही आ रहा था. कुछ समझना चाहता भी नहीं, बस उसका आना चाहता था. आज वो आई थी. अब चली गई है. उसके आने और जाने के बीच जो भी था, नॉर्मल नहीं था. वह जा चुकी है मैं वहीं बैठा हूं. मैं मुन्तज़िर हूं लेकिन वह नहीं आयेगी. वह जा चुकी है.

उसकी जूठी कॉफ़ी का आधा भरा कप वहीं रखा है. उस कप के साथ वह थोड़ी सी अब भी यहीं है. मैंने चारों ओर देखा, मेरे अलावा वहां एक आध और लोग थे और वे अपने गम में डूबे हुए थे. मेरे दर्द से किसी को कोई सरोकार नहीं था. आश्वस्त होकर मैंने उसका जूठा कप उठा लिया. ठीक लिपस्टिक से बने उसके होंठों के निशान पर मैंने अपने होंठ रख दिये. मैं उसे चूमना नहीं चाहता था, मैं उसके पास होना चाहता था. मैंने एक घूंट में उसकी छोड़ी हुई पूरी कॉफ़ी पी ली. कहते हैं जूठा पीने से प्यार बढ़ता है. ये मैंने क्या किया? घबराहट में मेरे पसीने निकल गये. अभी अभी तो वह कहकर गई है… प्रेम में होना दुष्कर है. जीवन वैसे भी सुगम नहीं, कम से कम प्रेम में जीना तो बिलकुल नहीं|
 
कितना सरल था जीवन जब हमारे बीच प्रेम नहीं था. प्रेम कब आया. शायद परछाईं सा पीछे लगा हुआ था, एक अदद मौक़े की तलाश में था. अब हमारे बीच है. नहीं, उसने छुआ नहीं है, मैंने भी नहीं देखा है लेकिन अब हमारे बीच है यह हमने जान लिया है!

आजिज मन से दरवाज़े से बाहर देखने लगा. अमूमन ऐसा तब होता है जब किसी का इंतज़ार होता है लेकिन वह जा चुकी है. शायद लौट कर नहीं आयेगी. फिर मैं दरवाज़े के पार क्यूं देख रहा हूं. मुझे इंतज़ार करना अच्छा लगता है जो कभी लौट कर नहीं आयेगी, उसका इंतज़ार. उसने यह नहीं कहा कि अब कभी नहीं आयेगी. लेकिन मैं समझ गया वह नहीं आयेगी. सार्वजनिक स्थलों पर मेरे ‘कैसी हो’ का एन ‘अच्छी हूं’ जवाब देगी!

मुझे कैफ़े में घुटन होने लगी, मैं जाने को उठ खड़ा हुआ किन्तु पुनः उस रिक्त कुर्सी पर जा बैठा जहां कुछ देर पहले वह बैठी थी. वहां उसके परफ्यूम की हल्की ख़ुशबू अभी भी बची हुई थी. ये वही ख़ुशबू है जो उसने उस दिन भी लगाया था. वह दिन बाक़ी दिनों से अलग था शायद. जब मुझसे “मैंने तुम्हें मिस किया” कहते हुए लिपट गई थी. हम कई महीनों बाद मिले थे, वह अपने पति के साथ थी और आलिंगन बेहद औपचारिक था, किन्तु उसके निष्ठ मन के ओज से मेरी देह तप गई थी.
मैं उसके मुताल्लिक और नहीं सोचना चाहता “और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा”
और जो मोहब्बत ही गम हो तो क्या कीजे? भीतर से एक आवाज़ आई और मैं मुस्कुराया!
आधी रात की नीरवता में बीप की आवाज़ के पर पत्नी ने करवट बदली ।
उसका नाम मेरे मोबाइल पर कौंध रहा था, जैसे सफ़ेद शर्ट के बीच रखी पीले रंग की साड़ी “आई होप यू अंडरस्टैंड “।
“यस आई डू” 
उसने मुस्कान भेजी, मैं ओढ़ कर सो गया ।
वह कभी मेरी कल्पनाओं में निर्बाध विचरन करने वाली प्रेमिका नहीं हो सकी, बल्कि हमेशा ही अमत्त नायिका बनी रही और यक़ीनन उसकी उत्कृष्टता उसके रुढ़ीगत होने में ही समाहित रहा. जैसे हरशिंगार के टूट कर गिरने की परंपरा में ही उसकी विशिष्टता निहित होती है !

………………..

किताबें

...................
...................
...................

………………..

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200
Warning: session_start(): open(/var/lib/lsphp/session/lsphp82/sess_vhe2bdibai7hiu9m3qi2nnna5f, O_RDWR) failed: No space left on device (28) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/lib/lsphp/session/lsphp82) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143
ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş