राखी सिंह
03.08.1982
एम. ए अर्थशास्त्र
शिक्षण
पटना,बिहार।
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कविताएं
परिचय-सूत्र
हालांकि सभी कहते हैं,
क्या फर्क पड़ता है!
मै भी कहती हूँ।
पर सब जानते हैं
फर्क पड़ता है
ना पड़े तो भी
अच्छा लगता है।
और महज इसलिए कि अच्छा लगता है
पूछ लेना चाहिए,कैसे हो!
जब लगे कुछ ठीक नही,तब
और जब लगे सब ठीक है
पूछ लेना चाहिए तब भी
इसे मेरी मासूमियत समझो
या समझो मेरी मूर्खता
मैं बंधी हूँ अब भी उम्मीद से
झूलती हूँ आशा और निराशा के बीच
जबकि लिपटी रहती हूँ स्वयं
औपचारिकताओं के अपारदर्शी
आवरण से
और जान गई हूँ बहुत पहले
कि ये साझेदारी के सूत्र हैं
जिसके तहत हर परिचय,
हर संबंध
निभाये जाते हैं
व्यापार की तरह
ऐसे में
मैं टूटने से बचाती हूँ उम्मीदों को
पूछती हूँ गाहे बगाहे स्वयं से –
कहाँ थी
कितने दिनों बाद मिली
कहो तो,कैसी हो!
टूटना बुरा है
अच्छे लगते हैं
झूलते डालों पे
नही तोड़ा जाए
फूल टहनी से
सूनी हो जाती है पायल
घुंघरुओं के टूटने से
खनकती रहे कलाइयों में
टूटनी नही चाहिए
सुहागिनों की चूड़ियां
माँ कहती थी अपशगुन है
कांच का टूटना
नही तोड़नी चाहिए गहरी नींद किसी की
सालता बहुत है सपनो का टूटना
न टूटे घर किसी का
बुरा है रिश्तों का टूटना
न छूटें साथी कोई
बुरा बहुत है दिलों का टूटना
बहुत बुरा है टूटना उम्मीदों का
पर मेरे दोस्त!
सबसे बुरा है
भरोसा टूटना।
दिखाई दिए यूँ
हम जिनसे प्यार करते हैं
उन्हें देखना चाहते हैं
हम जिन्हें चाहते हैं
उन्हें देखा करते हैं
तब भी जब वो
दिखा नही करते
अक्सर मै गली के नुक्क्ड़ वाले
लैम्पपोस्ट में चाँद देखती हूँ
आज मैने बादलों में
छोटा सा एक पहाड़ देखा
कभी कभार यूँही किसी मे मुझे
मेरी कविताओं का कोई काल्पनिक चरित्र
दिख जाया करता है
मुझे यक़ीन है
एक दिन मै तुमसे मिलती
कोई सूरत देखूंगी।
गुफ्तगू
बीते कई दिनों में मैने बहुत कुछ कहा
बस उन्हें स्वर नही दिया
वे अनकही बातें
मेरे अज्ञातवास की साक्षी बनीं
उन चुप्पा दुपहरियों में
भर दिए कई पन्ने
हाँ मगर
भावों को अक्षर नही मिले
वे शब्द मेरे एकांत की
जमापूंजी हैं
उन पहाड़ से कठोर दिनों में मैने
कई चिट्ठियां लिखीं
उनके पते नामालूम रहे
वे सब लिफाफे अब
मेरे रोष भरे दिनों की
गवाह हैं।
प्रेम के अपराध
तुम कभी मुक्त नही होगे
तुम चतुर्थी का चाँद बनोगे
तुम्हारी दृष्टि कलंकित करेगी
तुम्हारे छल को
मेरी निश्छलता का कलंक लगेगा
तुम मूक प्रार्थना करोगे
क्षमा की याचना करना चाहोगे
मन ही मन गिड़गिड़ाओगे
तुम्हारी वेदना के स्वर खो जाएंगे
तुम गूंगो से भाषा की गुहार करोगे
तुम्हारी वाणी को मेरे मौन का श्राप लगेगा
देखना एक दिन
तुम मुझे पत्र लिखोगे
तुम्हारे शब्द बह जाएंगे
तुम्हारी स्याही में
मेरे नेत्र से
टपका एक बूंद गिरा है
तुम दंड की मांग करोगे
तुम्हारे अपराध अघोषित रहेंगे
तुम अपराधी मरोगे।
अपना ख्याल रखना
पास,बहुत पास आने की
नाटकीयता के साथ
जब भी कहा गया,
जिसमे तुम्हारी ख़ुशी !
मुझे इसकी ध्वनि बहुत दूर से आती प्रतीत हुई
ये वाक्य मुझे पूर्णविराम की तरह लगा
जिसके प्रतिउत्तर के औपचारिकता की कोई आवश्यकता नही
कि अब इसके आगे कोई युक्ति,
कोई वार्तालाप संभव नही
हर सम्भावनाओं का अंत है यहाँ
मुझे लगा ये एक मंत्र है
जिसे फूंक कर
किसी को उसके हाल पर छोड़ने की
स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकती है
अपने इन्ही अनुभवों के आधार पर
मैने कभी किसी से नही कहा –
जिसमे तुम्हारी ख़ुशी !
मैने इसके विकल्प का सहारा लिया
जिसमे प्रयास भर उदारता बरती गई
सम्बन्धों के अंतिम पड़ाव पर
संवादों के अंत मे
मैने कहा –
अपना ख़्याल रखना।
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