Wednesday, December 4, 2024
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रश्मि रावत
अध्यापक, आलोचक, स्तंभकार
 
जेंडर सौहार्द की कार्यशालाओं में सक्रिय भूमिका
 
शिक्षा : हिंदी साहित्य, दर्शनशास्त्र, मानवाधिकार और पारिस्थितिकी/पर्यावरण चार विषयों में स्नातकोत्तर. 
 
जेंडर अध्ययन में एडवांस सर्टिफिकेट कोर्स. दिल्ली यूनिवर्सिटी 
 
पुस्तक : 1.स्त्री – लेखन का समकाल, आधार प्रकाशन
2. हाशिए की आवाजें, बोधि प्रकाशन
 
प्रकाशन : आलोचना, प्रतिमान, उदभावना, नया पथ, समयांतर, संवेद, अभिनव भारती, स्त्रीकाल, वागर्थ, आर्यकल्प, जन विकल्प, माटी, उत्तरा, परिंदे, जनधारा, पुस्तकनामा, जनसत्ता, दैनिक भास्कर आदि पत्र/पत्रिकाओं और अनेक पुस्तकों में लेख और कविताएं प्रकाशित.  
 
भारतीय भाषा केंद्र, कोलकाता द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य कोश’ में प्रविष्टियां 
*आकाशवाणी दिल्ली द्वारा आयोजित परिचर्चाओं में भागीदारी
 
सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स  में अध्यापन.
 
‘कथादेश’, ‘हंस’ और 
‘सब लोग’ में साहित्य और समसामयिक मुद्दों पर नियमित स्तम्भ लेखन.

पंख तो है मगर आसमां नहीं

इन दिनों देश की सीमाओं पर घट रही हलचलों से मन विक्षुब्ध है । देश के भीतर चुनावों की सरगर्मियां हैं । इन चुनावों में ऐसी अनेक जानी-मानी हस्तियों को हार का सामना करना पड़ा है जो व्यापक रूप से जन-आंदोलनों से जुडी रही हैं । इससे भी चिंताएं गहरी हुई हैं । ऐसे विषम समय में भी चंद रोज पहले की एक घटना बार-बार मन में कौंध रही है । तरह-तरह की उठापटक के बीच दो मासूस, हैरान आँखें पीछा करती महसूस हो रही हैं, पूछती हुईं कि उनके पास कौन सा रास्ता है । क्या इससे मैं कम जिम्मेदार नागरिक हो जाती हूँ ?
मेरी एक मित्र है । उससे पहली बार मिलने पर ही महसूस हुआ था जैसे वह ‘अग्निशिखा’ हो, यानी आग की लपक । अपनी शर्तों पर जीते साफ़, साहसी, खरे लोगों में एक अलग तरह का सौंदर्य होता है । अब से दो-ढाई दशक पहले एक छोटे शहर में अकेली लड़की को अपने ही बल-बूते पर भरपूर जीते देखना मेरे लिए एक नया अनुभव था । इस समय तो स्वेच्छा से अकेले रहने, जीने और अकेलेपन में जीने के लिए बाध्य कर दिए जाने वाली स्त्रियों की खासी बड़ी संख्या है । अक्सर अकेली रहती स्त्रियाँ समाज से जोड़ने वाली राहों से खुद को काटती जाती हैं । घर के भीतर भी अपने आपे को मान से, लाड़ से पालना खुद के लिए कहाँ सम्भव हो पाता है ? लेकिन जरूरी नहीं कि हर शख्स समाज-प्रदत्त साँचों के अनुसार खुद को काटे-छीले । मेरी मित्र ऐसी ही है जिसकी आंच से साँचे खुद-ब-खुद पिघलकर राह छोड़ते जाते हैं । नौकरी के कुछ सालों बाद नदी किनारे सुनसान सी जगह में जमीन ली । तिनका-तिनका जोड़ कर बड़े जतन से घर बसाया । भीतर की साज-सज्जा, रहन-सहन देखकर लगता था जैसे पूरे माहौल में हाथों की ऐसी नाज़ुक छुअन है, जो सिर्फ प्रियजनों के लिए ही होती है । इस जीवन-शैली से यह मेरा पहला सामना था – अपना हर काम ऐसे करना जैसे वह किसी बेहद ख़ास के लिए हो । इसे लेकर काफी समय तक मैं चौंकती रही थी । फिर धीरे-धीरे एहसास हुआ कि ठीक ही तो है, हम खुद भी तो अपने आत्मीय हैं । स्त्रियों को तो आत्म-साक्षात्कार का अनुभव भी बरास्ते ‘अन्य’ ही हो पाता है।
कम बसाहट वाली, शहर से अलग-थलग एकांत जगह पर रहना उसकी उठान में कहीं बाधक न था । फर्राटे से स्कूटर चलाती वह दफ्तर और तमाम जगहों में आती जाती । उसके जन-सरोकारों के तहत उसके पास ढेरों ही काम और व्यस्तताएं थीं । उसे अपने हाथ से लिखे अखबार तक बाँटते हुए देखा । संस्थाओं, स्त्री-संगठनों से जुड़ कर स्त्री-सरोकारों की दिशा में भी वह सक्रिय रही । उसका सामाजिक दायरा भी खासा बड़ा है । रात-बिरात किसी की मदद करने, उनके सुख-दुख में शामिल होने के लिए सहर्ष तत्पर रहती है । न उसके आचरण में उसके अकेली होने, स्त्री होने और शहर से दूर शांत जगह पर रहने से कोई फर्क दिखा, न किसी के शब्दों में उसकी कोई गूँज सुनी । अपने आप में एक सम्पूर्ण शख्सियत । विवाह के बारे में कुछ पूछे जाने पर कहती थी कि सबको जागृत कर रही हूँ और खुद पितृसत्ता के अधीन हो जाऊँ ? कभी कोई मन का मीत, सहचर मिला तो ऐसा सम्बंध बनाएंगे कि एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के लिए हों, न कि अन्य किसी कारण से । मेरे मन में खयाल आता कि अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करते, समाज की बेहतरी के लिए योगदान देते हुए एक प्रेम-आधारित परिवार बसाना क्या इतना बड़ा सपना है कि उसे सपना ही रह जाना पड़े?
अभी हमारे समाज में लोकतांत्रिक मिजाज के पुरुषों की संख्या इतनी नहीं है कि ऐसे लोगों के आपस में मिलने की सम्भावना अधिक हो । पढ़ी-लिखी, सुंदर, नौकरीपेशा लड़की के लिए रिश्तों की कमी नहीं होती । कुछ साल तो उसके घर वालों ने कई विवाह प्रस्तावों को लेकर उस पर दवाब बनाया । उसके न मानने पर समय बीतने के साथ खुद भी उससे रिश्ता लगभग तोड़ लिया । परिवार और समाज की अपेक्षाएँ पूरी न हों तो वह न्यूनतम सहारा भी छीन लेता है । इसी तरह तो पारम्परिक संस्थाएँ अप्रांसगिक हो जाने पर भी अपना दबदबा कायम रखती हैं । लेकिन इस अनुभव से उसका व्यक्तित्व सुदृढ़ ही हुआ । यदि चोटें खाकर कोई टूटे नहीं तो वे उसकी मजबूती में इजाफा ही करती हैं ।
सात साल पहले उसने एक बच्ची गोद ली । समाज अभी इतना विकसित नहीं हुआ कि जीवन की सार्थकता महसूस करने के लिए सिर्फ सार्वजनिक सरोकार पर्याप्त हों । स्त्रियों के लिए तो और भी अधिक, क्योंकि परंपरा-सम्मत परिवार न बसाने पर भी उसे पितृसत्ता से मुक्ति नहीं मिलती । घर-बाहर सभी जगह इसी मानसिकता के लोग हैं । जीवन के किसी पड़ाव में यह महसूस होना स्वाभाविक ही है कि पूरी दुनिया में तो कोई तो अपना हो । लेकिन अपने इस एहसास की पूर्ति के लिए उसने अपनी खुद की राहें खोजीं । सहारा पाने के लिए खुद के विरूद्ध जाकर बने-बनाए सुविधाजनक रास्ते नहीं चुने । बच्चे की परवरिश कोई आसान काम नहीं होता । समाज के बहाव के विरुद्ध जाने पर तो वह नितांत आपका निजी काम होता है। सब कुछ बड़ी गरिमा से निभाया उसने।
कुछ दिन पहले उसके घर में चोरी की कोशिश हुई । चोर फाटक को लाँघ कर अहाते में घुस गया, फिर भीतरी दरवाजे को पेचकस-नुमा किसी चीज से खोलने की कोशिश की जो सफल नहीं हो पाई । पड़ोस की कोठी के सीसीटीवी के मुताबिक चोर ने बाउंड्री के अंदर पूरे 15-20 मिनट बिताए । अगले दिन मेरी मित्र पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने गई । जाहिर है कि बच्ची भी साथ थी । जहाँ भी जाती है, बच्ची साथ ही होती है, उसे कहाँ छोड़े ? उसे पुलिस से यह सुनकर अवाक रह जाना पड़ा कि “अगली बार ऐसा हो तो चुपचाप उन्हें सामान दे देना । आप बच्ची के साथ अकेली रहती हो इसलिए उनसे उलझने का जोखिम मत लेना ।” यही तो हम सब भी एक-दूसरे से कहते हैं कि ‘चाकू की नोक पर जो माँगा जाए, चुपचाप दे दो’ । कुछ महीने पहले गुड़गाँव-दिल्ली रास्ते में मेरे एक सहकर्मी की कार में गुंडों ने जबरदस्ती प्रविष्ट होकर, चाकू दिखाकर कहा कि कार दे दो और नीचे उतर जाओ । प्रतिवाद करने पर उसे चाकुओं से घायल कर दिया। पूरे रास्ते वे चाकू की नोक पर उनसे इधर-उधर गाड़ी दौड़वाते रहे और कई घंटे बाद अधमरी हालत में एक सुनसान जगह फेंककर चले गए । हमारे डर और समर्पण के लिए तो ये घटनाएँ ही काफी होती हैं । इस डर से, असुरक्षा के एहसास से निजात पाने ही तो हम उन तक जाते हैं, जिन पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है और जिन्हें तंत्र ने इसी काम के लिए तमाम सुविधाएँ और ताकतें दी हैं । इस तरह की घटनाएँ इस व्यवस्था में झोल रहने पर ही घटित होती हैं । उनके मुँह से भी यह सुनकर सामान्य-जन कहाँ जाएँ, क्या करें ? उस प्यारी सी अबोध बच्ची के चेहरे के हाव-भाव भुलाए नहीं भूलते । हक्की-बक्की होकर पूछती रही कि मम्मी क्या ये सचमुच की पुलिस है ? क्या पुलिस ऐसी होती है ? इनके पास बंदूक किस काम के लिए है ? पिक्चर में जो होती है क्या वह कोई और पुलिस है ? वह बेतरह डर गई है कि उसके साथ कभी कुछ होने पर कौन बचाएगा । सबके पास माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी होते हैं, उसके पास तो वह भी नहीं ।
पहले समाज के आचरण पर धर्म और सामाजिक संस्थाओं का नियंत्रण होता था और उनसे ही सुरक्षा भी मिलती थी । अब हम एक गणतंत्र के नागरिक हैं । संविधान की, कानून की ताकत हमारे साथ है । आज व्यक्तियों के लिए धर्म पिछले वक्तों जैसा अनिवार्य नहीं है । अब तो आवेदन में भरने के लिए भी उसकी जरूरत नहीं रही । अगर ऐसी घटनाएँ होती रहें तो यह यकीन कैसे होगा कि हमारे साथ, हमारे लिए, हमारी सुरक्षा के लिए कोई तंत्र मुस्तैद है ? रास्ते में, भीड़-भाड़ में और कार्य-स्थलों पर, स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है । खुद के घर में भी कोई पशुबल के साथ जबरन प्रवेश कर सकता है । तो क्या पूरी जिंदगी अपने ही दम-खम से, अपने ही बूते पर जीने के बाद भी उसके लिए ‘पति’ नाम का कवच धारण करने का कोई विकल्प नहीं ? क्या उसके लिए यही शेष है कि अपने उजाले की कीमत पर खुद को काँट-छाँट कर सुरक्षा का बंदोबस्त करे या फिर नौकरी से इतर समय को सामाजिक, रचनात्मक कामों से काटकर सिर्फ धनार्जन में झोंक दे ? अपने समय और ऊर्जा को बाजार की ताकतों के हवाले कर दे ? क्या अर्थ ही एकमात्र आश्वासनकारी शक्ति है जो सुरक्षा का भरोसा दे ? घर को सीसीटीवी जैसी तमाम आधुनिक सुविधाओं से लैस करना बेशुमार पैसे से ही संभव है । एक ओर परदों के पीछे छिपा सामंतवाद है, दूसरी ओर बाजारवाद और पितृसत्ता का गठजोड़ । दोनों में ही मनुष्यता को बचाए रखना दुष्कर है । सवाल यह भी है कि डर से वसूली सहज होने पर चाकू की नोक पर क्या-क्या नहीं छीन लिया जाएगा । यह सिलसिला कहाँ जाकर रुकेगा ?

किताबें

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