Thursday, September 11, 2025
रीता धर्मरीत
....................

रीता धर्मरीत
सामाजिक कार्यकर्ता

2004 से कविता और कहानियां लिखना।
प्रकाशित कविताएं – ‘मेरे हाथों का हिसाब’ माँ, हमारा समूह (अनौपचारिका, राजस्थान से और मार्गदर्शनी, दिल्ली से)

दिल्ली में रहती हूँ पर हूँ बिहार के एक छोटे से गांव के बड़े से परिवार से हूँ। जहाँ जाति, धर्म के भेदभाव के साथ साथ स्त्री पुरुष भेदभाव चरम पर था। हमारे पूर्वजों ने बेटियों को जन्म के समय नमक चटा कर मार दिया करते थे ऐसा हमने बचपन में अपने घर की बुढ़ी महिलाओं से सुना है। हमारे परिवार में बेटी जन्म लेना अभिशाप की तरह था ।
छात्र युवा संघर्ष वाहिनी आंदोलन से प्रभावित हूँ क्योंकि हमारा बचपन और किशोर वाहिनी के सिपाहियों के साथ बीता है।
शायद यही वज़ह रहा है कि हमने अंतर्जातीय विवाह किया और समाज के अनेकों कुरीतियों को छोड़ा और बेड़ियों को तोड़ा ।
दिल्ली (बिहार)

…………………………..

कविताएं

मेरे हाथों का हिसाब

दस वर्ष की उम्र में मैंने सीख लिया था रोटियां सेंकना।
दस वर्ष की उम्र में ही सीख लिया था बर्तन और कपड़े धोना भी।
और दस वर्ष की उम्र में सीख लिया था मैंने अपने मन को मारना और बच्चे सम्हालना।

अब मांगते हैं मेरे हाथ मुझसे पचास वर्षों का हिसाब।
ये मुझसे पूछते हैं- इतने वर्षों में हमने कितनी रोटियां सेंकी?
कितने बर्तन धोये?
कितने कपड़े धोये?
कितनी रातों की नींद कुर्बान की?
क्या है इन कामों का मोल, उनकी प्रतिष्ठा, तनखाह और पहचान।

तुम जब धरती का सीना चीरते हो,
तो मेरे हाथ उसमें बीज डालते हैं।
यह बीज जब अंकुरित होकर पौधा बनता है,
तब मेरे ही हाथ इन्हें सींचते हैं
पौधे बड़े होते हैं
उनमें फल लगते हैं
जब फल पक कर तैयार होता है,
तब मेरे ही हाथ उसे खेत से खलिहान और घर तक लाते हैं।
यह सब, अकेले ही करती हूं,
ऐसा नहीं कहती मैं।
पर मेरे हाथ गेहूँ भी उगाते हैं और रोटियां भी सेकते हैं।
दरवाजे पर जब आता है साहूकार, और तुम अपनी मूछें ऐंठते हुए, करते हो मोल- तोल।
साहूकार जब तुम्हें देता है नोटों की गड्डी, तब तुम एक बार नहीं देखते मेरी तरफ।
ऐसा क्यों?
जमीन भी तुम्हारे नाम और फसल के दाम भी तुम्हारे नाम, ऐसा क्यों?
जब तुमसे मांगने की कोशिश करती हूं हिसाब,
तब यह कह कर चुप करा देते हो-
सब तुम्हारे घर और बच्चों के लिए ही है।
वह घर, जिस पर मेरा अधिकार नहीं,
वे बच्चे, जिनके साथ मेरा नाम तक नहीं।
तुम अपनी मर्जी से करते हो हर फैसला।
बेटे के हाथ कागज और कलम और
बेटी के हाथ, चकला- बेलन।
आखिर क्यों?

बस, अब बहुत हो गया,
तुमने बहुत फैसले किये।
अब मेरी बारी है।
मैं अपने बच्चों के हाथ में कलम और बेलन दोनों पकड़ाऊंगी।
तब शायद मिल सकेगा
मेरे हाथों का हिसाब।

– रीता धर्मरीत

इस कविता का जन्म 2004 में रोटी बनाते हुए हुई थी।

माँ! तुम्हारी याद क्यों नहीं आती?

माँ! तुम्हारी याद क्यों नहीं आती?
शायद इसलिए कि तुम, घर के हर चीज में बसी हो।
माँ तुम्हारी याद क्यों नहीं आती?
तुम बसी हो, उस लोटा और बाल्टी में, जिससे तुम नहाती थी।
तुम बसी हो, महावीर जी के झंडे में, तुलसी चौरा में, दशहरा, दीवाली, होली में।
तुम बसी हो, चावल की कोठी में, गेहूं की बोरी में, दाल की गगरी में, नमक की हांडी में और दूध के सिकहर में।
दूध! जो मुझे बेहद पसंद था, जिसके लिए मैं घण्टो जिद्द करती और तुम थोड़ी सी देकर अपने काम में लग जाती।
मैं तबतक जिद्द करती, जबतक तुम मुझे और न दे देती।
इस तरह, तुम हार जाती और मैं जीत जाती।
सभीकुछ वही है माँ! बस तुम और मैं, दोनो ही बदल गए हैं।
तुम! बेटी बनकर जिद्द करती हो, सताती हो और मैं! माँ होकर, तुम्हे बहलाती हूँ, डाँटती हूँ तो कभी गले लगाती हूँ।
माँ तुम्हारी याद क्यों नही आती?
माँ! तुम कहती थी, मरकर सभी आसमान में चले जाते हैं।
तुम क्यों नही गई माँ!
तुम क्यों रह गई उस आँगन में, जिसमें मैं चलना सीखी थी।
तू क्यों रह गई उस पगडंडी पर जिसपर मैं सम्भलना सीखी थी।
माँ तुम्हारी याद क्यों नही आती?
तुम बसी हो मेरी आँखों मे, जो सबसे पहले जागता है और सबसे अंत मे सोता है।
तुम बसी हो मेरे हांथों में जिससे मैं सभी को गर्मागर्म रोटी खिलाती हूँ।
तुम बसी हो मेरे बालों में जो अब सफेद हो रहे हैं।
तुम बसी हो मेरे कमर में जिसमे दर्द रहने लगा है।
तुम बसी हो मेरे एड़ियों में जो अब फट रहे हैं।
तुम बसी हो मेरे मन में जिनमे अब चिंताएं रहने लगीं हैं।
माँ तुम्हारी याद क्यों नही आती?
शायद इसलिए कि तुम बसी ही मेरे तन में, मन मे, मेरी आत्मा में।
।।रीता धर्मरीत।।

गूँथ भरा प्रेम

जिन क़दमों ने चलते-चलते
उन तक पहुंचा दिया
उन्होंने अपने प्रेम को ऊन में गूँथ कर
मेरे पाँव को ढंक लिया
नींद में भी उनके होने का एहसास कराता है
उनका गूँथ भरा प्रेम!

सर्दी में गर्माहट और गर्मी में शीतलता को
कौन समझ पायेगा उनके सिवा
ऊन के एक-एक रेशे में
उनकी उंगलियों के स्पर्श की गुदगुदाहट है
ज्यों-ज्यों रेशे कमज़ोर हो रहे हैं
त्यों-त्यों उनकी उम्र का एहसास हो रहा है.

त्यों-त्यों उनके न होने के बाद
बीते अंतराल का एहसास हो रहा है
लेकिन वह तो साथ ही है
पैर रूपी मेरी देह से लिपटी हुई

आओ हम यू़ं ही साथ-साथ रहें
जैसे साथ-साथ चले थे.
मैं तुम्हारी अनकही बातों को ध्यान कर
रोज टहलता हूँ, ताकि मेरे पाँव दीर्घायु होकर
तुम्हारे होने की अलौकिक ख़ुशी का आनंद लेते रहें.

 

मेरे प्रेम को जियो ! पर उस तरह
जैसे समुद्र की लहरें…!
किनारे को छूकर लौटती हैं अथाह जल में
मैं चाहती हूं….!
मेरी चाहत भी जीवन के आनंद में गोते लगाते हुये
अपने उमंगों के साथ प्रेम गूँथ पहने…!
मेरी चाहत..! पक्षियों की तरह उन्मुक्त हो
गगनचुंबी उड़ान भरकर जब लौटे तब प्रेम गूँथ पहने…!
मेरे प्रेम को जियो! पर उस तरह
जैसे पवन बहती है फूलों के क्यारियों से
सुगंध बिखेरतेआगे बढ़ो
सभी का प्रेम पाओ और लौटकर प्रेम गूँथ पहनो…!
तुम भी ।
।।रीता धर्मरीत।।

फिर कैसे कोई महान रे!

जात-पात से भरल नगरिया
कैसे कोई महान रे, कैसे बनूँ इंसान रे
जहाँ रहे सब मिल जुल के
हामर वो ही हिंदुस्तान रे
जात-पात से भरल नगरीया
कैसे कोई महान रे…

बुद्ध कहे मध्यम मध्यम
महावीर कहे कल्याण ही पैग़ाम रे
जहाँ रहे सब मिल जुल के
हामर वो ही हिन्दुस्तान रे
जात-पात से भरल..
कैसे बनूँ इंसान रे!

गाँधी-जेपी- आंबेडकर का है
अंतिम जन हिंंदुस्तान रे
जात-पात से भरल नगरिया
कैसे बनूँ इंसान रे

कदम कदम पर प्राण जात है
वोट वोट पर ईमान रे
बुलडोजर पर यमराज विराजे
लेहले हमर प्राण रे
लोकतंत्र का हत्या होत है
मिट गेल संविधान रे
जहाँ रहे सब मिल जुल कर
हामर वो ही हिंदुस्तान रे
जात-पात से भरल नगरिया
कैसे बनूँ इंसान रे..

राम कहे घट घट वासी,
फिर भी वह लाचार रे
बुद्ध- महावीर
और पैगंबर भी लाचार रे
नफ़रत से है भरल नगरिया
फिर कैसे कोई महान रे!

– रीता धर्मरीत

…………………………..
error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200 ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş