Tuesday, May 14, 2024
52 वर्षीय रूपा सिंह हिंदी की चर्चित कहानीकार और आलोचक हैं। उनकी आलोचना की 5 किताबें छप चुकी हैं।उन्होंने देर से कहानियां लिखनी शुरू की पर अपनी एक कहानी से उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी धाक जमा ली।जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय से कृष्णा सोबती पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करनेवाली रूपा अलवर में हिंदी की प्रोफेसर हैं
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कहानी

तीन बजकर चालीस मिनट
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मार्च और अक्टूबर अमूमन ऐसे महीने हैं जिनके आने की खबर फिजायें खुद ब खुद दिया करती हैं। एक नशा-सा तारी रहता है फिजाओं में। मदमदाती एक खुशबू। पोर-पोर खोल देने वाली। रग-रग को मीठी ऐंठन से मरोड़ देने वाली। दिल के दरवाजों के बाहर बारहा शहनाई बजती हो मानो। यह मार्च महीना था। सर्दी जाने-जाने को थी। गुनगुनी धूप मानो सोया प्यार जगाती थी। यूनिवर्सिटी की यह इमारत गहरे गुलाबी बोगनवेलिया से यूं लदी पड़ी थी मानो दुल्हन अभी-अभी सेज से उठकर गुलाबी चुनरी में स्वयं को संवारती है। सूर्य की किरणें उस पर यूं झिलमिलाती ज्यों उसके गहनों की चमक से पूरा प्रांगण रोशन हो। वसंतोत्सव का यह महीना न जाने किन कामनाओं से भरा होता कि अपनी देह भी कभी लचकती, मचलती फूलों की डाली प्रतीत होती। आजकल वैसे भी न जाने कौन-सी महक मेरे अंदर समा गई थी कि मैं न धुआं होती थी न खाक। बल्कि अधिक हरियाती जाती थी।
गेट तक पहुंचते ही मुझे उमाजी और सुहासिनी दिख गये जो पार्किंग से सीधा चले आ रहे थे। हम तीनों की कक्षाएं आज साढ़े ग्यारह बजे से थी। अभी नये विभागाध्यक्ष नियुक्त हुये थे। वे बहुत रुआब वाले व्यक्ति थे, इसलिए देर करना मुनासिब न था। हम कक्षाओं की ओर बढ़ चले कि बीच लाॅन में छात्रों के मजमे को देख ठिठक गये। जाने क्या हो रहा है इधर? जो उचककर अंदर झांका तो देखा महताब सर की पीठ। चिरपिरिचित मुद्रा वही। एक पैर दूसरे पैर पर चढ़ाकर चट्टान पर आराम से बैठे हुये। पास ही पीतल की एक थाल में भरा था चमकीला, खिल-खिलाता गुलाबी अबीर। सूरज की किरणें जिस पर पड़े झिलमिल झिलमिल। इसी झिलमिल अबीर से टीका लगाये दर्जनों छात्र-छात्राओं का झुण्ड। अरे देखो! वह परसों वाली छुटकी, सांवली तेजतर्रार रोहिणी कुमारी है जिसे एमफिल की मौखिक परीक्षा में यह कहकर रोकने की कोशिश की जा रही थी कि आप तो अभी छठी-सातवीं कक्षा की ही छात्रा लगती हैं। फिर ‘बड़े सर’ को (नये विभागाध्यक्ष, जिनका दंभ स्वयं के कद से कई गुना बड़ा था, अब इसी नाम से विख्यात हो गये थे।) उसने मुंह पर जो सीधा और तीखा जवाब दिया, वह भी कमाल का ही था, ‘मैं यहां हिंदी साहित्य पढ़ने आयी हूं या किसी फौज के रेजिमेन्ट में बंदूक चलाने? उसकी दृढ़ता और हाजिर जवाबी पर महताब सर खिलखिला उठे ओर उसकी पीठ ठोंकी- ‘भई जा तेरा हो गया एडमिशन।’ सबों ने महसूस किया ‘बड़े सर’ के चेहरे पर कैसी राखपुती एक कशीदगी आई और गई है। वही रोहणी कुमारी, स्त्री और पुरुष-दोनों आवाजें साथ निकालती हुई ‘नवरंग’ के गाने पर तल्लीनता से नृत्य कर रही थी-
‘अरे जा रे हट नटखट, ना छू मेरा घूंघट पलट के दंूगी आज तूझे गाली रे…
मुझे समझो न तुम भोली भाली रे…’
वहां मौजूद सभी उसकी बिजली की गति वाले नृत्याभिनय से हतप्रभ थे कि छात्रों ने मनुहार करना शुरु कर दिया- ‘‘सर आप भी सुनाइये कुछ।’’ उनके ‘सर’ कहां पीछे रहने वाले? आमतौर पर सफेद टी-शर्ट और ब्लू डेनिम जीन्स पहनने वाले महाशय सफेद कुर्ते पाजामे में खूब फब रहे थे। गुलाबी अबीर के टीक से माथा झिलमिला रहा था। चेहरे की रंगत में सब्जगी आ गयी थी। उन्होंने अपनी नजरें चारों तरफ घुमायी। दो कत्थई कुशाग्र आंखें, जिनमें हम तीनों को देख बच्चों-सी शरारत उभर आई। उमा और सुहासिनी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ चली। दुबकती-सी मैं उनके पीछे-पीछे कि देखती हूं, चांदी की चमकती अंगूठी वाली मुट्ठी ने थाल से अबीर भरी और हमारी तरफ उछाल दी। पूरा वातावरण हो आया गुलाबी-गुलाबी और फिर छात्रों समेत नजीर अकबराबादी के नज्म ने माहौल में होली के रंग बिखेर दिये-
‘‘जब फागुन रंग झमकत हों, और
दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते होें, महबूब नशे के
छकते हों… तब देख बहारें होली की…’’
लड़कों की आवाज जब अचानक धीमी हुई तो देखा सामने ‘बड़े सर’। आंखों में जाने कैसे तेवर थे कि हम दौड़ चले कक्षाओं की ओर। प्रथम तल पर मेरी क्लास थी। गई देखा कोई नहीं था। आज से होली की छुट्टी होनी थी, छात्रों को गांव-घर भी तो जाना होगा-सोचते हुए सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी। पीली साड़ी से झड़ता गुलाबी अबीर पीछे चला आ रहा था कि सामने महताब सर। मैं कोने में सिमट गई, निकल सकें वे। वे रुके। सिगरेट की कश लगायी और तिरछी नजर से देखते हुए पूछा-तो? है नहीं कोई क्लास के लिए? ‘जी नहीं। लड़के तो नहीं हैं।’ कहकर मैं उतर आयी। अबीर तो वहीं झिलमिल करता छूट गया था, साथ चली आयी थी सिगरेट की तल्ख महक… और लहकती आवाज- ‘फिर फिल्म चलें? स्टूडेन्ट्स थिएटर में दिखाई जा रही है। पन्द्रह-बीस मिनट की शाॅर्ट फिल्म है।’ मेरे मुख पर अचरज की लकीरें देख जल्दी से बोले सब चल रहे हैं।’
‘जी।’ कहकर मैं नीचे उतर आई।
सुहासिनी ने बताया एम्बोस बियर्स की प्रसिद्ध कहानी ‘ऐन एक्यूटेन्स ऐट आउल क्रीक बिज’ पर बनी फिल्म दिखाई जा रही है। सब चल रहे हैं तू भी चल। मैं एकदम तैयार हो गयी। मैने अपने छात्र जीवन में यह कहानी पढ़ी थी और तभी निरंकुश सत्ता की विद्रूपताओं, कुरुपताओं और ज्यादतियों में फंसे एक मासूम की विवशता, जिसने जीवन में सिर्फ प्रेम चाहा, अपनी प्रेमिका को चाहा उसे कैसे फंसाकर मार डालने पर विवश किया जाता है और मृत्यु के समय उसकी बेकली, प्रबल कल्पना का रुप धर किस प्रकार प्रिया की बांहों में छुपने जा पहुचंती है। मर्मान्तक वेदना और कुटिलताओं के बीच वह प्राणघातक स्थितियों से प्रगाढ़ जीवन की ओर जिस तरह भागता है, वह अंतर तक बेध जाता है। इस कहानी को परदे पर साकार होते देख सकूंगी- यह तो कभी सोचा भी नहीं था। ऐसे अवसर की जुटान के लिए मन ही मन महताब सर की एहसानमंद हुई और तभी यह ख्याल आया कि आज यह भी पहली बार ही हुआ कि वे, मुझसे यूं रु-ब-रु मुखातिब  हुए। यह सच है कई बार काॅरिडोर में उन्हें देखती, मिलती, नमस्ते करती तो कभी जवाब नहीं मिलता। यह चर्चा चलने पर किसी ने कहा, उन्हें आप सलाम बोला करें तभी जनाब जवाब दिया करेंगे। बात समझकर मन अजीब गलीजता से भर उठा। लेकिन तुरंत वरिष्ठ उमा जी द्वारा वे रोक दिये गये- ऐसी छोटी बात उनके लिए न करें प्लीज। वे बहुत टैलेन्टेड स्काॅलर हैं। बेनियाज। रोशन रुह इंसान। यह तो सच में कई बार स्वयं देखा है, ड्रामे की रिहर्सल में जब छात्र-छात्राएं उन्हें घेरे रहते, सीन समझाने वे पास खड़ी किसी छात्रा का दुपट्टा तानते, सिर पर गोल-गोल साफा बांधते, झुक-झुक राजस्थानी स्टाइल में दोहरा होकर झुकना सिखाते, खम्मा घणी, माई बाप…। ऐसा एंगल लो। इतनी दूर तक उंगलियों को कैसे सिर से बचाना है- धोक मंजूर कराना है। कड़ी मुस्तैदी। ट्रेनिंग अभिनय की। दरियादिली भी तो उतनी ही। साथ कोई छात्र भी खड़ा होता तो उसे पहले सिगरेट आॅफर करते, फिर खुद कश लगाते। जम्हूरियत के ऐसे पक्षधर थे कि कभी शिक्षकों के हित की बात हो या छात्रों की, सीधे यूनियन से भी टकरा जाते। 50-55 वर्षीय गुलाबी नीलाहट लिये ऊंचा माथा, सिगरेट से काले पड़े होंठ, पतले चेहरे पर खुरदुरी दाढ़ियों का बसेरा, कत्थई रंग की तीखी आंखें, सिर पर सफेदी की झुरमुटें, ऊंचा लंबा कद मानो कोई औघड़ बन गया हो स्काॅलर। जिसके प्रभामंडल से पहले तो दहशत होती और फिर धीरे-धीरे उनकी मेधा तेजाबी तिलस्म की तरह अपनी गिरफ्त में ले लेता, यही वजह थी कि उनके प्रशंसकों की संख्या भी बहुत थी ओर उनके ना चाहने वालों की भी कमी न थी। अपनी कमतरी के अहसास को कुछ लोग इस प्रकार व्यक्त करते थे। ‘एक नंबर का दारुखोर है। लड़कियों को घर बुलाता है। दारु की पार्टिंयां करता है। इस्लाम प्रचारक है। किसी दिन फंसेगा बेटा। बुरी तरह फंसेगा।’ और तब लाजिम है हम भी देखेंगे। कहकर वे कुटिल कुत्सित हंसी हंसते। ऐसा नहीं है कि उन्हें इन बातों का इल्म न था। जरुरत और जगह के हिसाब से वे अपने तंजिया अंदाज में तब अदबी जूतियों की ऐसी गिन गिनके बौछार करते कि सामने वाले के चेहरे पर जलालत का सैलाब तारी हो जाता।
फिल्म देखकर जब हम वापस लौट रहे थे तो गेस्ट हाउस में काॅफी पीने रुके। दिख तो सब चुप रहे थे, लेकिन मेन्टल डिस्आॅर्डर तक जाने वाले इस ख्वाहिशी पलायन और वास्तविक सत्ता आॅर्डर से मुठभेड़ की यंत्रणा को सामने जीवित कर देने वाला कालतंत्र हमारे दिलों में सिम्फनी की धुन की तरह लगातार बज रहा था। हम सब जिन स्थितियों में जीवित हैं उनमें देश, सत्ता, समाज के हिंसक वर्चस्व और दारुण शोषण की कथा बार-बार मन में झन्झना उठती थी। मेरे मुंह से निकला-‘मुझे लगता है यह एक रुपक है उस दुनिया का, जिसमें नायक जी रहा है, उस दुनिया की वीभत्सता, कुरुपता, निर्दयी ज्यादतियों का, जिसके सामने वह अन्ततः समर्पण नहीं करना चाहता…’
मेरी बात को बहुत गहरे से सुनते हुए महताब सर ने सहमति में सिर हिलाते हुए सुहासिनी समेत सभी साथियों की ओर देखा। माहौल हल्का करने की गरज से शायद उमा जी ने कहा, तुम्हें मालूम है, महताब सर हमेशा तुम्हारी खूब प्रशंसा करते हैं। कहते हैं- जीनियस हो तुम। सुहासिनी ने कहा-जहां से ये दोनों पढ़कर आये हैं, वहां केवल जीनियस ही प्रवेश पा सकते हैं। मेरे चेहरे पर नासमझी के चिन्ह देखकर आगे उसने बताया-तुम्हें पता है ना महताब सर उसी यूनिवर्सिटी के हैं, जहां से तुमने पी.एच.डी. किया है? उन्होंने ही बताया है कि कैसे तुम दो चोटियां बांधकर, लाल सलवार कमीज में सारी दोपहर,रात होने तक, एक वाटर बाॅटल साथ लिये लायब्रेरी में बैठी पढ़ती रहती थीं। अरे…तबसे जानते हैं और मेरी आंखें आश्चर्य से फैल गयीं। इस बात को तो कई साल बीत गये। विस्फारित नेत्रों से जो महताब सर को देखा-उनकी छोटी कत्थई आंखों में जैसे सदियों की पहचान थी और था चुहल भरा शायराना अंदाज।
‘what is there in the world except for the beauty of your eyes…’
‘इन आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है…’
शर्म ने मेरी पलकों को झुका दिया और संकोच से भरी हल्की मुस्कुराहट गालों तक चली आई। झुकती आंखों पर उमा जी और सुहासिनी का अनदेखा सरस लाड बरस रहा था। इसके बाद तो मैं इस सोच में गुम रही कि जाने ये कबसे मुझे जानते हैं? पीएचडी किये मुझे पांच छः वर्ष बीत गये थे। मेरी शादी हुई। कई शहर बदले बीच में। मुझे तो कुछ याद नहीं आता सिवाय इसके कि एक लंबा युवक भी दिनरात लाइब्रेरी में होता था उस वक्त। लेकिन वह बहुत गोरा था। एक और थोड़ा याद आया, जो हमेशा सिर झुकाये अपनी डेस्क पर गड़ा रहता था लेकिन वह इतना लंबा न था। मुझे अंत तक याद नहीं आ सका कुछ। बस इतना था कि महताब सर के होने से मुझे ताकत मिलती थी और अपनी उस अदबी दुनिया पर गर्व हो आता था जिसका एक छोटा हिस्सा मैं भी थी।
मैं इस विभाग में कुल तीन साल के लिए रिसर्च साइंटिस्ट की नियुक्ति पर आयी थी। मेरे उक्त प्रोजेक्ट के तहत मुझे विभाग की अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त रखा जाना था। सिवाय अध्यापन सहयोग के, वह भी मेरी इच्छा के अनुसार। लेकिन कई जिम्मेदारियां यहां मुझे सौंप दी गई। जिन्हें अमूमन विभाग वाले या अन्य स्थायी प्रोफेसर करने से कतराते थे। ऐसे में मेरी नुमाइन्दगी इन्होंने ही की। विभाग में साफ कह दिया कि केवल क्लास लेना वे चाहें तो ले सकती हैं। अन्य जिम्मेदारियों में उनके शोध का कीमती समय नष्ट न किया जाये। उनकी बात बड़ी गरिमा से सुनी और सराही गयी। मुझे अपने रिसर्च के लिए पर्याप्त समय मिल सका और महताब सर के साथ मैं तभी से एक अपनइयत, एक जुड़ाव महसूस करने लगी और धीरे-धीरे खुलकर बातें भी करने लगी।
सुहासिनी के पिता के आकस्मिक निधन की खबर ने हम सबको हतप्रभ कर दिया था। वहां से होकर आये तो सबका मन भीगा हुआ था। प्रश्न पत्र तैयार किये जा रहे थे कि अचानक मैंने कहा-‘मैं जब तीन साल की थी, मेरे पिता नहीं रहे। नहीं जानती, पिता क्या होते हैं। महताब सर की गहरी नजरें उठी थीं। निवेदिता, जो सबसे कम उम्र की थी और अभी व्याख्याता लगी ही थी, ने पूछा कि मैं यह समझ नहीं पाई- ‘मृतक के नाक में कपास क्यों लगाते हैं? फिल्मों में भी देखा है ऐसा।’, ‘बड़े सर’ न जाने कहां से पढ़कर आये थे तपाक से कहा-‘कीड़े मकोड़े न घुस जायें, लाश के अंदर, इसीलिए छिद्र बंद कर देते होंगे।’ श्री सुधांशु तिवारी, जो सीनियर प्रोफेसर भी थे, उनसे ना रहा गया। उन्होंने कहा, ‘नहीं यह बात नहीं। दरअसल ये मूलाधार हैं। दोनों पैर व अंगूठों को भी बांधते हैं ताकि जीव पुनः अंदर प्रवेश न करे।’ चुपचाप कुछ सोचती उमा जी ने पूछा, ‘जीव भटकते क्यों हैं?’ उन्हें समझाते हुए बड़े गहन स्वर में जो व्याख्या की गई उसे भूलना कठिन है। महताब सर ने कहा, ‘दास्ताक्लोज का मानना है कि जब किसी की मृत्यु हो जाती है, वह पूरी चेतना से दूसरी डाइमेंशन्स पर जी रहा होता है। नफसी, जहनी काया में। दरअसल अहसासों के, ख्वाहिशों के ख्यालों के बदन होते हैं और ऐसे में वे भटक रहे होते हैं। मुक्त होते ही काया पहले अधूरी ख्वाहिश पूरी करती है, और फिर चेतना नई काया पहनती है। जहनी, नफसी और फितरी काया। तब सब जन्मों के तजुर्बे नये जन्म की काया में उतर जाते हैं।’ रोहित जी ने पूछा, ‘और आत्महत्या करने वालों का क्या?’ प्रश्न पूछते ही लगा यूनिवर्सिटी की पूरी इमारत मानो हिल उठी है। वैचारिक गहराइयां तीव्र आंधी। व्यवस्था की क्रूर जटिलताएं। सबकी आंखों में घूम गया, निर्दोष छात्रों की लगातार आत्महत्याओं की खबरें। विचलित कर देने वाले स्युसाइड् नोट्स। महताब सर का पूरा शरीर मानो कांप गया। उन्होंने जवाब दिया। टायनबी ने कहा था। हत्या से संस्कृति नहीं मरती। लेकिन आत्महत्या से पूरी संस्कृति मर जाती है। एक चुप्पी के बाद दर्दीली आवाज ने कहा।
‘यह गुम्बदे-मीनाई, यह आलम तन्हाई,
मुझको डराती हैं इस दश्त की पहनाई।’
कपकपांते पोखर में चतुर खिलाड़ी ‘बड़े सर’ ने बड़े मूड से एक पत्थर उछाला- ‘आप लोगों में तो पुनर्जन्म नहीं होता होगा डाॅ. महताब? ‘सारी थरथराहट मानो थम गयी। ज्यों धुनष पर चढ़ आई हो प्रत्यंचा और फिर छूटा एक तीर। बिना एक पल गंवाये उस गहरी आवाज ने जवाब दिया, ‘जी नहीं। पर हमारे एतकाद में एक ऐसी नस्ल का सिद्धांत जरुर शामिल है जिसे ‘जिन्नात’ कहते हैं, और यहां ‘जिन्नात’ कौन है आप सभी वाकिफ हैं।’ कहकर उन्होंने बैग कंधे पर लटकाया और पलक झपकते बाहर निकल गये। धीरे से उठते मैंने कनखियों से देखा, अपने ऊंचे कद की कुर्सी के पीछे लटकते नारंगी रंग के तौलिये से ‘बड़े सर’ मुंह से उगलता थूक पोंछ रहे थे। आंखें उबलते आलुओं की तरह बाहर निकल पड़ने को आतुर थी। मैं आंशकित हो आयी, लेकिन कुछ भी बोलना मेरे लिए मुनासिब न था।
मेरी नियुक्ति यहां तीन वर्ष के लिए हुई थी। अढ़ाई वर्ष से ज्यादा गुजर गये थे। मैं यहां क्लासेज लेती और फिर लायब्रेरी में अपने प्रोजेक्ट को अंतिम रुप देने में व्यस्त रहती। मेरे छात्रों से मेरी काफी अच्छी ट्यूनिंग हो गयी थी। मैंने उन्हें आंरभ से ही कहा था, मैं ज्ञान बांटने नहीं आयी हूं, शेयरिंग के लिए हूं। पाठ पढ़ने की कुंजी थमा सकती हूं फिर पाठ चाहे शुक्ल, निराला, महोदवी या फूको, देरिदा के ही क्यों न हों? सब पर नई दृष्टि से विचारने का प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार मेरी पूरी क्लास अध्ययन, आनंद और सृजनात्मक क्षणों से जुड़ जाती। पढ़ने का यह ढंग उन्हें उनकी जिंदगी की समस्याओं और समाधानों को देखने का विजन भी प्रदान कर रहा था। ऐसा वे मुझसे कहते और यह बात विभाग तक भी जाती। सबकी चहेती बन रही थी मैं और फिर सबके कहने से मैंने नयी नियुक्ति के लिए आवेदन भी कर दिया था। कुल छह महीने बाकी थी मेरे जाने में कि इस बीच नये विभागाध्यक्ष की नई नियुक्ति हुई। लोग कहते थे कि वे जातिवादी, नस्लवादी पैसों के लालची और दलितों, स्त्रियों के प्रति सामंती नजरिये वाले व्यक्ति हैं। मेरे साथ भी मुश्किलें बढ़ गयी थी, बिना वजह वे मुझे अधिक देर रोकते और कभी एक रजिस्टर से दूसरे में कुछ लिखने, या प्रश्न-पत्रों का जखीरा सिलसिलेवार ढंग से लगाने जैसे कामों में लगा देते। प्रयास यह भी रहता कि सामने ही बैठूं। कई बार मेरा मन उबल जाता फिर सोचती, दो महीने रह गये हैं, कट जायेंगे बस। अब क्या बिगाड़ करना?
जुम्मे का दिन था। मुझे इसलिए याद है कि क्योंकि उस दिन महताब सर अमूमन नहीं आते थे। उनकी एकाध क्लास हममें से कोई देख लेता, पढ़ा देता। खुदा ही जाने बंदा ईश भक्ति करता भी था या नहीं, लेकिन उन्हें खूब पढ़ने लिखने का बेतरह शौक था और इसीलिये वे तीन दिन लगातार अपने लिखने-पढ़ने में जुटे रहते। अब ‘बड़े सर’ की हिदायत हुई थी, आप लिखकर दीजिये कि जुम्मा को नमाज पढ़ने जाते हैं तब तो आपको छुट्टी दी जायेगी अन्यथा नहीं। महताब सर ने जुम्मे को भी आना शुरु कर दिया। शाम को एक क्लास वे  लिया करते। वह जुम्मे का दिन था। मैंने काम करते हुए अचानक देखा क्लर्क रामनिवास दबे पांव किये ‘बड़े सर’ के करीब आ रहा है। हालांकि मुझे देखकर ठिठका जरुर लेकिन रुका नहीं। आगे बढ़कर धीमे स्वरों में उसने जो कुछ बताया, ‘बड़े सर’ की स्थिति चमगादड़ की तरह उकडू हो गई। उन्होंने पैर सिकोड़ कर कुर्सी पर रख लिये, और सख्त सोचनीय मुद्रा में आ गये। देखते-देखते उनके चेहरे के भाव बदलते गये। यह पहली बार था कि उनकी नजरें मुझ पर नहीं थीं। अपने सिर पर घोंसले से बिखर आये चार तिनकों की तरह स्थिर बालों को बार-बार संवारते। वे कभी उठते-बैठते उचकते, कुटिल मुस्कुराहट से भरे तलैया में बदल गये। अपने तम्बड़ जैसे होठों को कुर्सी की पीठ पर पड़े उसी तौलिये से पोंछते, दन्न से सामने रखी मेज की घंटी पर हाथ दे मारा। घंटी चीख पड़ी। किसी को आते देख दूर से ही चिल्लाये। ‘बुलाओ उसे। बुला कर लाओ उसे। देखते हैं अभी हम।’ पीरियड खत्म होते ही महताब सर शेर की तरह अंदर घुसे। ‘क्या बात है? क्यों दरियाफ्त किया?’ उनके ऐसे रौद्र रुप और गरजती आवाज से मेरा पहली बार सामना हुआ। मैं बाहर जाने को हुई कि ‘बड़े सर’ ने हाथों को झटक कर वहीं से मुझे कहा- आप बैठिये, और उधर मुखातिब हुये।’ देखिये, आपकी शिकायत आयी है। आपको लिखकर माफीनामा देना होगा नहीं तो…।’
‘नहीं तो, क्या?’ महताब सर गरजे मुझे सब पता चल चुका है। आप जो गोटियां खेल रहे हैं, वह नहीं चलेगा। मैं कुछ लिखकर नहीं दूंगा। वह मेरी छात्रा हैं, अभी चाॅक से मारा है, डस्टर से भी मारुंगा यदि जरुरत लगी तो। आपको जो करना है करें।’ कहकर जैसे तमतमाते हुये वे आये, वैसे ही निकल चले। फिर पलक झपकते ही जाने क्या हुआ, वे उसी तेजी से वापस आये। अपने मजबूत हाथों से मेरी बांह पकड़ी और खींचते हुए से बाहर ले आये। मेरी गोद में पड़े सारे कागज तितर-बितर हो वहीं कालीन पर बिखर गये। साथ घिसटती-सी मैंने देखा, ‘बड़े सर’ खड़े-खड़े अपने हाथों को मल रहे हैं, आंखों से लहू के कतरे मानो छिटक पड़ रहे हैं। बाहर आकर महताब सर ने एक हल्का धक्का देते हुए कुर्सी पर बिठाया।
‘क्यों बैठी रहती है वहां, बिना अपनी मर्जी के? बोल दीजिये मैं नहीं करुंगी। क्या आपको अपने प्रोजेक्ट के रुल्स एंड रेग्यूलेशन नहीं मालूम? आपको क्लास लेने के लिए भी कभी बाध्य नहीं किया जा सकता।’ हमारे चारों ओर रेंगते हुए छात्र-छात्रायें जमा हो रहे थे, जिनमें से कुछ महताब सर के लिए जान दे सकते थे तो कुछ नौकरी पाने के लिए विभागाध्यक्ष का वमन भी अपने कुर्ते से साफ कर सकते थे। मैं डर से कांप रही थी। जानती थी मेरे लिए कोई न था। मेरा अब जाने क्या होगा? मेरी आंखें डबडबा आई। अपमान से, जो वह अब रोज करता था। उस विवशता से जिसमें स्थायी नौकरी चाहिये थी और हैसियत के इस हाहाकार से, जिसमें अब खींच लाया था यह मुझे। मैंने आंखें ऊपर उठायीं। दो तेजस्वी आंखों ने, रौशन निगाहों ने, नेह और आश्वस्ति की जैसे ढाढस बंधाई। एक ताकत की लहर मुझ तक प्रवाहित हुई- ‘ताकतवर के सामने सच बोलने की ताकत बहुत बड़ी ताकत होती हैं और तुम्हें इस ताकत को संजो कर रखना है अब।’ सोमवार को जब हम विभाग पहुंचे तो पता चला विभागाध्यक्ष हैदराबाद गये हैं। एक सप्ताह के लिए। मेरा सारा तनाव मानो घुल गया। पूरे विभाग में पिछली खुशियां वापस आई। हमारा साथ टिफिन खाना छूट गया था, चाय बनाना और साथ चुस्कियां लेना छूट गया था क्योंकि, उनका सख्त आदेश था कि अपने-अपने कप में ही पीजिये और उन्हें अलग रखिये। अब हम सब एक दूसरे के टिफिन खाये जा रहे थे, लेकिन यह जरुर था कि जिन लोगों ने तभी चाय और चाय के बर्तनों को हाथ न लगाने का संकल्प लिया, वे अब भी अपने अपमान को भूले नहीं थे। बो दिये गये जहर का असर सदियों तक संड़ाध पैदा करता रहता है। उन्होंने स्वयं को जब्त कर रखा था। सभ्यता और नदियों को आगे बढ़ने से रोका जाये तो फिर सारा माहौल कीचड़ से बजबजाता है। बाकी से पूर्ववत था, लेकिन महताब सर नहीं दिख रहे थे। मैं उनसे बात करना चाहती थी। उनको बताना चाहती थी, अब मुझे डर नहीं लग रहा है और अब मैं कभी किसी भी गलत से नहीं डरुंगी, प्रति रोध करुंगी। लेकिन वे नहीं थें। न वे थे, न सिगरेट की वो तल्ख महक थी, और न वह धुंआ था जिसे मैं अब पहचान चुकी थी।
आज फिर जुम्मा था। गेट में घुसते ही वह महक थी।
धुंए का वह छल्ला था और अटकता, सरकता, संभलता मेरा पैरहन/दुपट्टा था। भागते कदमों से अंदर पहुंची कि देखा लाॅन में मजमा सजा है। गायत्री मंत्र के लयबद्ध शास्त्रीय उच्चारण ने मन को बांध लिया। ‘‘ऊं भूर्भवः स्वः तत्सवितुरवर्णेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ किसी ड्रामे का रिहर्सल था या जाने क्या था छात्रों के समवेत स्वर… ‘ऊं भूर्भवः स्वः तत्सवितुरवर्णेण्यम भर्गो…’ लगा किसी गुरुकुल में आ गई हूं और तभी चमत्कार घटित हुआ। महताब सर ने गायत्री मंत्र के उर्दू अनुवाद का पाठ करना शुरु कर दिया। उनके साथ उनके छात्रों की आवाज गूंज रही थी।
‘बख्शा मुझे तूने वजूद, मेरे खुदा मेरे खुदा’
हर दर्द की तू है दवा, मेरे खुदा मेरे खुदा’
आह! कैसा पाक मंजर था। एक रुहानी जलवा मानो हर शै पर तारी था। छात्रों की बंद आंखों में जेरे-आब थे। होंठों पर मानो फरियाद थी।
रहमत की बारिश भी है तू सारी खुशियां भी हैं तेरे नाम की…
‘‘मेरे खुदा, मेरे खुदा
तू रोशनी, तू जिंदगी, दानिश-कदा
मेरे खुदा, मेरे खुदा
है तेरे आबओ ताब से, बख्शिश गुनाहों की
मोहे रस्ता दिखा है इल्म दे…
मेरे खुदा। मेरे खुदा।’’
हम सबके हाथ मत्थे से जुड़े हुये थे, आंखें बंद थी। सामूहिक प्रार्थन ऐसी गहरी असर वाली होती है क्या? यूनिवर्सिटी की इमारत, इमारत न थी, मानो थी कोई इबादतगाह। शुकराने से भरा दिल लिये हम सब अपनी कक्षाओं की तरफ मुड़ गये। मेरी थीसिस जमा करने में कुल एक महीना बाकी था। मैं अब कक्षाओं के लिए नहीं जा सकती थी। प्रोजेक्ट को समेटना, किताबों की सूची तैयार करना, टाइपिंग, प्रूफरीडिंग इत्यादि कामों में बुरी तरह जुटी थी। यदा-कदा मेरे छात्र-छात्राओं के फोन आते। वे मेरे पढ़ाये हुए अध्यायों का स्मरण करते और कुछक पाठ-संबंधी समस्याओं के समाधान चाहते। मैंने उनसे वादा किया, अंतिम सप्ताह भर में कक्षायें लूंगी और जिन्हें कोई दिक्कत आ रही है पाठ समझने में, वे आ सकते हैं तब। फिर मैं गई थी सोमवार को। इसी जुम्मे को मेरी थीसिस जमा होनी थी। विभाग में इतने दिनों बाद मुझे देखकर सब प्रसन्न हुए और संकेत कर दिया कि साक्षात्कार भी होने वाले हैं, थोड़ा संभल कर रहो। विभागाध्यक्ष के हाथों ही सब कुछ है। मैं मुस्कुरा दी। लेकिन उमा जी और सुहासिनी ने महताब सर से संबंधित जो बातें मुझे बताई तो मैं मुस्कुरा नहीं सकी। एक अनजान आशंका से मेरा हृदय कांप उठा। भयावह स्थिति थी। उन पर गंभीर आरोप लगाकर कोर्ट केस कर दिया गया था। उन लड़कियों और उनके छात्र साथियों ने जाने किस फुसलावे में आकर बयान दिया था कि महताब सर न केवल उनके दुपट्टे खींच लिया करते थे, चाॅक मारते थे, कभी भी बाजू पकड़कर पीठ मल दिया करते थे। छात्रों ने कहा- जबरन सिगरेट पिलाते थे और कुछ ऐसे अश्लील आरोप भी लगाये गये, जिन्हें ‘माॅलेस्टेशन क्राइम’ के रुप में चिन्हित किया गया। विभाग के भी कुछ लोगों ने बढ़कर कहा- ‘वह इस्लाम प्रचारक था।’ किसी ने आपत्ति उठाई-म्लेच्छ होकर गायत्री मंत्र का उच्चारण कैसे कर सकता है? यह सब सुनकर सुन्न होती जाती मैं बोल पड़ी- किसी ने यह नहीं कहा, जितने भी कृष्णभक्त कवि हैं, भक्तिकाल के अधिकांश मुस्लिम हैं? क्या यह सही नहीं हैं? क्या कोई भी उनकी तरफ से सामने नहीं आया? धनश्याम बैरवा जी ने कहा, वह स्वयं सामने नहीं आया कभी खुलकर। यह तो अपने को मारना ही हुआ ना? अभी भी उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर नहीं है। आगे देखें क्या होता है?
यह भयानक षडयंत्र था। लेकिन इतना अधिक भयानक था। इसका अंदेशा किसी को भी न था। दो दिन बाद की ही बात है। तीन बजे वाली क्लास में छात्रों के अनुरोध पर पढ़ाना शुरु ही किया था।
‘दुखों के दागों को तमगों-सा पहनना,
अपने ही खयालों में दिन-रात रहना
असंग बुद्धि व अकेले में सहना
जिंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर’
कि देखा उमा जी इशारे से मुझे बुला रही हैं। मैं छात्रों से कहकर बाहर आयी। बदहवासी से उनके चेहरे का रंग उड़ गया था। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने महसूस किया कि वे हल्के से कांप भी रही हैं। मैंने पूछा, ‘क्या हुआ दी? बताइये न?’ उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों की चाल है। मुझे पक्की खबर मिली है ड्रामे की जिस रिहर्सल में महताब जी जाने वाले हैं वहां कुछ ऐसे छात्रों का हुजूम है, जो उनके मुंह पर कालिख पोते और जाने क्या-क्या करे? उनकी हालत देख और यह सब सुन मेरे भी रोंगटे खड़े हो गये, अरे ये कैसे? एक शिक्षक का, ऐसे शिक्षक का ऐसा अपमान? यूनिवर्सिटी की यह इमारत शर्म से गिर नहीं जायेगी, शिक्षक के प्रति ऐसा अमर्यादित आचरण देखकर? ‘यह तो बहुत गलत है, बताइये क्या करें? उन्होंने कहा तू ऐसा कर, महताब जी को रिहर्सल जाने से रोक और पिछले गेट से निकाल कर ले आ। मैं अपनी गाड़ी उधर ले जाकर स्टार्ट रखूंगी। उन्हें यहां से निकाल ले जायेंगे हम। अब मेरे हाथ-पांव कांप रहे थे। मैंने उनका हाथ कसकर थाम लिया। फिर हकलाते हुये पूछा, क्या महताब सर को इस बात की खबर है? उन्होंने कहा, मालूम नहीं। लेकिन एकदम टाइम नहीं है। तू मदद करेगी? हाथ-पांव ही नहीं मेरा पूरा बदन कांप रहा था। अरे वाह री बहादुर स्त्री! तू कैसी करुणायमी? लेकिन पता भी है इसका परिणाम क्या हो सकता है? सोचते ही मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। उमा जी के चेहरे पर विषाद की काली छाया थी कि क्षणांश में विद्युत तरंग-सी कौंध गयी, वे दो छोटी कत्थई आंखें, जिनमे रोशन रुह का नूर भरा था जो सबमें हिम्मत का संचार कर देता था। मेरे कानों से माया एंजेला के शब्द टकराये। ‘सभी गुणों में साहस सबसे महत्वपूर्ण है।’
वक्त बहुत कम था। अब तक बाहरी गेट की तरफ से कुछ हो हल्ला की आवाजें भी आने लगी थी। बिना वक्त गंवाये, मैंने कहा, ‘हां जरुर, आप चलिये।’ मैंने पर्स उठाया और छात्रों से कहा, ‘तुम लोगों के अध्यापक पर विपदा आयी है जलील करना चाहते कुछ लोग।’ सब चौकन्ने हो उठे। मैंने उनसे फुर्ती से कहा, महताब सर को ढूंढो, जहां मिलें उन्हें लेकर पिछले गेट पर पहुंची, जितनी जल्दी हो सके। और मैं दौड़ पड़ी। गेट के अगली तरफ कोलाहल बढ़ता जा रहा था कि देखा सामने पार्क के उन्हीं पथरीले छोटे टीलों को सधे कदमों से पार करते महताब सर रिहर्सल के लिए उसी दिशा में बढ़े जा रहे हैं। मेरा गला सूख गया। क्या कहकर पुकारुं… कैसे पुकारुं… और फिर जोर से पुकार उठी-महताब……….। मुझे देख उन्होंने सिर तक ले जाकर लंबा सलाम ठोका। और फिर चल पड़े। मेरी सांसें रुक गयी। तब तक देखा मेरे कुछ छात्र उन तक पहुंच गये हैं। फिर क्या बात हुई, क्या सुना, क्या समझा-मालूम नहीं। लेकिन देखा वापस वे मुझ तक मुड़ आये हैं। बाहरी छोर से छात्रों का एक रेला शोर करता हुआ हमारे पीछे लपका। मैं उन्हें लेकर पिछले गेट की ओर भागी। काले रंग की ‘होंडा सिटी’ स्टार्ट ही थी। हम बैठै। छात्रों को आंखों से धन्यवाद किया और निकल आये।
दो दिन बाद मैंने थीसिस जमा कर दी। बाद में सुना, उमा जी को बहुत टीज किया गया। उनकी प्रमोशन भी रोक दी गयी। मेरा तो साक्षात्कार-पत्र ही दबा दिया गया। फिर बहुत बहुत दिन बीत गये। कभी-कभी उमा जी के फोन आते तो वे बतातीं महताब सर सस्पेंड कर दिये गये हैं। केस चल रहा है, जाने क्या होगा। वे तो कुछ रुचि ही नहीं लेते न घर से बाहर निकलते हैं। बस अपने पढ़ने-लिखने में ही डूबे रहते हैं। उधर मैं अपनी जिंदगी में मसरुफ हो गयी थी। पुरानी स्मृतियां धुंधली पड़ गयी थी और कुछ याद आता भी नहीं यदि मैं सोशल मीडिया पर फेसबुक से ना जुड़ती। नई तकनीक को हैंडल करना सीख ही रही अभी। उस समय नेट डाटा के लिए एक पेन ड्राइव, जैसा ‘माॅडम’ आता था। जिसकी स्पीड भी काफी स्लो होती। फिरकी घूमती रहती और धीरे-धीरे मेरे सामने आभासी दुनिया का नया दरीचा खुलता। मैं खुशी से भर जाती जब पीछे छूट गये छात्र-छात्रायें मुझे यहां आकर मिलते। मेरे पढ़ाये पाठों को याद करते। मैं अपनी नजरों में सम्मानित हो उठती। अचानक एक दिन देखा मैसेज, महताब सर का ‘कहां हैं, कैसी हैं?’
‘सर…! अरे सर आप…?’
मुरझाया, बेतरतीब और अधपकी दाढी वाला चेहरा जो अपनी प्रोफाइल पिक्चर में भी चश्मा लगाये, शाॅल ओढ़े कुछ पढ़ रहा है जाने कविता सुना रहा है। पहचान ही नहीं पाती, जो नाम न देखती। ‘महताब आलम’ स्क्रीन पर फ्रेंड रिक्वेस्ट के लिए आया नाम चमक रहा है। मैंने एक्सेप्ट किया ही था कि डाटा गुम… फिरकी गोल-गोल घूमती…।
पुरानी स्मृतियां घेरने लगी मुझे। यह अक्टूबर चल रहा था। वातावरण वैसी ही फुररियों से भरा था, जैसा मार्च में हो जाता है। मन वाचाल हो उठता है। जब आती सर्दी की धूप, छाती मदहोशियां उसे गुदगुदाती हैं। तमाम फूल अपनी डालों पर खिले इतरा रहे थे। परागकण से धरती सेज बनी इठला रही थी। मदमदाती महक से फिजायें गुलजार थीं और पीछे छूट आए गलियारों से एक आवाज मुझ तक रह-रह आती थी।
‘तेरी सूरत से है आलम में बहारों की सी बात
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
राहते और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा…’
आंखें खुली और मैसेंजर पर निगाह गईं। फिरकी का घूमना रुक गया था और वही शब्द नाच रहे थे जिन्हें अभी-अभी तसव्वुर में मैंने जाना था।
‘मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम है तो गम-ए-बहर का झगड़ा क्या है
लौट जाती है इधर को भी नजर क्या कीजे
पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग…’
संत्रास में आत्मबल हंसता है। मैं हंस पड़ी…
‘जरा भी नहीं, बदले महताब सर आप?’
‘ऐ वक्त, हम कब से तेरे बदलने की ताक में बैठे हैं।’ महताब सर ने कहा-
‘क्या चल रहा है? यहीं हैं तो कल शाम आइये। नाचीज की यौमें पैदाइश है।’
महफिल सजेगी। ‘आपका इंतजार है।’
‘अरे वाह जी! खूब मुबारकबाद।’
‘मुबारकबाद आकर दीजिये। पुराने साथियों से भी मुलाकात हो सकेगी।’
‘जी! मैं कोशिश करुंगी।’
‘कोशिश क्या…आइये।’
और फिर फिरकी गोल-गोल… नेट डाटा खत्म। बहुत बाद में डाटा आया तो  देखा-सातवीं मंजिल, फ्लैट 703
समय…। यह शायद उनके घर का ऐड्रेस था।
मैं नहीं जा सकी। जाने मन को कुछ हुआ था या जाने पैरों को। नहीं गई। नहीं गई तो नहीं ही गई। ‘विश’ भी नहीं किया। बोल भी न सकी कि इंतजार न कीजियेगा। फिर मन में आया, मैं कौन इतनी जरुरी शख्सियत? हां एक बात जो मैं छुपा गई, अपने आपसे भी कि अपनी धड़कनों पर जाने क्यों ऐतबार न था। जाने क्यों पता चल गया था कि मेरे दिल पर अख्तियार किसी और को भी था। बेख्याली में वैसे ही सो गई। रात का पिछला पहर न बीता होगा, गहरी नींद में डूबी थी कि फोन की घंटी घनघनाई। फोन उठाया तो एक बोझिल भारी आवाज, ‘आई, क्यों नहीं? मालूम है आपको, कितना इंतजार कराया आपने? अभी तक करता रहा हूं। क्यों नहीं आयीं आप…?’
‘जी…। मुबारक। जन्मदिन।’
आदमी में खीझ भर गयी मानों, ‘क्या मुबारक…? तुम्हें आना नहीं चाहिए था? कितने दिन…कितने साल…सालों मैंने अपने को जब्त कर रखा… मैं सोचता था कि कभी जिंदगी का कोई सिरा मेरे हाथ आये और उसके सहारे दूर उफ्रुक (आकाश) से भी ऊपर मैं पतंग की तरह उड़ता फिरुं। मैं जिंदगी में मोहब्बत ही तो चाहता था…।’
‘सर…’
‘महताब कहकर क्यों नहीं बुलातीं मुझे। मेरे पास वक्त कम है। शायद कभी नहीं फिर कह सकूंगा कि वह लाल सलवार कमीज और दो चोटी वाली लड़की से मुझे मोहब्बत है मोहब्बत है… बेइन्तिहां मोहब्बत है…।’
‘रुकिये, रुक जाइये प्लीज…’
‘मुझे मालूम है तुम्हे हैरत हो रही होगी लेकिन तुम्हारा एक रुमाल, एक पानी की बाॅटल और एक फोटो, तुम चाहो तो दिखा दूंगा, हर वक्त मेरे पास है, मेरी जेब में। कसम खुदा की, बस तुम्हें चाहा।’ मैं चुप थी। क्या कहूं कुछ समझ नहीं आ रहा था। मुझे यह भी लगा, इस व्यक्ति ने अभी पी रखी है शायद और होश में नहीं है। डर भी गई। बिना कुछ कहे, फोन रख दिया। नींद तो सिरे से गुम हो चुकी थी। दुबारा घंटी बजी। उफ्फ! यह किन झंझावातों में फंसती जा रही है जिंदगी? मैंने नही उठाया। फिर घंटी बजी, और थककर स्वयं चुप हो गई। दूसरे दिन मैंसेंजर पर एक फोटो थी। साधारण सलवार कुरते पर बड़े सलीके से पिन टिकाये, चुन्नी ओढ़े सजी, दो गुंथी चोटियां, एक पतला चेहरा। ब्लैक एंड व्हाईट इस फोटो पर कुछ लिखा था, हस्ताक्षर या मोहर जैसा भी था। मुझे याद आया नया लाल सूट बड़ी बहन ने सिला था। बरामदे में मशीन रखकर। बड़ी यूनिवर्सिटी में दूर एडमिशन मिला है उसकी पढ़ाकू छोटी लाडली बहन को। मां ने उसी के साथ भेजा था बाजार। कस्बे के इकलौते राज स्टूडियो मेें फोटों खिंचवानें। पूरे आठ काॅपी बनवाये थे और सभी जगह पीएचडी पूरी करने तक हर कार्यालयीन जरुरतों में यह पासपोर्ट साइज फोटो ही चस्पां होता रहा था। अचानक हूक की तरह कलेजे में मरोड़ उठी। छूट गया अंगना, घर, गली, मौहल्ला, छत पर बिछी चटाई, टूटी गर्दन वाली सुराही, मां का करुण चेहरा, बहन की छुपती-छुपाती पनियाली आंखें…एक प्यासी चिड़िया के जख्मी चोंच की तरह मुझ तड़पाने लगे। मैं फूट-फूटकर रो पड़ी।
निगाह मैसेज पर गई। वहां लिखा था-‘तुम्हें क्या लगा मैंने पी रखी है। हां पी थी। तुमसे झूठ नहीं कहूंगा। लेकिन सच है, सारी रात इंतजार किया। सारी उम्र इंतजार करुंगा और यह भी सच है कि मैंने तुमसे मोहब्बत किया है। करता रहूंगा।’ मैं सिर पकड़कर औंधी लेट गयी। छुट्टी का आवेदन भेज दिया। सारे दिन भटकती रही अतीत के गलियारों में। लेकिन याद नहीं पड़ा कि कोई इस तरह दीवानगी से मुझे चाहता रहा था। सुधीर, शुरु से आगे पीछे इस प्रकार और उसने ऐसा घेरा डाल रखा था कि सुरक्षा, संरक्षण के चाह की आदत हो गई थी मुझे। उससे शादी के बाद तो बस एक खूंटे से बंधी गाय थी। कभी अपने लिए कुछ सोच न सकी, न अपने को जान ही सकी। जो चाहा, उसी ने चाहा। जो पाया, उसी से पाया। आखिर मेरा क्या कुछ बाकी रह गया था मुझमें जो यूं चीत्कारता है? यह कौन-सी महक है जो मुझे मेरे वजूद से निकलती जान पड़ती है? यह कौन-सा धुआं है जिसके लपेटे में मैं खाक हो जाना चाहती हूं? किसी के होने से आनंद क्या और न होने पर वीरानी क्या होती है- इसकी तो मैं अब व्याख्या कर सकती हूं। यह किसकी आवाज है जो मेरे अंदर धंसी हुयी है,
अधीरता से चीखती है- ‘मोहब्बत है…।’, ‘मोहब्बत है…।’
मैंने घबड़ाकर अपने हाथों से अपने कानों को ढक लिया। ‘कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें… इतनी जगह कहां है दिल-ए-दागदार में…’ आंसू छटपटाते रहे। कुछ दिन ऐसे ही तड़फड़ाते हुए मैंने लम्हों को सदियों की तरह काटा। फिर न रहा गया तो उमा जी को फोन लगाया और सारी बातें कह डाली। उनका प्रतिप्रश्न तो मुझे टुकड़ों में कांट देने वाला सिद्ध हुआ, ‘अरे ये कौनसी बात कह रही हो? तुम्हें नहीं मालूम था? यह तो सबको मालूम था कि तुम उनकी मोहब्बत हो। तुम्हारे यहां ज्वाइन करने से पहले से। यह कैसे कि तुम्हें नहीं पता? हालांकि मैं कहती थी सुहासिनी से, इतनी मासूमियत से भरी तुम, तुम्हारा भोलापन, तुम्हारा अंजानापन। लेकिन सुहासिनी ने भी कहा, यह नामुकिन है। एक ही जगह से पढ़े हैं दोनों। महताब सर छिछोरे नहीं हैं। और फिर जब सबको दीख रहा है तो उसे पता क्यों नहीं होगा?’
नहीं उन्होंने मुझे नहीं बताया। कभी। कोई चट्टान दरकती हो मानो ऐसी तो मेरी आवाज जिसे थामते हुए कहा उन्होंने। ‘हो सकता है ऐसी स्थितियां न बनी हों कभी। जहां तक मैं जानती हूं वे दूसरों की इच्छा को बहुत सम्मान देने वाले व्यक्ति हैं। ना बनी होंगी ऐसी स्थितियां और यह तुम दोनों का मसला था और तुम हमेशा पक्ष लेती तो थी। याद नहीं है अपनी कैरियर को लात मारकर तुमने उन्हें बचाया। यही बात सुहासिनी से पूछ रहे थे ‘बड़े सर’ तो उसने उन्हें भी बता दिया।’ चट्टान में बारुद का सिरा बांध गया कोई अनर्थ! लरजने लगी आवाज मेरी, ‘क्या बता दिया था?’
‘अरे, वही सब। इन्टीमेसी वाली बात। तुम्हारे इस चयन के साक्षात्कार में महताब सर शामिल हुए। उन्होंने बाद में पार्टी भी दी थी विभाग को। कि दो चोटी और लाल सलवार कमीज वाली लड़की, जिसकी फोटो वे हमेशा बांयी बाजु वाली जेब में रखा करते, वह तुम हो। कैसे तुम्हें नहीं पता?’ गले तक खामोश थी मैं। अन्दर आंधियां चल रही थीं। उमा जी बता रही थीं, ‘बहरहाल, स्थितियां बहुत खराब हैं। तमाम अखबार, चैनल्स उनके खिलाफ हैं और आज एक वीडियो क्लिप्स भी दिखाए जायेंगे जिनके बाबत उन्होंने कुबूल कर लिया है अपना गुनाह। ओह…क्या है वीडिये में? उसी लड़की ने सुबूत पेश किया है कोर्ट में… कि एक दिन उन्होंने उसे घर भी बुलाया था। नाटक के अंत में, चाय के बहाने। कुछ घोल के पिलाया था और बलात्कार की कोशिश की थी।’’
‘उफ्फ! यह झूठ है।’
‘हां हम सब जानते हैं, यह झूठ है। लेकिन जब वही कह रहे हैं कि यह सच है तो?’
‘दी, यह कैसे पाॅसिबल है? कोई आदमी किसी स्त्री से ताउम्र यह तक नहीं बोल सका… कि कहीं स्त्री बुरा न मान जाये कि वह उसे मोहब्बत करता है? किसी के साथ इस तरह जबर्दस्ती कैसे कर सकता है? क्या इतना बड़ा झूठ भी होता है कि एक ही समय कोई एक स्त्री को कहे कि उससे वह मोहब्बत करता है और उसी समय दूसरी स्त्री के साथ जबरन…?’ यह सरासर झूठ है- मैं चीख पड़ी। उदासी से भरी आवाज थी उमा जी की- ‘हां, हम जानते हैं बाबू, लेकिन वह स्वयं स्वीकार कर चुके हैं कि यह सच है। कोई दूसरा और है भी नहीं जो उनके सपोर्ट में खड़ा हो। तुम्हें नहीं पता धीरे-धीरे समझोगी, विभागों के फसाद कितने विषैले होते हैं।’
वहशत भरी शाम। छटपट! मैं खिड़की खोलने तक से कतरा रही थी कि बाहर बरसता जहर कहीं अंदर न घुस आये। मेरे पास टी.वी. नहीं यहां। मेरे पास अखबार नहीं। खबरें नहीं लेकिन लैपटाॅप तो है। उछलकर बैठी लैपटाॅप आॅन किया समय देखा साढ़े दस बज रहे थे रात के डाटा के बदले फिरकी घूम रही थी गोल…गोल..। शायद उन्होंने देखा मुझे खट् से मैसेज आया। ‘कहां हो?’ मैं, मैं नहीं थी मानो एक छोटी बच्ची थी। दो चोटी बांधे लाल सूट वाली। चुहल भरे अंदाज में लिखा. ‘तेरी कोठी के नीचे… तेरे बागों के पीछे…’ एक स्माइली आई उधर से, और साथ आया एक जवाब।
‘मुझे तुम्हारी जरुरत है’ महताब सर ने कहा।
‘मेरी क्यों? क्या हुआ है’ मैंने पूछा।
‘मुझसे एक गलती हुयी है’ महताब सर ने कहा।
‘आपसे गलती? क्या’, ‘क्या चल रहा है यह सब’, मैंने पूछा।
उमा जी ने बताया है कि किसी लड़की नवनीता ने आरोप लगाया आप पर? इंकार क्यों नहीं कर देते आप?’ उन्होंने लिखा, ‘मैंने किया है जब…
‘क्या? क्या किया है?’
‘गलती की है।’
‘गलती, कैसे क्या हुआ? मुझे बताइये।’
‘उस दिन ड्रामे के बाद उसको ऊपर लाया। बोला, चाय बनाऊंगी, पीकर जाना। लेकिन फिर उसने खुद ही मेरी अलमारी से व्हिस्की निकाल ली। गिलास में डाली और मेरे मुंह लगा दी।
‘ओह… तो आप… आप… पागल थे’ – मैं चिल्ला पड़ी।
‘हां मैं पागल था। वह पिलाती गई। चाय उबल-उबल कर गिरती रही। वह धीरे-धीरे मुझे दूसरे कमरे में ले गयी। फिर क्या हुआ, मुझे मालूम नहीं। मैं शर्मिंदा हूं अपने आप से। जाने क्या-क्या फोटो लिये गये… और वह सब आज टी.वी. में दिखाया गया है। मैं खुद हैरान था देखकर… कुछ बोलना तो दूर की बात… मेरी शर्ट खुली हुई थी ओर वह…’
‘लेकिन आप… आप ऐसे कैसे कर सकते हैं? आपने सच में यह सब किया?’
‘हां मैंने किया। मैं बस चुप था। वह जो कर रही थी, चाहता तो घोर नशे में भी धक्का दे सकता था। मना कर सकता था। लेकिन नहीं कर सका। वह पतली, लंबी, सांवली-सी लड़की। लाल सलवार कमीज, दो चोटी बांधे वह लड़की… मैं कुछ न कर सका…।’ हरी बत्ती बंद हो गई थी।
मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। मन हुआ भींच लूं उसे कलेजे से। मन हुआ बचा लूं उसे… निरपराध को बचा लेने की बेचैनी, जैसे एक दायित्व, एक सामथ्र्य, एक अपनइयत, एक मनुष्यता, बच लेती हो जैसे।
मैंने फैसला किया, मैं दो दिन की छुट्टी लेकर जाउंगी। जाऊंगी उसके पास। कोर्ट में भी जाना हुआ तो जाउंगी उसके साथ। यह मेरे लिए जरुरी है। मेरे कलेजे में अंकुर आते उस नन्हें पौधे के लिए जरुरी है जो बंजर भूमि में जाने कैसे उग आया है। अब मुझे बस सुबह होने का इंतजार था।
नींद की झपकी लगी ही थी कि लगा कमरे का दरवाजा खुला है सामने। बंद करना तो नहीं भूल गई? बंद तो किया था। बाहर तेज हवा है शायद। जाने कैसी फुसफुसाहटें हैं, सरगोशियां हैं। करवट बदला कि देखा वह है। वही सफेद टी-शर्ट। काॅलर उठाये। नीचे नजर नहीं गयी। होगी वही डेनिम की ब्लू जीन्स। सिगरेट थी वही। महक थी वही।
धुंआ था वही। देखा मैंने, कत्थई आंखें वही, वही उत्सुक चेहरा, स्याह होंठ, आंखों की पुतलियों पर धुआंती सफेदी। साफ दिखा था मुझे। बैठा है कुर्सी पर।
मैं छन् से उठ बैठी। आप? आप कैसे? यह कहती उठ बैठी। एकदम पास तो थे। एकदम पास थी वह कुर्सी। लंबी पीठ वाली। मेरे पढ़ने की कुर्सी। जब तक उठाती, उठकर बैठी, कोई नहीं था। यहीं तो थे अभी। कमरा तो भरा हुआ है उसी धुंए से। सिगरेट के उसी तल्ख महक से। धुंए के गुबार उड़ते हुए धीरे धीरे बाहर जा रहे हैं। महक ठहरी हुई है। बाहर तो नहीं चले गये? उतरी फटाफट मैं बिस्तरे से। धुंए ने मुझे घेरा… गुबार… गहरी तीखी महक। दरवाजा भांय भांय कर रहा है, हवायें सांय, सांय। मैं दौड़कर बाहर आई। आसमान में टूटे हुए सितारों के ढेर लगे हुए थे, और बादल मेरे कमरे में चले आये थे। अंदर आकर सामने दीवार पर घड़ी देखी, ‘तीन बजकर चालीस मिनट।’
शायद सपना रहा हो कोई। मैंने टेबल से पानी का गिलास उठाया कि चौंक गयी। कुर्सी, मेरी पढ़ने वाली, ऊंचे पीठ वाली कुर्सी हिल रही थी। मेरी आंखें फटी रह गयीं, मैंने देखा उसकी पीठ पर शिकनें हैं, जैसे अभी-अभी कोई बैठा हो और अभी-अभी उठ गया हो। मैंने पूरा गिलास हलक में उड़ेल लिया। कलेजे के नवजात पौधे को मानो कोई मरोड़े डालता हो। एक महक अंदर तक जाती हो, धुंए का छल्ला बन बाहर निकलती हो। मैं उस गुबार को पकड़ नहीं सकती थी, छू नहीं सकती थी… धसक कर बैठ जाना चाहती थी। लेकिन कुर्सी की टेक पर शिकनें थी। धुंए के उस अंतिम छल्ले ने जैसे ही दरवाजा पार किया, फोन की घंटी बज उठी मैं उछल पड़ी। भय और आशंका की एक सर्द लहर मेरी रीढ़ की हड्डियों में लहराई। सुहासिनी का फोन था – ‘हैलो! हैलो! प्रिया, मैं सुहासिनी! सुन रही है? सुन… सब खत्म हो गया। आवाज नहीं थी, हिचकियां थी। पानी नहीं था, आंसू थे, ‘महताब सर ने अपनी बिल्डिंग की ऊपर छत से छलांग लाग ली।’ हाथ से फोन छिटक गया, ‘क्या …..’ क्या बोला इसने? किसके बारे में? क्या हुआ? किसको?’ कुछ समझ नहीं आ रहा था… और मैं दौड़ी, नंगे पैर बाहर दौड़ी मैं। बरामदे में ग्रिल के परदे सिकुड़े पड़े थे। टिमटिमा रही थी दूर जाती कोई रोशनी। हवा डोलती थी सांय-सांय। मानो विदा देती हों अधूरी ख्वाहिशों को, अहसासों को, ख्यालों को।
अंदर बार-बार फोन चीख रहा था। नीचे गिर गये फोन को उठाया तो एक कागज का टुकड़ा भी साथ आया। उमा जी की आवाज थी- ‘बाबू सब खत्म हो गया। हम अस्पताल में हैं। डाॅक्टर्स ने डिक्लेयर कर दिया है। उन्होंने छलांग लगा ली अपनी बिल्डिंग से। हम सब अस्पताल में हैं। तुम चली आओ बाबू, तुम आ जाओ… तुममें उनके प्राण थे।’ वे रोने लगीं। फूट-फूटकर रो रहीं थी। मानो अपना बच्चा कोई जाता हो। मैं खामोश खड़ी थी। गला किसी तल्ख महक से घुटा जाता था। मानो कोई नये, ताजे लहलहाते पौधे की पत्तियां को बेदर्दी से नोच डालता हो। सिर का पिछला हिस्सा सुन्न हुआ जाता था। दर्द की तीखी लहर नाभि से रह-रह उठती थी। अचानक कुछ याद आया, हाथों से छूटते फोन को संभाला और पूछा- ‘कितने बजे? कितने बजे हुआ यह?’ रोते हुए ही उन्होंने बताया, ‘डाॅक्टर्स ने कहा जब नीचे फर्श पर गिरे तभी। गिरते ही सब खत्म था रे। यह सुबह के ठीक 3ः40 का टाईम था।’
मेरे हाथ से फोन गिरकर टुकड़ों में बिखर गया। तीन बजकर चालीस मिनट? सदमे से सफेद पड़ी मेरी नज़रें कागज के टुकड़े पर थी। अरे! कैसे आई यहां, यह फोटो मेरी? राज स्टूडियो वाली? अपनी बहन के हाथों सिले सादे लाल सूट में, दो चोटी लटकाये, संस्थानों के ठप्पों से जिसका चेहरा धुंधला पड़ चुका था, जिसके बारे में लोगों को पता था किसी की बांयी बाजू वाली जेब में रहती है वह लड़की… किसी की धड़कन बनकर…
कौन लेकर आया था इसे? ठीक तीन बजकर चालीस मिनट पर?
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किताबें

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