Tuesday, May 14, 2024

संध्या त्रिपाठी शिक्षा- बी.एस सी., एम.ए.(अर्थशास्त्र) भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत अनेक कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एक कथासंग्रह "21 श्रेष्ठ कहानियां" डायमंड पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित तथा दूसरा प्रतीक्षित

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कहानी

माफ़ करना कालिन्दी! -संध्या त्रिपाठी सदानन्द तिवारी की सुबह उबले परवल से शुरू होकर रात्रि उबली लौकी पर समाप्त होती है। उनकी आंतो पर ठीक न हो पाने वाले घावों ने उन्हें सख्त परहेज की चौखट पर ला खड़ किया। घर से बहुत दूर मठ में एक दिन उबली तरोई खाते खाते उनकी आंखें छलछला उठीं निरन्तर घनघोर परहेज बड़े बड़े कठोर कलेजे वालों को भी हिला देता है फिर सदानन्द तो बहुत ही कोमल हृदय के मालिक थे। अपने सुकुमार बेटे को सर्वप्रथम उनकी मां की पारखी दृष्टि ने भांप लिया था। अपने दबंग भाइयों से डर कर अक्सर सदा मां के आंचल में छुप कर घंटों बैठे रहते थे। ‘अरे हटो, अब काम भी करने दो,‘ कभी कभी खीझ उठती थीं वह। ‘मत करों काम जिज्जी। हमें अपने पास बैठने दो।‘ शायद मामा और मौसी की नकल में सदानन्द भी मां को जिज्जी बोलने लग गए थे। ‘हुआ क्या है आखिर। परमोद कुछ कहिस है?‘ ‘नही तो’। ‘रजन्ना मारेन हैं?’ ‘नही तो‘। ‘बूढ़े बाबा डांटेन हैं?’ ‘नहीं तो।‘ ‘अरे नहीं तो, नहीं तो की रटन लगाये है और घुसा पड़ा है, न काम करे दे रहा है न कुछ बता रहा है, भूख लगी है?’ ‘नही तो।‘ ‘तो भाग हियां से।‘ जिज्जी डराने हेतु चूल्हे से जलती लकड़ी निकालने का झूठा उपक्रम करतीं, तब कहीं जाकर वह हिलता वहां से। जिज्जी और चूल्हे की याद आते ही एक मनभावन सुगंध तिर आई सदानन्द के उस बीमार कमरे में! चूल्हे और जिज्जी दोनों के सौजन्य से क्या क्या सुगन्धित, स्वादिष्ट और आकर्षक पकवान तैयार होते थे! एक मोहक स्वाद उसकी जबान पर उतर आया जिससे उसके मुंह का कसैलापन न जाने कहां गायब हो गया। चाहे मुंगौडे हों या दही बड़े, जिज्जी जब बनाना शुरू करतीं तो पहले कटोरी में निकाल कर सदानन्द को दे देतीं, ‘ले खा ले, फिर खेल जाकर परमोद और रजन्ना के साथ।‘ सदानन्द कटोरी लेकर परमोद और रजन्ना से कतराते हुए सीधे पहुँच जाते श्यामा जीजी के पास, जो हमेशा सलाई में कुछ फंदे डालकर एक स्वेटर बुना करती थी। वह तथाकथित स्वेटर जो सदैव आरंभिक दौर में ही पाया जाता था तथा कभी आगे क्यों नहीं बढ़ता था यह बात सदानन्द को न तो कभी समझ आई, नही वह कभी श्यामा जीजी से पूछ सका। सच कहो तो वह इसी में खुश रहता था क्योंकि श्यामा जीजी इसी बहाने उसे पूरी की पूरी मिल जाती थीं ढेर सारी बातें करने के लिए! वह श्यामा जीजी से ज्यादा से ज्यादा नजदीक होकर बैठने की कोशिश करता। फिर बातें ही बातें! मुगौड़ों और श्यामा जीजी के बदन से आती महक मिल कर सदानन्द को एक सपनीले संसार में ले जाती जहां से वह कभी वापस नहीं आता यदि रजन्ना का घूंसा उसी वक्त उसकी पीठ से चिपक न जाता। ‘औरतों में घुसा रहता है हर वक्त, हमारे साथ चल कर क्यों नहीं खेलता?‘ ‘हमे कंचे खेलना अच्छा नहीं लगता है।’ रूआंसी आवाज में बोलते हुए वह श्यामा जीजी के और पास खिसकने की चेष्टा करता। ‘कंचे खेलना अच्छा नहीं लगता है या औरतों में घुसना अच्छा लगता है।‘ रजन्ना ने इतनी हिकारत के साथ कहा कि उसके मुंह से थूक निकलने लग गया था। ‘अरे जब उसका मन नहीं है तो जबरदस्ती क्यों कर रहे हो? ’श्यामा जीजी उसे बचाने लगतीं। ‘थू .................‘ रजन्ना खा जाने वाली नजरों से उसे देखता हुअ चला गया। ‘अच्छा अब मुझे कपड़े धोने हैं, तुम पढ़ो बैठ कर।’ श्यामा जीजी चली जातीं तो वह जिज्जी के पास पहुँच जाता । ’तुम फिर बार बार आके रसुइयां जूठी कर देत हौ, खेलते काहे नहीं हो जाके?’ जिज्जी झिड़कतीं फिर भी वह उनकी इकलाई धोती का पल्लू पकड़े रहता। पल्लू का छोटा सा कोना पकड़ कर उसे लगता कि थोड़ी थी जिज्जी उसके पास मौज़ूद हैं। वह कोना एक सुरक्षा कवच बन जाता था जिसमें परमोद या रजन्ना, किसी का भी प्रवेश संभव नहीं था। सदानन्द को आज जिज्जी के पल्लू का वह कोना याद आया तो आंखें और मन दोनों गीले हो गए। चादर के कोने को उन्होनें मुट्ठी में भींच लिया मानो जिज्जी का आंचल मुट्ठी में भर रहे हों, पर सदानन्द जितना उसे कस कर पकड़ रहे थे, वह रेत की तरह मुट्ठी से फिसलता जा रहा था। ‘जि ..........ज्जी...............‘ अन्दर के दबे हुए बालक सदानन्द की रूलाई फूट पड़ी। ऐसी ही रूलाई एक बार तब फूटी थी जब श्यामा जीजी का विवाह तय हुआ था। सदानन्द को जैसे ही पता चला कि अब जीजी अपने घर चली जाएगी, तब भी वह बिलख बिलख कर रोया था। तब भी रजन्ना ने दांत पीस कर कहा था, ‘देखो कैसे जनानियों की तरह मुंह फाड़ फाड़ कर रो रहा है, मनहूस।‘ जिज्जी ने हंस कर कहा था, ‘अरे जब बहिन का इत्ता मोहात हौ तो ओहिके संगे तुमहू ससुराल चले जाओ।’ सदानन्द दुभांति में फंस गया, एक तरफ जिज्जी दूसरी तरफ श्यामा जीजी! पर जिज्जी वाला पलड़ा भारी पड़ गया और सदानन्द जीजी के विवाह की चकाचौंध में खोने लग गया। श्यामा जीजी की साड़ियों और जेवरों के पास से तो वह हटता ही नहीं था। कभी उसके क्रीम पाउडर तो कभी नाखूनों की पॉलिश, इतने सारे आकर्षण थे कि वह बड़े भाइयों की छलनी कर देने वाली नजरें और घायल कर देने वाले व्यंग्य वाणों को दरकिनार कर चुम्बक की तरह वहां डटा पड़ा था। ‘इस साड़ी के साथ ये वाला पर्स ठीक रहेगा।‘ ‘मैरून नेल पॉलिश इस साड़ी के साथ अच्छी लगेगी।‘ रात बारह बजे तक वह यही करता रहता जब तक घसीट कर वहां से जबरन न हटाया जाता और दूसरे दिन सुबह होते ही सबसे पहले वह श्यामा जीजी के पास पहुंच जाता। ’चल हट जनखे।‘ परमोद आंखें तरेरते। ‘जिज्जी देखो, परमोद भैया घुड़की दे रहे है।‘ उस दिन जिज्जी ने परमोद को डांटने की अपेक्षा उसी को थोड़ा शिकायती नजरों से देखा था! श्यामा जीजी विदा हो गई। रोते कलपते सदानन्द कुछ न कर सके, बस जीजी की सलाई और स्वेटर लेकर घंटो बैठे रहते थे। ‘अब क्या स्वेटर बुनेगा?‘ रजन्ना ने कड़वाहट के साथ पूछा। सुबकते हुए उसने जिज्जी की तरफ देखा। पर आश्चर्य! जिज्जी तो थोड़ी थोड़ी परमोद और रजन्ना की तरफ उसे देख रही थीं। उफ् जिज्जी की वह दृष्टि! सदानन्द ने करवट बदली। पेट में एक मरोड़ का अहसास, ये आंतो के घाव कब तक ऐसे तड़पा-तड़पा कर मारेंगे! तभी दरवाजा खुला, ‘बाबा ठंडा दूध लाये हैं।‘ जियालाल बाबा की आवाज आई। उस वीरान मठ में वह और जियालाल बाबा ही एक दूसरे का आसरा थे। ‘दूध पी लो बाबा, बरफ डाल कर लाये हैं, फायदा करेगा।‘ ‘जियालाल बाबा हमने तो कोई पाप नहीं किया है, हमने तो कितना मना किया था पर कोई सुनने वाला नहीं था। यहां तक कि जिज्जी भी नहीं।‘ सदानन्द फिर से विह्वल हो उठे। जियालाल बाब ये स्वीकारोक्ति अनेक बार सुन चुके थे, अतः निर्विकार भाव से दूध रख कर चले गए। सदानन्द की विचार श्रृंखला की कड़ी जाकर फिर से बीस साल पहले से जुड़ गई। जहां प्रमोद और राजेन्द्र किसी भी लड़की को देखते ही ता थैया करने लग जाते थे वहीं सदानन्द में लड़कियों को लेकर सखा भाव उत्पन्न होता था। लड़कियां भी सदानन्द से अतिशीघ्र घुल मिल जाती थीं और हृदय के समस्त भेद खोल कर रख देती थीं। उसी ने कई बार अपने भाइयों को लड़की के हृदय की सच्चाई अर्थात् यह बता कर कि उनके लिए उसके मन में कोई स्थान नहीं है, अपने प्रति उनकी शत्रुता में और वृद्धि कर ली थी। आज भी उसका मन इस तथ्य को स्वीकार नहीं पा रहा था कि उसे सुंदर लड़कियों की अपेक्षा सुंदर पुरूष अपनी ओर आकर्षित करते थे। कई बार वह रात के गहन अंधेरों में छुप छुप कर रोया करता था। क्यों? उसी के साथ ऐसा क्यों हुआ? वह प्रमोद और राजेन्द्र की तरफ क्यों नही है? अपने अन्दर की इस व्यथा को कहता किससे ...........! पर न जाने क्यों उसे लगता था कोई और समझे न समझे, जिज्जी सब कुछ समझती हैं। सब कुछ .........। सदानन्द का मन इसे स्वीकार कर लेना चाहता था कि जिज्जी उसका वो सब कुछ समझती हैं जिनको समझने मे उसका मन असमर्थ हो रहा था। वह यह पहेली नहीं बूझ पा रहा था कि क्यों राजेन्द्र के सुदर्शन मित्र विक्रम की ओर उसका हृदय अनायास खिंचने लग जाता था तथा विक्रम की बेरूखी उसे जीवन के प्रति नैराश्य की तरफ ले जाती थी! फिर कुछ समय बाद पुनः वही दोहराव! अब उसका मन उसे श्यामा जीजी के देवर राकेश के इर्द गिर्द ही रहने पर विवश कर देता था। अनजाने में राकेश का हाथ छू जाने पर उसे करंट का झटका क्यों लगा था? क्यों वह राकेश के तवज्जी न देने पर उस पूरी रात एक पल को भी नहीं सो सका था? उस अंधेरी रात में अचानक ही उठकर वह जिज्जी की चारपाई पर जाकर लेट गया था और जिज्जी के हाथ की एक-एक थपकी उसे हर बार एक आवश्वस्ति से भर रही थी कि वो उसके मन की हर तकलीफ से वाकिफ हैं। सुंदर-सुंदर लड़कियों के सपने देखने के बाद प्रमोद का विवाह का चार फुटी कन्या के साथ और राजेन्द्र का चेचक से सुसज्जित चेहरे वाली कन्या के साथ सम्पन्न हो गया। एक श्यामा जीजी के बदले दो दो भाभियां! सदानन्द की बेरौनक जिन्दगी फिर से गुलजार हो गई। कॉलेज से आते ही बड़े भाइयों के आने तक कभी इस भाभी के कमरे में तो कभी उस भाभी के कमरे में बैठकी जमती। जिज्जी बीच-बीच में कभी कटाक्ष के रूप में तो कभी स्पष्ट रूप से प्रतिवाद करतीं। अचानक इस रौनक में एक भीषण गाज गिरी! एक ऐसा मोड़ आया जिसके बारे में सदानन्द के मन में कभी ख्याल ही नहीं आया था। एक दोपहर मामाजी अचानक एक कन्या का रिश्ता लेकर आ पहुंचे। ‘जिज्जी ऐसी पूर्णमासी के चन्द्रमा जैसी बालिका है कि अपनी पूरी बिरादरी में न तो किसी ने तो किसी ने देखी होगी न सुनी। ऊपर से बी0एससी0 फर्स्ट डिजीवन। अपने सदा की किस्मत सबसे ऊपर है।‘ जिज्जी की तो हंसी नही बंद हो रही थी। सदान्द को काटो तो खून नहीं! ये क्या हो रहा है? उसकी शादी कैसे हो सकती है? उसे तो लड़कियां बस दोस्ती के लिए अच्छी लगती है। उनके मन की दुनिया में वह बड़ी ही सुगमता के साथ विचरण कर सकता है, उन्हें भली भांति पढ़ सकता है, पर विवाह? माथा घूम गया सदानन्द का। उस उत्साहित माहौल से उठ कर चले जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। ‘अबे क्या किस्मत लिखा कर लाया है।‘ पीछे से राजेन्द्र की आवाज सुनाई दे रही थी। किस्मत! सचमुच क्या किस्मत थी! सदानन्द ने दूध का गिलास उठा लिया। अगर जियालाल बाबा न होते तो क्या होता उसका? कोई दवा पानी देने वाला भी नहीं था। इन्ही वीरान पहाड़ियों में वो मर गए होते। पलायन के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था उसके पास। जिज्जी को कितना समझाने की चेष्टा की थी पर वो कुछ सुनना ही नहीं चाहती थीं। ‘काहे, शादी काहे न करिहौ, सबका घर बस गवा, अब तुमही बचे हो। हमहू का छुट्टी चही अब।‘ जिज्जी तुम भी मुझसे छुटटी चाह रही थी। बेचैनी में सदानन्द कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकल आये। बाहर पहाड़ों के बीच की पतली सर्पाकार सड़क दिखाई दी। सड़क को ध्यान से देखने पर एक प्रश्नचिन्ह का निशान बनता प्रतीत होता था। एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह! सदानन्द को लगा शायद कालिन्दी कोई सवाल लेकर आ खड़ी हुई है। वह फिर कमरे में आकर लेट गए। मामा के उत्साह और जिज्जी की आज्ञा के आगे उसकी कुछ न चली। चटपट वरिच्छा और फलदान की रस्में अदा कर दी गई। कुछ ही दिनो में श्यामा जीजी ने आकर वह पूरा समां बांध दिया जिसने सदानन्द को छोड़ कर पूरे मोहल्ले में एलान कर दिया कि दो व्यक्तियों के मध्य एक गठबंधन हो रहा है। इतनी गौनई हुई कि दो ढोलकें फूट गई। साड़ी के ऊपर लिहाफ की तरह ओढ़ी हुई गुलाबी चद्दर के अन्दर से पूजा की रस्मों के दरम्यान उसके हाथ भर दिखाई दे जाते थे और उन गुलाबी हाथों को देखकर सदानन्द के मन में सवाल आता था कि कालिन्दी नाम क्यूं रखा गया? पूजा की विधियों के बीच एक दूसरे की मिठाई खिलाते हुए सदानन्द को उसके चेहरे की एक झलक मिली। सचमुच मामा की गर्वोक्ति में कोई अतिश्योक्ति नहीं थी। पूर्णमासी का चांद जैसा चेहरा, बड़ी सी नथ और माथे पर बेंदी। सदानन्द का जी किया कि उसके साथ मिल मिल कर खूब रो लें। विदा के समय कालिन्दी अपने पिता से लिपट कर रोई तो सदानन्द भी विह्वल हो उठे। उनका कोमल हृदय अपने उदगार को रोके रखने में असमर्थ हो उठा। वह फूट-फूट कर रो पड़े। राजेन्द्र और प्रमोद ने कैसी खा जाने वाली नजरों से उन्हें देखा था और कालिन्दी ने भी तो अपना विलाप तत्काल रोक दिया था। अंततः लाल बनारसी साड़ी में गहनों से लदी कालिन्दी घर आ पहुंची। ‘देवर जी, हमारे सबसे अच्छे दोस्त हैं। हम कपड़े गहने सब उन्ही की मर्जी से पहनते हैं तुम ये दोस्ती तुड़वा न देना।‘ अचानक वह छः इंची घूंघट थोड़ा छोटा और तिरछा होकर उसकी तरफ घूम गया, क्षणांश को आपस में दृष्टि टकरा गई। इस पहाड़ी पगडण्डी से भी बड़ा प्रश्नचिन्द उन आंखों में था। लगा था कि ये दृष्टि अन्दर कुछ टटोलने, खंगालने लग पड़ी थी। उस दिन का पसाीना आज भी माथे पर छलक आया। ‘सांझ को ध्यान में बैठ सकेंगे?‘ जियालाल बाबा ने कमरे में झांकते हुए पूछा। ‘शायद नहीं‘ कोई बात नहीं आप लेटे-लेटे शामिल हो जाइयेगा‘। ध्यान! कैसा ध्यान! आंख बद होते ही बार-बार वह तिरस्कार से झटका हुआ हाथ सामने आ जाता था। कैसी विडम्बना है, जिससे भाग कर मीलों दूर निकल आये, आंख बंद होते ही सबसे पहले वही आकर खड़ा हो जाता है। सदानन्द को आंख बंद करने से भी भय होने लगा। क्या इतने वर्षो में एक पल का भी ध्यान नहीं लगा पाए हैं वह? क्या इतने वर्षो से वह जियालाल बाबा को धोखा देते नहीं चले आ रहे हैं? धोखा....! काश, कालिन्दी ने भी धोखेबाज समझा होता! और जिज्जी! वह तो जानकर भी कुछ समझना ही नहीं चाहती थीं। पता नहीं अब कैसी होंगी? कई वर्षो से कुछ हालचाल नहीं मिला उनका। ‘जियालाल बाबा‘ अधीर होकर उन्होंने पुकारा। जियालाल ने पलट कर देखा तो थोड़ा सा सहम गए सदानन्द। कहीं इन्हें उस धोखे का अहसास तो नही है? ‘घर का हालचाल जानने का बहुत जी कर रहा है, आप एक बार हो जाओ।‘ ‘आपको अकेले छोड़ कर तो हम न जा सकेंगे। बहुत ही स्पष्ट उत्तर आया। ‘फिकर न करो, अभी मृत्यु नहीं आएगी। जीवन इतनी जल्दी नहीं छोडे़गा, अभी बहुत हिसाब बाकी है।‘ थोड़े वाद-विवाद के पश्चात् जियालाल बाबा उनके घर जाकर समाचार लाने को तैयार हुए। उस अकेले मठ के सन्नाटे में सदानन्द अपने को अधिक सहज महसूस कर रहे थे। असहज तो वह कालिन्दी के समक्ष हो जाते थे। उस रात जब वह कालिन्दी से सहज होकर बात करने की चेष्टा कर रहे थे, तब भी वह अंतर भेदने वाली तीक्ष्ण दृष्टि से बार-बार असहज होने पर मजबूर कर देती थी। घंटो वह उससे बात करता रहा। कभी जिज्जी, कभी श्यामा जीजी, कभी बड़ी भाभी, तो कभी छोटी भाभी! प्रमोद और राजेन्द्र से बचते बचाते लगभग घर से जुड़े सभी किस्से, घटनाओं से वह कालिन्दी को अवगत करा चुका तो अचानक उसकी नजर कालिन्दी के हाथ में लगी खरोंच पर पड़ी। वह अचानक बोल उठा, ‘हाय ये कैसे लग गई? वह दौड़ कर मलहम उठा लाया। बार-बार विह्वल हो उठता, ‘दर्द तो नहीं हो रहा?‘ हाथ छू-छू कर वह पूछ रहा था। तभी ऐसा क्या हुआ कि वह हाथ झटक कर चली गई। विस्फारित नेत्रों से देखते रह गए थे सदानन्द। उस रात के बाद उसे कालिन्दी से एक अज्ञात भय लगने लगा था। तभी से कालिन्दी ने भी उससे नजर मिलाना बंद कर दिया था किन्तु सदानन्द पर उन अदृश्य आंखों का भय, भूत बन कर सवार हो गया था। जबकि उस रात के बाद कालिन्दी ने उनकी तरफ देखा भी नहीं। फिर भी सदानन्द उससे कतराते रहते थे। जिधर उसकी साड़ी का पल्लू भर दिख जाये उधर से बचबच कर निकलने की जुगत में लगे रहते। आज भी वे अपने को असमंजस की उसी अवस्था में पा रहे थे। आखिर क्या गलती की थी उन्होंने? प्रमोद और राजेन्द्र की तरह निष्ठुरता तो नहीं दिखा रहे थे। फिर इस तरह हाथ झटक कर निकल जाना! आज तो जियालाल बाबा भी नही हैं, दिया भी खुद ही जलाना होगा। दिए की रोशनी में अपनी परछाई से भी भय लगा उन्हें। ऐसा ही भय उस रात के बाद लगने लगा था उन्हें। दूसरे दिन की सुबह वे कालिन्दी से नजरें मिलाने का भी साहस नहीं जुटा पा रहे थे और तभी एक मृतात्मा की तरफ चुपचाप सुबह होने के पूर्व ही घर से निकल गए थे। कैसे भटकते-भटकते इस मठ तक पहंुच, जहां जियालाल बाबा से मुलाकात हुई। फिर कैसे वे एक दूसरे के पूरक बनते चले गए, उस सूक्ष्म प्रक्रिया को सदानन्द कभी समझ नहीं सके। वे इतने आत्मीय हो गए कि सदानन्द ने अपने हृदय की एक-एक बखिया उनके सामने उधेड़ कर रख दी। मठ में आने के कुछ समय बाद ही जियालाल बाबा बहाने से उनके घर जाकर वहां का हालचाल ले आये थे। सदानन्द के घर छोड़ने के कुछ ही दिनों बाद कालिन्दी भी अपने मायके चली गई थी। पड़ोस से पला चला कि सदानन्द के चले जाने पर जहां जिज्जी ने गगन चीरने वाली चीत्कारों से मोहल्ला ग गुंजायमान कर दिया था वहीं कालिन्दी की आंखों में आंसू का एक कतरा भी नहीं आया था। यह सुन कर सदानन्द की ग्लानि और बढ़ गई थी। वे कल्पना में भी कालिन्दी से नजरें नहीं मिला पा रहे थे। तभी पास के पी0सी0ओ0 से दीपू ने आवाज देकर बताया कि जियालाल बाबा का फोन हैं। धीरे-धीरे उतर कर आये, जियालाल बाबा ने जिज्जी की बीमारी की खबर देकर उनसे शीघ्र घर पहुंचने को कहा। बस में अखबार में एक समाचार पर उसकी नजर अटकी। काफी संख्या में मौजूद लोगों का दिल्ली में प्रदर्शन ! दिल्ली हाईकोर्ट के उस अदभुत फैसले पर प्रसन्नता दर्शाते हुए लोगों की तस्वीर में अचानक सदानन्द को खुद की तस्वीर भी नजर आई। पहली बार उसने स्वयं को सम्मान से नजर उठा कर देखा। किस-किस जतन से सदानन्द दूसरे दिन घर तक पहंुच पाए। जिज्जी थीं कि रास्ते भर आंसुओं के बावजूद आंखों के सामने से हट नहीं पा रही थी। धुंधली आंखे लिए गिरते पड़ते वे घर में दाखिल हुए। श्यामा जीजी और दोनों भाभियों ने चीखों के साथ उन्हें पकड़ लिया। राजेन्द्र पर नजर पड़ते ही वो कांपने लग पड़े। पर आश्चर्य! राजेन्द्र ने रोते हुए सदानन्द को हृदय से लगा लिया। उनके छूटे तो प्रमोद ने जकड़ लिया। ‘निष्ठुर! जिज्जी की भी याद नहीं आई तुझे? राजेन्द्र लगभग घसीटते हुए उसे अन्दर कमरे तक ले आये। खटिया पर एक कंकाल को देख कर सदानन्द उनके पैरों पर गिर पड़े। ‘जिज्जी ........ ‘ वे जोर जोर से बिलख रहे थे। काफी देर बाद नजर उठाई तो एक ऐसा दृश्य दिखाई पड़ा जिसकी उन्होने स्वप्न में भी कल्पना नही की थी। जिज्जी बड़ी कठिनाई से उठा कर दोनों हाथ जोड़ने वाली मुद्रा बनाने की चेष्टा कर रही थीं। ‘जिज्जी............‘ कुछ और कह पाने में वो अपने आप को असमर्थ पा रहे थे। ‘हमका माफ कर देव बेटा, बहुत बड़ी गलती कर गए हम! हमें लगा शादी के बाद सब ठीक हुई जाई! हम समझ नहीं सके।‘ ‘मत बोलो जिज्जी ऐसे।‘ पर शब्द शायद बाहर नहीं आ पा रहे थे। ‘क्षमा कर दो बेटा। जिज्जी के हाथ कांप रहे थे। सदानन्द की आंखे बंद हो गई। उसके मुंह से एक धीमी बुदबुदाहट निकल रही थी जो उसे छोड़ अन्य किसी को भी सुनाई नहीं पड़ी, - माफ करना कालिन्दी!

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