Wednesday, September 17, 2025
...................

सरिता सैल
जन्म : 10 जुलाई ,
शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य)
ई मेल आईडी – saritasail12062@gmail.com
सम्प्रति : कारवार  कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित कालेज में अध्यापन
मेरे लिए साहित्य मानव जीवन की विवशताओं को प्रकट करने का माध्यम है।
*कोकणीं, मराठी ,  आसमी, पंजाबी एवं अंग्रेजी भाषा में कविताएँ  अनुवादित हुई है।
कही नामी मंचों से ओनलाइन काव्यपाठ
प्रकाशन :  सृजन सारोकार , इरावत ,सरस्वती सुमन,मशाल, बहुमत, मृदगं , वीणा, संपर्क भाषा भारती,नया साहित्य निबंध और, दैनिक भास्कर , हिमप्रस्त आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

कविता संग्रह 
1 कावेरी एवं अन्य कवितायें
2. दर्ज होतें जख्म़ 
3. कोंकणी भाषा से हिन्दी में चाक नाम से उपन्यास का अनुवाद प्रकाशाधिन
साझा संग्रह – कारवाँ, हिमतरू, प्रभाती , शत दल में कविताएँ शामिल
पुरस्कार- परिवर्तन साहित्यिक सम्मान  २०२१

………………………..

कविताएं

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ चखी़  जाती हैं
किसी व्यंजन की तरह 
 
उन्हें उछाला जाता है
हवा में किसी सिक्के की तरह 
 
उन्हें परखा जाता है
किसी वस्तु की तरह 
 
उन्हें आजमाया जाता है
किसी जडी़ बूटी की तरह
 
उन्हें बसाया जाता है
किसी शहर की तरह 
 
और खाली हाथ लौटया जाता है
किसी भिक्षुणी की तरह 
 
पर आने वाली संभावनाओं की 
बारिश में उगेंगी कुछ ऐसी स्रियाँ  
 
जो हवा में उछाले सिक्के को 
अपने हथेलियों पर धरकर
मन के अनुसार उस सिक्कें का 
हिसाब तय करेंगी 

युद्ध

युद्ध के ऐलान पर 
किया जा रहा था 
शहरों को खाली 
लादा जा रहा था बारूद 
 
तब एक औरत 
दाल ,चावल और आटे को 
नमक के बिना 
बोरियों में बाँध रही थी 
 
उसे मालूम था 
आने वाले दिनों में
बहता हुआ आएगा नमक 
और गिर जाएगा 
खाली तश्तरी में 
 
वह नहीं भूली
अपने बेटे के पीठ पर 
सभ्यता की राह दिखाने वाले
बक्से को लादना 
पर उसने इतिहास की 
किताब निकाल कर रख दी
अपने घर के खिड़की पर 
एक बोतल पानी के साथ
क्योंकि,
यह वक्त पानी के सूख जाने का है..!

धुप की यात्रा

धूप  नंगे पाव आती है 
उजाले का झाडू थामे 
अँधियारे को बुहारती 
सख्त दीवारों पर 
पैर पसारती
धूल सनी किताबों पर बैठ
कदमों में लगे
तिमिर के फांके झाड़ती
धूप नही भूलती 
चूल्हे पर चढ़ 
तश्तरी में गिरना
पिछली रात का भीगा तकिया
बैठकर सुखाती 
 
वहाँ से उठकर
बाबूजी की कुर्सी पर बैठ
धूप बतियाती है  
नए कैलेंडर के नीचे से झांकते 
पुराने कैलेण्डर से 
निहारती है 
समय का काँटा
जो कभी नहीं रुकता 
 
छाँव तले आया देख
धूप  सपकपाती
राह ताकती 
दरवाजे के आँख मे
लगा कर काजल 
 
वादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से 
खिड़की से दबे पांव 
चूम लेती ईश्वर का माथा 
 
खेत से लौटती स्त्री को 
पहुँचा कर देहरी 
धूप लौट जाती है 
फिर आने के लिए .

इन्तजार

मैं कर रही हूँ तुम्हारा इंतजार
चाँद के गलने से लेकर
सूरज के ढलने तक
 
बंसत की हर नयी पत्तियों  पर
लिख देती हूंँ तुम्हें चिट्ठियाँ
पत्ते झड़े अनगिनत मौसम बीते
अब मेरे शहर के हर वृक्ष तले
उग रही हैं तुमारे नाम कि दूब
पहुँचा रही हैं हवा संग
तुम्हें आने का संदेश
 
काली नदी के तट बैठकर
मैंने बहाया हैं आँखों का काजल
अब तो नदी का भी सीना
भर गया है काले रंग से
 
मछलियाँ बैठती है मेरे पास आकर
और मूँद लेती हैं आँखें
मानो कर रही हैं प्रार्थना
उस ईश से तुम्हारे लौटने की
 
मैंने तो भरे थे इस रिश्ते मे रंग
प्रेम और सर्मपण के
बेखबर सी थी मैं 
तुम्हारे मुट्ठी में बंद रंगो से
 
तरसती है मेरे मकान की दहलीज
तुम्हारे तलवे के स्पर्श को
फिर घर बन इठ़लाने को
मंदिर के दिये तले है जमीं
मिन्नतों की ढेर सारी मन्नतें
 
तुम्हारा आना कुछ इस तरह से होगा
जैसे घने बीहड़  में शहनाई का बजना
किसी चंचल-सी लड़की  के माथें
सिदूंर का सजना

तलाक माँगती औरतें

तलाक माँगती औरतें 
बिल्कुल अच्छी नहीं लगती हैं
वे रिश्तों के बहीखाते में 
बोझ- सी लगने लगती हैं
जिस पर पिता ने लिखा था 
उसके शादी का खर्चा
माँ की नजरों में भी ख़टकने लगती हैं
जिसमें अब पल रहा होता है
उसकी छोटी बहन के शादी का ख्वाब….
 
तलाक माँगती औरतें 
बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है
गाँव का कुआँ  सुनता है रोज
उनके बदचलन होने की अफवाहें
जब वे मायके आती हैं
वातावरण में एक भारीपन- सा आता है
जैसे अभी-अभी घर की खिलखिलाहट को
किसी ने बुहारकर  कोने में रख दिया हो
 
तलाक माँगती औरतें किसी घटना की तरह
चर्चा का विषय बनाकर
उछाली जाती है  कई-कई दिनों तक
तलाक माँगती औरतें बिल्कुल 
अच्छी नहीं लगती हैं
दो घरों के बीच पिसती रहती हैं
मायके  में कंकड़ की तरह बीनी जाती हैं
 
और एक दिन,
अपना बोरिया-बिस्तर बांध
किसी अनजान शहर में जा बैठती है
और जोड़ देती है अपने टूटे पंखों को
दरवाजे पर चढ़ा देती हैं अपने नाम का तख्ता
आग में डाल देती हैं उन तानों को
जो कभी दो वक्त की रोटी के साथ मिला करते थे
चढ़ा देती है चूल्हे पर नमक अपने पसीने का
और ये औरतें इस तलाक शब्द को
खुद की तलाश में मुक्कमल कर देती हैं…… 

………………………..

किताबें

………………………..

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200
Warning: session_start(): open(/var/lib/lsphp/session/lsphp82/sess_gcc0orc48crgmce1vuoj4f093m, O_RDWR) failed: No space left on device (28) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/lib/lsphp/session/lsphp82) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143
ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş