Monday, September 15, 2025
सरोज सिंह
 नैनीताल से भूगोल विषय से स्नातकोत्तर एवं बी एड l गाज़ियाबाद (सीआईएसऍफ़)”के परिवार  कल्याण की सयुंक्त सचिव के तौर पर कार्यअनुभव  l अवितोको रूम थियेटर, लखनऊ कीसंचालिका ।
 
स्वतंत्र लेखन (कविता ,कहानी ,आलेख लेखन (हिंदी ,भोजपुरी एवं बंगला कविताओं का अनुवाद) ।यमुना नदी संरक्षण एवं एसिड अटैक पर नृत्य नाटिका,सफाई अभियान महिला सशक्तिकरण पर नुक्कड़ नाटक का लेखन एवं मंचन l  हिंदी काव्य संग्रह “तुम तो आकाश हो” प्रकाशित l “स्त्री होकर सवाल करती है” “सुनो समय जो कहता है” एवं “कविता प्रसंग” में साझा हिंदी काव्य संग्रह में कविता प्रकाशित l भोजपुरी मैथिली अकादमी(दिल्ली ) द्वारा कहानी संग्रह”तेतरी” प्रकाशित l2020 में भोजपुरी काव्य संग्रह “मनवा के बात “प्रकाशित ।2022 मे “हम विरांगना बोलsतानी”(बांग्ला कहानी के भोजपुरी अनुवाद) प्रकाशित एवं  भोजपुरी काव्य सम्मेलनों में प्रस्तुति ।“ 
गंतव्य संस्थान दिल्ली द्वारा २०१८ के “राष्ट्रीय स्त्री शक्ति” अवार्ड से सम्मानित l 
 
भोजपुरी कहानी संग्रह “तेतरी” के 2018 के “पंडित धरिछ्न मिश्रा सम्मान प्राप्त ।

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कविताएं

मैं बाट जोहूँ सूर्य का

दिवस के अवसान में 
घिरती घटायें घन सी 
घटायें घन सी 
छेड़ती है तार तन की
विरह का कोई गीत गाऊँ 
साँझ का दीया जलाऊँ 
बुझे मन के दलान में
 
काल के मध्याह्न में 
तृष्णायें हर क्षण सताती 
कामनाएं कुनमुनाती 
बांचता है ज्ञान अपना 
योग का मन-मनीषी 
मोह के उद्यान में
 
ह्रदय के सिवान में 
प्रेम का जो धान रोपा 
नेह के न बरसे बादल 
नियति ने परोसे हलाहल 
भाग्य बैरी सोया रहा 
दुर्भाग्य के मचान में
 
निराशा के मसान में …
चिंता चिताओं सी जल रही        
जिजीविषा हाथ मल रही 
अँधियारा जो छंटता नहीं 
मैं बाट जोहूँ सूर्य का 
आशा के नव-विहान में !!
 
सिवान =खेत

तुम तो आकाश हो"

नेह के नीले एकांत में 
क्षितिज की सुनहरी पगडंडी पर 
चलते हुए…..
तुम्हारे होने या ना होने को 
सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच 
कभी विभक्त नहीं कर पायी  !
 
जाने कब से 
धरती पर चली आ रही मैं 
इस ज्ञान से परे, कि
तुम अपनी छ्त्रछाया में 
संरक्षित करते आये हो मुझे !
 
अपनी थाली में परोसते रहे 
मन भर अपनापन 
ना होते हुए भी तुम्हारे होने का 
आभास होता रहा मुझे !
 
ऋतुएँ संबंधों पर भी 
अपना असर दिखाती है शायद 
चटकती बिजली ने 
तुम्हारे सिवन को उधेड़ते हुए 
जो दरार डाली है 
 श्वेत दृष्टि अब श्यामल हो उठी है !
 
या तुम बहुत पास हो 
या कि बहुत दूर
पर वहां नहीं हो जहाँ मैं हूँ 
संबंधों पर ठण्ड की आमद से 
सूरज भी अधिक देर तक नहीं टिकता !
 
ऐसे अँधेरे से घबराकर मैं 
स्मृतियों की राख में दबी 
चिंगारियों को उँगलियों से 
अलग कर रही हूँ 
किन्तु उससे रौशनी नहीं होती 
बल्कि उंगलियाँ जलतीं है !
 
तुम्हे दस्तक देना चाहती हूँ 
पर तुम तो आकाश हो ना 
कोई पट-द्वार नहीं तुम्हारा
बोलो….तो कहाँ दस्तक दूं?
जो तुम सुन पाओ !!

गृहस्थी की कांवर

परिणय मंडप में धरे गए दो कलशों में 
बराबर ,भरे गए मधुर संबंधों के सभी तत्व 
प्रेम, मैत्री, स्नेह और विश्वास 
और इससे तैयार हुई,गृहस्थी की कांवर 
 
यात्रारंभ में जब कंधे की बारी आई 
तुम्हारे अहम् ने ………..
उसे अपने कंधे पर रखना स्वीकारा 
मैं पथगामिनी ,तुम्हारी सहचर 
साथ चलना बदा था 
सभी ऋतुओं अवरोधों को पार करते 
शिवालय तक !!
प्रारंभ, सूर्योदय की स्निग्ध लालिमा लिए 
थकन से दूर ,वानस्पतिक सम्पदा से पूर्ण 
उत्सव से भरा अरण्य था !
 
चलते समय ……….
आगे के घट का छलकना तुम्हे दिखता था 
पीछे का घट ,जो मेरा था 
जाने कितनी बार छलका 
किन्तु ,वह अदीख था तुम्हारे लिए 
जितना छलकती 
तापस भूमि पर पड़ते ही ,वाष्पित  हो जाती 
और मेघ बन तुम्हारे शुष्क अधरों पर बरस जाती 
और नेत्र कोरों के जल के आशय से 
उस घट को पुन: भर देती 
कारण, कांवर में 
 
दोनों घटों में संतुलन आवश्यक था !
वर्षा ऋतु में जल से भरे मार्ग में 
जाने कितनी बार पाँव फिसला तुम्हारा 
हर बार कांवर के साथ साथ 
तुम्हे संभालते हुए मैं स्वयं आहत हो जाती !
शीत ऋतु में ,तुम्हारे ठिठुरते देह पर 
अग्रहायणी की प्रातः धूप सी 
तुम्हारे देह पर पसर जाती !
तुम्हारे नंगे पाँव आहत न हों इसलिए 
कंटीले मार्ग पर 
पतझड़ की मरमरी पत्तियों सी
मार्ग पर बिछ जाती !
किन्तु इन सब से अनभिग्य 
तुम यदा कदा विस्मृत भी हो जाते हो कि
साथ तुम्हारे मैं भी हूँ ……..!
जीवन के इस पड़ाव पर 
तुम्हारे मुख पर सूर्यास्त सा मलिन भाव 
नहीं देखा जाता ,
यह कांवर तुम्हे बोझ न प्रतीत हो 
अतः कुछ देर को,यह मुझे दे सकते हो 
किन्तु ओह्ह !! तुम्हारा अहम् !!
 
प्रिय ,देखो शिवालय की घंटियाँ 
सुनाई दे रही हैं !
तुमने अबतक ……..
अपने पुरुषत्व को, मेरे स्त्रीत्व से मिलाया है
क्या ही अच्छा हो कि ……
तुम अपने भीतर के छिपे स्त्रीत्व को
मेरे भीतर के छिपे पुरुषत्व से मिला दो 
क्योंकि,शिवालय में बैठे उस अर्धनारीश्वर को 
यह जलाभिषेक, तभी पूर्ण एवं सफल होगा !!

पगली

ट्रेफिक सिग्नल पर आज
इक नया चेहरा दिखा
हाल थे बेहाल, उलझे थे बाल
उम्र होगी लगभग चौदह-पन्द्रह साल
आस-पास के लोग उसे पगली-पगली बुला रहे थे..
कौतुहल-वश आज इस नए चेहरे से
बात करने का जी हुआ
गाड़ी किनारे लगाकर, उसे पास बुलाकर 
मैंने पूछा…सुन कहाँ से आई है ?
उसने बेपरवही से कहा
अपने गाँव से ……
क्या नाम है तेरा?
सुन ना रही..? सब पगली बुला रहे हैं?
अच्छा.. उम्र क्या है तेरी ?
क्या पता ?माँ होती तो बताती
सुना है उन दिनों गंगा जी में बाढ़ आयी थी
घर, जमीन, खेत सब के सब बह गया था
इस माने.. बाढ़ मेरी जन्म तिथि हुई
बाप कौन है तेरा ?
क्या पता.. माँ कहती थी गरीबन के बाप हेरा जाते हैं..
कोई कहता है.. बाप हरामी था
माई की जिनगी बर्बाद कर के भाग गया
माई हमेशा कहती..  शिव जी की कृपा से
 तुझे पाया …सो शिव जी मेरे बाप हुए
अच्छा ! तेरा कोई संगी साथी है क्या?
संगी साथी माने ?
 
जो आस पास घुरियाते रहता है ?
चूड़ी, बिंदी ,काजल मेला से मोल देता है
मीठी-मीठी बातें करता  दिन दुपहरिया
और देह से कपड़े उतारे रात अन्हरिया ?
ये तो राजू काका किये कई बार
तो संगी साथी कहूँ उन्ही को इ बार ?
मुझे आगे कुछ पूछना सुझा ही नहीं
वो गाड़ी के शीशे में अपना मुंह निहारने लगी
सवाल बदलते हुए मैंने फिर पूछा ?
तुझे क्या लगता है तू सुन्दर है ?
हम्म… सुन्दरता का है हम ना जानी
जवानी में तो कुकुरिया भी रानी
रूप है जदि हाड-मांस
तो हम भी सुन्दर हुए खासम ख़ास
अच्छा तेरा जात धर्म क्या है?
हम लोग का क्या जात धरम?
सलमा कहती है……
धरम आदमी बनाता है
सांझ को जब वो पास आता है
तू हिन्दू की मुसलमान ये नहीं बुझता  है
कितने में चलोगी ? बस ये पूछता है
बिछौना देह और धर्म को मिलाता है
सबकुछ इस देह से ही तो है ?
तो धरम माने  देह ,देह माने धरम
सुन कर मैं सन्न रह गई
उसका हाथ पकड़कर कहा..
चल  तुझे वाज़िब जगह ले जाएँ
जहाँ तेरी ज़िन्दगी संवर जाये..
सामने महिला सुधार गृह का गेट देखते ही
वो हाथ छुड़ाकर भागने लगी
बोली ..ये कौन सी जगह ले आई?
बड़ी मुश्किल से तो यहाँ से भाग आई
वहां भी बोटी के बदले रोटी थी
यहाँ भी बोटी के बदले रोटी है
बाहर ये  पगली  आज़ाद तो है ?
कहकर वो बेहयाई से हँसते हुए भाग गई।

ज़ारबंद

थाने मे …
बेंच के कोने पर
ज़ख्म से बेज़ार
गठरी बनी घायल लड़की
सिकुड़ी,सहमीत सिसकती है
घूरती नज़रें उसके ज़ख्मों को
और भी गहरा कर देती हैं
उसकी माँ बौख़लाई सी
उनके, कब, कहाँ, कितने, कैसे
जैसे सवालों का
जवाब देती हुई, दर्ज़ करा देती है
उन दरिंदों के ख़िलाफ़
ऍफ़ आई आर !
 
अस्पताल के ….
जनाना जनरल वार्ड में
मुश्किल से बेड मयस्सर हुआ है
वार्ड बॉय, नर्स और मरीज़ों में
फुसफुसाहट जारी है
एक के बाद एक डाक्टर
जिस्म के ज़ख्मों का
अपने-अपने तरीके
से जांच करता हैं
मन का जख्म
जो बेहद गहरा है
वो किसी को नहीं दिखता
और इस तरह
तैयार हो जाती है
बलात्कार की
मेडिकल रिपोर्ट !
 
अदालत में …
अभियोगी वकील बे-मुरउव्वत हो
उससे सवाल पर सवाल दागता है
कब, कहाँ, कितने, कैसे
वो घबराहट और शर्म से
बेज़ुबान हो जाती है
जवाब आंसुओं में मिलता है
उसका वकील
उसके आँसू पोंछते हुए कहता है
जनाब-ए-आली ये सवाल ग़ैर-ज़रूरी है
अदालत वकील पर एतराज़ कर
उसके आँसू खारिज़ कर देता है
आँसू रिकॉर्ड-रूम में चले जाते हैं
हर पेशी तक उसकी माँ
उम्मीद का एक शॉल बुन लेती है 
और अदालत बर्ख़ास्त होने तलक़
वो तार-तार उधड़ जाता है

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