Tuesday, May 14, 2024
......................
डॉ विभा सिंह : अंबेडकर यूनिवर्सिटी से धर्मवीर भारती के साहित्य पर पीएचडी
: दिल्ली यूनिवर्सिटी ( लेडी श्रीराम कॉलेज ) से बी. ए. ( ऑनर्स), एम. ए. (लेडी श्रीराम कॉलेज)
: फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा
: प्रकृति से ,कला से ,साहित्य से प्रेम।

………………..

कविताएं

लीडर का निर्माता

सजा है
रेशम के पर्दों से ड्राइंग रूम
सोडे से, फिनाइल से,
और गरम पानी से
धुल रहे बाथरूम।
टॉवेल रूँए का हाथ में
लांड्री-धुला, गोरा—
कोठी से निकल रहा बैरा।
चपरासी कसे बेल्ट,
सेक्रेटरी लिए डायरी,
गेट पर कार खड़ी,
लोगों को इंतज़ार—
कौन आ रहा?
लीडर आ रहा!
कौन है जा रहा?
सड़ी है गली टपरे-सी
टपरा सड़ा है घूरे-सा,
बंबा है पानी का
घर से बहुत दूर;
टूटे घड़े हाथ में
काई चढ़े।
निकल रही छिपकली-सी
लड़की दरवाज़े से;
गली का पिल्ला बन
फिर रहा बच्चा
लिए ख़ाली बोतल
मट्टी के तेल की।
कूड़े-से भरी गाड़ी
खड़ी है गली के बीच
भंगी का इंतज़ार
गंदगी का संसार।
जिसमें है बोल रहा
मौत के सिग्नल-सा
भोंपू दूर मील का
भूखा ही
कौन है जा रहा?

लीडर का निर्माता! (चाँदनी चूनर,पृष्ठ - 62)

यद्यपि यह कविता वर्षों पहले लिखी गई थी किंतु आज भी एक जन सामान्य के मन में लीडर( नेता) की लगभग यही छवि बनती है जिसकी अभिव्यक्ति शकुंत जी ने अपनी इस कविता में किया है।सामान्य बातचीत में अंग्रेजी के जिन शब्दों का प्रयोग हम हिंदी में कर कर लेते हैं उनका सहज प्रयोग इस कविता में उन्होंने किया है –‘टावल,’ ‘सेक्रेटरी ‘, ‘बेल्ट ‘आदि।
अपने जीवन में स्वाधीनता की लड़ाई को उन्होंने निकट से देखा था। अपने दादी के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया। गाँधी जी के आह्वान पे अपने आभूषण उतार कर दिये। वहीं से उनके मन में देशभक्ति की भावना जगी, जिसकी प्रेरणा उनकी दादी रहीं। यही कारण है कि स्वान्तः सुखाय रचनाएँ बाद में सामाजिक प्रक्रिया के रूप में मुखरित हो उठी। ‘ चाँदनी चूनर ‘ में एक कविता दादी को याद करते हुए भी है — ” दादी “

अमावस रात
हल्के तारों की उजियाली में
नए खिलौने
दिवाली सी दादी को
घेर घार कर बैठ गए
कहो कहानी…(चाँदनी चूनर, पृष्ठ — 24)
वे एक कवयित्री थी, ममतामयी माँ थी, कर्तव्यनिष्ठ पत्नी थीं परन्तु नारी का सुख केवल उसकी घर-गृहस्थी तक ही सीमित है, ऐसा वे नहीं मानती थीं। एक इंसान के रूप में व्यक्ति का मानसिक विकास उसकी संतुष्टि, जिस भी कार्य में वह पाता है, उसकी तरफदार थीं वे।
उनकी कविताओं का संग्रह-चाँदनी चूनर ;1960 ” अभी और कुछ ;1966 ‘लहर नहीं टूटेगी’ ;1961 प्रकाशित कविता-संग्रह है। उनकी कविताओं के अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, पोलिश तथा अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। पहले ही काव्य-संग्रह ‘चाँदनी चूनर की भूमिका पंत जी ने लिखी थी।
‘ लहर नहीं टूटेगी ‘ की भूमिका में पंत जी लिखते हैं ” श्रीमती शकुंत माथुर नई कविता की पहली कवयित्री हैं जिन्होंने सामाजिक कथ्य की अभिव्यक्ति के लिए सबसे पहले घरेलू,सहज जनभाषा में फ्रीवर्स(छंद -मुक्त ) का प्रयोग किया। उन्होंने निकटतम,सामाजिक एवं पारिवारिक संवेदना को सरल और ताज़गी भरी अभिव्यक्ति दी।ऐसी ही अछूती भावभूमि को उद्घाटित करने वाली रचनाओं से उनकी मौलिक पहचान हुई।
…आधुनिक भारतीय जीवन को केंद्र में रखकर वृहत्तर सामाजिक यथार्थ,समकालीन राजनीतिक चेतना,वास्तविक जीवन के आनंद,संघर्ष, दुःख,संताप और सूक्षतम मनोभावों को नारी मन की सहजता के साथ मार्मिक वाणी दी है।”

जब मैं थका हुआ घर आऊँ

जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो।
चाहे दिन भर बहें पसीने
कितने भी हों कपड़े सीने
बच्चा भी रोता हो गीला
आलू भी हो आधा छीला
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो
सब तूफ़ान रुके हों घर के
मुझको देखो आँखें भर के
ना जूड़े में फूल सजाए
ना तितली से वसन, न नखरे
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो
अधलेटी हो तुम सोफ़े पर
फॉरेन मैगज़ीन पढ़ती हो
शीशे सा घर साफ़ पड़ा हो
आहट पर चौंकी पड़ती हो
तुम कविता मत लिखो सलोनी,
मैं काफी हूँ, तुम प्रियतर हो
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो।

ज़िन्दगी का बोझ

भारी है जीवन
झूठे बोझों से
जो नहीं छूते हैं
ज़रा भी जीवन ।
पीठ पर लादे वह
जब थक जाता है
हाथों को पाँवों को
छोड़ बैठ जाता है ।
बिस्तर को फेंक
बीच प्लेटफ़ॉर्म
मुँह बेरुखी से
घूमता है वहाँ ।
किन्तु यह जीवन है
घड़ी की सुई भी
कोल्हू का बैल
प्रतिदिन चलता है ।
भागता शौक़ से
स्टेशन पर कुली
ढोता है बोझा
ढोता है शक्ति-भर
पसीना पोंछता
कोई भाव भीतरी
मुख पर न लाता ।
गन्दा नहीं जीवन
सुन्दर है पहलू
पुर्ज़ा एक बनता
भारी मशीन का ।
दौड़ का है वक़्त
भूमि में तीव्रता
देशों में तनाव
नर में खिंचाव है ।
रेल के डिब्बे में
छोटे में छोटा
बड़े में बड़ा है
मानवों में भेद ।
एक कश खींचता है
सिगरेट दाबकर
छोटे से कहता :
‘गेट डाउन डैम’।
भिड़े हैं मुसाफ़िर
जमघट इकट्ठा है
प्लेटफ़ार्म भरा
दौड़ का है वक़्त ।
चला जा रहा
हिन्दी साहित्य
रेल में बैठ
दौड़ती कहानी
क्वाँरियों-सी
घिसटे लेख भी
पंगु-से, झोली फटी, टुकड़े बिखर रहे ।
आलोचनाएँ सो रहीं
बेफ़िकर
परवाह नहीं
है सीट तो रिज़र्व ।
दौड़ते हैं क्या
कभी चीट भी
बरसाती वक़्त है
मिश्री का कूज़ा
पास में पड़ा है
छूते हैं कूज़ा
हटते हैं छूते
होते हैं ख़ुश फिर
घूम-घूम दाएँ
अगल-बग़ल लिपटे
मिश्री के
कूज़े पर
कवि-जन प्यारे ।

केसर रँग रँगे आँगन

केसर रँग रँगे आँगन गृह -गृह के
टेसू के फूलों से पीले
भीतों पर रँग पड़े दिख रहे
चित्र छपे ज्यों सुन्दर – सुन्दर
ऊँचे ढेर लगे काँसे की थालियों में
लाल हरे पीले गुलाल के।
धूम मचाती होली आई
सखि, डालें कलसी भर जल की
धार बहाएँ सिर से कटि तक
भीज गए बारीक वसन सब
जिनसे निकले गोरे तन की आभा हलकी।
सुन्दरियों के गोल बदन
लिपटे गुलाल से
ज्यों सूरज पर सन्ध्या – बादल
ज़ोर जमा खींचे पिचकारी
मुरकी जाए नरम कलाई
छोड़ फुहारें रँग सब डालें
बजें चूड़ियाँ
फिसले साड़ी
मसल गए रँग
मसल गए तन
मसक गई अब मूठी गोरी
किरण उतरकर नभ से आई
आज खेलने को ज्यों होरी।
उड़ आया मद भरा समीरण
उड़े हरे पीले गुलाल सँग
केसर रँग रँगे हैं आँगन
टेसू के फूलों से पीले।

जान-बूझकर नहीं जानती

आज मुझे लगता संसार ख़ुशी में डूबा
क्यों?
जान – बूझकर नहीं जानती।
आज मुझे लगता संसार ख़ुशी में डूबा —
माँ ने पाया अपना धन ज्यों
बहुत दिनों में खोया,
बहुत बड़ी क्वाँरी लड़की को सुघर मिला
हो दूल्हा,
मैल भरी दीवारों पर राजों ने फेरा चूना,
किसी भिखारिन के घर में; बहुत दिनों के
पीछे, मन्द जला हो चूल्हा।
बूढ़े की काया में फिर से एक बार
यौवन हो कूदा।
पकड़ गया था चोर अकेला कूचे में जो
किसी तरह वह कारागृह से छूट गया हो,
या कि अचानक किसी वियोगिन का पति
लौटा
उसी तरह
आज मुझे लगता संसार ख़ुशी में डूबा
क्यों?
जान – बूझकर
नहीं जानती।

इतनी रात गए

हौले-हौले की पद-चाप
दबी पवन के साथ सुनाई पड़ती
तंद्रिल अलकों का अटकाव
सुलझना फिर-फिर साफ़ सुनाई पड़ता
चुप सोई इस नई चमेली के नीचे
नूपुर किसके मंद लजीले बज उठते है
इतनी रात गए!
गहरी ख़ुशबू केसर की
बढ़ी हुई मेहँदी के नीचे फैल रही है
पीला पड़ कर सूरज नीचे उतर रहा है
या सहमा-सा चाँद उतर कर
उलझ गया है
फलों के झुरमुट में।

ताज़ा पानी

धरा पर गंध फैली है
हवा में साँस भारी है,
रमक उस गंध की है
जो सड़ाती मानवों को
बंद जेलों में।
सुबह में
साँझ में है
घुल रहा
यह रक्त का सूरज
उतरती धूप खेतों में
जलाती आग वन-पौधे,
खड़े जो गेहूँ के पौधे
बने भाले पके बरछे।
नहीं है झूमती बालें,
खड़ी हैं चुप बनी लपटें
जला देने को छप्पर वे
उतर जाने को सीने में
ग़रीबों के
किसानों के।
सड़ी झीलों से उड़ते आज
लोभी मांस के बगले,
दबाए चोंच में मछली,
वहीं बैठे हुए हैं गिद्ध
रहे हैं घूर
मछली को
गिरी जो
चोंच से मछली
लगाए घात बैठे हैं
लगाए दाँव बैठे हैं।
डुबाता गंदी झीलें
बढ़ रहा है
आज यह चश्मा
लिए ताज़ा नया पानी
चला आता है
यह चश्मा
उगाता है शहीदों को
किनारे पर बढ़ाता है
नए ख़ूँ को
सदा आगे,
डुबाता आ रहा है
वह विषैले रक्त के जोहड़
लिए ताज़ा नया पानी
चला आता है यह चश्मा
नया मानस लगाता आ रहा है
नया सूरज बनाता आ रहा है।
 

………………..

error: Content is protected !!