नाम – डॉ0 शुभा श्रीवास्तव
जन्म स्थान – वाराणसी, उत्तर प्रदेश
शिक्षा- बी0 एड0, पीएच0 डी0
प्रकाशन विवरण- *आजकल, मधुमती, उत्तर प्रदेश पत्रिका, परिंदे, परिकथा, पाखी, लमही, कथादेश, दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान, जनसंदेश टाइम्स जैसे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में 100 से अधिक लेख, कविता, कहानी प्रकाशित।
*हस्ताक्षर पत्रिका में “आधी आबादी : पूरा इतिहास” नामक स्थायी लेख कॉलम का लेखन।
*दूरदर्शन, आकाशवाणी पर काव्य पाठ
*प्रेमचंद पथ पत्रिका का फणीश्वर नाथ रेणु, शकुंत माथुर, चंद्रकिरण सौनरेक्सा,अमृतराय, प्रेमाश्रम विशेषांक का संपादन
*उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 6, 7, 8 की हिंदी की पुस्तकों के संपादन मंडल में सम्मानित सदस्य
पुस्तक प्रकाशन
1.असाध्य वीणा: एक मूल्यांकन (आलोचना)
- हिंदी शिक्षण (बी. टी. सी. के पाठ्यक्रम पर आधारित पुस्तक)
- उषा प्रियंवदा का कथा साहित्य: वस्तु एवं शिल्प (आलोचना)
4.पुस्तक संसृति (आलोचना)
- छायावाद संस्मृति एवं पुनर पाठ-संपादक सुप्रिया सिंह(पुस्तक में लेख सम्मिलित)
- सौ साल बाद छायावाद -संपादक राकेशरेणु (प्रकाशन विभाग दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक में लेख सम्मिलित)
- प्रारब्ध कविता संग्रह
- पाठक की लाठी (साझा कहानी संग्रह)
- नव काव्यांजलि (साझा कविता संग्रह)
- साहित्य के युगीन हस्ताक्षर (आलोचना) प्रकाशनाधीन।
- हिंदी साहित्य की आधी आबादी पूरा इतिहास पुस्तक (प्रकाशनाधीन)
पुरस्कार विवरण
- मां धनपति देवी स्मृति तथा सम्मान
- लोक चेतना संस्था द्वारा प्रदत जवन का मंगल सम्मान
- कायस्थ कल्याण समिति द्वारा चित्रगुप्त सम्मान लघु नाटक के क्षेत्र में
- प्रेमचंद मार्गदर्शन केंद्र द्वारा प्रेमचंद पत्र रत्न सम्मान
- सुबह ए बनारस द्वारा काव्य मंजरी सम्मान
- सेंट सैंट क्लारेट कॉलेज द्वारा विशिष्ट सम्मान
- हिंदी भाषा डॉट कॉम द्वारा विशिष्ट भाषा नागरिक सम्मान
- बुद्धिजीवी घुमक्कड़ मंच द्वारा काशी गौरव अलंकरण सम्मान
संप्रति – राजकीय क्वींस कॉलेज में प्रवक्ता
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रचनाएं
स्त्री
तुम पढ़ते हो मुझे सिर्फ किताबों में
तुम गढ़ते हो मुझे सिर्फ दूसरे के प्रतिमानों में
सुना तुमने सिर्फ महरिन को डाँटना
और ऑफिस की किचकिच
लिखा देखा सिर्फ बच्चों की नोटबुक
कभी जो पढ़ लेते तुम मुझे तो
शायद आज मैं स्त्री होती
तुम पढ़ते हो मुझे सिर्फ शायरी और शेरो में
तुम गढ़ते हो मुझे सिर्फ फेसबुक के स्लोगन में
सुना तुमने सिर्फ समाज के ठेकेदारों को
और कुछ निकृष्ट सोच और बातें
लिखा देखा सिर्फ अखबारों का सच
कभी जो पढ़ लेते तुम मुझे तो
शायद आज मैं स्त्री होती
तुम बाँटते हो मुझे सिर्फ रिश्तों की चौखट में
तुम गढ़ते हो मेरी आजादी सिर्फ अपने साँचों में
कहा सिर्फ तुमने अपनी दी सौगातें
कभी जो गढ़ लेते तुम मुझे तो
शायद आज मैं स्त्री होती
आजादी
जब भाषा नहीं थी
तब भी स्त्री थी
तब भी प्रेम था
तब तब न थे विकराल शब्द
जो बताते हैं बार-बार
हां तुम स्त्री हो
तुम्हें कुछ कहना है तो
कुछ शब्द तुम्हारे लिए बने हैं
दूसरे शब्दों को छूना मना है
वह तुम्हारे लिए नहीं
पुरुष के लिए बने हैं
जैसे पिंडदान, लिंग आदि
पर पुरुष हर शब्द से खेलते हैं
और स्त्री देह छूने की
उन्हें आजादी है
हमें शब्दों को भी छूने की
आजादी नहीं है
समाजवाद
कुछ राष्ट्रवाद
कुछ समाजवाद
यह शब्द है जो गूँजते है
किसानो और मजदूरों में
अपना अस्तित्व खोजते है
वादों की फेहरिस्त में
आशाओं के ढेर मे
भविष्य टोहते हैं
किताबे देखी हैं पढ़ी हैं
जो लिखा है वो दिखता नही
जो दिखता है वो सुधरता नही
पर शब्द अच्छे हैं
भावनाओं की तरह
मगर प्रश्न निरुत्तर
यह राष्ट्रवाद क्या है
यह समाजवाद क्या है
क्या उसे कभी हम देख पाएंगे
बलात्कार के बाद - स्त्री
कैसा लगता तुम्हे
जब तुम्हारी मर्जी के बगैर
तुम्हे नोच कर खाता
क्या कभी अहसास हुआ नही
कि जिसे तुम नोचते हो बरबस
वहीं दूध की धारा ने
तुम्हे इंसान बनाया
पर शायद,
अब पुरुष ने छोड़ दिया है सोचना
हो भी क्यों न
निभाना तो स्त्री धर्म बताया और सिखाया है
इसलिये सोचती हूँ आज
कभी गर्भ मे आने पर तुम्हारे
होती थी मिचली और कै
आज फिर होती मिचली और कै
यह सोचकर कि मैंने
इंसान नहीं पुरूष को जना है
कलम
कलम यहाँ बोलती है, कोई सुन नही पाता है
हुआ क्या यह देश, अन्यायी भाग्य विधाता हैं
सोती है फाईलों में लाशें, न्याय मिल नही पाता है
हुआ क्या यह देश, बस अखबार छप जाता है
कलम यहाँ बोलती है, कोई सुन नही पाता है
लहू का रंग सफेद दिखे,किसान आत्महंता बन जाता है
हुआ क्या यह देश, राजनीतिक बिसात बिछाता है
कलम यहाँ बोलती है, कोई सुन नही पाता है
चिंता करें बोटी या रोटी की, अहसास शून्य हो जाता है
हुआ क्या यह देश, स्त्री को दामिनी बनाता है
कलम यहाँ बोलती है, कोई सुन नही पाता है
स्त्री
उजलों की कद्र मुझसे बेहतर कौन जानेगा
गुमसुम स्याह रातों में ज़िंदगी बिताया है
घर का मतलब तुमने गढ़ी सिर्फ दहलीजें
मैंने तो बस ख्वाबों में अपना घर बसाया है
हुस्न की अदाएं ढूँढते हो गैर गलियों में
फ़र्ज का श्रृंगार तो तुमने ही सिखाया है
प्रेम, संवेदना, निश्छलता सब शब्दों का खेल है
सब सामने आते है तब, जब शरीर छुपाया है
शरीर की अहमियत मुझे कैसे न मालूम होगी
कुँआरे मन छोड़ सदा, शरीर को धिक्कारा है
उजलों की कद्र मुझसे बेहतर कौन जानेगा
गुमसुम स्याह रातों में ज़िंदगी बिताया है
लड़कियां
किसी ने कहा
आजादी इस ब्रह्मांड का
सबसे लोकप्रिय शब्द है
पर इस शब्द के
अर्थ तलाशती हैं लड़कियां
किताबों में जो लिखा है
वह दिखता नहीं
फिर भी कल्पना में उड़ाने
भरती है लड़कियां
एक बर्फ जमी है
भीतर की कभी बदलेगी बेड़ियां
बेड़ियों को श्रम से
तोड़ने में लगी है लड़कियां
इस ब्रह्मांड की ही
एक सर्जना है लड़कियां
ब्रह्मांड के सबसे लोकप्रिय शब्द को
तलाश रहीं है लड़कियां
वृक्ष और स्त्री
है शक्ति मुझमें
जीवन बीज को भीतर रखना
परतें तोड़ अन्याय की
अंकुरित कर स्वयं बढ़ना
पौरूष पत्थरों से हो आहत
मनचले पवनों से कर डिठोली
जड़ से धरा को गहे रखना
पर हो विवश
अपने बीज को
गर्भ मे ही घोंटना
और सिसक सिसक
जीर्ण पत्तों सी टूटना
यह भूल न कर
है शक्ति मुझमे(तुझमे)
एक को अनेक करना
जीवन बीज भीतर रखना
हे ईश्वर
हे ईश्वर, मालिक सुनना जरा
तुझे ढूँढने जा रही हूँ मैं
तेरी पहचान बना रही हूँ मैं
मिलेगा तू कुरान में, या वेदों के व्याख्यान में
अभी बाईबिल की धूल हटा रही हूँ मैं
तुझे ढूँढने जा रही हूँ मैं
तेरी पहचान बना रही हूँ मैं
सज़दा करने से मिलेगा तू, या हाथ जोड़ के मिलेगा तू
अभी शिखा बढ़ा पगड़ी बना रही हूँ मैं
तुझे ढूँढने जा रही हूँ मैं
तेरी पहचान बना रही हूँ मैं
मंदिर पोछे और मस्जिद झाड़े
भजन किया और अज़ान पुकारे
अभी मिलन तान खोज रही हूँ मैं
तुझे ढूँढने जा रही हूँ मैं
तेरी पहचान बना रही हूँ मैं
कितने दुखियारों की आह सुनी
वह न गीत, कुरान दिखी
अभी मानव धर्म बना रही हूँ मैं
तुझे ढूँढने जा रही हूँ मैं
तेरी पहचान बना रही हूँ मैं
पत्नि के उद्गार शहीद के प्रति
मैं दुनिया की सारी उलाहना भूल जाती हूँ
मैं पैरों मे फिर से महावर को लगाती हूँ
छोड़ श्रृंगार वो मेरा केसरिया तान गाता है
उसी सलोने की अर्थी मैं कांधे पर सजाती हूँ
मैं दुनिया की सारी उलाहना भूल जाती हूँ
मुझे सिंदूर में दिखती तेरे बलिदान की रंगत
मैं बलिदान को तेरे, मेरे माथे पर सजाती हूँ
मैं दुनिया की सारी उलाहना भूल जाती हूँ
अभी लगी है हाथों मे, तेरे ही नाम की मेहंदी
मैं उसी गंध को अपने सासों में समाती हूँ
मैं उसकी खुशबू में तुझको जिंदा पाती हूँ
मैं दुनिया की सारी उलाहना भूल जाती हूँ
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