दिक् और काल की अन्तर्क्रीड़ा
(दो उपन्यासों के हवाले से)
सुमनिका सेठी
जीवन का यथार्थ कहिए या जीवन का सत्य, कल्पना एवं सौंदर्य से मंडित होकर जब किसी रूपाकार में ढलता है, तभी कलाकृति बनती है अन्यथा वह केवल अमूर्त कलाभावना मात्र है। बिना रूप के कला की रचना तो क्या परिकल्पना भी संभव नहीं। वास्तु, मूर्ति, चित्र जैसी दृश्य कलाओं में रूप जहां मूर्त, स्थिर या दृश्यात्मक होता है, वहीं काव्य-साहित्य और संगीत जैसी अमूर्त कलाओं में यह एक भीतरी संरचना होता है जिसे स्पेस या स्थान में नहीं समय में पकड़ना होता है। यहां विभिन्न अंग एक सम्पूर्णता में बंधे होते हैं। उनकी एक व्यवस्था होती है।
हम जानते हैं कि रूप और विषय-वस्तु को अविभाज्य माना जाता है। यह और बात है कि एक दूसरे का महत्व घटता बढ़ता रहता है। यह चुंबक के दो ध्रुवांतों की तरह हैं जो विपरीत होकर भी अलग नहीं। ये एक दूसरे से टकराते भी हैं, नुकसान भी करते हैं और जहां इनमें द्वंद्वात्मक एकता स्थापित होती है, वहीं कला की सिद्धि है।
रूसी रूपवाद से जुड़े चिंतक थे विक्टर श्क्लोव्स्की, जिन्होंने ‘कला बतौर तकनीक’ की धारणा पेश की। उन्होंने तकनीक में डीफैमिलीयराइजेशन या अपरिचयीकरण की बात की। इसी परंपरा में प्रकांड भाषा वैज्ञानिक रोमन याकोब्सन हुए जिन्होंने काव्यशास्त्र को भाषाशास्त्र के अंतर्गत माना। उन्होंने यह भी कहा कि भाषाई संरचना केवल वाचिक भाषा का विज्ञान नहीं, वरन संकेतशास्त्र या सिमियॉटिक्स का हिस्सा है। एक मूल संरचना के कारण ही कलाओं की आपसी तुलना संभव है। शब्द और संसार का आपसी रिश्ता केवल वाचिक नहीं, बल्कि तमाम तरह की प्रोक्तियों (डिस्कोर्सिस अथवा अर्थखंडों) से जुड़ा है। याकोब्सन ने भाषा के अनेक प्रकार्यों की चर्चा की। वस्तुभाषा और पराभाषा की चर्चा की तथा प्रोक्ति में मैटाफर (रूपक) और मैटानमी (लाक्षणिक धाराओं का फूटना और खुलना) के द्वंद्व के सिद्धांत को रखा। तो रूसी रूपवाद से होती हुई ‘कला के वस्तुगत विवेचन’ की यह परंपरा 1930 के प्राग स्कूल से होती हुई 1960-70 के पश्चिमी यूरोप के संरचनावादियों तक जाती है। दूसरी ओर इंगलैंड और अमरीका में इनके बरक्स आई ए रिचर्ड्स से डब्ल्यू के विमसैट तक ‘न्यू क्रिटिक्स’ थे। श्क्लोव्स्की ने काव्यभाषा और गद्यभाषा को अलगाया था जिसे रिचर्ड्स ने क्रमशः इमोटिव तथा रैफ्रेंशियल भाषा कहा।
गद्य की सबसे युवा विधा उपन्यास है। आधुनिक पूंजीवाद के दौर में जन्मी यह विधा जीवन फलक की विराटता और उसकी बढ़ती हुई जटिलता का सही प्रतिबिंबन कर पा सकी है। जॉर्ज थॉम्प्सन ने इसके रूप की तुलना सिंफनी संगीत से की है जो कि एक व्यक्ति की सांगीतिक परिकल्पना होकर भी ‘एक ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन है जिसमें लगभग सत्तर या अस्सी वादकों का अतिसंगठित समूह हिस्सा लेता है’। उपन्यास भी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है। इसमें जीवन के अनेक स्तरों, रूपों, स्वभावों, वृत्तियों के प्रतिनिधि पात्रों की ‘आवाजें’ सुनाई देती हैं। उनका आपसी तनाव, संवाद, खामोशी सब अंतर्ग्रथित रहती है। मिखाइल बाख्तिन (1895-1975) ने दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए उसे पोलिफोनिक (बहुस्वरीय) फिक्शन कहा जहां अनेक विचार बिंदु और अनेक कोणों पर खड़ी प्रोक्तियों की क्रीड़ा होती है। बाख्तिन ने बाद में यह पाया कि यह विशेषता उपन्यास का निजी चरित्र गुण है जो प्राचीन एवं मध्य युगीन लोक रूपों – पैरोडी, व्यंग्य रूपक तथा कार्निवाल से फूटा है। बाख्तिन ही थे जिन्होंने उपन्यास और कामेदी को काव्यशास्त्र के हाशिए से निकाल कर मध्य में केंद्रित किया था।
श्क्लोव्स्की कहते हैं कि कला मनुष्य में विशिष्ट प्रतीति (पर्सेप्शन) या अनुभव जगाना चाहती है, क्योंकि आमतौर पर हमारा संसार को देखना, सुनना, समझना सब कुछ एक आदत में बदल जाता है। वे इसे हैबिचुलाइजेशन कहते हैं जिससे हम चीजों के बारे में सूचना रखते हैं, उन्हें जानते हैं पर अपनी सम्पूर्णता में ‘देख’ नहीं पाते। वे कहते हैं, “तमाम कुछ और तमाम जीवन जैसे होकर भी नहीं है और कला इसीलिए है कि जीवन की इस अनुभूति को फिर से जिला दे… वस्तुओं का अनुभव जगाए और पत्थर को पथरीला बना दे।” अतः कला की सर्वप्रमुख तकनीक है, वस्तु को कुछ अपरिचित बना देना, रूप को कठिन बना देना ताकि हमारी पर्सेप्शन की गति दीर्घ हो जाए।
उपन्यास के विषय में रीज़ कहते हैं, “नाटक से भिन्न उपन्यासकार के पास अबाध समय होता है, चरित्रों, उनके दृश्यों और उनकी कथा कहने को। वह अपने दर्शन और राय को सीधे सीधे भी उसमें रख सकता है।” किस्सागोई या प्लेन नैरेटिव उपन्यास की सबसे सामान्य विधि है। आम तौर पर उपन्यासकार सर्वज्ञाता (ओम्नीसिएंट) दृष्टि रखता है और पात्रों के भीतर बाहर का वर्णन करता है। लेकिन यह तकनीक उपन्यास के उस ढांचे में नहीं समा पाती जहां किस्सागो कथा को उत्तम पुरुष शैली यानी ‘मैं’ के माध्यम से रखता है। उससे शिल्प ज्यादा यथार्थ और प्रामाणिक तो बनता है लेकिन दूसरे पात्रों में बहुत गहरे नहीं उतर पाता। दूसरे पात्रों के बाहरी इम्प्रैशन्स और व्यवहार के पैटर्न उभरते हैं जैसे चार्ल्स डिकन्स के ‘डेविड कॉपर फील्ड’ में। पात्रों के संवादों या पत्रों के जरिए भी कथाकार वर्णन करता है। आधुनिक उपन्यासकार जेम्स जॉयस तथा वर्जीनिया वुल्फ इन्टीरियर मोनोलोग या स्ट्रीम ऑफ कान्शियसनैस का इस्तेमाल करते रहे हैं। यह भौतिक समय के क्रम को तोड़कर चेतना के समय में जीने वाला उपन्यास होता है।
वास्तविक जीवन का प्रतिबिंब ही कला में होता है, यह मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की बहुत मूल स्थापना है। लेकिन जीवन का तो कोई ओर छोर ही नहीं। वास्तविक समय अपनी अजस्रता में बह रहा है, वास्तविक स्पेस, स्थान या दिक् भी विराट एवं अनंत है। कलाकार जो प्रातिबिंबिक संसार रचता है, उसमें समय और स्थान की अपनी सर्जना करता है। अजस्र और फैले हुए दिक्काल में वह किसी बिंदु पर खूंटा गाड़ता है और उसके इर्द गिर्द संसार रचता है। राजी सेठ के शब्दों में जैसे पटिया पर फैली हु आटे की लोई से हम छोटी छोटी गोल टिकियां काट लें।
दिक् एवं काल तो विज्ञान एवं दर्शन की मूल और महत् दार्शनिक धारणाएं हैं। लेकिन समय ने इन धारणओं को भी परिवर्तित किया है। न्यूटन के लिए समय और स्थान परम निरपेक्ष थे तो आइन्स्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत ने उसे देखने वाले की स्थिति के सापेक्ष बना दिया। क्वान्टम यांत्रिकी ने पदार्थ को ऊर्जा में बदल दिया। काल्पनिक समय की धारणा दी तथा समय के कम से कम तीन तीरों की बात की। ये धारणाएं एक ओर भौतिक हैं लेकिन साथ ही चेतना से जुड़कर ये कला की अंतर्वस्तु में पैठती हैं। इन धारणाओं का शिल्प में भी प्रयोग किया गया है। वास्तुकार अपने स्थान को बांटता है तो चित्रकार भी कैनवस की स्पेस का विभाजन तरह तरह से करता है। कहते हैं कि भारतीय वास्तुकला में वर्ग और गोलाकार दरअसल दिक् एवं काल (जो भारतीय संदर्भों में रैखिक न होकर चाक्रिक होता है) के प्रतिनिधि हैं।
ऐसा भी नहीं है कि समय और स्थान दो नितांत अलग-थलग और एकाकी सत्ताएं हों। देश का प्रभाव काल पर और काल का प्रभाव देश पर पड़ता है। ये दो धारणाएं रूप और अंतर्वस्तु की अंतःक्रीड़ा को जन्म देती हैं।
अब इस दृष्टि से दो चर्चित कथाकृतियों को समझने की कोशिश कर सकते हैं। एक है कृष्णा सोबती की ‘ऐ लड़की’ और दूसरी अलका सरावगी की ‘कलिकथा वाया बाईपास’। ये कृतियां आकार, रूप, भाषा के रचाव की दृष्टि से काफी भिन्न हैं। दोनों में समय और स्थान अपने अपने ढंग से क्रीड़ा करते हैं। ऐ लड़की में देश एवं काल की गतियां और शिफ्ट मानसिक ज्यादा है, भौतिक कम। घटनाविहीन, कहानीविहीन एक परिस्थिति उपन्यास में है जहां नायिका बूढ़ी अम्मू एडरेसर है, बीमार और निष्क्रिय पड़ी है। लेकिन अम्मू के अंतराकाश में अतीत, वर्तमान, मृत्यु (जो अभी आई नहीं) और मृत्यु के बाद का काल आता जाता रहता है। अपने बिस्तर और कमरे की चौहद्दी की सिकुड़े हुए भौतिक दिक् में अम्मू स्मृतियों के जरिए अनेक दिकों में घूमती है एवं समय और स्थानों को, उनके विभिन्न अनुभवों को पुनर्जीवित करती है।
यह रचना उपन्यास में सामान्य किस्सागोई के तत्व को सिरे से नकार कर लगभग ‘एकतरफा संवाद’ के शिल्प को अपनाती है। मृत्यु की प्रतीक्षा करती हुई बूढ़ी माँ निरंतर अपनी तीमारदार बेटी से मुखातिब है। बेटी जो एड्रेसी है, लेकिन इस संवाद में कभी हुंकारा भर तो कभी कोई छोटा सा प्रश्न, कभी आहत भाव, तो कभी गुस्से की तमतमाहट और कुल जमा माँ के प्रति गहरे सरोकार के रूप में उपस्थित है। यह एकालाप की ओर झुकता सा प्रारूप है। पर साथ ही ये सारी बातें केवल मृत्युशैया पर पड़े मरीज़ का एकांतिक प्रलाप नहीं। वे अपने जीवन भर के अनुभवों को बेटी के साथ बाँट रही है, उसे देना चाहती है। कहती भी है कि मेरे पास संपत्ति जायदात नहीं, केवल मंत्रणा है। अतः यह केवल एकालाप न रहकर अपनी मंशा में संवाद भी हो जाता है और एकालाप और संवाद का द्वंद्वात्मक रूप उभरता है।
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अब इस कृति के संदर्भ में देश एवं काल के मुद्दे पर लौटते हैं। माँ और बैटी के ये दो बीज पात्र खुद समय के दो आयाम हैं। समय यहां पात्र में ढल गया है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दो आयामों का एक दूसरे से द्वंद्वात्मक और आत्मिक रिश्ता है। दो व्यक्तित्व, मानो दो समय आपस में टकराते हैं, फिर जुड़ जाते हैं क्योंकि बेटी माँ की शाख से ही फूटी है, दूसरा समय पहले के भीतर से ही उपजा है।
भौतिक समय भी है जो दिन और रात में विभाजित है। अम्मू की सुबह की चाय, स्पॉन्ज इत्यादि सुबह से जुड़े हैं। लेकिन अम्मू की चेतना का जगना बुझना मानो उसके शरीर के दिन और रात हैं। अम्मू समय चक्र में ऋतु चक्र से भी जुड़ना चाहती है। महीने के नाम पूछती है। पूर्णमाशी की तिथि जानना और शहतूत का स्वाद चखना चाहती है। लेकिन इस भौतिक समय पर तो मानसिक समय अपनी चित्रकारी कर रहा है, सुपर इम्पोज़ीशन की तरह। खुद को अम्मू आज ‘प्राचीना’ कहती है, लेकिन फिर उभर आती है अठारह वर्ष की दुल्हन, पेड़ों के ‘छत्तर’ निहारने वाली बच्ची और एक ‘ताज़ी’ लड़की। “कहीं से ले तो आओ उस ताज़ी लड़की को… समय कैसे काल बन जाता है। एक दौर में सीढ़ियां चढ़ी जातीं हैं। दूसरी में उतरी जाती हैं।”
मृत्यु और मृत्यु के बाद का समय भविष्य का समय है जो चेतना में अम्मू के निकट खड़ा है। लेकिन मृत्यु के बाद की परिकल्पनाओं में कहीं भी परलोक की कोई मूर्त कल्पना या छवियां नहीं हैं। बस एक अंधकार सा है। अम्मू उसे छलावा कहती है। मृत्यु के बाद की परिकल्पना भी इसी दिक् और लोक की कल्पना है, इसी समय का विस्तार है, जिसमें वो तो नहीं होगी पर उसकी पुत्री होगी। और अम्मू उस वक्त में अपनी पुत्री के लिए अटकी हुई है और कई हिदायतें देती है। बेटी के एकाकी जीवन का बोध उसे सालता है और उसके संदेश दो ध्रुवांतों में बंट जाते हैं। एक ध्रुव पर वह बेटी के लिए परिवार और सुख की कामना करती है तो दूसरे पर पहुंच कर इसे पुत्री की शक्ति स्वीकार करती है। उससे आश्वस्त होती है और बचाए रखने की मंत्रणा देती है। इस तरह माँ, मां के समय से निकल कर बेटी के समय में चली आती है।
अतीत भी बंटा हुआ है जिसमें एक मायके का समय है तो दूसरा ससुराल का समय। यह स्थान का विभाजन भी है। बदले हुए समय और स्थान के बदले हुए दृश्य हैं। बदला हुआ संसार और अंतर्सबंध है। अतीत को वह पिछवाड़ा, तहखाना, गठरी, गोदाम कहती है। बुढ़ापा उसका वर्तमान है और मृत्यु और बेटी उस बिंदु से आगे उसका भविष्य। जीवन को उसने दूध के समय और चाय के समय में भी बांट रखा है। “मेरी उम्र के पहले अठारह बरस अलग निकाल दो। तब तो पीती रही दूध। उसके बाद दिन में चार प्यालों के हिसाब से… पता नहीं और कितने प्याले बाकी हैं। “
इसी तरह इस कथाकृति में कई तरह के दिक् उभरते हैं। भौतिक रूप से एक कमरे और एक बिस्तर का फलक है, बेहद सिकुड़ा हुआ। कमरे में खिड़की है जो अतीत के स्मृति संसार में खुलती है और एक दरवाज़ा है जिसकी दहलीज़ से पार जाना इस लोक से निकल कर परलोक या मृत्यु के अंधकारमय ज़ोन में चले जाना है। कथा के अंत में बेटी माँ को बरामदे में ले जाती है और माँ बेटी के कमरे में भी चली जाती है। दिक् का यह शिफ्ट भी माँ की मनोगतियों तक जाता है। रंगकर्म की दृष्टि से यह माँ के दृश्यबंध (कमरे) से निकल कर बेटी के दृश्यबंध में जाना है। यह शिल्प और अन्तर्वस्तु का भी समन्वय है। यहां भी भौतिक स्पेस पर मानसिक देश उभरते आते हैं। अम्मू पहाड़ी रास्तों में चली जा रही है, सुबह सुबह स्नान करके। शिमला के अनेक दृश्य उभरते हैं।
पूरी कृति में तीन मैंटल लैंडस्केप्स (मानस भूदृश्य) उभरते हैं, जिन्हें अम्मू ब्रह्मांड के ‘तीन लोक’ कहती है – जीने वालों का लोक, मरने वालों का लोक और हम जैसे बीमारों का लोक। इहलोक की अद्भुत लीलाओं में रमती हुई अम्मू के भीतर जीने वालों का लोक उभरता है। इस मानसिक भूदृश्य में जीवन एवं सृष्टि की नेमतें हैं – गुलाब के फूल, भोर, पहाड़ों की बर्फ और बारिश, भुनते हुए हल्वे की गंध, चाय का संगीत, संतान को गोद में लेकर दूध पिलाना, माता पिता, बावली का स्नान…। जीवन के संताप और मृत्यु की चेतनाएं मरने वालों का लोक है तथा बीमारी वाले भूदृश्य में जहां-तहां झुंझलाहट, खीझ, असमर्थता के टीले, वनस्पतियाँ और खाइयां फैली हैं।
माँ बेटी के बीच जैसे समय के व्यवधान और निरंतरताएं हैं, वेसे ही स्पेस का अंतराल भी है जो फैलता और सिकुड़ता है। दूर होते होते वे बहुत दूर जा पड़ती हैं पर अगले ही पल नाभिनालबद्ध दिखती हैं। अम्मू उसके कमरे में उसके बिस्तर पर चली आती है। एक अद्भुत विभाजन खड़ी रेखा वाला भी है, धरती और आकाश का। अम्मू अक्सर कहती है कि मैं अपनी हवा से ज़मीन से ऊपर उड़ जाऊंगी और धरती और देह की पीड़ाओं को पार (ट्रांसैंड) कर जाऊंगी। इस बिंदु पर अरस्तू की याद बरबस आती है जिन्होंने चार तत्वों में दो तरह की शक्तियों ग्रैविटी (धरती और जल में) और लैविटी यानी ऊपर उठना (अग्नि और वायु में) की बात की है। मृत्यु और अम्मू के बीच जहां समय सिकुड़ रहा है वहीं स्पेस भी सिकुड़ रहा है। उसको लगता है कि वह अपने कमरे के दरवाजे़ के निकट पहुंच रही है।