Friday, November 29, 2024

सुमति सक्सेना लाल

 लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद उसी वर्ष से वहीं के एन. एस. एन. महाविद्यालय में लगभग चार दशक तक दर्शन शास्त्र का अध्यापन। धर्मयुग मे “चौथा पुरुष” शीर्षक से पहली कहानी धर्मयुग में छपी थी जो काफी समय तक चर्चित रही और अनेकों भाषाओं में इस का अनुवाद हुआ। उसके बाद लगभग पाँच वर्षों तक धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के बाद लेखन में लम्बा मौन।1981 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में “दूसरी शुरुआत” शीर्षक से एक कहानी छपी थी। प्रख्यात लेखक श्री महीप सिंह ने इस कहानी को अपनी संपादित पुस्तक 1981 की “सर्वश्रेष्ठ कहानियां” में सम्मिलित किया था।

सन् 2005 से पुनः नियमित लेखन। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं कथादेश, हंस, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि में अनेकों कहानिया प्रकाशित हुई हैं।

1.    वे लोग.  (उपन्यास)   भारतीय ज्ञानपीठ,  2021

2.    ठाकुर दरवाज़ा (उपन्यास) अमन प्रकाशन-2019

3.    फिर...और फिर (उपन्यास) सामयिक प्रकाशन-2019 

4.    होने से न होने तक (उपन्यास) सामयिक प्रकाशन-2013

5.    दूसरी शुरूआत (कहानी संग्रह) पैन्गुइन बुक्स-2011. 

6.    अलग अलग दीवारें (कहानी संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ-2009

उपन्यास ‘फिर और फिर’’ को मनोरमा ईयर बुक ने २०१९ के साहित्यिक प्रकाशन की सूचि में सम्मिलित किया था।   

ऑनलाइन पुस्तकें

होने से न होने तक-मात्रुभारती 

फिर-और फिर-नोटनल 

दूसरी शुरुआत-पेंग्विन बुक्स 

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अनुवाद

अनेक कहानियों का बंगला, अंग्रेज़ी, पंजाबी, उर्दू और मराठी में अनुवाद। उपन्यास ‘होने से न होने तक’’ का सुनीता डागा ने मराठी में अनुवाद किया है। पुस्तक सृजनसम्वाद प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित है। 

1-सुरेंद्र तिवारी ने अपनी दस खंडों की वृहद ग्रन्थवाली ‘‘बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ’’में सुमति की कहानी को सम्मिलित किया है। 

2-प्रसिद्ध सम्पादक और समालोचक श्री विजय राय द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘‘समकालीन हिन्दी कहानी का स्त्री पक्ष’’ में सुमति की कहानी को शामिल किया है और उनकी लेखन विधा पर आलेख दिया है। इससे पहले विजय राय साहब ने अपनी पत्रिका ‘लमही’ में भी सुमति के लेखन पर बात की थी।  

3-सुमति की कहानियाँ अनेकों भारतीय भाषाओं व अंग्रेज़ी में अनुदित व प्रकाशित हुई। अभी हाल में मराठी प्रकाशन सृजन सम्वाद ने उनके उपन्यास ‘‘होने से न होने तक’’का मराठी भाषा में अनुवाद छापा है। यह अनुवाद जानी मानी अनुवादक सुनीता डागा ने किया है।

4-बरकतुल्ला यूनिवर्सिटी, भोपाल के महिला अध्ययन विभाग के द्वारा संचयित एवं सम्पादित पुस्तक ‘‘विमर्श के निकष’’ में सुमति की कहानी शामिल है। 

5-एस एन डी टी विश्व विध्यालय,मुंबई के महिला अध्ययन विभाग से आने वाली पुस्तक ‘‘कसौटी पर कथा’’ के दूसरे खंड के लिए सुमति की कहानी ली गयी है।

6-सुधा अरोरा के द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘‘राख में दबी चिंगारी’’ में सम्मिलित पाँच महिला कथाकारों में एक सुमति भी हैं। इसमें उनकी दो कहानियाँ (एक आरम्भिक और एक अभी) हैं व उनका विस्तृत आत्मकथ्य है।    

7- अंबाला से प्रकाशित पत्रिका ‘पुष्पगंधा’ ने इस वर्ष अगस्त का अपना एक अंक सुमति के साहित्य पर केंद्रित किया है।   

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कहानी

मेरा लिखना कुछ अजब इत्तफाक से शुरू हुआ था। वह 1967 की जुलाई का महीना था। गर्मियों की लम्बी छुटियों के बाद विद्यालय खुला था। तेज़ बारिश के कारण लड़कियां नदारद थीं। सो हम सब अपने फुर्सत के क्षणों का भरपूर आनन्द ले रहे थे। श्रीमती स्वरुप कुमारी बक्शी, भूतपूर्व मंत्री उत्तर-प्रदेश शासन उन दिनों विद्यालय की प्राचार्या थीं। उन्हें हाथ देखने का शौक था। हममें से एक मित्र ने बात करते करते अपनी खुली हथेली पूरी फहरायी थी तो बक्शी दी ने उनका हाथ पकड़ लिया था। वे काफी देर तक ध्यान से हर कोण से उनकी हथेली की रेखाओं को देखती रही थीं। उन के कैरियर और जीवन से जुड़ी कुछ बातें बताने के बाद उन्होने अचानक कहा था ’’आपके जीवन में कई बार रिश्तों का टूटना और जुड़ना दिख रहा है। शायद चार तक।’’ मित्र काफी धीर गंभीर,बोझ वज़न वाली महिला थीं। उन्होंने मुस्कुरा कर हाथ खींच लिया था। ऊपर स्टाफ रुम में आए तो एक सीनियर टीचर ने अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिए थे,’’छि छि बख्शी दी ने कैसी बात कही है। कोई वह बाज़ारु औरत है कि उसके जीवन में चार पुरुष आएंगे।’’ मुझे अजीब लगा था। यह तो कोई बात नही हुई कि किसी के जीवन में केवल एक पुरुष आया तो वह सती साध्वी हो गई और किसी के जीवन में एक से अधिक पुरुष आया तो वह बाज़ारू औरत। मैंने अपनी बात कही थी तो स्टाफ रुम में इस विषय पर अच्छी भली बहस छिड़ गई थी। यह आज से पचास से भी अधिक वर्षों पुराना प्रसंग है। तब सही, ग़लत और नैतिकता की मान्यतायें कठोर थीं-विशेषतौर से स़्त्री के लिये। अगले दिन कालेज पहूँची थी तो देखा अल्मारी के पीछे खड़ी अंजुल अनुराधा को अपनी किसी कहानी का कथानक सुना रही हैं। अंजुल को लिखने का शौक था। मैं वहीं जा कर खड़ी हो गयी थी। सरस्वती उस दिन मेरी ज़ुबान पर झूठ बन कर बैठी थी, ‘‘मैं भी एक कहानी लिख रही हूं’’ ज़ुबान से अन्जाने ही फिसला था। जबकि तब तक हमने कहानी की कोई बात सोची ही नही थी। पर शायद हमारे अवचेतन में ‘‘चौथा पुरुष’’ कहानी आकार ले रही थी। कुछ दिन बाद मैंने वह कहानी लिखनी शुरु कर दी थी। अम्मा पापा बहुत खुश हुए थे। घर के सारे काम बंद कर दिये गये थे। उस सन्नाटे के बीच मैंने उन दोनो को कहानी सुनानी शुरू कर दी थी। बीच मे पापा कुछ पूछते या बोलते तो भावुकता के अतिरेक से उनकी आवाज़ भर्रा जाती। कहानी में मैंने एक जगह लिखा था,‘‘नाक में घुसने वाली सिगरेट की वह गंध अच्छी लगती है। कम से कम उस में एक पुरूष की उपस्थिति का अहसास तो है।’’ अम्मा एकदम परेशान हो गयी थीं। यह आज से लगभग पचपन साल पहले की बात हो गयी। तब का माहौल भिन्न था। लड़कियों के साधारण चलने,फिरने, हंसने, बोलने के तौर तरीकों पर अनावश्यक टिप्पणी की जाती थी. फिर यह तो एक लड़की की कलम से खुले आम एक पुरुष की चाहत थी। उस समय हमारी आयू मात्र 23 वर्ष थी और हम अविवाहित थे। शायद उन का परेशान हो जाना बहुत अस्वभाविक नहीं था। पर पापा अड़ गये थे। उस लाइन से नायिका के अकेलेपन की बहुत सटीक अभिव्यक्ति हो रही है, पापा की इस बात से अम्मा भी सहमत थीं। ख़ैर उन दोनों की सहमति से अन्ततः पूरी कहानी को फुलस्केप कागज़ पर साफ साफ लिख कर हमने उसे धर्मयुग में भेज दिया था। वह भी क्या समय था। कितने लोग पत्रिकाएं पढ़ते थे। समाज के लगभग हर वर्ग से ही पत्र आए थे-56 ए0पी0ओ0 और 99 ए0पी0ओ0 तक से-विदेशों तक से। तब साहित्य और भाषा के लिए लोगों में अजीब सा दीवानापन दिखता। पापा उन पत्रों को फाइल में लगाते रहते थे जैसे वे हमारे सर्टिफिकेट्स हों। लगता है एक युग बीत गया जब अपनी पहली कहानी लिखी थी। जैसे पिछले जनम की बात हो। तब विवाह पूर्व और विवाहेतर प्रेम सम्बन्धों की बात करना तो दूर उस विषय में सोचा भी नहीं जाता था। समाज और साहित्य की सोच कठोरता की सीमा तक पवित्रतावादी थी। तब स्त्री से एक ही पुरुष के प्रति निष्ठावान् होने की मांग की जाती थी। वह जन्म भर का ही नहीं जन्म जन्मांतर का नाता माना जाता था। किन्तु हमारी कहानी में चार पुरुष थे। शायद इसलिए भी उस कहानी ने पाठकों को ज़्यादा चौकाया था और लोगों का ध्यान उस की तरफ अधिक गया था। हमें लगता है कि वह समय इस कहानी के लिए बहुत अनुकूल था। उसने तत्कालीन समय की रुढ़िवादी सोच को छुआ था। आज जब उस कहानी को पढ़ती हूं तो उस में कुछ भी ख़ास नही लगता। इतने सालों में हमारी आगे आने वाली पीढ़ियां ही नही बदली हमारी अपनी पीढ़ी की सोच भी बदल गयी। समय के साथ हम भी तो आगे निकल आए। पर उस समय यह कहानी एकदम चर्चा में आयी थी। न जाने क्या था उस में कि उस ज़माने के पाठकों को आज भी वह कहानी याद है। अपनी पहली ही कहानी की यह सफलता बेहद सन्तोष देने वाला अनुभव था-अद्भुत सुख था वह। विभिन्न पत्रिकाओं के साहित्यिक लेखों में उसकी चर्चा हुई। सुदर्शन नारंग का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने उसे ‘‘कालजयी प्रेम कहानी’’ की संज्ञा दी थी। कई भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ। धर्मयुग से भारती जी का पत्र मिलता, ‘‘सुमति जी अपनी कोई नयी कहानी भेजिए, चौथा पुरूष की तरह ज़ोरदार।’’ भारती जी का पत्र पा कर हम परेशान हो जाते-मैं नहीं जानती थी कि उतना सशक्त कथानक मैं कहां से पा सकती थी-उस कहानी के पार मैं अपने आप को अंधेरे और अनिश्चय से घिरा हुआ महसूस करने लगती। बी.डी. मज़ा लेते, कहते ‘‘ऐसा है बहना शेर का पहला बच्चा ही शेर होता है उसके बाद तो...।’’ ख़ैर उस के बाद की बात बाद में। लिखते रहना मेरे लिये चैलेंज बन चुका था और मैं लिख और छप रही थी। हमारी कहानियां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका में छपती रहीं-पसन्द की गयीं। थोड़े दिनों के लिए लगा कि हमारी एक पहचान बन रही है। अपने लेखन को लेकर हम एक आत्म विश्वास से भरने लगे थे। फिर ज़िदगी का रुख अचानक बदल गया था, आस पास की ज़रूरतें और हम से लोगों की अपेक्षाएं भी। फिर वर्षो की एकदम चुप्पी। उसके बाद हम अचानक पूरी तरह से ‘‘हाइबरनेशन’’ में चले गये थे। पाठक तो बड़े शौक से हमारी कहानियां पढ़ रहे थे पर ‘‘हमीं सो गये दास्तां कहते कहते’’। उस लम्बी नींद से जागे तब तक बत्तीस साल बीत चुके थे। चौथा पुरुष सुमति सक्सेना लाल _________________________ मनीष जा चुके हैं, शायद अब कभी भी लौट कर न आने का इरादा लेकर। मन मे एक अननुभूत शून्यता है-एक जान लेवा खालीपन। मैं निरुद्देश्य सी खिड़की पर आकर खड़ी हो जाती हूँ। नीचे काफी चहल पहल है। विजिटर्स रूम में आते जाते लोग। सामने के बड़े से लॉन में अलग अलग झुंडों में लड़कियां बैठी हैं। नीता का हाथ अजंलि के हाथों में है, शायद वह हाथ देख रही है। नीता बहुत जोर से हॅस रही है। एक ठहाका और है जो याद कर के आज भी कानों मे शूल के समान चुभता है। मैंने बड़ी ज़ोर का ठहाका लगाया था, ‘‘बस अरुन दा कुल चार...’’और अगले ही क्षण मैंने उनके हाथों मे से अपने हाथ खींच लिया था। एक ओर यह चहकती हुयी लड़किया हैं जिनके पास सपने हैं...उनका भविष्य है। दूसरी ओर मै? जीवन के इस मोड़ पर एकाकी खड़ी हुयी। अतीत पर असफलताओं की गर्द कुछ इस तरह से चढी है कि दिखलायी पडने वाला सब कुछ धुंधला सा हो गया है। कुछ धूमिल सी प्रतिमाएं हैं जिनसे कई चित्र उभरते हैं। दशहरे की छुट्टी के बाद यूनिवर्सिटी खुली थी। डाक्टर वर्मा अमेरिका चले गये थे। उनकी जगह कोई नयी नियुक्ति हुई थी। सभी नये अध्यापक की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। मैने पास बैठी सीमा मसि से नये गुरूदेव का नाम पूछा था। उसने एक बार चमकती आंखों से मुझको देखा था। फिर बड़े गर्व से बोली थी ’’कोई डाक्टर जोसेफ हैं।’’ उसी क्षण सारा क्लास उठकर खड़ा हो गया था। 24-25 वर्षीय सांवले रंग के उस स्वस्थ व गंभीर पुरूष पर मैंने अपनी निगाह गड़ा दी थी-भूला हुआ बचपन जीवंत सा सामने आ कर खड़ा हो गया था। मैं जोसेफ को अच्छी तरह पहचान गयी थी। दूसरे ही क्षण मैं अपने नन्हे-नन्हे हाथों से क्रिकेट के विकेट गाढ़ रही थी और जोसेफ साभिमान हमें निर्देश दे रहा था। क्लास समाप्त हो गई थी और मैं नीचे आ बरामदे में अनिश्चय की स्थिति में खड़ी रह गई थी। सोच रही थी पुँछू या न पुँछू? ’’शालिनी’’ अपना नाम सुन कर मैं चौंकी थी। ’’शालिनी आप वही कानपुर वाली शालू ही हैं न?’’ ’’जी’’ और मेरी आंखें खुशी से दिप उठी थीं। जोसेफ, मेरे बचपन के मित्र आज मेरे सामने मेरे अध्यापक के रूप में खड़े हैं, ’’मिषा कहां है’’ मेरे स्वर में खुशी आ गई थी ’’क्या किया है उसने ?’’ ’’फाईन आर्टस में बी.एफ.ए. किया है । उसका आगे पढने का मन नही है।’’ ‘‘उससे कहियेगा मेरे घर आने के लिये। लौटते समय मैं एक उल्लास से भर उठी थी। एक खोयी हुई प्यारी सी चीज़ को अनायास पा लेने का उल्लास। हालाॅकि यह भी सच है कि आज से पहले मैंने कभी जोसेफ मिषा के अभाव को महसूस नहीं किया था। वे खेल-खिलौने, उनके साथ भूले बचपन के बीच ही कहीं उन साथियों की यादें भी विलीन हो चुकी थीं। बचपन याद आता है। जोसेफ के साथ के वे खेल, लड़ाईयाँ, बाल पकड़ कर खींचातानी। जोसेफ से इतने वर्षों बाद कभी इस रूप में मुलाकात होगी यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। शाम को सो कर उठ नही पायी थी कि किसी ने झकझोर कर जगा दिया था। सामने मिषा बैठी थी और उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया था। बारह-तेरह साल की दूरी एक क्षण में ही सिमट कर समाप्त हो गई थी। मैं एकटक मिषा की ओर देखती हूँ....होठों पर हल्की सी लिपिस्टिक की रंगत,आँखों से बाहर तक खिंची काजल की रेखा, लंबी गर्दन पर उभरी हुई नसें और कानों में लटकते मूंगे के छोटे से लटकन-कुल मिला कर उसके सांवले चेहरे पर सब कुछ भला लगता है। मिषा की मध्यस्थता में मेरे और जोसेफ के बीच की ग़ैरियत मिटती गई थी और अनजाने में हम एक दूसरे के निकट आते गये थे। जोसेफ के विषय में वह बात करती तो अतिरिक्त रूप से संवेदनशील हो गई मेरी संवेदनाएं एक-एक शब्द को उनके अर्थो सहित सहेज लेती। न जाने क्या था कि मैं आधी रात तक सो नही पाती और अंधेरे सायों मे बढ़ कर एक परछाईं जब तब मुझे अपनी बाहों मे भर लेती। जोसेफ का गंभीर चेहरा एक अलगाव से भरा लगता है। पर उनकी उपस्थिति मात्र में कुछ ऐसा रहता है कि वह मौन भी सुखद लगता। साधारण बातचीत, कभी अनायास निगाह मिल जाना, मेरी किसी बात पर जोसेफ का अनायास मुस्कुरा देना, उनके मुंह से मेरे नाम का लघु उच्चारण जैसी साधारण बातें मेरे लियें जीवंत और प्राणवान होने लगी थीं। जोसेफ के साथ बिताया हर अगला क्षण पिछले की अपेक्षा अधिक आत्मीय और निकट लगता है और मैं जैसे सब कुछ बूंद-बूंद कर आत्मसात कर लेना चाहती हूँ। समस्त चेतना है कि एक तीव्र प्रवाह में बहती ही चलती है, उन्मत्त, उत्फुल्ल, सम्मोहित और दिग्भ्रमित। अप्रैल की धूल उड़ाती हुई अलसाई शाम। उसी दिन परीक्षा समाप्त हुई थी और मुझे लगा था जैसे मैं एकदम से भारमुक्त होकर हवा में उड़ रही हूँ, साथ ही एक खालीपन के बोझ से बोझिल भी। अवकाश का वह लगभग पूरा दिन ही मैंने मिषा और जोसेफ के साथ गुज़ारा था। पता ही नही चला कि जोसेफ के आने के बाद का यह साल कब और कैसे पॅख लगा कर बीत गया था। सारा घर सामने मम्मी के कमरे में इकट्ठा था औैर मैं दबे पांव पीछे की सीढ़ियों से अपने कमरे में आ गई थी। सामने लगे बड़े से दर्पण में मैंने एक बार अपनी अत्यंत साधारण सी छवि को घूर कर देखा था। छोटी ऋचा मेरा पल्ला पकड़ कर खींचती है और मैंने उसे बाहों में भर लिया था, ’’मौसी आज हमने ढे़र सी मिठाई खायी। तुम्हारे लिये खूब सारी चीजें आई हैं मौसा जी के घर से।’’ वह उल्लास से हाथ फैला कर दिखाती है। मेज़ पर रखे स्टील के फ्रेम में जड़ी एक पुरूष आकृति मुझे मुंह चिढ़ाती है। हाथ में छोटे बड़े कई डिब्बे थामें अति उल्लसित सी दीदी सामने आ खड़ी हुई थीं। बिना किसी भूमिका के मैंने उन्हें सीधी निगाहों से देखा था, ’’मुझे शादी नहीं करनी दीदी।’’ वे वैसी ही खड़ी रहीं थीं, ’’तुम्हारी इच्छा से क्या होता है पापा सब तय कर आये हैं।’’ ’’दीदी यह मेरी ज़िदगी है। मैं भी कुछ चाहती हॅू।’’ ’’क्या ?’’ दीदी का तीखा स्वर ’’क्या करता है ?’’ ’’लेक्चरर हैं।’’ मैंने सर झुका लिया था. ’’शर्म नहीं आई इतना बोलते। यूनिवर्सिटी में हम भी पढ़े थे। पर तुम्हारी तरह लड़़को को देख बौखला नहीं गये थे। खानदान की इज़्ज़त का भी ख्याल नहीं आया।’’ उन्होंने घृणा का ढ़ेर सारा ज़हर उगला था, ’’जितनी तनखाह यूनिवर्सिटी के मास्टर पाते हैं उतने के तो दर्जनों मुलाज़िम पापा के दफ्तर में लोअर काडर पर पड़े हैं। पापा के सामने खड़े होकर बात तक नहीं कर पाते।’’ घर में एक अजीब तनाव की स्थिति छा गई थी। पापा सामने नहीं पड़ते, मम्मी दृष्टि चुरा जातीं, और मैने पूर्ण आत्म समपर्ण कर दिया था। उसके बाद जीने के सारे आधार बिखर गये थे...। कोलाबा की शांत कालोनी। सामने की खिड़की से दिखता हुआ विशाल समुद्र और उसमें पड़ती हुयी झिलमिलाते बम्बई की छवि। खिड़की के पास बैठ कर मुझे अच्छा लगता पर प्रयास करने पर भी नवविवाहिता वाला उल्लास मैं जुटा नहीं पाती। जिस घर की मैं सर्वांग बन कर आई हूँ, वह घर पराया और सुनील के साथ फ्रेम में जड़ा अपना चेहरा नितांत अनचीन्हा सा लगता। फिर भी...। जब तक सामने का सब कुछ अस्थिर अनिश्चित होता है तब तक हम उसे अस्वीकार भी करते हैं-उससे विद्रोह कर उसकी दिशाओं को मोड़ने का प्रयास भी। पर जब वही आगत वर्तमान बन पत्थर की दुर्दान्त शिला सा पैरों के नीचे का सच बन जाता है, चारों तरफ की दीवार बन हमारे सामने हमारी ज़िंदगी का आकार ले लेता है-तब--तब हमारे सारे विद्रोह चुक कर मौन हो जाते हैं और तब हम अभ्यंतर की सम्पूर्ण शक्ति लगा अपने आप को अपनी जिंदगी से एडजस्ट कर लेना चाहते हैं। मुझे नहीं पता इसके मूल में क्या होता है? जो है उसको निबाहने की ईमानदारी? या जीवन को सफलता से भोगने का कैलकुलेशन? या मात्र जिजीविषा? यह घर.... सुनील, उनसे मिलने वाले निर्बाध सुख में डूब कभी क्षण ही नहीं घण्टे और पहर बीत जाते हैं। कभी-कभी सुनील के लिये बेहद प्यार उमड़ता है मन में। तब सुनील की आँखों में अनुराग पढ़ संतुष्टि होती है मुझे कि मैं इच्छित और वांछित हूँ। तब सुनील की बाहों में बंध एक एकान्तिक सुख से भी भर उठती हूँ। पर तभी कुछ ऐसा हो जाता है कि वर्तमान में जमते संतुलित होते पाँव फिर उखड़ने लगते हैं। तब मैं दूनी पीड़ा से भर उठती हॅूं। जिंदगी कुछ अजब तरह से खण्डों में बंट गई है। जैसे कोई शराबी नशे में सब कुछ करता चले फिर कोई थप्पड़ मार कर उसका नशा तोड़ दे ठीक वैसी ही मेरी स्थिति हो जाती जब मिषा के पत्र मिलते। मैं अपने आप को अरक्षित सा महसूस करने लगती। उस दिन सुनील के साथ किसी अपरिचित व्यक्ति को आया देख मैं सिमट सी गयी थी। सुनील ने परिचय दिया था, ’’मेरे मित्र मनीष भार्गव। अभी यू.एस. से लौटे हैं।’’ अभिवादन, प्रतिवादन कर उन्होंने अपनी अनुसंधानी सी दृष्टि चारों तरफ घुमाई थी,’’बहुत सुन्दर सजाया है आपने यह फ्लैट।’’ मनीष की आखों में प्रशंसा है और सुनील के चेहरे पर अभिमान भरी संतुष्टि। मनीष भार्गव और सुनील बचपन से लेकर इण्टर तक साथ पढ़े हैं। तब से घनिष्ठ मित्र हैं। बहुत वर्षो के बाद पुनः सामीप्य मिला है इसलिए दोनों बहुत खुश हैं। मिषा का पत्र आया है, परेशानियों से भरा। भास्कर शादी की जल्दी कर रहे हैं पर मिषा जोसेफ को अकेला नही छोड़ना चाहती । सीमा और उसके घर वाले इच्छुक हैं पर जोसेफ हाँ नहीं कर रहे हैं। मिषा के पत्र में चिन्ता के साथ ही एक झुझंलाहट भी झलकती है, पता नहीं किसके प्रति? दूसरे दिन सुनील के आफ़िस जाने के बाद मैंने लंबा सा ख़त लिखा था... मिषा को नहीं, जोसेफ को, ’’जो कुछ अतीत बन कर आज अर्थहीन हो चुका उससे चिपके रहने की यह ज़िद्द क्यों? इससे क्या हाथ आयेगा? क्यों अपने आप को टार्चर कर रहे हो। अपने साथ दूसरों को भी। तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो गिल्ट है उसे ढोते-ढोते मैं थक गई हूँ जोसेफ।’’ मिषा का पत्र आया है। अगली पन्द्रह तारीख को सीमा के साथ जोसेफ की शादी है। मैं स्तब्ध रह जाती हूं। बड़ी देर तक उसका पत्र लिए बैठी रहती हूँ। बार-बार उसे पढ़ती हूँ। हर बार नए मर्म के साथ वे शब्द मुझ तक पहुचते हैं। अजब तरह से मिषा ने वह पत्र मुझे दुलराते मनाते हुए लिखा है, जैसे मेरी किसी चोट को सहला रही हो, जैसे अपनी तरफ से, जोसेफ की तरफ से माफ़ी सी मांग रही हो, जैसे उस शादी की मजबूरी की सफाई सी दे रही हो। कुछ देर तक बड़ा ख़ालीपन सा लगता है। यही तो मांगा था मैंने जोसेफ से। यही तो चाहा था। मैं चारों तरफ निगाह घुमा अपने घर को देखती हूँ, यह मेरा साम्राज्य है और मैं इसकी एकछत्र सम्राज्ञी। मैं अक्सर खिड़की पर आ खड़ी होती हूँ। सामने दिखता विशाल समुद्र और उसमें पड़ते झिलमिलाते बम्बई की छवि। मैं एक परिचित निजपन के सुख से भर उठती हूँ। ये घर इस जगह प्रतीक्षा करती अनमनी सी मैं। सामने दिखती जगमगाती अट्टालिकाएं, अंधेरे की परिधि में सिमटा अनन्त समुद्र और उसमें पड़ती झिलमिलाते बम्बई की छवि। सब कुछ बहुत ही आत्मीय लगता है। इधर बहुत दिनों से सुनील को लौटने में प्रायः देर हो जाया करती है। न जाने क्यो एक निहायत अप्रीतिकर सा एहसास है जो मेरी वर्जना के प्रतिकूल मुझमें दिन ब दिन प्रबल होता जा रहा है कि सब कुछ पहले की तरह होते हुए भी सुनील बदल गए हैं, कि वह क्रमशः इस घर से और मुझसे दूर जा रहे हैं। अब उनकी निगाहों में न पहले सा सम्मोहन और प्यार झलकता है और न आधिपत्य का सुख ही। अक्सर सुनील के चेहरे पर एक उलझन रहती है और उसका खोयापन उन पर छाया रहता है। तब हमारे पास बोलने के लिये शब्द नहीं रहते और एक अर्मूत सा तनाव इस अंधेरे कमरे में फैलने लगता है। सुनील की बेरूखी बढ़ती गयी थी और मनीष की आखों में स्नेह और सहानुभति गहराती गयी थी। उस दिन सुनील की ग़ैर मौजूदगी में दुपहर के समय आए थे मनीष। बहुत देर उलझन में रहे थे और उनके स्वर अटपटा गए थे, ‘‘सुनील को घर में बांधने की कोशिश करो शालिनी, उसकी एक स्टैनों है।’’ मैं स्तब्ध रह गई थी। मनीष नें अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी। मनीष चले गए थे। मैं बड़ी देर तक वैसे ही बैठी रही थी। इस अन्जान शहर में अपने से दूर जाते सुनील को कैसे रोकूँ । तब मनीष ही अपने से लगे थे। उस दिन आधी रात गए लौटे थे सुनील। थोड़े से शब्दों में ही मैंने कुछ पूछा था कि एक आवेश से सुनील का पूरा चेहरा तपने लगा था, ’’यह घर मेरा है। जब चाहूँगा आऊॅगा, जब चाहे जाऊॅगा। अपनी ज़िन्दगी पर पूरा हक है मुझे जो चाहूँगा करूगा। किसी के सामने जस्टीफिकेशन्स देने के लिये बाध्य नहीं हूँ मै।’’ उनका कठोर चेहरा व्यंग्य और विद्रूप से विकृत हो उठा था,‘‘पूछो क्या पूछना चाहती थीं तुम?’’ एक थकी वितृष्णा से भर मैंने अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया था। एक ठंडापन मेरे रोम-रोम में भिदता चला जाता है। बड़े यत्न से जुटाया निढाल स्वर किसी और का लगता है ’’मुझे कुछ नहीं पूछना। कुछ नहीं कहना सुनील।’’खिड़की के पार दिखता बम्बई। अन्धेरे की परिधि में सब कुछ बहुत ही बिखरा टूटा लगता है, परस्पर असम्बद्ध। पर सुनील ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में मुझसे कह दिया था कि अपना शेष जीवन वे मेरे साथ नहीं किसी और के साथ जीना चाहते हैं। भयानक विस्फोट से वे मद्धिम स्वर। एक हादसा इस घर के ऊपर से चुपचाप गुज़र गया था। कोई चीख कर रोया नहीं था, कहीं कोई आवाज़ नहीं। मैं ठंडी शिला सी पथराने लगी थी। मम्मी मुझे सीने से लगा लेती हैं। पापा अपनी नम हो आई आँखों को झुका कर मेरे आसपास बने रहे थे। कलकत्ता से भाभी आई हैं। भाभी मेरी हथेली को अपने हाथों में ले धीमे-धीमे थपथपाती रहती हैं। उस दुलार भरे स्पर्श में आश्वासन है। मैं चारों तरफ निगाहें घुमाती हूँ। सब कुछ पहले जैसा। पर इस चिर परिचित माहौल के प्रति भी मन में पहले सा चीन्हापन, अधिकार भाव उपज नहीं पाता। यहा आये एक माह से अधिक हो चुका है पर अभी तक जोसेफ मिषा के घर नहीं गई हूँ। अब सीमा भी होगी वहा। एक अजब सा ख़ालीपन तन मन पर हावी होने लगता है। शाम को तैयार होकर नीचे उतरी तो सभी लॉन में बैठे थे। दीदी ने अचकचा कर मेरी तरफ देखा था, ’’कहीं जा रही हो ?’’ दीदी के चेहरे पर विस्मय है और मैं जानती हूँ कि मन में उससे अधिक उस विस्मय का आघात। प्रदर्शन रहित दुख को दुख समझ पाना उनके वश के बाहर है। मैं एक बार दीदी की निगाहों से अपने आप को देखती हूँ। आसमानी रंग की शिफान की साड़ी, उसी रंग का ब्लाउज, ऊॅची एड़ी की सफेद चप्पल, कानों में मोती के टाप्स, नन्हें-नन्हें मोतियों की माला, ढलवा जूड़ा। सब कुछ ऐसा जो मेरे ऊपर फब रहा होगा। परित्यक्ता। वह भी कुछ दिन पहले की परित्यक्ता। और मुझे लगता है एक दानव है जो मेरे अंदर बैठ गया है...सबको खूब रुलाऊॅ खूब सताऊॅ और मैं एक्र्सीलेटर पर पैर रखकर कार की स्पीड खूब तेज़ कर देती हॅू। जी चाहता है कार को किसी ऐसे गड्ढे़ में गिरा दूं कि मज़ा आ जाये। गेट ठेल कर अंदर घुसती हूँ तो लकड़ी का गेट चरमरा उठता है, ’’शलिनी’’ और दूसरे ही क्षण जोसेफ की स्वागत की मुस्कान पर पीड़ा की गहराइयाँ मचल गयी थीं। चारों ओर छायी जनशून्य नीरवता। जोसेफ के साथ घर के अंदर घुसने लगती हूँ तो एक बीत गये अपनेपन के बोध से फिर भर उठती हूँ। सीमा मिषा पिक्चर गई हैं और मैं अपने आप को इज़ी चेयर पर फेंक देती हूँ। कुछ देर तक जोसेफ मेंरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते हैं ’’कैसी हो शालिनी ?’’ ’’यह सीज़न ही ऐसा है जोसेफ कि कुछ अजीब डिप्रेशन सा लगने लगता है।’’ जोसेफ अपनी खाली-खाली सी निगाह को मेरे ऊपर टिका देते हैं। उस अनछिप दृष्टि में एक प्रश्न है, एक जिज्ञासा है। ’’कुछ नया नहीं है,मेरे साथ हमेशा से ही ऐसा होता आया है।’’ ’’कितने दिनों के लिये आई हो ?’’ जोसेफ स्थिर दृष्टि से खिड़की के बाहर दूर तक खाली पड़ी सड़क को घूर रहे हैं। ’’उस घर से हर एक बंधन तोड़कर हमेशा के लिये ही आ गई हूँ।’’ एक विचलित भाव जोसेफ के पूरे चेहरे पर फैल गया था,’’काश तुम आज से छॅ माह पहले आ जातीं।’’ जोसेफ के स्वर में विलाप है। मैं धीमें से हंसती हू, ’’अपनी इच्छा से ही समय को पीछे लौटा पाना संभव होता जोसेफ तो छॅ महीने ही क्यों, मैं उसे कई वर्ष पीछे लौटा देती।’’ जोसेफ अभी भी अपलक खिड़की से बाहर देख रहे हैं। मजबूर हो आया स्वर जैसे कोई सफाई दे रहे हों, ’’सीमा से शादी करने के लिये मुझे मिषा ने विवश किया था शालिनी। उसकी शर्त थी कि जब तक मैं....’’जोसेफ ने मेरी तरफ देखा था ‘‘फिर तुम्हारी वह चिट्ठी।’’ मेरे अंदर कुछ घुमड़ कर चुभता है। हाँ जोसेफ वह समय कुछ अजब तरह से बीत रहा था..सुनील से मिलने वाला वह ढेर सा प्यार, पर मैं तुमसे उबर नहीं पा रही थी। मैं सच में निर्द्धद मन से सुनील के साथ जीना चाहती थी। एक क्लीन स्लेट के साथ अपनी ज़िदगी को सुनील के साथ शुरू करना चाहती थी। इसीलिये तुमसे मुक्ति चाहती थी। तुम्हारे प्रति जो गिल्ट थी मन में उससे भी।’’ मैं काफी देर चुप रहती हॅू। मैं जोसेफ की तरफ देखती हूँ ’’तुम्हारी शादी की खबर मिली तो लगा दिल दिमाग पर से बहुत बड़ा बोझ हट गया हो। लगा था सुनील के साथ जी सकूगी अब। पर...। सोचा था तुम्हें और सीमा को लंबा सा, अच्छा सा ख़त लिखूगी। पर जब तक लिख पाने का समय, शक्ति और साहस जुटा पाती तब तक मेरे और सुनील के बीच तनाव पनपने लगा था। टूटने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। तब मुझे अपने दुख...अपने से दूर जाते सुनील और अपने आप के अलावा किसी और बात का होश ही नहीं रहा था जैसे। मेरी ज़िदगी को सुनील की ज़रूरत थी और अपने अनजाने में अतीत की उन परछाइयों के पीछे भागते हुए मैं उन्हे अपने से दूर कर चुकी थी। देर कर दी थी मैने।’’ मैं जैसे धीरे से फुसफुसायी थी। ‘‘शालिनी’’ जोसेफ के स्वर में दुख, क्रोध, झुंझलाहट सब कुछ है। मैं धीमें से हॅसती हॅू ‘‘कितनी अजीब बात है जोसेफ,सुनील से आहत हो कर मैं अपनी ज़िदगी की पहली चोट को एकदम भूल गयी जैसे। अब सिर्फ सुनील याद आते हैं।’’कुर्सी की पीठ से अपना अशक्त सिर टिका जोसेफ की तरफ देखती हॅू। अधखुली आंखों की धुंधलाई रोशनी में जोसेफ बहुत दूर बैठे हुए से लगते हैं’, बहुत ग़ैर भी। मैं उठ खड़ी होती हॅू,, ’’छोड़ो जोसेफ। तुम मत परेशान हो। अतीत के उन प्रेतों से लड़ने के लिये मैं ही काफी हॅू।’’ मैं कार स्टार्ट करती हॅू...कुछ पल के झिझक भरे मौन के बाद जोसेफ शुष्क सा हंसते हैं ‘‘सिर्फ कह देने भर से क्या प्यार मर जाता है शालिनी?’’ मैं कुछ नहीं कहती। मैं जानती हॅू कि कहने से ही प्यार मर नहीं जाता। दिल और दिमाग में उसकी न जाने कितनी प्रतिच्छायाए मंडराती रहती है-वह स्वप्न जो हमने बुने थे...वह चाहना जो असफल हो गई...वह आसक्ति जो कभी साकार न हो सकी। सुबह चाय-नाश्ता कर सिर धोकर मैं लान में पेड़ की सघन छाया के नीचे आ बैठी थी। माली फोन मेरे पास ले आया था, “आपकी सहेली का फोन है।’’ मैंने रिसीवर उठा लिया था ’’हाँ मिषा।’’ “मैं सीमा बोल रही हॅू शालिनी। कल तुम आई भी और हम लोग मिले नहीं।’’ “हाँ, मै बहुत चाह कर भी नहीं कह पाई थी कि तुम लोगों को न पाकर निराशा हुई।’’ “और क्या हाल हैं?’’ “एकदम ठीक-ठाक। तुम बताओ।’’ “आज शाम को हमारे घर आ रही हो न।’’ सीमा के स्वर में स्वामिनी होने का अधिकार है। मेरे मन में कुछ चुभता है। “कोशिश करुँगी सीमा।’’ “कोशिश नहीं, तुम्हें आना ही है।’’ सीमा आग्रह करती है। “अच्छा आऊॅगी।’’ अनायास ही पास को झुका जोसेफ का चेहरा सामने आ खड़ा होता है। जोसेफ के घर पहुंच कर अनजाने में ही मैं उसी जगह जा बैठी थी। खिड़की के पास पड़ी ईज़ी चेयर। इस घर को, इस कमरे को मैं आज नये सिरे से देखती हॅू। पहले ऐसा कुछ नहीं था। तब यह बोर्डिंग हाउस के अलग-अलग कमरों की तरह टिपिकल बैचलर्स का सा घर था। अब....। मैरून रंग का प्लेन कार्पेट, डल कलर के पर्दे,पूरे कमरे में एक आयल पेंटिंग ?सब कुछ ऐसा जो अच्छा लगता है, सुरूचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित। इस घर की एक एक चीज़ पर सीमा के स्वामित्व की छाप है। और मुझे बंबई का अपना फ्लैट याद हो आता है। उसको नये नये ढंग से सजाने के प्रयास में लीन मैं। मेज़ पर नाश्ते की सुवासित प्लेंटे सजी हैं। सीमा मेरे स्वागत में इधर से उधर डोल रही है और मिषा के चेहरे पर एक असमंजस,एक अकथ अकुलाहट है। अलगाव में भरे से जोसेफ। सीमा के स्वर में एक अर्जित मार्धुय है। पर उस मधुर बोली के पीछे छिपा क्या है मै यह समझ नहीं पाती। मेरे और जोसेफ के अंतरंग स्नेह के प्रति अनभिज्ञता? या अपने विजय के आनन्द की संयत अभिव्यक्ति? मेज़ पर रखी मिषा की बुनाई को उठा मैं हाथों में फैला लेती हॅू “बेबी सूट। किसका बना रही हो मिषा?’’ मिषा असमंजस में भरी सी मेरे उत्तर को टाल जाती है। सीमा के चेहरे पर मीठी सी मुस्कान। खिसियाये हुए से जोसेफ दूसरी तरफ देख रहे हैं। मैं धीमें से हंसती हॅू। एक क्षण हम लोगों के बीच से चुपचाप निकल गया था जो हमारे मस्तिष्क और हमको अलग अलग इकाइयों में बांट गया था। जैसे अनायास ही मैं उन सबके बीच में थर्ड परसन बन जाती हॅू। उन सबसे अलग-थलग असंम्पृक्त सी। यह घर, इसके सुख-दुख, यहाँ के लोगों के बीच में मैं कहीं नहीं आती। यह एक पूरा घर है। एक पति है, एक पत्नी और थोड़े दिन में यह एक बच्चे की किलकारियों से भर जाएगा। मैं उस घेरे से बाहर अपने आप को उस जगह बैठे अजनबी सा महसूस करने लगती हॅू। किसी के जीवन से दूर रहने के लिये तीन वर्ष का समय बहुत लम्बा होता है। उस दीर्घ अंतराल के बीच कितना कुछ घट चुका होता है....ऐसा जिसकी हमने कामना नहीं की थी, जिसको सहन तक कर पाने की क्षमता हमारे पास शेष नहीं बची होती है। सामने रखे फ्रेम में सीमा के चंचल उत्फुल्लित चेहरे पर मेरी निगाहें गड़ जाती हैं.....आखों में एकाधिकार की चमक, चेहरे पर सुहाग की भरपूर मुस्कान। तस्वीर से हटकर दृष्टि सीमा पर जाती है। वह शांत संतुष्ट दिखती है। मन में एक संदेह जगता है कि क्या सीमा हमारे आत्मीय क्षणों से परिचित है। एक अस्वस्ति सी मैंने अनुभव की थी। मैं यहाँ क्यों आई। और आहत भाव लिये में लौट आयी थी। मन चाहा था कि सब से दूर चली जाऊॅ जहा सताने के लिये ये सब निगाहें न रहें। अम्मा,पापा, भाभी,दीदी,जोसेफ और मिषा सब के चेहरे भूली बीती स्मृतिया मात्र रह जाए। स्मृतिपट पर इतने चेहरों के साथ एक और चेहरा जुड़ गया है...मनीष का। लखनऊ से अपायन्टमैंट लैटर आ गया है। मैं एक अकथ थकान से भर उठती हॅू। लगता है दिल दिमाग किसी के भी पास अपने आप को नई जगह रोपने की शक्ति शेष नहीं पर मेरे पास इसके अतिरिक्त केाई और विकल्प भी तेा नहीं । मैं लखनऊ चली आई थी। हास्टल का मेरा यह कमरा है, उसमें मैं मौन एकाकी लेटी हॅू। बरामदे में पड़ रही मद्धिम रोशनी की धूमिल परछाइया कमरे में पड़ रही है। उसके बीच दिखता कमरे में अस्त व्यस्त सा फैला फर्नीचर... दीवारें। अंधेरे में आतंकित सी करती परछाइया। स्तब्ध नीरवता के बीच आती अपरिचित सी आवाज़ें। चौकीदार के भारी पदचाप...फिर सन्नाटा। किसी कमरे की सिटकनी खुलने का स्वर। कोई बाथरूम की ओर जा रहा है। इतने जीवन में मेरे लिए रातों की प्रतिध्वनियां और उनके एहसास भी बदलते रहे हैं। लाल पत्थर से बने गल्र्स हास्टल की यह बड़ी सी बिल्डिंग है। इसके ऊपर की मंज़िल के एक कमरे की खिड़की पर मैं खड़ी हॅू। कहीं ऊॅचें स्वर में ट्रांजिस्टर बज रहा है। पास के किसी कमरे में बनती काफी की महक चारों तरफ बिखर रही है। मुझसे मिलने कोई आया है सुन कर मुझे आश्चर्य होता है। पापा अभी परसों ही यहा से गये हं। भुवन दा से आज ही फोन पर बात हुई है और मैं पलंग पर पड़े बेड कवर की सिलवटें ठीक करने में लग गई थी। अपने सामने मनीष भार्गव को देख मैं एक सुखद विस्मय से भर उठी थी। मनीष पहले भी दो बार आ चुके हैं...एक बार यहा और इससे पहले एक बार पापा के घर। पर तब उनके आने की सूचना मुझे पहले से रहती थी पर आज ऐसे... मनीष सामने सोफे पर बैठे हैं। मेरी ही तरफ देख रहे हैं...वही पढ़ती हुयी सी निगाह, ’’कैसी हो शालिनी?’’ ’’जैसी बम्बई से आई थी, वैसी ही हॅू। इतने दिनों में नया कुछ क्या घट जाता।’’ मेरे अनजाने में ही स्वर नम होकर भीग उठता है। एक वेदना है जो तरल होकर मेरे रोम-रोम में भिदने लगती है। मनीष बड़ी देर से चुप है...जैसे किसी गहरी सोच में हों। कमरे की हर चीज़ पर से फिसलते हुये मनीष की स्थिर निगाह कुछ क्षण के लिये मेरे ऊपर टिक गयी थी। फिर सोफे के बैक से सिर टिका कर उन्होने जेब से सिगरेट निकाली थी और कालीन पर निगाह डाल कर सिगरेट फिर से जेब में रख ली थी। मैंने उठ कर अल्मारी से ऐशट्रे निकाल कर मनीष के पास की पैक टेबल पर रख दी थी। वह अपने आश्चर्य को छिपाने में असमर्थ रहते हैं। अपने पास ऐश ट्रे की असंगति पर मुझे स्वयं ही हॅसी आती । मनीष मुझे घूर कर देखते है, ‘‘इस अकेलेपन से घबराहट नही होती?’’ मैं हॅसती हॅू ‘‘कहाँ तक घबराउॅगी मनीष। यह अकेलापन ही तो मेरे इतने लंबे जीवन की उपलब्धि है इसे इन्जाय करने की आदत डालना चाहती हॅू।’’ वह मेज़ पर आगे को झुक आये थे ’’अब अपने बारे में क्या सोचा है शालिनी..?’’ मैं समझ नहीं पाती यह कैसा सवाल है और इसका क्या जवाब दूँ मैं। मनीष कुर्सी पर आगे खिसक आये हैं। मैं बाध्य हॅू उनसे दृष्टि मिलाने को। उनकी आखों में दबी आग...आवेश के कारण कापती उॅगलियों में फॅसी सिगरेट। अनायास ही मैं सिहर कर पीछे हट आती हॅू। डूबती चेतना में मनीष के स्वर उभरते हैं, ‘‘तुम इसे उपलब्धि कहती हो। शायद यह भी मानती हो कि इस नौकरी से तुम्हारे जीवन में एक ठहराव आ गया है। मैं कहता हॅू झूठे मस्तूल हैं यह। उतार फेको ज़बरदस्ती लादे हुये एकाकीपन के इस खोल को। अपनी शेल से बाहर आओ शालिनी...ज़िदगी को जीयो,उससे भागो मत।’’मनीष की सीधी अनझिप दृष्टि मुझे अंदर तक भेद जाती हैं। उन निगाहों में एक प्रश्न हैं...एक आहृान है...एक उत्तर की आकांक्षा। मुझसे भी कुछ अपेक्षित है और मैं अन्र्तमुखी बन कर असमंजस के भंवरजाल में डूबने उतराने लगती हॅू। यह उदार क्षण मुझे सब कुछ दे सकता है-बहुत चाहती हॅू पर मन में कोइ शहनाइयां नहीं गूँज पातीं, बस ध्वनित प्रतिध्वनित होता हुआ अतीत रह जाता है, तब बीते हुए अनुभव ही ज़िदगी के कानून बन जाते हैं। पर एक मोह मनीष के प्रति भी है। एक सुख भरे संग की कामना भी।...कितना किया है मनीष ने मेरे लिये। पर किसी को स्वीकार करने के लिये केवल उतना ही तो काफी नही होता...उसके लिये तो शायद ख़ाली प्यार भी काफी नही होता। मेरे स्वर में आंसू तैर जाते हैं, “सहानुभति भी एक नशा होती है मनीष... दो दिन मे यह नशा उतरेगा तो कही तुम्हे अपने किए पर पछतावा न हो।” मनीष ने मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया था और मुझे अपना धीरज टूटता हुआ सा लगता है। मनीष की आखों की उस सच्चाई से बचने के लिये मैं कुर्सी की पीठ से अपना अशक्त सिर टिका कर अपनी आखें बॅद कर लेती हॅू। नाक में घुसने वाली सिगरेट की वह गंध अच्छी लगती है...कम से कम उसमें एक पुरुष की उपस्थिति का अहसास तो है। अधखुली आखों से मैंने एक बार बड़े यत्न से सजाये अपने कमरे को देखा था। मैं सुनील की मुखाकृति अंकित करना चाहती हॅू पर सामने जोसेफ आ खड़े होते हैं। मैं मनीष की तरफ देखती हॅू....आकाक्षा के इस पल में उस चेहरे पर कोई उल्लास नहीं, एक हारा थका भाव है। एक युद्व जो मुझे लेकर मनीष को अपने घर वालों से लड़ना होगा उसकी थकान है क्या चेहरे पर? याद नहीं आता कहाँ पढ़ा था कि हर व्यक्ति अपने घर की एक ईंट हुआ करता है, वहा से टूट कर वह इकाई भी नहीं रहता, अपना पूरापन खो देता है। मनीष तो अभी से आधे अधूरे से लग रहे हैं, अपने घर से उखड़ी हुयी एक ईंट । अनायास लगता है कि संबधं की इस अनवरत दौड़ में थक चुकी हॅू मैं.. .फिर से एक संबध में बंधने का न उत्साह ही शेष लगता है और न फिर से आहत होने का साहस ही, ‘‘दरार पड़ी नीवों पर महल नहीं खड़े हो पाते मनीष,’’ मेरी आखों में पानी उतराने लगता है,‘‘तुम कहते हो अपनी शेल से बाहर आऊॅ...पर किस लिए? फिर से आहत होने को? तुम मेरे बहुत अच्छे मित्र हो, बहुत आत्मीय और सगे भी। बहुत ऋणी हॅू तुम्हारी।’’ मै धीमें से बुदबुदाती हॅू ‘’पर...पर तुम ने मुझको ग़लत समझा है।’’ मनीष जा चुके हैं। मुझे पता है वे अब लौट कर मेरे पास कभी नहीं आयेंगे। समाप्त...एक बार फिर से सब कुछ समाप्त। मन बेचैन होने लगता है जैसे सासें घुट रही हों। मैं खिड़की पर आकर खड़ी हो जाती हॅू...निरूद्देश्य सी। नीचे काफी चहल-पहल है। विज़िटर्स रूम में आते-जाते लोग। सामने के बड़े से लान में अलग-अलग झुण्डों में लड़किया बैठी हैं। नीता का हाथ अंजलि के हाथों में है.. वह शायद हाथ देख रही है... नीता हंस रही है। आज बड़े दिनों बाद अरूण दा याद आते हैं। एक हंसी और याद आती है ’’अरूण दा ने मेरे हाथ की रेखाओं को ध्यान से देखा था। कुछ क्षण सोचते रहे थे, ’’शालिनी तुम्हारे जीवन में चार पुरूष आने चाहिए।’’ मैं बड़ी ज़ोर से हंसी थी, ’’बस अरूण दा कुल चार’’ फिर अगले ही क्षण मैंने उनके हाथों में से अपना हाथ खींच लिया था ’’छिः आपने भी कैसी घिनौनी बात बतलाई है।’’ एक ही पुरूष से प्यार का अभिमान चुक गया है। अदृश्य क्या है मैं सोच नहीं पाती... क्या चौथा पुरूष? और मैं सिहर जाती हॅू। चौथा पुरूष मुझे हाण्ट करता है। पता नहीं अरूण दा ने मेरे हाथ की रेखाओं में पढा था वैसा कुछ या मेरे साथ कोई हल्का फुल्का परिहास किया था। पर अरूण दा यदि मुझे आज मिल जाएं तो उनके सामने अपनी दोनों हथेलिया फैला दू ’’कह दो अरूण दा कि मेरे जीवन में अब कोई और पुरूष नहीं आएगा। बहुत मैंने झेल लिया। मैं बहुत थक गयी हॅू, अब चौथा पुरुष नही सह पाऊॅगी।”

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किताबें

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