asd
Wednesday, July 24, 2024

तस्लीमा नसरीन

तसलीमा नसरीन का जन्म 25 अगस्त 1962 को मयमनसिंह बांग्लादेश में हुआ । वहीं से उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई की । उनके लेखन का प्रारंभ कविता से हुआ तदुपरांत निबंध, उपन्यास संस्मरण और आत्मकथाएं सामने आईं । उनके प्रमुख उपन्यास लज्जा फ्रेंच लवर शोध निमंत्रण फेरा बेशरम प्रतिपक्षी ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर

उनकी आत्मकथा के कई भाग प्रकाशित हुए-

मेरे बचपन के दिन

उत्ताल हवा

द्विखंडित

वे अंधेरे दिन

मुझे घर ले चलो

नहीं, कहीं कुछ भी नहीं

निर्वासन

उनकी पुस्तकों का बीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ है । वह निरंतर लेखन में सक्रिय हैं । हंस पत्रिका में लगातार शब्दबेधी शब्दभेदी कॉलम लिखती हैं ।

वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरोकार हैं तथा अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए विश्व भर में जानी जाती हैं । वह महिलाओं के लिए समानता की मांग करती हैं । नारीवादी होने के साथ ही वह मानवाधिकार की प्रबल समर्थक है । धर्म पर बेबाक लेखन के कारण विरोधी और कट्टरपंथी समूह हमेशा से उनकी फांसी की मांग करते रहे हैं । वर्तमान समय में वह अपनी जन्मभूमि बांग्लादेश से निर्वासन झेल रही हैं और उनकी कुछ किताबें बांग्लादेश में प्रतिबंधित है ।

……………..

तसलीमा नसरीनकी किताब का लोकार्पण

अनुवादक अमृता बेरा का वक्तव्य-

★मित्रो कल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में विश्वप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन की पुस्तक ‘शब्दवेधी शब्दभेदी’ का लोकार्पण हुआ।यह किताब हंस पत्रिका में उनके स्तम्भ का एक संचयन है।तसलीमा के लेखों का अनुवाद अमृता बेरा करती रहीं है।कल के समारोह में उन्होंने हिंदी में अनुवाद की जरूरत , महत्ता और अनुवादकों की उपेक्षा पर सुंदर वक्तव्य दिया।उनके इस वक्तव्य को हम यहां पेश कर रहे हैं………
———————————————
राजेंद्र यादव जी की स्मृति को नमन करते हुए मैं सभागार में उपस्थित सभी प्रबुद्ध जनों का

अभिनंदन

करती हूं, उन्हें मेरा नमस्कार। मैं हंस के बहुत से कार्यक्रमों में दर्शक दीर्घा में शामिल रही हूं। आज जब मैं इस तरफ़ मंच पर हूं तो एक अद्भुत अनुभूति हो रही है। अच्छा लग रहा है लेकिन थोड़ा नर्वस भी हूं। मुझे हंस के साथ जुड़े हुए अब दस साल हो गए हैं और मैं ख़ुद को हंस परिवार का एक सदस्य मानती हूं। और इतना ही पुराना संबंध मेरा तसलीमा जी के साथ है, और इतने ही समय से मैं हिंदी में अनुवाद कर रही हूं। मैंने हिंदी में सबसे पहला अनुवाद तसलीमा जी के लेख का ही किया। हंस में तसलीमा जी के कॉलम शब्दवेधी/शब्दभेदी से मेरा हिंदी में अनुवाद करने का सिलसिला शुरु हुआ। तब, राजेंद्र जी के समय में हंस के दफ़्तर में एक ऊर्जा और रौनक़ से भरा माहौल हुआ करता था। उस ऊर्जा और रौनक़ को रचना जी, संजय सहाय जी ने शिद्दत से बचाए रखा है। और आज भी हंस के नए दफ़्तर में भी जाकर लगता है जैसे राजेंद्र जी अपनी कुर्सी पर बैठे सबकुछ का मुआयना कर रहे हैं। आज तसलीमा जी के लेखों के अनुवाद के संकलन को किताब के रूप में देखकर लग रहा है, जैसे यह मेरी ही ओर से राजेंद्र जी को श्रद्धांजलि है। कहते हैं ‘Like the ghostwriter, the translator must slip on a second skin।’ लेकिन इस वाक्य को कहीं गूगल ट्रांसलेट मत करियेगा, नहीं तो जो अनुवाद सामने आयेगा वो है, “भूत लेखक की तरह, अनुवादक को दूसरी त्वचा पर फिसलना चाहिए।” मैंने हमेशा ऐसे ही अनुवाद करने की कोशिश की है, उसमें मैं कितनी सफल रही हूं यह मुझे नहीं पता।

ऐसा कम ही होता है कि किसी अनुवादक को मंच से अपनी बात कहने का मौक़ा मिले। जब मुझे यह अवसर मिला है तो मैं संक्षेप में कुछ कहना चाहती हूं। मुझे लगता है इन जनरल, हमारे देश की सभी भाषाओं में, ख़ासतौर से हिंदी भाषा में अनुवादकों की बहुत कमी है। अक्सर अनुवाद को दोयम दर्ज़े का काम माना जाना है और यही ट्रीटमेंट अनुवादकों के साथ होता है, जबकि आज मूल लेखन से भी ज़्यादा अनुवाद का सामने आना ज़रुरी हो गया है। चाहे ग्लोबल प्लैटफ़ॉर्म या देश की दूसरी भाषाओं में अपने लेखन की उपस्थिति को दर्ज कराना हो या दूसरी भाषाओं के साहित्य को पढ़ना हो, उस भाषा के बोलने वालों का राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश को जानना-समझना हो और जब हम युनिटी इन डाइवर्सिटी की बात करते हैं, तब भी, अनुवाद ही एक सेतु का काम करता है, यही सबसे महत्वपूर्ण और एकमात्र टूल है। इस समय हमें लेखकों से ज़्यादा, अच्छे अनुवादकों की ज़रुरत है। और जब तक हम अनुवाद को मूल लेखन के पैरेलल ट्रीट नहीं करेंगे, हम अच्छे अनुवादक या स्तरीय अनुवाद नहीं ला सकते हैं। आप देखिए हिंदी में गिने-चुने अनुवादक हैं। वे अपनी मर्ज़ी से या फिर अपने क्रिएटिव सैटिस्फैक्शन के लिए अनुवाद करते हैं। उनका कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं है। अनुवादकों का कहीं ऐसा कोई रिकग्नेशन नहीं है, उनके लिए अकादमियां छोड़कर कोई पुरुस्कार/सम्मान नहीं है, अमोमन अनुवाद के लेकर वर्कशॉप्स (कार्यशालाएं)/सेमिनार्स, इन्टरएक्टिव सेशंस शायद ही किए जाते हैं, कोई फ़ेलोशिप या ग्रांट जैसी चीज़ नहीं है, और न ही अनुवादकों को उचित पारिश्रमिक मिलता है। प्रकाशक अनुवाद से जुड़ी किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी लेने से क़तराते हैं। ये कड़वी बातें हैं लेकिन कहना ज़रुरी है, प्रकाशक अनुवादकों के साथ कॉंट्रेक्ट साइन नहीं करना चाहते। उन्हें उनकी किताब की कॉपी तक देने से बचते हैं। सिर्फ़ अनुवाद को लेकर अभी तक हिंदी में कोई डेडिकेटेड पत्रिका भी नहीं है। अंग्रेज़ी को छोड़कर लगभग सभी भारतीय भाषाओं का यही हाल है। अनुवादक का हाल उस अनाथ बच्चे की तरह है, जिसकी ज़िम्मेदारी न उसके सगे-संबंधी लेना चाहते हैं और न ही अडोप्शन हाऊस उसके लिए कुछ करना चाहती है। दरअसल अनुवाद एक स्पेशियालाज़्ड काम है, हमें ज़िम्मेदारी के साथ अनुवादक तैयार करने होंगे, जिसमें प्रमुखता से प्रकाशकों, विभिन्न वॉलेंटेरी साहित्यिक संस्थाओं, फ़ाउंडेशंस एवं लेखकों का भी योगदान रहना ज़रुरी है। लेखक, अनुवादक और भाषाविदों को इन्वॉल्व कर कार्यशालाएं और राइटर्स इन रेज़िडेंस के तर्ज पर ट्रांसलेटर्स इन रेज़िडेंस और इनहाऊस ट्रांसलेटर्स जैसी चीज़ों को लाना होगा। हां, इन चीज़ों के लिए फ़ंडिंग की ज़रुरत होती है। लेकिन यह सोचने की बात है कि प्रकाशक एक किताब बाज़ार में लाने के लिए उसके कवर डिज़ाइनिंग से लेकर, पेपर कॉस्ट, प्रिंटिंग, एड्वर्टाइज़िंग, मार्केटिंग तमाम चीज़ों पर ख़र्च करता है, लेकिन जो मूल कंटेंट है, जिसकी वजह से यह सब है, बस उसकी क्वालिटी पर कोई ध्यान नहीं देता और ख़ासकर अनुवादकों को किसी तरह का सपोर्ट नहीं मिलता है चाहे फ़ाइनैनशियली हो या कुछ और। तो, इस समय जबकि हम समझ चुके हैं कि अनुवाद कितनी ज़रुरी विधा है, हमें इसके लिए कुछ नीतियां, स्ट्रैटेजीज़, गाइडलाइंस, मापदंड बनाने होंगे, कुछ एक्सट्रा एफ़र्ट्स लगाने होंगे। विदेशों में अनुवादकों के नाम पर किताबें बिकती हैं, हमारे यहां सिर्फ़ अंग्रेज़ी में ऐसा है। हिंदी में भी ऐसा हो सके ऐसा सपना मैं देखती हूं।
मैं रचना जी और संजय सहाय जी को साधुवाद देना चाहती हूं कि उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में एक अच्छी पहल की है। तसलीमा जी के लेखों के संकलन के साथ-साथ आज हंस की चर्चित हिंदी कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद की पत्रिका भी आ रही है। आगे, और भी भाषाओं में वे ऐसा कर सकें एवं दूसरी भाषाओं का साहित्य हिंदी में ला सकें इस शुभकामना के साथ……… मैं अपनी बात यहीं ख़त्म करती हूं।

किताबें

......................
......................
......................
......................

……………..

error: Content is protected !!