Tuesday, May 14, 2024
युवा कवयित्री तुल्या कुमारी इन दिनों मृदुला गर्ग के साहित्य पर पीएचडी कर रही है।वह कोलकत्ता की रचनवली है।आजकल अमरकंटक विश्विद्यालय की छत्र हैं

तुल्या कुमारी
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक
शोधार्थी( हिन्दी विभाग)
ईमेल – [email protected]

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कविताएं

काम

काम, काम, काम 

काम की दुहाई देकर
तुम
सदियों से मारते आ रहे हो
मेरी भावनाओं को’
मेरी इच्छाओं को’

मेरे प्रेम को, 

मेरी संवेदनशीलता को, 

मेरी मानवतावादी दृष्टिकोण को |
काम कहकर तुम क्या जतलाना चाहते हो?
क्या मुझे नहीं पता काम क्या है !
भोर में उठकर
झाड़ू, पोछा, बर्तन,
खाना, बाजार, मेहमान
सास, ननद, देवर
या हो भरा पूरा परिवार    
आधी रात तक सबका मैं करती आ रही हूँ काम
फिर भी नहीं पढ़ती भूलना
तुम्हारे चेहरे पर आये हर एक भाव को
तुमसे प्रेम करना,
काम के बीच फोन कर
तुम्हारा हाल जानना,
रिश्ते को नहीं भूलती जीना
पर तुम्हें कभी पढ़ना नहीं आया
मेरे सुख-दुख, प्रेम,
मेरी इच्छा को
न ख्याल रहा कभी पूछने का
दिन भर कैसा रहा ?
या कैसी है तुम्हारी तबीयत ?
पूछते हुए सर पर हाथ फेरा नहीं
और न प्यार से गले लगाया ।
थक चुकी हूँ मैं
इंतजार करते-करते
काम में व्यस्त अब मैं भी रहने लगी हूं |

मौन

संबंध अक्सर दम तोड़ देते हैं
भावनाओं के अभाव में
और अंत में मनुष्य
हो जाता है मौन
तब कुछ नहीं बचता उसके पास
कुछ कहने को,
कुछ सुनाने को
वह हारता नहीं है
बस मौन हो जाता है
नहीं करता है कोई उम्मीद
बस वह बन जाता है आवारा
और जीता चला जाता है
अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए । 

देह

क्या तुम थक नहीं जाते,
क्या तुम नहीं थक गए हो?
देह रूप में मुझे देखते-देखते
सदियों से तुम ऐसे ही ठीक ऐसे ही देखते चले आ रहे हो
क्या सच में तुम्हें नहीं दिखता मेरा प्रेम
मेरा त्याग, मेरी सेवा
अब तो मैं हर क्षेत्र में काबिल हूं,
अपने नाम का परचम लहरा रही हूं |
क्या फिर भी तुम्हें नहीं दिखाई देती मेरी योग्यता
या तुम देखना ही नहीं चाहते अपने संगी साथी के रूप में
क्यूं मानते हो तुम मुझे अपना प्रतिद्वंदी
क्या तुम थक नहीं जाते
मुझे देह रूप में देखते-देखते
तब भी और अब भी बस मैं तुम्हारे लिए देह हूं ?

साथ-1 

थक जाती हूं मैं
जब
कभी-कभी
जिंदगी के भाग दौड़ में
बेहिसाब संघर्ष से सामना करते-करते
तब
मैं टटोलती हूं तुम्हारा हाथ,
तुम्हारा साथ
जब तुम मुझे उस बच्चे की तरह संभाल लो
जिसका खिलौना अभी-अभी टूटा है
या फिर
वो उदास है
बिना शिकायत किए
बस मुझे संभाल लो
उस पल जब मैं थक जाती हूं
संघर्ष करते-करते
पर
तुम्हें लगता है
मैं नासमझ हूं
नहीं समझती तुम्हारे काम, तुम्हारे परिवार और
तुम्हारी परिस्थितियां
और चाहती हूं
तुम्हारा चौबीस घंटा
तुम्हें ये लगता है
तभी
हां तभी
तो तुम कहते हो कि
क्या सब कुछ छोड़-छाड़ के बस तुमसे बात ही करता रहूं
मैंने कब कहा
मुझसे तुम चौबीस घंटा बात करते रहो
मैंने तो बस कुछ
रोज से थोड़ा ज्यादा वक्त मांगा था
जब तुम मुझे पढ़ लेते
पढ़ लेते मेरे जज़्बातों को
और साथ दे देते उस वक्त
लेकिन
जब भी मैंने तुमसे मांगा थोड़ा ज्यादा साथ
तुमने और भी
अकेला कर दिया

और मैं अंत में रह जाती हूं
मौन…….. 

साथ-2

 

चाहती हूं 

कुछ पल का साथ

हमेशा से

और तुम 

हमेशा से मुझे रहस्यमयी कहकर

घोंट देते हो मेरी भावनाओं का गला

जैसा की तुम हमेशा से करते आ रहे हो

तुम अपनी संवेदनहीनता से 

कत्ल करते आ रहे हो 

मेरी संवेदनशील और कोमल भावनाओं का

हमेशा से और 

इल्जाम लगाते हो मुझ पर 

मुझे समझना आसान नहीं है 

और हंस देते हो भद्दी हंसी 

या फिर यह कहकर

कि औरतों से कोई जीत नहीं सकता

तुम कामयाब हो जाते हो 

हमेशा से अपने साजिशों में 

मुझे प्रताड़ित करने वाली स्त्री बताकर

तुम बन जाते हो बेचारा पुरुष

जैसे कि कैद में मैं नहीं 

हमेशा से तुम रहे 

खैर अब मैं वो नहीं 

जो तुम्हारी संवेदनहीनता का कर

अपने आंसुओं से चुकाती रहूं

अब मैं खुद में काफी हूं …..।

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