Friday, November 29, 2024
उर्मिला शिरीष
 
जन्म :     19 अप्रैल, 1959.
 
शिक्षा:     एम.ए. (हिन्दी), पी-एचडी., डी.लिट्. (आद्योपान्त प्रथम श्रेणी).
 
प्रकाशित कहानी संग्रह :    
 
(1)    ऐ देश बता तुझे हुआ क्या है! (2) नाच-गान, (3) उर्मिला शिरीष की लोकप्रिय कहानियाँ, (4) बिवाईयाँ तथा अन्य कहानियाँ, (5) उर्मिला शिरीष की श्रेष्ठ कहानियाँ, (6) दीवार के पीछे, (7) मेरी प्रिय कथाएँ, (8) ग्यारह लम्बी कहानियाँ, (9) कुर्की और अन्य कहानियाँ, (10) लकीर तथा अन्य कहानियाँ, (11) पुनरागमन, (12)    निर्वासन, (13) रंगमंच, (14) शहर में अकेली लड़की, (15)    सहमा हुआ कल, (16) केंचुली, (17)    मुआवजा, (18) वे कौन थे।  
 
उपन्यास : (1) ख़ैरियत है हुजूर, (2) कोई एक सपना, (3) चाँद गवाह। 
 
जीवनी :     बयावाँ में बहार (गोविन्द मिश्र की जीवनी) 
 
साक्षात्कार :शब्दों की यात्रा के साथ (साहित्यकारों से साक्षात्कार). 
 
सम्पादित पुस्तकें :    प्रभाकर श्रोत्रिय 
: गोविन्द मिश्र,    चित्रा मुद्गल :  और शशांक की सृजनशीलता पर
 
सम्मान/पुरस्कार :    
(1)    म.प्र. साहित्य अकादेमी का अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार,
 
(3)    कमलेश्वर कथा सम्मान,.
 
(4)      कृष्णप्रताप कथा सम्मान, 5    कहानी संग्रह ‘पुनरागमन’ को विजय वर्मा कथा . 
 
(8)    कहानी संग्रह ‘निर्वासन’ को निर्मल पुरस्कार.
 
(9)    साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘वागीश्वरी’ पुरस्कार,  
 
टेलीसीरियल :     दूरदर्शन द्वारा कहानी ‘पत्थर की लकीर’ पर टेलीसीरियल.
 
 
संयोजक :     ललित कलाओं की संस्था ‘स्पन्दन संस्था, भोपाल की संयोजक.
 
अनुवाद :    उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी, सिन्धी तथा ओड़िया में कुछ कहानियों का अनुवाद.
सम्प्रति :    म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग, मध्यप्रदेश शासन  से प्राध्यापक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के पष्चात् स्वतंत्र लेखन. 
 
 

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कहानी

यात्रा

  — उर्मिला शिरीष

माँ

तुम बीमार नहीं हो। नहीं हो। मैंने कह दिया ना। अगर बीमार हो तो बताओ क्या बीमारी है…? इतनी जाँचें करवायीं, कोई बीमारी निकली! तुम्हारे चौड़े चाँद जैसे माथे पर बीमारी की एक रेखा तक नहीं है। तुम्हारे नरम हाथ गरम हैं। तुम्हारी जादुई आँखों में अब भी चमक है। तुम्हारे सुनहरे बाल घुँघराली लटों के बीच अभी भी लहरा रहे हैं। तुम्हारा फिगर अब भी आकर्षक और चुस्तदुरुस्त है। डॉक्टरी भाषा में कहूँ तो तुम एकदम ठीक हो, एकदम निरोग!

क्या कहामानसिक बीमारी? डिप्रेशन की शिकार हो। ओह यह भी किसने कहा और क्यों! क्योंकि तुम्हें ऐसा लगता है! मुझे लगता है तुम्हारे भीतर से जीवन का स्वाद चला गया है। तुमने सारे संसार को रसहीन मान लिया है। तुमने प्रेम की जगह घृणा और अविश्वास को अपने भीतर पाल लिया है। तुमने सारे लोगों को अपनी जि़न्दगी से निकाल दिया है। तुम सि$र्फ और सि$र्फ अपनी नज़रों से दुनिया को देखती हो। दुनिया तुम्हें किस नज़र से देखती है, कभी सोचा? नहीं ना। 

तुम स्वयं परेशानी में रहती हो और हमें भी रखती हो। यह समय हमारे कैरियर बनाने का है, ना कि फालतू बातों कोडिस्कसकरने का। प्लीज माँ, समझने की कोशिश करो। तुम नादान बच्ची नहीं हो!

मुझे लगता है तुमने अपने चारों ओर एक घेरा बना रखा है। तुम अपनी कल्पनाओं को अपने विचारों में जन्म देती हो और तुम्हें लगता है कि वह वास्तव में हो रहा है। अच्छा रोना बंद करो। तुम्हारा रोना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता है। 

रोना तुम्हारी फितरत में नहीं था।  

तुम तो हमेशा हँसती रहती थी। हर परिस्थिति में, हर मौसम में। तुम्हारी हँसी की सब दाद दिया करते थे। तुम्हारी हँसी ने एक संगीत का वाद्ययंत्र बना लिया थाजिसके तार छेड़ो और वह सनसना उठती थीक्या कोई वाद्ययंत्र सनसनाता हैमैं अभी एप्रोप्रियेट शब्द नहीं तलाश पा रही हूँ, पर मेरे कहने का आशय यही है। चिडिय़ाँ चहकना भूल सकती थीं, पर तुम हँसना नहीं भूलती थीं। नदी ठहर सकती थी पर तुम्हारी हँसी की धार नहीं। फिर यह सब कैसे हो गया कि इधर पतझड़ आया और उधर तुम्हारी हँसी चली गयी। पतझड़ का तो पता चलता हैपत्तापत्तापीला होकर गिरने लगता है, वृक्षों की छाल सूखकर झरने लगती है। हवाओं में पत्तों की, सूखे पत्तों के चटकने कीउडऩे की आवाज़ आने लगती है, मगरतुम्हारी हँसी की खनक कब डूब गयी हमें पता ही चला। हम सब कब इतने दूर हो गये। हमारी दुनिया, हमारे सपने, हमारे रास्ते कब और क्यों दूसरी दिशाओं में चले गये। क्या यह हमारे जीवन का रहस्य है या अंधकार या अजनबी होते जाने की शुरूआत!

अच्छा रोना बंद करो। प्लीजमाँ!

आज मुझे तुम्हें समझाना और सँभालना पड़ रहा है तुम तो मुझे सँभाला करती थीं, सबसे अलग रखती थीं। मेरे रोने पर तुम सबसे ज्य़ादा चिढ़ा करती थीं। क्योंकि तुम्हें रोने से सख्त नफरत थी। किसी के भी आँसू देखकर तुम हैरान होती थीं, लेकिनआजअबक्यों बहते हैं तुम्हारे आँसू। कोई यकीन करेगा कि तुम लगातार रोती हो, भीतरबाहर रोती हो। सुबहशाम रोती हो। सोतेजागते रोती होसबके बीच और अकेले में रोती हो। इससे अच्छी तो तुम्हारी सास यानी मेरी दादी थी, जो अपना सारा गुबारगुस्सा, दर्द लड़भिडक़र निकाल लेती थीं। अपनी बात मनवाने के लिए कितने स्वाँग कर लिया करती थीं। उनके आगेपीछे सारा कुनबा घूमता था और दादाजी उनके नाम की माला जपतेजपते थकते नहीं थे। तुमने उनसे कुछ भी नहीं सीखा कि एक मजबूत औरत आँसुओं से नहीं आग से बनती है। वो आग नहीं जो बाहर दिखती हैअन्दर की आग! एनर्जीताकत। सेल्$ कॉन्$िफडेन्स। या इससे भी परे कुछ और!

ओहमैं ज्य़ादा बोल रही हूँ। चुप हो जाती हूँ!

चलो अब तुम्हारी बात सुनती हूँ। बताओ क्या बात है? किसने क्या कह दिया? किसकी बात से तुम आहत हुई हो? कौन तुम्हारा अपमान करके चला गया…? क्या तुम जीवन भर मानअपमान के बाँस पर चलती रहोगी? कब उबरोगी इन क्षुद बातों के प्रभाव से?

अकेलापन। क्या बचकानी बात करती हो

क्यों तुम्हें हमेशा किसी किसी मर्द की ज़रूरत होती है? कभी पिता की, कभी भाई की और अब इस आदमी की, यह तथाकथित गुरुजिसकी दोदो बीवियाँ हैंबच्चे हैं, वह तुम्हें आध्यात्मिक गुरु लगता है, जो अपने ढोंग को सच साबित करने में लगा रहता है, जो अपनी ही औकात नहीं जानता है, जिसे पुलिस और नेताओं की ज़रूरत पड़ती है, वह ईश्वर को देखनेदिखाने की बात करता है! वह जैसा चाहता है तुम्हें नचाता रहता हैउसने तुम्हारी सोच, तुम्हारी पर्सनेलिटी बदल दी है!… तुमने उसके पीछे पूरे खानदान को दुश्मन बना लिया था और मुझे, अपनी बेटी तक को घर से निकाल दिया था। अच्छा माँ, बताओ जिनके पिता, भाई, बेटा या ऐसे गुरु नहीं होते, क्या वे जि़न्दा नहीं रहतीं? मानती हूँ माँ कि तुम्हें अपने जीवन में कम्पलीट परफेक्ट पुरुष नहीं मिला है, जिसकी तलाश में तुम भटकती रही हो। यह तुम्हारे जीवन की यात्रा नहीं यातना हैयह सहारा नहीं, कमजोरी है। यह खोज नहीं, शून्य में दौडऩे की थकान है। 

मैं सिखा रही हूँ? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है!

बस तुम्हारे मन को टटोल रही हूँबदलो अपने मन को, अपने विचारों कोभरो अपने अधूरेपन को!

तुमने अपने आपको देखा ही कब? समझा ही कब? तुम तो दूसरों में अपने को ढूँढ़ती रहती हो! कोई तुममें खुद को ढूँढ़े, ऐसी स्थिति पैदा की? नहीं ना!

मानती हूँ कि तुम सबसे अलग हो। सबसे बेहतर भी, पर तुम्हें एक बिन्दु पर ठहरना आता ही नहींकभी कुछतो कभी कुछतुम्हारे पास हज़ारों आइडिया हैं, पर उनको पूरा करने की इच्छाशक्ति नहीं है। तुम्हारे पास रहस्य और रोमांच से भरे $िकस्से हैं, लेकिन तर्कशैली नहीं। तुम्हारे पास अनेक सपने हैं, पर सपनों को साकार करने की दृष्टि नहीं। इसलिए कई बार तुम रहस्यमयी हो जाती हो, तो कई बार जिद्दी भी, तो कई बार अहंकारी भी और कभीकभी दयालु भी। सबसे निरासक्त कैसे रह लेती हो? रहती भी हो या रहने का नाटक करती हो!

जिस बात या विचार या आइडिया पर हम काम करना शुरू कर देते, पता चला वह तुमने हवा में उड़ा दिया या जिसके बारे में हमने सोचा तक नहीं था, उस पर तुमने काम करना शुरू कर दिया! है तुम्हारे अनिश्चय का खेल। तुम्हारे ऊपर तो कोई $$र्क ही नहीं पड़ता है। 

कभी भी कोई भीडिसीजनकैसे ले लेती हो? सब सच ही कहते हैं, तुम इस दुनिया के साँचे मेंफिटनहीं बैठती हो! यह दुनिया आपसे अलग नहीं हो सकती! समाज को बदलने में समय लगता है। समाज का भी मनोविज्ञान होता है! मैं जानती हूँ। मैं मैच्योर हूँ!

ठहरो माँ, तुमसे बातें करके मैं असमंजस पर पड़ जाती हूँ। मैं तो तुम्हारी एक मुकम्मल तस्वीर देखना चाहती हूँ तो वह बिखरीबिखरी सी लगती है। टूटी काँच की चूडिय़ों में जैसे रंग दिखते हैं वैसे ही रंग मुझे तुम्हारे व्यक्तित्व में दिखाई देते हैं! तुम भी तो एककम्पलीट वुमननहीं हो। तुमसे भी तो सबको शिकायतें हैं। जब से मैंने आँख खेाली है, तुमको कुछ अलग करते पाया है। तुमको साडिय़ों, गहनों, बर्तनों, घर की साफसफाई से कोई वास्ता नहीं रहामिट्टी से, पत्थरोंं से, पेड़ों से, पत्तों से, रंगों सेप्यार करते देखा है। तुम्हारे लिए बादल, आसमान, पेड़, फूलपत्ते मायने रखते हैं, हम इंसान नहीं! तुम कैसी औरत हो तुमने दादाजी का घर, अपनी प्रापर्टी का हिस्सा, सब कुछ छोड़ दिया। जानती हो, इससे क्या हुआ, हम लोग बेघर हो गये। आज हमारे हाथ में कुछ नहीं है। सबकी डाँट के बावजूद तुमने स्वयं को कभी नहीं बदला। तुम पूरी तरह से सांसारिक हो सन्यासिनी, तुम योगी भोगी। तुम्हारी साधनाएँ, तुम्हारे काम, तुम्हारी कोशिशें, तुम्हारी मेहनत, तुम्हारी भागदौड़, तुम्हारी आशानिराशा सब अपनी दिशा की तलाश में आधेअधूरे पड़े हैं। अगर तुम्हें कुत्तेबिल्ली पालना थे तो पाल लियेरातरात भर जागकर उनकी सेवा करती हो। दादादादी को इसीलिए तुमसे शिकायत है कि तुम उनकी सेवा की बजाय जानवरों की सेवा कर रही हो। 

क्याऽऽसबने आना बंद कर दिया

सच तो है, तुम्हारे बदबू भरे, गोबरमिट्टी से लिपेपुते बीहड़, मिट्टी, पत्थर से घर में कौन आयेगा…? 

यह तो तुम्हें डिसाइड करना है कि तुम किसको अपने जीवन में आने देना चाहती हो?

तुमको और कितना समझाऊँ? क्या करो, क्या नहीं? तुम्हें समझासमझाकर मैं बूढ़ों की तरह बातें करने लगी हूँ। 

यह तो सदियों से चला रहा सिलसिला है, माँसमझने, समझाने का! यदि कोई आसानी से समझ लेता और आसानी से समझा देता तो हज़ारोंलाखों लोगयूँ साधुसन्यासियों के सामने भीड़ लगाते। नहीं, मज़ाक नहीं बना रही। सत्य को छूने की कोशिश कर रही हूँतुम्हारी खातिर! तुम्हारी खातिर मैं क्याक्या नहीं झेलती हूँ! कितने झूठ, कितने बहाने, कितने $िकस्से गढ़ती हूँ!

अब नयी बातेंनयी चिन्ताएँ! मेरी शादी की! मेरे कैरियर की! मेरे खुले सम्बन्धों की! समाज और परिवार को रोकनेटोकने, पता चलने की चिन्ता! मैं खुलकर जीती हूँ, सच्चाई से जीती हूँ। तुम्हारे परिवार में कितने $िकस्से सुनने को मिलते हैं। दादाजी तो बुढ़ापे तक में लड़कियों से सम्बन्ध रखते थे। उनको किसी ने कुछ नहीं कहा? क्यों! मेरे बारे में क्या सोचनामैं आज की लडक़ी हूँ, आज के हिसाब से रह ही रही हूँ। यकीन करो, मैं अपना $फ्यूचर बना लूँगी। मुझे पता है कि मुझे क्या करना है, क्या नहीं? मेरे सम्बन्ध समीर सेहाँ हैं। तो! छोड़ देगा! मैं भी कौन सा उसके साथ बँधकर रहना चाहती हूँशादी! जब कोई मिल जायेगा, कर लूँगी। हाँ, हाँ, हाँ…!

घर के कमरे बंद हैं, अँधेरे में डूबे। थोड़ासा उजाला कर दूँ। बाहर गाडिय़ों का शोर है, भीतर तुम्हारी आवाज़ों का, जो कभी चिन्ता में डूबी होती हैं तो कभी रुलाई में, तो कभी शिकायतों में। बाहर पानी बह रहा है मेरे भीतरतुम्हारे आँसू! तुमने बेवक्तमेरे भीतर स्वयं को थोप दिया हैमैं यूँ ही बूढ़ी हो जाऊँगी। यूँ अपनी कामनाओं को दबा दूँगी। तुम्हारी मनहूसियत ने मेरे खिलंदड़पन को, मेरे ठहाकों को, मेरी हँसी को, मेरी खूबसूरती को कुचल दिया है! तुम तय कर लो कि क्या देना चाहती हो विरासत में मुझे

हाँहाँ, मैं कह दूँगी कि सब तुमको समझाना, सजेशन देना बंद कर दें। मामा, मौसी, बुआसबको कह दूँगी। दादी और नानी की पूरी उम्र अपनी बहूओं और बेटियों को समझाने में निकल गयी और तुम्हारी आधी उम्र समझने और झेलने में। मज़े की बात यह है कि वे तुम्हें समझा सकी हैं और तुम समझ सकी होवे बूढ़ी औरतें सारी उम्र इसी खुशफहमी में रहती आयी हैं कि उन्होंने तुमको कण्ट्रोल कर लिया। क्या इन बातों कासमझाईशों का कोई अंत नहीं है…?… 

हाँघर में उजाला हो गया है, दीये जल रहे हैं बाहर का अँधेरा मैंने दूर तक आकाश में धकेल दिया है। उजालों को मैंने भीतर बुला लिया हैहाँमैं इन अँधेरों, उजालों में भी नाचना चाहती हूँगाना चाहती हूँचीखनाचिल्लाना चाहती हूँकविताएँ तो तुम लिखती थीं, मैं तो डायरी लिखती हूँ। तुमसे छुपाकर रखती हूँ अपनी डायरी। 

अच्छा सीरियस मैटर और बातें छोड़ो। बताओ मेरे बच्चे यानी बिल्लियाँ कैसी हैं! पेड़ों पर चढ़ी हैं। पूरे जंगल में घूम कर जाती हैं, मोरों से डर गयी थीं? मोर आने लगे हैं। बिल्ले तो नहीं आते? मेरी बिल्लियाँ इतनी खूबसूरत और सेक्सी हैं कि बिल्ले आयेंऐसा कैसे हो सकता है? हम लोग यहाँ एक कमरे के फ्लैट में रह रहे हैं, साफ हवा के लिए तरस जाते हैं। मेरी साँसें घुटने लगती हैं। सूरज की रोशनी देखने के लिए मेरी आँखें तरस जाती हैं। मैंने यहाँ आकर चाँद और तारे नहीं देखे हैं और तुमतुम जहाँ रहती हो, कितने खूबसूरत पेड़ हैंपक्षी हैंतालाब हैंजानवर हैंक्या सीन होता होगा सुबह और शाम का? शानदार! पेंटिंग की तरह

अच्छा, ये बताओ माँ, तुमने पेंटिंग बनानी क्यों बंद कर दी है!  

क्यों! क्यों! बताओ ना! कब बनाओगी? जब बूढ़ी हो जाओगी? उँगुलियाँ काँपने लगेंगी! नज़र कमजोर हो जायेगी! तुम्हारा कोई इलाज नहीं सिवा इसके कि तुम अपनी कला की दुनिया में लौट जाओ! क्या करोगी पैसा बचाकर! मकान बनाकर! तुम जिस जगत् में रह रही हो, वह कितनों को मिलता है। वे क्या जाने माँ, तुम कितनी स्वतंत्र पर्सन होबाहर से बँधी दिखती ज़रूर हो, पर तुम्हारे मन के बंधनवो तुम्हारे खुद के बनाये हुए हैं… 

उपदेश नहीं! यही सच है! मैं तुम्हारी बेटी हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि मुझे दुनियादारी का अनुभव नहीं है। तुमसे ज्य़ादा जानतासमझती हूँ मैं लोगों को!

तो सुनो। बारबार मत पूछा करो।

आखिरी बार बता रही हूँँबस…! 

मेरा काम अच्छा चल रहा है। मैं अपना जीवन खुद गढ़ रही हूँ। मुझे अपनी बुद्धि पर सोच पर भरोसा है। नहीं, यह तुम्हारी गलतफहमी है। मुझे अपनी सुन्दरता पर घमण्ड नहीं है.. अभिमान हैमेरी सुन्दरता साधारण सुन्दरता नहीं हैजो पुरुषों को रिझाने के लिए होमैंनेसुन्दरता नहीं, सौन्दर्य को अपनी देह और दिमाग में तराशा हैमैन्टेन किया हैसुन्दरता बहुत सामान्य सी भी हो सकती हैपर सौन्दर्य, उसको बननेगढऩेऔर तराशने में सालोंसाल लग जाते हैं। वह बुद्धि, ज्ञान, आत्मविश्वास और भीतर की चमक से चमकता है। तुम भी तो सुन्दर हो। हाँ तुमने अपनी सुन्दरता को बेवक्त खो दिया है, मटमैला कर दिया है। क्या कहा, आत्मा की सुन्दरतामन की सुन्दरताहाँहाँ माँमैंने बहुत कुछ पढ़ा है, मैं जानती हूँ आत्मा के बारे में!…

$फकोर्स माँवह तुम्हारी आँखों में दिपदिपाती थी तारों की तरह तुम्हारी आँखों के वे तारे, वे जुगनूवे ओस के कणऔर क्याक्या कहूँजिनके प्रकाश में मैं अपना रास्ता खोजना चाहती थीपर माँहम दोनों का जीवन कुछ अजीब तरह का है, जिसकी कहानियाँ सुनतेसुनाते युग बीत जायेंगे! अच्छा छोड़ोभी!

मैं तुम्हारी बातें समझती हूँ। गुनती हूँ। मनन करती हूँ। तुम मेरी देह से ही रचीबसी हो। आत्मा का, रक्त का सम्बन्ध है हमारा। जो मुझमें हैं, वह तुममें तो आयेगा ही। अभी कोई चीज़ ऐसी नहीं बनी है, जो मनुष्य के खून और मांसमज्जा से अलगकुछ बना सके। टेस्ट ट्यूब बेबी हो या मटके में पलता भू्रण, माँ धरती और अग्रि से पैदा हुई जीवात्मा, उसमें मनुष्य और सृष्टि के पंचतत्त्वों का योग तो होगा ही! मेरे भावों की उजास तुम्हारे भीतर फैली है। मेरी कला का दूसरा रूप तुम्हारे भीतर पल्लवित हो रहा है। मैंने रंग और ब्रश पकड़ा था, तुमने कैमरा। तुम मुझसे भी ज्य़ादा गहरी और दूर की चीज़ें देख सकती हो। कैमरे में $कैद कर सकती हो। तुम्हारी आँख कैमरे की आँख जो है। 

जानती हो मेरा सचमेरे जीवन का सौन्दर्यमेरी निजतामेरी हँसीकिसने छीनी? आज इन सब बातों का रोना, रोना नहीं चाहती। मेरा बचपन मेरे भीतर दब गया था, मेरे भीतर क्षोभ था। अंतहीन पीड़ा थी। मेरे भीतर इतने समन्दर और इतनी नदियाँ हैं कि मैं उसी में डूबतीउतराती रहती हूँ। मेरी मन्नो! उस पीड़ा को, उस पराधीनता को, उस दबाव को मैंने पच्चीस साल तक झेला है, जिया है। पच्चीस साल! जो अपने पलपल का हिसाब रखती होउसके पच्चीस साल का जानाकितना वेदना से भरा होगा वह अनुभव! और पच्चीस सालमेरे देखतेदेखते चले गये। सच कहती हो, मैं शारीरिक रूप से बीमार नहीं हूँ। मैं पिछले कई सालों से मानसिक रूप सेआत्मिक रूप से बीमार चल रही हूँ। मैं इस देह के पिंजरे से बाहर निकल, समय के पंख लगाकर उडऩा चाहती थी, मैं अपने सपनों और कल्पनाओं का एक छोटासा संसार रचना चाहती थीबस। कल्पना करो कि पूरे एक जीवन में  किसी का एक सपना तक पूरा हो सके, उसे कैसा लगेगा?

मैं बहती नदी एक तालाब में सिमट गयी, फिर तालाब एक सूखे पोखरे में। क्या यही मेरी नियति थी

नहीं ना!

मन्नो, लोग क्यों नहीं समझते कि मेरा संसार इस अनन्त आकाश मेंइस हरीभरी धरती में एक कोना मात्र चाहता था। 

कहोकहो कि मैं मिट्टी की बेटी हूँ.. पत्थरों की सखी हूँ, मैं हरी दूब की ओस हूँमैं नदी में रहने वाली मछली हूँ, मैं आसमान में उडऩे वाली चिडिय़ा हूँमैं एक छोटी सी गुडिय़ा हूँमैं एक लघु तारिका हूँ इस ब्रह्माण्ड की। मेरे स्वप्नलोक का संसार बहुत छोटा हैबहुत नगण्य सा। 

मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ। मैं किसी से कुछ माँग भी नहीं रही हूँ, प्यार, सम्पत्ति, घरद्वार भरोसा वायदा बुढ़ापे का सहारा, इहलोक और परलोक से मुक्ति, मोक्ष पाने की कामना! मैं तो सबकी चिन्ताओं से परेशान हूँचिन्तित हूँमुझे थोड़ासा एकान्त चाहिए!

थोड़ा और अपना सा लगने वाला एकान्त!

एकान्त! एकान्त!! एकान्त!!!

 

मन्नो, घबराना नहीं। 

कल तबियत बिगड़ गयी थी!

हास्पिटल आना पड़ा था!

मैसेज पढ़ते ही मन्नो की रुलाई फूट पड़ी। मनआत्मा की दीवारों को फाड़ती रुलाईकमरे में गूँजने लगी थी। ट्रेन नहीं, बस नहीं, टैक्सी नहीं। हवाईजहाज। वो भी दूसरे दिन का! उडक़र पलों में माँ के पास पहुँचा जाना चाहती है। क्या हो गया माँ को! क्यों हो गया!… क्या माँ कभी ठीक नहीं होगी। किसी के कहे शब्द तीर बनकर तो नहीं चुभ गये उनके मन में। आँखों में नींद नहीं। मन में चैन नहीं। हृदय में छपाछप कुछ गिर रहा है। स्मृतियों की घाटियों में चिडिय़ा की तरह चक्कर लगा रही है मन्नो। 

सीधे हास्पिटल पहुँची। प्रायवेट रूम में सन्नाटा पसरा है। खिड़कियों पर हरे रंग के परदों के पीछे दिन का उजाला पसरा है। ड्रिप और दवाइयों के बीच माँ का मुरझाया साँवलासा थका चेहरा! चेहरे का नूर, चेहरे की मांसपेशियाँ, चेहरे की बनावट ही बदल गई।

मन्नो स्तब्ध!

मन्नो चुप। 

मन्नो काष्ठ बन गयी

माँ जो एक नदी की तरह थीमाँ जो एक कविता की तरह थीमाँ जो एक पेंटिंग की तरह थी। माँमूर्ति में धडक़न की तरह थीमाँमाँ… 

मन्नो…!

मन्नो हड़बड़ायी। चौंकी। फिर सँभली। आँखों में सिमटा धुँधलापन उतर रहा है। 

चिन्ता मत करो। मैं गयी हूँ।मन्नो ने माँ के गरमनरम वक्ष पर सिर रख दिया। बिखरे बालों ने माँ को चारों तरफ से ढाँप लिया। मन्नो की बाँहों ने बाँध लिया माँ की थकी देह को! माँ के आँसू नहीं थमरहे हैं। सिसकियाँ! फिर मौन! फिर टूटेफूटे संवाद! फिर मुस्कराहट की रेखाएँ। 

एक हफ्ते बाद डिस्चार्ज करवाकर मन्नो माँ को ले जा रही है। सीधे स्टूडियो! अब कोई सवाल नहीं। कोई चिन्ता नहीं। कोई आगेपीछे, दाँयेबाँये नहीं। किसी का इन्तज़ार करती आँखें नहीं। शिकायत करती जबान नहीं। तुम्हें ठीक होना है। ठीक रहना है। तनमन को बचाना है। मैं सि$र्फ तुम्हारा खून मांसमज्जा नहीं हूँ, मनोविज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ। चेतन, अवचेतन और अर्धचेतन मन की सारी अवस्थाओंस्तरों कोसबको पढ़ा है। तुमको पढऩे की आदत सी बन गयी है। 

बंद हॉल के दरवाज़े खोल दिये। दूर तक घने पेड़ों की कतार नज़र रही है। परिन्दे चहचहा रहे हैं। इतने तरह के परिन्दे! इतनी तरह की आवाज़ें! इतनी तरह की हवाएँ!हवाएँ गुनगुना रही हैं। 

‘‘उठो। पानी पिओ। कपड़े बदलो।’’ 

‘‘उठो। खड़ी हो जाओ। लो खाना खाओ। दूध पिओ। फल खाओ।’’ 

मन्नो ने भूमिका बदल दी। मन्नो कठोर अभिभावक बन गयी है!

‘‘देख लिया कोई बीमारी नहीं है। तुम्हारा इलाज कोई डॉक्टर नहीं कर सकता।’’ 

धूल खा रहे कैनवास को साफ किया। जंग खा रहे स्टैण्ड को ढूँढ़ लाई। डिब्बों में बंद पड़े रंग के ट्यूब निकाले। ट्रे में रंग, ब्रश, नाई$ सजा दिये हैं। सजा दिया है माँ के जीवन का साजशृंगार।

‘‘पकड़ो। माँ कहीं कुछ नहीं छूटा है। सब कुछ तुम्हारे भीतर है। जो दब गया था, उसे बाहर निकालो।’’ एक गुरु की हिदायत! आदेश!

माँ ने ब्रश पकड़ा, हाथ काँप रहे हैं। उँगलियों की पकड़ ढीली है। 

‘‘होगा माँहोगाहिम्मत करो। यह कोई जंग का मैदान नहीं हैयह तुम्हारे जीवन का मैदान हैसमझी ना।’’ मन्नो स्थिर दृष्टि से देखते हुए कह रही है। उसकी आवाज़ में अजीबसा सुरूर उतर आया है। 

ब्रश ने हल्के से रंगों को छुआरंग कैनवास पर बिखरे। कुछ टेढ़ीमेढ़ी सी आकृतियाँ उभरी। छोटी आकृतियाँ बड़ी होने लगीं। रेखाओं के बीच रंग भरे जाने लगे। रंग फैलते गये। रंगों से कैनवास पर आकाश उतर रहा है, सूरज अपना रंग बदल रहा है, धरती का कोई छोर दीख रहा हैबाहर खड़े पेड़ अन्दर गये हैंकोई स्त्रियाँ अपना वजूद तलाशतीस्वयं को गढऩे में लगी हैमाँ के हाथ अब तेजी के साथ चल रहे हैंइतनी तेजी के साथ कि कहीं कुछ छूट जाये…  वर्षों का छूटा हुआ, ठहरा हुआ एक ही बार में पूरी $फ्तार से पकड़ लेना चाहती है

मन्नो ने कैमरा निकालाऔर चित्र बनाती माँ की तस्वीर खींचने लगी… 

‘‘माँ, इधर देखोइधरमेरी तरफमुस्कुराओ औरहँसोजोर से, और जोर से।’’

और पेड़ों पर चहचहाती चिडिय़ों ने, सरसराती हवाओं ने सुनी माँ और मन्नो की वो हँसी जो हवाओं के साथ बहती हुई आसमान में गूँज रही थी। 

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उर्मिला शिरीष

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किताबें

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