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कहानी
यात्रा
— उर्मिला शिरीष
माँ,
तुम बीमार नहीं हो। नहीं हो। मैंने कह दिया ना। अगर बीमार हो तो बताओ क्या बीमारी है…? इतनी जाँचें करवायीं, कोई बीमारी निकली! तुम्हारे चौड़े चाँद जैसे माथे पर बीमारी की एक रेखा तक नहीं है। तुम्हारे नरम हाथ गरम हैं। तुम्हारी जादुई आँखों में अब भी चमक है। तुम्हारे सुनहरे बाल घुँघराली लटों के बीच अभी भी लहरा रहे हैं। तुम्हारा फिगर अब भी आकर्षक और चुस्त–दुरुस्त है। डॉक्टरी भाषा में कहूँ तो तुम एकदम ठीक हो, एकदम निरोग!
क्या कहा… मानसिक बीमारी? डिप्रेशन की शिकार हो। ओह यह भी किसने कहा और क्यों! क्योंकि तुम्हें ऐसा लगता है! मुझे लगता है तुम्हारे भीतर से जीवन का स्वाद चला गया है। तुमने सारे संसार को रसहीन मान लिया है। तुमने प्रेम की जगह घृणा और अविश्वास को अपने भीतर पाल लिया है। तुमने सारे लोगों को अपनी जि़न्दगी से निकाल दिया है। तुम सि$र्फ और सि$र्फ अपनी नज़रों से दुनिया को देखती हो। दुनिया तुम्हें किस नज़र से देखती है, कभी सोचा? नहीं ना।
तुम स्वयं परेशानी में रहती हो और हमें भी रखती हो। यह समय हमारे कैरियर बनाने का है, ना कि फालतू बातों को ‘डिस्कस’ करने का। प्लीज माँ, समझने की कोशिश करो। तुम नादान बच्ची नहीं हो!
मुझे लगता है तुमने अपने चारों ओर एक घेरा बना रखा है। तुम अपनी कल्पनाओं को अपने विचारों में जन्म देती हो और तुम्हें लगता है कि वह वास्तव में हो रहा है। अच्छा रोना बंद करो। तुम्हारा रोना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता है।
रोना तुम्हारी फितरत में नहीं था।
तुम तो हमेशा हँसती रहती थी। हर परिस्थिति में, हर मौसम में। तुम्हारी हँसी की सब दाद दिया करते थे। तुम्हारी हँसी ने एक संगीत का वाद्ययंत्र बना लिया था… जिसके तार छेड़ो और वह सनसना उठती थी… क्या कोई वाद्ययंत्र सनसनाता है… मैं अभी एप्रोप्रियेट शब्द नहीं तलाश पा रही हूँ, पर मेरे कहने का आशय यही है। चिडिय़ाँ चहकना भूल सकती थीं, पर तुम हँसना नहीं भूलती थीं। नदी ठहर सकती थी पर तुम्हारी हँसी की धार नहीं। फिर यह सब कैसे हो गया कि इधर पतझड़ आया और उधर तुम्हारी हँसी चली गयी। पतझड़ का तो पता चलता है… पत्ता–पत्ता… पीला होकर गिरने लगता है, वृक्षों की छाल सूखकर झरने लगती है। हवाओं में पत्तों की, सूखे पत्तों के चटकने की… उडऩे की आवाज़ आने लगती है, मगर… तुम्हारी हँसी की खनक कब डूब गयी हमें पता ही न चला। हम सब कब इतने दूर हो गये। हमारी दुनिया, हमारे सपने, हमारे रास्ते कब और क्यों दूसरी दिशाओं में चले गये। क्या यह हमारे जीवन का रहस्य है या अंधकार या अजनबी होते जाने की शुरूआत!
अच्छा रोना बंद करो। प्लीज… माँ!
आज मुझे तुम्हें समझाना और सँभालना पड़ रहा है…। तुम तो मुझे सँभाला करती थीं, सबसे अलग रखती थीं। मेरे रोने पर तुम सबसे ज्य़ादा चिढ़ा करती थीं। क्योंकि तुम्हें रोने से सख्त नफरत थी। किसी के भी आँसू देखकर तुम हैरान होती थीं, लेकिन… आज… अब… क्यों बहते हैं तुम्हारे आँसू। कोई यकीन करेगा कि तुम लगातार रोती हो, भीतर–बाहर रोती हो। सुबह–शाम रोती हो। सोते–जागते रोती हो… सबके बीच और अकेले में रोती हो। इससे अच्छी तो तुम्हारी सास यानी मेरी दादी थी, जो अपना सारा गुबार–गुस्सा, दर्द लड़–भिडक़र निकाल लेती थीं। अपनी बात मनवाने के लिए कितने स्वाँग कर लिया करती थीं। उनके आगे–पीछे सारा कुनबा घूमता था और दादाजी उनके नाम की माला जपते–जपते थकते नहीं थे। तुमने उनसे कुछ भी नहीं सीखा कि एक मजबूत औरत आँसुओं से नहीं आग से बनती है। वो आग नहीं जो बाहर दिखती है… अन्दर की आग! एनर्जी… ताकत। सेल्$फ कॉन्$िफडेन्स। या इससे भी परे कुछ और!
ओह… मैं ज्य़ादा बोल रही हूँ। चुप हो जाती हूँ!
चलो अब तुम्हारी बात सुनती हूँ। बताओ क्या बात है? किसने क्या कह दिया? किसकी बात से तुम आहत हुई हो? कौन तुम्हारा अपमान करके चला गया…? क्या तुम जीवन भर मान–अपमान के बाँस पर चलती रहोगी? कब उबरोगी इन क्षुद बातों के प्रभाव से?
अकेलापन। क्या बचकानी बात करती हो?
क्यों तुम्हें हमेशा किसी न किसी मर्द की ज़रूरत होती है? कभी पिता की, कभी भाई की और अब इस आदमी की, यह तथाकथित गुरु… जिसकी दो–दो बीवियाँ हैं… बच्चे हैं, वह तुम्हें आध्यात्मिक गुरु लगता है, जो अपने ढोंग को सच साबित करने में लगा रहता है, जो अपनी ही औकात नहीं जानता है, जिसे पुलिस और नेताओं की ज़रूरत पड़ती है, वह ईश्वर को देखने–दिखाने की बात करता है! वह जैसा चाहता है तुम्हें नचाता रहता है… उसने तुम्हारी सोच, तुम्हारी पर्सनेलिटी बदल दी है!… तुमने उसके पीछे पूरे खानदान को दुश्मन बना लिया था और मुझे, अपनी बेटी तक को घर से निकाल दिया था। अच्छा माँ, बताओ जिनके पिता, भाई, बेटा या ऐसे गुरु नहीं होते, क्या वे जि़न्दा नहीं रहतीं? मानती हूँ माँ कि तुम्हें अपने जीवन में कम्पलीट परफेक्ट पुरुष नहीं मिला है, जिसकी तलाश में तुम भटकती रही हो। यह तुम्हारे जीवन की यात्रा नहीं यातना है… यह सहारा नहीं, कमजोरी है। यह खोज नहीं, शून्य में दौडऩे की थकान है।
मैं सिखा रही हूँ? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है!
बस तुम्हारे मन को टटोल रही हूँ… बदलो अपने मन को, अपने विचारों को… भरो अपने अधूरेपन को!
तुमने अपने आपको देखा ही कब? समझा ही कब? तुम तो दूसरों में अपने को ढूँढ़ती रहती हो! कोई तुममें खुद को ढूँढ़े, ऐसी स्थिति पैदा की? नहीं ना!
मानती हूँ कि तुम सबसे अलग हो। सबसे बेहतर भी, पर तुम्हें एक बिन्दु पर ठहरना आता ही नहीं… कभी कुछ… तो कभी कुछ… तुम्हारे पास हज़ारों आइडिया हैं, पर उनको पूरा करने की इच्छाशक्ति नहीं है। तुम्हारे पास रहस्य और रोमांच से भरे $िकस्से हैं, लेकिन तर्कशैली नहीं। तुम्हारे पास अनेक सपने हैं, पर सपनों को साकार करने की दृष्टि नहीं। इसलिए कई बार तुम रहस्यमयी हो जाती हो, तो कई बार जिद्दी भी, तो कई बार अहंकारी भी और कभी–कभी दयालु भी। सबसे निरासक्त कैसे रह लेती हो? रहती भी हो या रहने का नाटक करती हो!
जिस बात या विचार या आइडिया पर हम काम करना शुरू कर देते, पता चला वह तुमने हवा में उड़ा दिया या जिसके बारे में हमने सोचा तक नहीं था, उस पर तुमने काम करना शुरू कर दिया! है न तुम्हारे अनिश्चय का खेल। तुम्हारे ऊपर तो कोई $फ$र्क ही नहीं पड़ता है।
कभी भी कोई भी ‘डिसीजन’ कैसे ले लेती हो? सब सच ही कहते हैं, तुम इस दुनिया के साँचे में ‘फिट’ नहीं बैठती हो! यह दुनिया आपसे अलग नहीं हो सकती! समाज को बदलने में समय लगता है। समाज का भी मनोविज्ञान होता है! मैं जानती हूँ। मैं मैच्योर हूँ!
ठहरो माँ, तुमसे बातें करके मैं असमंजस पर पड़ जाती हूँ। मैं तो तुम्हारी एक मुकम्मल तस्वीर देखना चाहती हूँ तो वह बिखरी–बिखरी सी लगती है। टूटी काँच की चूडिय़ों में जैसे रंग दिखते हैं वैसे ही रंग मुझे तुम्हारे व्यक्तित्व में दिखाई देते हैं! तुम भी तो एक ‘कम्पलीट वुमन’ नहीं हो। तुमसे भी तो सबको शिकायतें हैं। जब से मैंने आँख खेाली है, तुमको कुछ अलग करते पाया है। तुमको साडिय़ों, गहनों, बर्तनों, घर की साफ–सफाई से कोई वास्ता नहीं रहा… मिट्टी से, पत्थरोंं से, पेड़ों से, पत्तों से, रंगों से… प्यार करते देखा है। तुम्हारे लिए बादल, आसमान, पेड़, फूल–पत्ते मायने रखते हैं, हम इंसान नहीं! तुम कैसी औरत हो तुमने दादाजी का घर, अपनी प्रापर्टी का हिस्सा, सब कुछ छोड़ दिया। जानती हो, इससे क्या हुआ, हम लोग बेघर हो गये। आज हमारे हाथ में कुछ नहीं है। सबकी डाँट के बावजूद तुमने स्वयं को कभी नहीं बदला। न तुम पूरी तरह से सांसारिक हो न सन्यासिनी, न तुम योगी न भोगी। तुम्हारी साधनाएँ, तुम्हारे काम, तुम्हारी कोशिशें, तुम्हारी मेहनत, तुम्हारी भाग–दौड़, तुम्हारी आशा–निराशा सब अपनी दिशा की तलाश में आधे–अधूरे पड़े हैं। अगर तुम्हें कुत्ते–बिल्ली पालना थे तो पाल लिये… रात–रात भर जागकर उनकी सेवा करती हो। दादा–दादी को इसीलिए तुमसे शिकायत है कि तुम उनकी सेवा की बजाय जानवरों की सेवा कर रही हो।
क्याऽऽ… सबने आना बंद कर दिया…
सच तो है, तुम्हारे बदबू भरे, गोबर–मिट्टी से लिपे–पुते बीहड़, मिट्टी, पत्थर से घर में कौन आयेगा…?
यह तो तुम्हें डिसाइड करना है कि तुम किसको अपने जीवन में आने देना चाहती हो?
तुमको और कितना समझाऊँ? क्या करो, क्या नहीं? तुम्हें समझा–समझाकर मैं बूढ़ों की तरह बातें करने लगी हूँ।
यह तो सदियों से चला आ रहा सिलसिला है, माँ… समझने, समझाने का! यदि कोई आसानी से समझ लेता और आसानी से समझा देता तो हज़ारों–लाखों लोग… यूँ साधु–सन्यासियों के सामने भीड़ न लगाते। नहीं, मज़ाक नहीं बना रही। सत्य को छूने की कोशिश कर रही हूँ… तुम्हारी खातिर! तुम्हारी खातिर मैं क्या–क्या नहीं झेलती हूँ! कितने झूठ, कितने बहाने, कितने $िकस्से गढ़ती हूँ!
अब नयी बातें… नयी चिन्ताएँ! मेरी शादी की! मेरे कैरियर की! मेरे खुले सम्बन्धों की! समाज और परिवार को रोकने–टोकने, पता चलने की चिन्ता! मैं खुलकर जीती हूँ, सच्चाई से जीती हूँ। तुम्हारे परिवार में कितने $िकस्से सुनने को मिलते हैं। दादाजी तो बुढ़ापे तक में लड़कियों से सम्बन्ध रखते थे। उनको किसी ने कुछ नहीं कहा? क्यों! मेरे बारे में क्या सोचना… मैं आज की लडक़ी हूँ, आज के हिसाब से रह ही रही हूँ। यकीन करो, मैं अपना $फ्यूचर बना लूँगी। मुझे पता है कि मुझे क्या करना है, क्या नहीं? मेरे सम्बन्ध समीर से… हाँ हैं। तो! छोड़ देगा! मैं भी कौन सा उसके साथ बँधकर रहना चाहती हूँ… शादी! जब कोई मिल जायेगा, कर लूँगी। हाँ, हाँ, हाँ…!
घर के कमरे बंद हैं, अँधेरे में डूबे। थोड़ा–सा उजाला कर दूँ। बाहर गाडिय़ों का शोर है, भीतर तुम्हारी आवाज़ों का, जो कभी चिन्ता में डूबी होती हैं तो कभी रुलाई में, तो कभी शिकायतों में। बाहर पानी बह रहा है मेरे भीतर… तुम्हारे आँसू! तुमने बेवक्त… मेरे भीतर स्वयं को थोप दिया है… मैं यूँ ही बूढ़ी हो जाऊँगी। यूँ अपनी कामनाओं को दबा दूँगी। तुम्हारी मनहूसियत ने मेरे खिलंदड़पन को, मेरे ठहाकों को, मेरी हँसी को, मेरी खूबसूरती को कुचल दिया है! तुम तय कर लो कि क्या देना चाहती हो विरासत में मुझे?
हाँ–हाँ, मैं कह दूँगी कि सब तुमको समझाना, सजेशन देना बंद कर दें। मामा, मौसी, बुआ– सबको कह दूँगी। दादी और नानी की पूरी उम्र अपनी बहूओं और बेटियों को समझाने में निकल गयी और तुम्हारी आधी उम्र समझने और झेलने में। मज़े की बात यह है कि न वे तुम्हें समझा सकी हैं और न तुम समझ सकी हो… वे बूढ़ी औरतें सारी उम्र इसी खुशफहमी में रहती आयी हैं कि उन्होंने तुमको कण्ट्रोल कर लिया। क्या इन बातों का… समझाईशों का कोई अंत नहीं है…?…
हाँ… घर में उजाला हो गया है, दीये जल रहे हैं…। बाहर का अँधेरा मैंने दूर तक आकाश में धकेल दिया है। उजालों को मैंने भीतर बुला लिया है… हाँ… मैं इन अँधेरों, उजालों में भी नाचना चाहती हूँ… गाना चाहती हूँ… चीखना–चिल्लाना चाहती हूँ… कविताएँ तो तुम लिखती थीं, मैं तो डायरी लिखती हूँ। तुमसे छुपाकर रखती हूँ अपनी डायरी।
अच्छा सीरियस मैटर और बातें छोड़ो। बताओ मेरे बच्चे यानी बिल्लियाँ कैसी हैं! पेड़ों पर चढ़ी हैं। पूरे जंगल में घूम कर आ जाती हैं, मोरों से डर गयी थीं? मोर आने लगे हैं। बिल्ले तो नहीं आते? मेरी बिल्लियाँ इतनी खूबसूरत और सेक्सी हैं कि बिल्ले न आयें… ऐसा कैसे हो सकता है? हम लोग यहाँ एक कमरे के फ्लैट में रह रहे हैं, साफ हवा के लिए तरस जाते हैं। मेरी साँसें घुटने लगती हैं। सूरज की रोशनी देखने के लिए मेरी आँखें तरस जाती हैं। मैंने यहाँ आकर चाँद और तारे नहीं देखे हैं और तुम… तुम जहाँ रहती हो, कितने खूबसूरत पेड़ हैं… पक्षी हैं… तालाब हैं… जानवर हैं… क्या सीन होता होगा सुबह और शाम का? शानदार! पेंटिंग की तरह!
अच्छा, ये बताओ माँ, तुमने पेंटिंग बनानी क्यों बंद कर दी है!
क्यों! क्यों! बताओ ना! कब बनाओगी? जब बूढ़ी हो जाओगी? उँगुलियाँ काँपने लगेंगी! नज़र कमजोर हो जायेगी! तुम्हारा कोई इलाज नहीं सिवा इसके कि तुम अपनी कला की दुनिया में लौट जाओ! क्या करोगी पैसा बचाकर! मकान बनाकर! तुम जिस जगत् में रह रही हो, वह कितनों को मिलता है। वे क्या जाने माँ, तुम कितनी स्वतंत्र पर्सन हो… बाहर से बँधी दिखती ज़रूर हो, पर तुम्हारे मन के बंधन… वो तुम्हारे खुद के बनाये हुए हैं…
उपदेश नहीं! यही सच है! मैं तुम्हारी बेटी हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि मुझे दुनियादारी का अनुभव नहीं है। तुमसे ज्य़ादा जानता–समझती हूँ मैं लोगों को!
तो सुनो। बार–बार मत पूछा करो।
आखिरी बार बता रही हूँँ… बस…!
मेरा काम अच्छा चल रहा है। मैं अपना जीवन खुद गढ़ रही हूँ। मुझे अपनी बुद्धि पर सोच पर भरोसा है। नहीं, यह तुम्हारी गलतफहमी है। मुझे अपनी सुन्दरता पर घमण्ड नहीं है.. अभिमान है… मेरी सुन्दरता साधारण सुन्दरता नहीं है… जो पुरुषों को रिझाने के लिए हो… मैंने… सुन्दरता नहीं, सौन्दर्य को अपनी देह और दिमाग में तराशा है… मैन्टेन किया है… सुन्दरता बहुत सामान्य सी भी हो सकती है… पर सौन्दर्य, उसको बनने… गढऩे… और तराशने में सालों–साल लग जाते हैं। वह बुद्धि, ज्ञान, आत्मविश्वास और भीतर की चमक से चमकता है। तुम भी तो सुन्दर हो। हाँ तुमने अपनी सुन्दरता को बेवक्त खो दिया है, मटमैला कर दिया है। क्या कहा, आत्मा की सुन्दरता… मन की सुन्दरता… हाँ–हाँ माँ… मैंने बहुत कुछ पढ़ा है, मैं जानती हूँ आत्मा के बारे में!…
अ$फकोर्स माँ… वह तुम्हारी आँखों में दिपदिपाती थी तारों की तरह…। तुम्हारी आँखों के वे तारे, वे जुगनू… वे ओस के कण… और क्या–क्या कहूँ… जिनके प्रकाश में मैं अपना रास्ता खोजना चाहती थी… पर माँ… हम दोनों का जीवन कुछ अजीब तरह का है, जिसकी कहानियाँ सुनते–सुनाते युग बीत जायेंगे! अच्छा छोड़ो… भी!
मैं तुम्हारी बातें समझती हूँ। गुनती हूँ। मनन करती हूँ। तुम मेरी देह से ही रची–बसी हो। आत्मा का, रक्त का सम्बन्ध है हमारा। जो मुझमें हैं, वह तुममें तो आयेगा ही। अभी कोई चीज़ ऐसी नहीं बनी है, जो मनुष्य के खून और मांस–मज्जा से अलग… कुछ बना सके। टेस्ट ट्यूब बेबी हो या मटके में पलता भू्रण, माँ धरती और अग्रि से पैदा हुई जीवात्मा, उसमें मनुष्य और सृष्टि के पंचतत्त्वों का योग तो होगा ही! मेरे भावों की उजास तुम्हारे भीतर फैली है। मेरी कला का दूसरा रूप तुम्हारे भीतर पल्लवित हो रहा है। मैंने रंग और ब्रश पकड़ा था, तुमने कैमरा। तुम मुझसे भी ज्य़ादा गहरी और दूर की चीज़ें देख सकती हो। कैमरे में $कैद कर सकती हो। तुम्हारी आँख कैमरे की आँख जो है।
जानती हो मेरा सच… मेरे जीवन का सौन्दर्य… मेरी निजता… मेरी हँसी… किसने छीनी? आज इन सब बातों का रोना, रोना नहीं चाहती। मेरा बचपन मेरे भीतर दब गया था, मेरे भीतर क्षोभ था। अंतहीन पीड़ा थी। मेरे भीतर इतने समन्दर और इतनी नदियाँ हैं कि मैं उसी में डूबती–उतराती रहती हूँ। मेरी मन्नो! उस पीड़ा को, उस पराधीनता को, उस दबाव को मैंने पच्चीस साल तक झेला है, जिया है। पच्चीस साल! जो अपने पल–पल का हिसाब रखती हो… उसके पच्चीस साल का जाना… कितना वेदना से भरा होगा वह अनुभव! और पच्चीस साल… मेरे देखते–देखते चले गये। सच कहती हो, मैं शारीरिक रूप से बीमार नहीं हूँ। मैं पिछले कई सालों से मानसिक रूप से… आत्मिक रूप से बीमार चल रही हूँ। मैं इस देह के पिंजरे से बाहर निकल, समय के पंख लगाकर उडऩा चाहती थी, मैं अपने सपनों और कल्पनाओं का एक छोटा–सा संसार रचना चाहती थी… बस। कल्पना करो कि पूरे एक जीवन में किसी का एक सपना तक पूरा न हो सके, उसे कैसा लगेगा?
मैं बहती नदी एक तालाब में सिमट गयी, फिर तालाब एक सूखे पोखरे में। क्या यही मेरी नियति थी?
नहीं ना!
मन्नो, लोग क्यों नहीं समझते कि मेरा संसार इस अनन्त आकाश में… इस हरी–भरी धरती में एक कोना मात्र चाहता था।
कहो… कहो कि मैं मिट्टी की बेटी हूँ.. पत्थरों की सखी हूँ, मैं हरी दूब की ओस हूँ… मैं नदी में रहने वाली मछली हूँ, मैं आसमान में उडऩे वाली चिडिय़ा हूँ… मैं एक छोटी सी गुडिय़ा हूँ… मैं एक लघु तारिका हूँ इस ब्रह्माण्ड की। मेरे स्वप्नलोक का संसार बहुत छोटा है… बहुत नगण्य सा।
मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ। मैं किसी से कुछ माँग भी नहीं रही हूँ, न प्यार, न सम्पत्ति, न घर–द्वार… न भरोसा… न वायदा… न बुढ़ापे का सहारा, न इहलोक और परलोक से मुक्ति, मोक्ष पाने की कामना! मैं तो सबकी चिन्ताओं से परेशान हूँ… चिन्तित हूँ… मुझे थोड़ा–सा एकान्त चाहिए!
थोड़ा और अपना सा लगने वाला एकान्त!
एकान्त! एकान्त!! एकान्त!!!
मन्नो, घबराना नहीं।
कल तबियत बिगड़ गयी थी!
हास्पिटल आना पड़ा था!
मैसेज पढ़ते ही मन्नो की रुलाई फूट पड़ी। मन–आत्मा की दीवारों को फाड़ती रुलाई… कमरे में गूँजने लगी थी। ट्रेन नहीं, बस नहीं, टैक्सी नहीं। हवाईजहाज। वो भी दूसरे दिन का! उडक़र पलों में माँ के पास पहुँचा जाना चाहती है। क्या हो गया माँ को! क्यों हो गया!… क्या माँ कभी ठीक नहीं होगी। किसी के कहे शब्द तीर बनकर तो नहीं चुभ गये उनके मन में। आँखों में नींद नहीं। मन में चैन नहीं। हृदय में छपाछप कुछ गिर रहा है। स्मृतियों की घाटियों में चिडिय़ा की तरह चक्कर लगा रही है मन्नो।
सीधे हास्पिटल पहुँची। प्रायवेट रूम में सन्नाटा पसरा है। खिड़कियों पर हरे रंग के परदों के पीछे दिन का उजाला पसरा है। ड्रिप और दवाइयों के बीच माँ का मुरझाया साँवला–सा थका चेहरा! चेहरे का नूर, चेहरे की मांसपेशियाँ, चेहरे की बनावट ही बदल गई।
मन्नो स्तब्ध!
मन्नो चुप।
मन्नो काष्ठ बन गयी?
माँ जो एक नदी की तरह थी… माँ जो एक कविता की तरह थी… माँ जो एक पेंटिंग की तरह थी। माँ… मूर्ति में धडक़न की तरह थी… माँ… माँ…
मन्नो…!
मन्नो हड़बड़ायी। चौंकी। फिर सँभली। आँखों में सिमटा धुँधलापन उतर रहा है।
‘चिन्ता मत करो। मैं आ गयी हूँ।’ मन्नो ने माँ के गरम–नरम वक्ष पर सिर रख दिया। बिखरे बालों ने माँ को चारों तरफ से ढाँप लिया। मन्नो की बाँहों ने बाँध लिया माँ की थकी देह को! माँ के आँसू नहीं थमरहे हैं। सिसकियाँ! फिर मौन! फिर टूटे–फूटे संवाद! फिर मुस्कराहट की रेखाएँ।
एक हफ्ते बाद डिस्चार्ज करवाकर मन्नो माँ को ले जा रही है। सीधे स्टूडियो! अब कोई सवाल नहीं। कोई चिन्ता नहीं। कोई आगे–पीछे, दाँये–बाँये नहीं। किसी का इन्तज़ार करती आँखें नहीं। शिकायत करती जबान नहीं। तुम्हें ठीक होना है। ठीक रहना है। तन–मन को बचाना है। मैं सि$र्फ तुम्हारा खून मांस–मज्जा नहीं हूँ, मनोविज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ। चेतन, अवचेतन और अर्धचेतन मन की सारी अवस्थाओं–स्तरों को… सबको पढ़ा है। तुमको पढऩे की आदत सी बन गयी है।
बंद हॉल के दरवाज़े खोल दिये। दूर तक घने पेड़ों की कतार नज़र आ रही है। परिन्दे चहचहा रहे हैं। इतने तरह के परिन्दे! इतनी तरह की आवाज़ें! इतनी तरह की हवाएँ!हवाएँ गुनगुना रही हैं।
‘‘उठो। पानी पिओ। कपड़े बदलो।’’
‘‘उठो। खड़ी हो जाओ। लो खाना खाओ। दूध पिओ। फल खाओ।’’
मन्नो ने भूमिका बदल दी। मन्नो कठोर अभिभावक बन गयी है!
‘‘देख लिया कोई बीमारी नहीं है। तुम्हारा इलाज कोई डॉक्टर नहीं कर सकता।’’
धूल खा रहे कैनवास को साफ किया। जंग खा रहे स्टैण्ड को ढूँढ़ लाई। डिब्बों में बंद पड़े रंग के ट्यूब निकाले। ट्रे में रंग, ब्रश, नाई$फ सजा दिये हैं। सजा दिया है माँ के जीवन का साज–शृंगार।
‘‘पकड़ो। माँ कहीं कुछ नहीं छूटा है। सब कुछ तुम्हारे भीतर है। जो दब गया था, उसे बाहर निकालो।’’ एक गुरु की हिदायत! आदेश!
माँ ने ब्रश पकड़ा, हाथ काँप रहे हैं। उँगलियों की पकड़ ढीली है।
‘‘होगा माँ… होगा… हिम्मत करो। यह कोई जंग का मैदान नहीं है… यह तुम्हारे जीवन का मैदान है… समझी ना।’’ मन्नो स्थिर दृष्टि से देखते हुए कह रही है। उसकी आवाज़ में अजीब–सा सुरूर उतर आया है।
ब्रश ने हल्के से रंगों को छुआ… रंग कैनवास पर बिखरे। कुछ टेढ़ी–मेढ़ी सी आकृतियाँ उभरी। छोटी आकृतियाँ बड़ी होने लगीं। रेखाओं के बीच रंग भरे जाने लगे। रंग फैलते गये। रंगों से कैनवास पर आकाश उतर रहा है, सूरज अपना रंग बदल रहा है, धरती का कोई छोर दीख रहा है… बाहर खड़े पेड़ अन्दर आ गये हैं… कोई स्त्रियाँ अपना वजूद तलाशती… स्वयं को गढऩे में लगी है… माँ के हाथ अब तेजी के साथ चल रहे हैं… इतनी तेजी के साथ कि कहीं कुछ छूट न जाये… वर्षों का छूटा हुआ, ठहरा हुआ एक ही बार में पूरी र$फ्तार से पकड़ लेना चाहती है…
मन्नो ने कैमरा निकाला… और चित्र बनाती माँ की तस्वीर खींचने लगी…
‘‘माँ, इधर देखो… इधर… मेरी तरफ… मुस्कुराओ और … हँसो … जोर से, और जोर से।’’
और पेड़ों पर चहचहाती चिडिय़ों ने, सरसराती हवाओं ने सुनी माँ और मन्नो की वो हँसी जो हवाओं के साथ बहती हुई आसमान में गूँज रही थी।
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— उर्मिला शिरीष
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