उषा राय
कवि, कहानीकार
जन्म - 22 नवंबर 1963 गुणउर गाज़ीपुर (उ.प्र.) शिक्षा - एम.ए (हिंदी , दिल्ली विश्वविद्यालय ) पीएचडी (जामिया मिल्लिया इस्लामिया , दिल्ली )
प्रकाशन :
''समकालीन हिंदी कविता : व्यंग्य और शिल्प ''
आलोचना की पुस्तक (सुलभ प्रकाशन , लखनऊ 2013 )
''सुहैल मेरे दोस्त '' कविता संग्रह (बोधि प्रकाशन 2018 )
"हवेली" कहानी संग्रह (बोधि प्रकाशन 2021 )
वामपंथी साहित्यिक ,सांस्कृतिक आंदोलन और थियेटर से गहरा जुड़ाव।
सम्प्रति : अध्यापन कार्य
ईमेल : [email protected]
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कहानी ( हवेली )
जाने किसने इस हवेली को बनवाया कि झार-झार के दम निकल जाए समान तो समान लोगों को भी संभालना मुश्किल हो जाए। इतनी सारी छोटी बड़ी छतें-किसी पर बांस के पत्ते झरते हैं तो किसी पर नीम के तो किसी पर गूलर के फल खा-खा चिड़िया भर देती हैं। सब तो छोड़ो ये कटघड़रिया जो छतों से होती हुई आ के गुड़ और राब खा जाती हैं ,इनका क्या करें। अब केसर भौजी तो जानते-जानते जानेंगी न। उस दिन जो पूछ रही थीं- ए धनौती ! कितने सुन्दर-सुन्दर बेल पके हैं लगता है कि सोने की गेंदें लटक रहीं हैं। अभी एक तोड़ के ला दें तो सड़ापन देख के इतनी दूर भागेंगी। इन्हें क्या पता कि बेटा पाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। इतना डर न होता तो भला इन पेड़ों की बलि कौन देता। अब चिल्लाए पड़ी हैं- कुछ न कुछ पूछेंगी और क्या, एक हम ही तो हैं सारा पाप सहने को और सारा पाप बताने को। ‘‘ए धनौती बहिनी ....... ‘‘का ?‘‘ ‘‘लोग क्या कह रहे हैं ?‘‘ ‘‘का ?‘‘ ‘‘का मत कहो ,ठीक से बताओ।‘‘ ‘‘का ?‘‘ ‘‘यही कि इस घर में चुड़ैल है।‘‘ ‘‘हाँ हैं तो। दीदी हैं। अभी तक आपको पता ही नहीं चला।‘‘ वह हँसती है और सोचती है कि इनके जैसा मूर्ख और कौन हो सकता है जो सज़ा भुगत रही हैं पर जानती नहीं है। ‘‘क्या ? क्या कह रही हो। ‘‘ ‘‘हाँ, उनको हम जानते हैं। उन्हें अच्छा नहीं लगता।‘‘ ‘‘क्या ?‘‘ ‘‘हँसना ......चटख साड़ी........ खुले केश को लहरा कर चलना......और खुसबू वाला तेल........पेट में बच्चा।‘‘ ‘‘क्या ? तो काहें मर गईं। जिन्दा रहती तो उनसे सब पूछ-पूछ के करते लोग। यह भी पूछते कि महीना आए तो बाल-वाल धोएँ कि नाही। काजल बिन्दी लगाएँ कि नाहीं। और ये भी कि उनके भइया के कोठरिया में हम जाएँ कि नाहीं कि वही लाएँगी बाल बच्चा।‘‘ ‘‘वे तो आत्मा हैं। उनको का फरक पड़ता है। ‘‘ ‘‘तो स्वर्ग जाएँ या नरक जाएँ ,और ये बताओ उन्हें फांसी लगाने की कोई और जगह नहीं मिली ?‘‘ ‘‘कोई खुसी से फांसी नहीं लगाता भउजी।‘‘ बिदक गई धनौती और वहीं धम्म से बैठ गई।‘‘ ‘‘इन्हीं हाथों से उतारा था, एतत बड़ी जीभ निकरी रही।‘‘ ‘‘तुम तो सखी रहीं। पहिले सब पूछी काहें नाहीं। ‘‘ ‘‘का ?‘‘ ‘‘कि सास ससुर दागे छौंके तो ससुरे में मरती। नैहरे में आके काहें हमारी छाती पर मूंग दल रहीं।‘‘ ‘‘आपके मालिक उनका दहेज का पइसा रख लिए जिससे उनके ससुराल वाले नाराज हो गए। और. . . ‘‘और क्या ?‘‘ ‘‘सामान देने में भी बेइमानी कर गए.....पीतल का गहना सोने का पानी चढ़वा के दे दिए।‘‘ ‘‘छिः ! बात आए तो यही लड़कियाँ छाती फुला के कहेंगी-हमारे नैहर के लोग तो बड़के जमींदार हैं...पचीस हल के जोतदार हैं... हथियानसीन हैं... घोड़ा पर चढ़के मालगुजारी वसूल करने जाते हंै। और घर की बहिन-बेटियों के साथ ही धोखा करते हैं। ये कहने की हिम्मत नहीं थी। यहाँ आ के लटक जाना आसान था।‘‘ ‘‘केसर भौजी चुप हो जाओ। जैसे छोटी मलकिन चुप रहती हैं। हमारी सारी जवानी यहीं कट गई। बुढिया हो गए... बीमार रहते हैं अब गिनती के दिन बचे हैं। हमें चुपचाप जीने दो। नहीं तो मालिक सुनेंगे तो तड़-फड़ करेंगे। ‘‘ ‘‘सुनो धनौती ! हम तुम्हारे दुश्मन नहीं। हमको सारी बात बताओ। ‘‘ ‘‘देखो भौजी जबसे इ दीदी मरीं हम इनको दूध दही और माखन चढ़ाते हैं। इनकी अम्मा बोल के मरीं थीं। इसी से इ खुस रहती हैं और घर में सान्ति है।‘‘ ‘‘ये सान्ति है ? अच्छा ये बताओ कि फांसी लगाई इस घर की बिटिया... तुम... काहें जिन्दा चुरइल बनी हो। और तुम काहें अपनी जवानी यहाँ बिताईं।‘‘ ..........‘‘ ‘‘काहें रो रही हो ? बताओ न. . .अरे क्या हुआ।‘‘ धनौती की करुण रुलाई से मेरा कलेजा कांप उठा। अब क्या सुनना बाकी रह गया है। इतना कुछ तो बता दिया उसने हवेली के बारे में। जब उसका रोना कम हुआ तो उसके आँसू पोंछ कर पानी पिलाया और भरोसा दिलाया। तब जाकर चुप हुई और कुछ बोलने लायक हुई- केसर भौजी, मेरी माँ यहाँ काम करती थी। जब ज्यादा काम होता था तो हम भी आया करते थे। हमारा बियाह होने जा रहा था... .हमको हल्दी लगी थी..... पियरी पहने थे ...बारात आई थी.... बाजा बज रहा था.... हम अपने दुलहा को देखने के लिए झाँके तो देखा कि ये दोनों मालिक उन लोगों से कह रहे थे -‘‘ये कहाँ जाएगी ? तुम चुप्पे से अपना बारात वापस ले जाओ। मुड़ के मत देखना। जानते नहीं, ये हमारे मनोरंजन का साधन है।‘‘ और हमारी बारात वापस चली गई। लेकिन वह तो केसर है। गाँव के सबसे अमीर और दबंग व्यक्ति, जिसे सब दुर्वासा कहते हैं उसकी पत्नी। उसने गौर से सब बात सुनी। फिर जल्दी से भागी। गाँव से भाई तीज में ढेर सारा समान लेकर आए और जिद पर अड़ गए-कितने साल हो गए अपने घर नहीं गई हो। चलो अब मैं तुम्हें ले के ही जाउँगा। सुनकर बहुत रोई मैं । ‘‘भइया ,कौन सा मुंह लेकर जाऊँ।’‘ ‘‘क्यों उस घर की बच्ची हो तुम। जिस माँ ने मुझे पैदा किया, उसी ने तुम्हंे भी। और मुँह में क्या खराबी है। एक बड़े घर की बहू हो। जमींदार की पत्नी हो।’‘ ‘‘भइया न मंैने इस बड़े घर को कुछ दिया न इस बड़े घर ने मुझे। ‘‘ मैं जानती थी कि वापसी का रास्ता नहीं है पर कैसे कहूँ कि बिसनाथ को मेरा नैहर जाना पसंद नहीं। गाँव की यादों को भुलाया मंैने। मुझे सबकी बहुत याद आती है और अक्सर एक पुराना सा गीत याद आता है जिसका अर्थ है कि (मन में आता है कि ससुराल की मुश्किलों से भागकर अपने घर-माता-पिता के पास पहुँच जाऊँ ,दूसरा मन करता है कि जमुना नदी में जा के डूब जाऊँ लेकिन दोनों ही रास्ता ठीक नहीं, घर जाने से भाभी व्यंग्य बोलेगी और जमुना में डूब जाने से सखियों से मिलना नहीं हो पाएगा ) और फिर मैं अपने बचपन की और घर की मीठी बातों को और अपने स्वाभिमान को क्यों नष्ट करूँ। ‘‘ भइया जिस गांव फूल बेचे उस गांव काठी बेचने जाऊँ ? यह नहीं होगा हम गाँव नहीं जाएँगे। अब जो कुछ भी होगा, यहीं रहेंगे ,यहीं सहेंगे। सोच लिया था। वह खूब रोती है। उसके सारे सपने कैसे टूट रहे हैं। क्या-क्या सोचती थी जब वह चादर और तकिए पर बेल-बूटे काढ़ती थी। बिहारी के दोहे कह-कह कर सखियों के साथ कितना हँसती थी और सपनों में खो जाती थी। ब्याह तय हुआ तो बिसनाथ के हवेली के दूर-दूर तक चर्चे थे। वह जब-जब हवेली के बारे सोचती तब सब कुछ कितना अच्छा लगता था। उसने लम्बी साँस ली। भइया बार-बार बिसनाथ के बारे में पूछते। पर भाई के आते ही बिसनाथ गायब हो जाता। कभी साले बहनोई का आमना- सामना होता ही नहीं था। जाते समय भाई ने मुझे बुलाया और समझाया -केसर मैंने तुम्हें अपनी बेटी की तरह पाला और एक भी कमी नहीं होने दी। लेकिन मुझसे एक भूल हो गई। ये लोग तो अंग्रेज भक्त थे, उस समय भी जब चारो ओर आजादी के लिए छटपटाहट और क्रांति की लहर चल रही थी। क्योंकि यह जमीन जिस पर यह गाँव बसा है कार्नवालिस की दी हुई है। ‘‘ ये कौन था ?‘‘ ‘‘जिसने जमींदारों को पैदा किया। जिसने हमारी भूमि को रखैल बनाया।‘‘ ‘‘मतलब ?‘‘ ‘‘खेतों में काम करते थे हमारे लोग लेकिन बन्दोबस्त ऐसा था कि सारा धन विदेश चला जाता था। जमींदार समझते थे कि लोगों पर अत्याचार करके अपना घर भर रहे हैं लेकिन वे अंग्रेजों को ही मजबूत करते रहे।‘‘ ‘‘इसीलिए बिसनाथ इतना बेरहम है।‘‘ मंैने मन में सोचा। फिर भइया ने बताया कि बिसनाथ के पूर्वज बिहार के एक गरीब घर के पंडित लेकिन बड़े ज्योतिषी थे। घर में आए दिन कलह होती थी। उन्हांेने अपने बेटे से कहा कि गंगापार जाओ और कहीं सुनसान जगह पर मठ बना कर रहो। बेटे ने ऐसा ही किया । कुछ समय बीत जाने के बाद जब कार्नवालिस बिहार से गंगा पार करते हुए उत्तर में गाजीपुर की ओर बढ़ा ही था कि उसे लू लग गई और पेट खराब हो गया। उसे सामने यही मठ दिखा, उन्होंने सत्तू घोलकर पिलाया ,आराम करने की जगह दी और काफी सत्कार किया। कार्नवालिस बहुत खुश हुआ और बावन बीधे का चक काटकर मठ वालों के नाम कर दिया, लेकिन आगे जाकर उसे हैजा हो गया और गाजीपुर में आखिरी साँस ली। धरती अपने प्रति किए गए अपराध को माफ नहीं करती, बदला लेती है। मैंने सोचा था। ‘‘केसर ! ‘पंच संग नीक, पिया संग ना नीक‘। जनता कभी गलत नहीं होती। बिसनाथ भी पछताएगा।‘‘ कहकर भाई चले गए। भाई इस बार भी खूब चटक चुनरी लाये थे। मैं चुनरी पहन कर इधर से उधर फूली-फूली घूम रही थी। देवरानी कमला आँखें मटका रही थीं- ‘‘अरे भाई जरा जेठ जी को खबर कर दो। क्या पता-अब भी पत्थर पर दूब जाम जाए। नाहिं तो किसी को कोई कमी थोड़े है। ‘‘ उसका व्यंग्य मैं समझती थी। जवाब नहीं देती। अपने मन को समझा लेती कि वह चाहे जो कहे, बुरा नहीं मानना है। एक तो इस घर में उसकी शादी पहले हुई थी। दूसरे उसके तीनों बच्चों के प्यार में मन लगा रहता है। कमला का स्वभाव तो अजीब है। वह अपने बड़े बेटे रवि को नहीं मानती क्योंकि वह उसकी मर चुकी- सौत का बेटा है। वह अपनी बेटी उर्मिला को बुरी तरह दबा के रखती है ,क्योंकि वह लड़की है। अपना सारा प्यार उंड़ेलती है अपने बेटे राजा पर जो दिनोदिन बिगड़ता जा रहा है । कमला के रूखे व्यवहार से रवि और उर्मिला दोनांे ही केसर से चिपके रहते हैं। वह अपना सारा गुस्सा अपनी बड़ी ननद मौली पर उतारती है जिसने ससुराल से वापस आकर उसके कमरे के सामने बरामदे में एक भरी दोपहरी में फांसी लगा ली थी। जितना घर में नहीं उतना तो गांव में उसके डरावने किस्से मशहूर हो गए थे। किसी को कुछ भी हारी बीमारी होती तो सब हवेली की मौली को ही गालियां देते थे। मालिक बिसनाथ जिसकी लाठी से सारा गाँव थर-थर काँपता था ,जो लाखों का दलहन और गेहूँ बेचने वाला बड़ा ़किसान है। बिसनाथ का स्वभाव किसी को समझ में नहीं आता । कभी-कभी तो मलाई बरफ वाले का पूरा कन्टेनर ही बच्चों में बँटवा देता था और कभी शीशा कंघी बेचने वाले मनिहार को गाँव के बाहर तक खदेड़ कर आता था। पहले मुझे लगता कि वह मनमौजी स्वभाव वाला है लेकिन धीरे-धीरे उसकी बुराइयां पकड़ में आने लगीं। बिसनाथ के पिता जी घोड़े पर बैठकर मालगुजारी वसूल करने जाते तो ये दोनों भाई भी जाते थे। हलाँकि यह सब बहुत कम दिन के लिए था। लेकिन उनकी आदतें जो बिगड़ी तो बिगड़ ही गई। छोटा भाई सोमनाथ अपनी पत्नी कमला को कुछ नहीं समझता था पर बिसनाथ के साथ छाया की तरह रहता। बिसनाथ जो कहता सोम वही करता था। भाई की हर बात को सही ठहराना या सही में बदल देना, यही उनका काम है। बिसनाथ नीची जाति के लोगों को गाली देता तो सोम भी देता। बिसनाथ किसी की छान्हीं पर लौकी, कोंहड़ा देखता तो कहता - ‘‘सोम इसे तोड़ लो अपने गाय गोरु को खिला देंगे। इसके घर रहेगा ,तो इसका पेट भरेगा और ये काम करने नहीं आएगा।‘‘ सोम के लिए भाई की बात पत्थर की लकीर थी और यह भी सच है कि जो आँखें भाई को पसंद आती थीं उसका थोड़ा सा काजल सोम भी चुरा लेता था। केसर याद करने लगी उस दिन की बात जब बच्चों को स्कूल के लिए कुछ चीजों की जरुरत थी। बिसनाथ को इससे कोई मतलब नहीं ...उससे कहने की हिम्मत भी किसी की नहीं थी। इसलिए घर की औरतों ने चुपके से बनिए को बुलाया और दो बोरी अनाज बेच दिया। यह बात छिपी नहीं आखिर बिसनाथ तक पहुँच ही गई। साँझ की किरनें डूब रही थीं। पखेरु घरों को लौट गए। नन्हें घोसलों में ची ची चूँ चूँ होने लगा था। घर में भी खाना बन गया था। धनौती दूध-दही का काम कर चुकी थी। बच्चे पढ़ने बैठ गए। सबसे बड़े रवि बारहवीं में ,उर्मिला आठवीं में और कमला के दुलारे राजा पाँचवीं कक्षा में थे। राजा का मन पढ़ाई में लगता नहीं था। वह कह रहा था बड़ी माँ ! आज जल्दी भूख लगी। मैं समझाती नहीं बच्चा पहले पढ़ाई खतम करो नहीं तो खाते ही नींद आने लगेगी , कहा तो लेकिन खाना परोसने लगी सिकड़ से घी उतारा। बच्चों की माँ कमला ने औंटा हुआ दूध गिलास में डाला और खाना परोस ही रही थी कि बिसनाथ अपना लट्ठ लेकर तमतमाता हुआ आया। उसने पहला धक्का मुझे दिया उसके बाद सब कुछ तितर- बितर हो गया। बिसनाथ ने रसोईघर में ताला लगाया फिर दौड़कर अनाजघर में भी ताला बन्द कर दिया। मिट्टी और बाँस की बनी डलिया-दौरी-सूप तोड़-फोड़ कर गालियाँ देकर चला गया। बच्चे रोने लगे थे। इतनी विनती की गई पर वह नहीं पिघला तो नहीं पिघला । पड़ोसियों से खाना मगाँया गया। बच्चों को खिला के सुला दिया गया था पर मैं ,कमला और धनौती भूखी सो गई थीं। चरवाह वापस लौट गया। र्दो िदन के बाद रसोई का ताला खुला। सड़े हुए खाने की बदबू से सारा घर भर गया। फिर किसी तरह आंगन में ईंटा रखकर खाना पकाया जाता। बिसनाथ के आने जाने का कोई समय नहीं था। वह किसी से ढंग से बात नहीं करता था उसका पूरा ध्यान अपनी जमीन बढ़ाने और जमींदारी बचाने में लगा रहता था। अभी कुछ ही दिन तो हुए वह खेत घूमकर लौट रहा था कि उसने देखा- उसके खेत में औरतें बैठी साग चुन रहीं हैं- ‘अरे ! रुक-रुक बताता हूँ अभी।‘ वहीं से चिल्लाया और डण्डा घुमाकर फेंका। एक औरत के सिर पर लगा और दूसरी के कंधे पर । आह ...आहि रे ...कहती हुई वे भागी और सराप देती गईं। ‘‘जा रे ! बिसनाथ ! तुझे सुख न मिले। तेरा घर उजड़ जाए। अरे हम गरीब-गुरबा तो क्या चिड़िया चुरगुन भी तो इसी से पलते हैं। अरे धरती तो सबकी है रे।‘‘ किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिसनाथ से कोई जवाब सवाल करे। सब उससे डरे रहते। मैं भरसक अपने दुख-दर्द को छिपाकर सभी रिश्ते-नाते अड़ोसी-पड़ोसी को संभाल कर रखती थी। हवेली वैसे ही भूतिया नाम से मशहूर थी। कमला बताती थी कि बिसनाथ मुझे गालियां देता है- देखो लमघोड़ी केसरी कैसे गीत गाने के लिए मरी जा रही है ,क्या जरूरत है किसी के घर जाने की। मेरे आगे सब भिखमंगे हैं साले। ये भी उन्हीं के साथ रहती है जमींदार मालकिन की तरह पहनना और बोलना तो आता ही नहीं। मैं जानती थी कि उसे अपनी पत्नी का मजाक बनाने में और बेइज्जती करने में आनंद आता है। मेरे गीत मुझे उखड़ने से बचाते हैं और सुकून देते हैं। इसीलिए मुझे बहुत सारे गीत याद रहते हैं और मैं गाती हूँ। उस दिन मैंने गाया था कि-गंगा सौत के रुप में शिव-पार्वती के जीवन में आती हैं और पार्वती से कहती हैं कि - ‘‘मँगिया हि की जुड़ी रहिह ए गउरा ,कोखियन होइह बेहून। सिवजी के सेजे जनि जाहु।‘’ (सुहाग तो बना रहे लेकिन संतान न होने पाए इसलिए ए गौरा शिवजी के बिस्तर पर मत जाना ) ‘सिवजी के सेजे जनि जाहु।‘ मैं इस गीत को गाती थी लेकिन पत्नी को पति से मिलने के लिए कोई मनाही हो सकती है ये मैं समझ नहीं पाती थी। आखिर एक दिन यह गाना मेरे उपर बज्र की तरह टूट पड़ा । उस दिन आंगन में बहुत तरह का काम हो रहा था। कहीं अनाज फटका जा रहा था, कहीं मटर छीला जा रहा था। कहीं चिवड़ा कूटा जा रहा था, कहीें अनाज बोरे में भरा जा रहा था तो कहीं भरे बोरे को सिला जा रहा था। ‘‘गंगा पार वाली दुवार पर आयी हैं।’‘ चरवाह बोलकर चला गया।‘मीठा पानी दिहल जाव।’ बोलकर फिर जल्दी से चला गया। मैने सोचा आज जरूर इसने भंाग चढ़ाई है। बात ही नहीं सुन रहा था। उससे कुछ बोल कर मैं जैसे ही पलटने को हुई कि हैरान रह गई। जड़वत सी मीठा पानी लेकर खड़ी एकटक उसे निहार रही थी। मैने देखा कि सामने एक औरत दो बच्चों के साथ खड़ी है। लड़की बड़ी उसके कन्धों तक और लड़का उससे छोटा। उन्होंने मेरे पैर छूने को हाथ बढ़ाए। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा। मेरे हाथ से मीठे की तश्तरी गिर गयी छन्न से पानी भरा लोटा। होश गुम ,वहां से पलर्ट आइं, कभी सूप उठाकर फटकने लगी तो कभी ओखल मूसल में कुछ कूटने लगी ,तार पर से कपड़े उतार कर फिर से झटकार कर पसारने लगी। फिर हतभागी सी बैठ गई और होश खोने लगी। कमला को भी कुछ समझ में नही आया कि ये औरत कौन है ? उसने सामने आकर देखा तो वह भी हक्की बक्की रह गयी। दोनों बच्चों की शक्ल सूरत हूबहू बिसनाथ से मिल रही थी। वही नाक ,वही होंठ, आँखों में सख्तीपन। गज़ब का दृश्य था। ‘‘हैं ...जिज्जी देखो तो !‘‘ उसने मेरे मुँह पर पानी के छींटे मारे। और बोली- ‘‘हाय दैया जेठ जी तो बड़े वो निकले। कसम खाने की भी जगह नहीं । कुदरत के खिलवाड़ तो देखो हाय- हाय हमारी तो आँखे खुली की खुली रह गईं। ये कब हुआ ? इतने बड़े- बड़े बच्चे हो गए ,भनक तक नहीं लगी ।‘‘ ‘सिवजी के सेजे जनि जाहु‘ मुझे इस गीत से नफरत हो गई। इससे पीछा छुड़ाने के लिए कान बन्द कर इस कमरे से उस कमरे तक भागती रहती। गाने की धुन ने मेरा पीछा नहीं छोडा। मैं छुप-छुप के रोती रहती। मेरे लिए इस चार खण्ड की हवेली में कोई जगह नहीं थी जहाँ अपनी धड़कनों पर काबू पा सकती और आँसू बहा सकती थी। मुझे मौली का दर्द समझ में आया- ‘‘मौली ! हवेलियों के दुख हवेली जितने बड़े होते हैं न। हवेली जितना बड़ा कलेजा करना पड़ता है। फिर भी तुम्हें मरना नहीं चाहिए था।‘‘ आधी रात को बिसनाथ आया। हर चीज को तोड़ता गिराता धक्के देता जंगली हाथी की तरह। अजीब बेबसी न हाँ में.... न ना में, स्वीकर करूँ तो घिन आए और अस्वीकार करूँ तो हिम्मत नहीं। कौन हाथी से लड़े। बिसनाथ को समझते-समझते मैं तंग आ गई थी। मेरा रोम-रोम नफरत से भर गया। मंै चिल्लाई - ‘‘दूर रहो।‘‘ ‘‘पागल हो गई है।‘‘ ‘‘असल बाप के बेटे हो तो छूना मत।‘‘ वह हँसा और बोला। औरत की अकल घुटने में होती है। अरे बेवकूफ औरत तू तो बाँझ है बाँझ। एक मरी हुई चिड़िया भी पैदा नहीं कर सकती। अनपढ़ गवाँर कहीं की, न रामायन सुनी न महाभारत न धरमशास्त्र। अरे इसी जरा से सुख के लिए ही तो पति- पत्नी को रहने खाने , पहनने के लिए इन्तजाम करता है। समाज में मान मर्यादा दिलाता है। और क्या रखा है तुझमें बोल। मैंने मुँह फेर लिया और हाथ से इशारा किया कि वह जाए यहाँ से। लेकिन उसका अहंकार सातवें आसमान पर था। वह मुझे समझाने लगा। ओह ओ तुम मुझपर नाराज हो वो भी गंगापार वाली के कारण । अरे उसकी चिन्ता मत करो वह तो रखैल है मेरी। इस बार बाढ में उसका घर बह गया था इसलिए आई थी। तुम नहीं चाहती तो उसके लिए दूसरा घर बनवा दूँगा। वह भी नाराज होकर गई है। जाएगी कहाँ ? वेश्या नाराज हुई तो धर्म ही बचा न.... । वह ठठा कर हँसा और बिस्तर पर बैठ गया। आओ थोड़ा छूने तो दो। ‘‘खबरदार...!‘‘ मेरे बोलते ही उसने मेरी बाँह मरोड़ी, गर्दन पर हाथ रखी और दीवार की तरफ धकेलकर गालियाँ देता हुआ चला गया। वह अक्सर ऐसा करता है। किससे कहूँ -उसे नुकसान पहुँचा नहीं सकती ,उसकी हरकतें सह नहीं सकती तो फिर करूँ क्या। काफी देर तक रो लेनेपर मंै उठी कुछ पैसे आँचल में गठियाये शाल ओढ़ी और घर के पीछे के हिस्से से निकल गई। सोच रही थी कि जाऊँ भी तो कहाँ, डूब मरने के सिवा कोई रास्ता भी तो नहीं। खतम करूँ सारी कहानी। कौन सा बच्चा रो रहा है मेरे लिए। ‘‘केसर भउजी ! इतनी रात को कहाँ जा रही हो ?‘‘ ‘‘तुम्हारे मालिक का तरपण करने धनौती ,जा सो जा। मैं अभी आती हूँ।‘‘ गाँव से बाहर आने के बाद मुझे लगा- कितनी सुन्दर रात है डर की क्या बात है। अपने बारे में सोचना चाहिए। फिर सोचकर हँस पड़ी कि आखिर कितनी सौतें हैं मेरी। शायद रात भी मेरे साथ हँस रही थी। नदी किनारे पहुँचकर एक मुट्ठी बालू उठाया कि -छोटी बहन की याद आई जब हम अपने घरों से दूर एक मंदिर में मिले थे। वह भी परेशान थी कुछ बातें करने के बाद बोली कि उसे कोई औरत वकील चाहिए। मुझे मौली उर्मिला याद आई। मैने सोचा कि हमारी किस्मत कहाँ कि हम अपनी बेटियों को डाक्टर, वकील और इंजीनियर बना सकें मैने पूछा कि मुकदमा किस पर करना है तो उसने कहा अपने पति पर। वह एक बार नहीं सोचता कि मैं माहवारी से हूँ या गर्भ से हूँ। वह मेरे बच्चों का हत्यारा है। उसे हवस है दीदी । ‘‘मरना नहीं लड़ना है। क्या तुम मुझे ताकत नहीं दोगी ।‘’ नदी किनारे से उठाई अंजुरी भर नदी से पूछा मैंने। कितना कुछ करना चाहती हूँ पर बिसनाथ के डर से हमेशा अपना कदम पीछे खींचना पड़ता है। ‘‘मरना नहीं लड़ना है।’’ यह सोचकर नदी की ओर मुँह किया और पहली बार अपने अतृप्त जीवन के लिए कुछ माँगा। एक छोटी नाव के पास पहुँच कर आवाज दी - ‘‘कोई है ?‘‘ ‘‘इस समय नाव नही जाती है। आप कौन हैं ? ‘‘इससे क्या मतलब ? हम कोई हों। ‘‘ ‘‘नीची जाति की औरतें मुँह नहीं ढँकती हैं।‘‘ ‘‘हमने मल्लाह के नाम पर हमेशा अधिक बढ़ा के अनाज दिया है। आज काम पडा़ तो तुम ऐसे बात करोगे।‘‘ ‘अब बताया आपने। मालकिन हम लोग आप के बारे में जितना जानते हैं उतना आप भी अपने बारे में नहीं जानतीं। आप बिसनाथ जमीदार की दुलहिन हैं। उनके लठैत यहाँ घूम रहे हैं। आप वापस जाइए। हमारी जान बकस दीजिए।‘‘ ‘‘ठीक है। हम जाते हैं। ‘‘ ‘‘.........अरे रोको उन्हें।‘‘ मैं पलट कर देखने लगी उसे- जो दौड़ा भागा चला आ रहा था। ‘‘अहा ! आज तो मगई नदी रानी देह धर के आईं हैं। हम हैं न, हम आपको नाव पर घुमाएँगे ,मछरी खिलाएँगे ,महाजाल ओढ़ाएँगे !‘‘ ‘‘...................!‘‘ ‘‘कौन ? क्या तुम मुझे जानते हो ? ‘‘अब लो फूफा पूछ रहे हैं कि हम किसके फूफा हैं।‘‘ ‘‘चुप रहो।‘‘ ‘‘आज आप घर छोड़ के निकली हैं न। आप ने तो कभी ऐसी रात भी नहीं देखी होगी। हमारा क्या है। हम तो अंधेरे की औलादें हैं। आज मावस की रात है न। यहाँ सब खाली है अंधेरा है। लेकिन सच पूछिए तो न ही खाली है न ही अंधेरा, कुदरत लिख रही है उसे जो लिखना है। ये तो हम हैं जो भरे के पीछे, चमक के पीछे भागते है। आइए ! आराम से बैठिए हारिल की नाव पर इस बार नहीं पलटेगी।‘‘ वह मुस्कराया। ‘‘तो ये हारिल है ? हारिल मल्लाह।‘’ मैं नाव पर चढ़ते हुए लड़खडा़ती इससे पहले उसने हाथ देकर चढ़ा लिया। ‘‘ये गुस्सा आपको पहले क्यों नहीं आया। मुझे एक-एक बात की खबर है, हाँ मैं सब जानता हूँ।‘‘ ‘‘मैं सुन्दर नहीं....मैं बांझ.... !’‘ न चाहते हुए भी मैंने एक कराह भरी। ‘‘सुन्दर तो गंगा पार वाली भी नहीं थी। आपको पता है वह उसी रात चली गई थी। बिसनाथ ढँेूढते ही रह गए। बिसनाथ जैसा आदमी किसी का नहीं।‘‘ ‘‘....।‘‘ ‘‘हारिल... क्या तुम वही हारिल हो जो......।’‘ मेरा दिल हौले से उछला। बहुत दिनों तक उससे मिलने की इच्छा उफनती रही केवल नाम भर याद रह गया था और आज कहाँ तो मरने की सोच रही थी कि हारिल को देखकर खुशी हुई। दूसरे किनारे पर रेलवे स्टेशन है। लेकिन मंैने कहा- ‘‘वापस चलो।‘‘ ‘‘मेरा घर यहीं पास के गांव में है। यह घर क्या पड़ाव है। कभी रात-बिरात यहीं सो जाता हूँ। आप यहाँ बैठिए मैं आता हूँ।‘ वह कहीं से गुड़ की चाय लेकर आया। ‘‘आप बिदा होकर पहली बार आईं थीं।‘‘ मुझे याद आई वह घटना। मैं नींद के खुमार में ऐसे बैठी थी कि..... रिश्तेदारों से भरी नाव कब पलट गई पता ही नहीं चला। मुझे तो डूबना ही था। बिना आदत की भारी साड़ी और गहने भी तो लादे थी। पानी में गिरते ही तेज पानी की धार मुझे कहाँ ले गई कुछ होश नहीं। होश आया तो देखा वह सुगठित साँवला शरीर मुझ पर झुका, अपनी साँस दे रहा था तो कभी पेट दबा के पानी निकाल रहा था। शायद इसी ने तैर कर मुझे डूबने से बचाया और उठाकर किनारे ले आया। मैंने उसकी ओर देखा और देखते ही दिल दे बैठी। उसके साँवले भीगे देह से लिपट जाने की चाह लिए मैं उठ बैठी। लेकिन वह इस तट से उस तट के लोगों को बुला रहा था। मेरे दिल में हूक उठी -‘‘एक बार तो नज़र भर देख लेने दे बैरी ! जाने किसको पुकार रहा है। काश कोई न आए।‘‘ कि अचानक दो-दो नावों को तेजी से अपनी ओर आते देखा। मैं भी कितनी मूरख थी और थोड़ी पागल भी... कैसे भूल गई थी कि कल रात ही में मेरा ब्याह हुआ है, भोर में बिदाई हुई और आते ही नाव उलट गई। मंैने हारिल से पूछा- ‘‘याद है वह दिन जब नाव..... ‘‘कोई ऐसा दिन नहीं कि मुझे उस दिन की याद न आए.... ‘‘क्या हुआ था ..... ‘‘कुछ नहीं नाव पलट गई थी बस। सभी तैरना जानते थे आप को छोड़कर । ‘सत्यानाश’ कहकर बिसनाथ तो किनारे बैठ गया था।’‘ ‘‘मुझे क्यों बचाया हारिल ?‘‘ ‘घूँघट में नथिए की सच्ची मोती और मगई नदी रानी की तरह भरी-भरी आँखें मैं कभी नहीं भूला।‘‘ ‘‘और नाव उलट गई।‘‘ हम दोनों हँस पड़े। उसकी सांवली देह की मछलियां बेचैन करने लगी। हारिल की उठती गिरती साँसे मानो -जीवन है....जीवन है ....की पुकार लगा रहीं थीं। अमावस का अंधेरा गजब का जादू रच रहा था। यह कोैेन सा ग्रह है जहाँ मैं रास्ता भटक कर आ गई हूँ। जिसके बारे में जानती तो थी लेकिन सिर्फ ख्यालों में। मैं सोचने लगी कितना कुछ जानता है हारिल मेरे बारे में। कितनी मानवीयता है इसकी बातों में और कितनी गरमाहट भी। अपने समझदार लोगों ने तो इन बातों का कब्र बना रखा है। जितनी स्त्रियाँ उतनी तरह की कब्रें। मैं अपनी सारी जड़ता ,भय और बेकार की आशंकाओं को छोड़कर न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए अपने कोने-कोने से ताकत इकट्ठा करना चाहती हूँ। मुझे हारिल की मदद चाहिए। मैंने हारिल को छुआ... उसे.. जो स्त्री को जानता है... स्त्री के साथ चलना चाहता है... जिसे अपने पर भरोसा है। मेरे जीवन का अपमान.....दर्द.....बेबसी... मृत्यु की आहट सब कुछ शीतल अँधेरे में घुलने लगा। हारिल के साथ मुझे अपना जीवन वैसे ही हाथ लगा जैसे मथते-मथते मक्खन का ढेला हाथ लग जाता है। हैतो......हैतो.....जीवन हैतो......शायद किसी चिड़िया की दूर से आवाज आई। कितनी शीतलता.....कितना सुकून....और मैं कितनी चमत्कृत- ‘‘तुम इतना कुछ ..कैसे जानते हो ?’‘ ‘‘मैं देह को जानता हूं......इसकी अपनी बोली होती है... हां होने के बाद.....वह बहुत तेजी से बहुत लम्बी दूरी तय करती है। ‘‘‘‘हारिल ! मैं एक अभिशप्त हवेली। तुम्हारी नज़रों से अपने आप को देखना चाहती हूँ तुम्हारे हाथों से अपने आपको को छूना चाहती हूँ और अपने बारे में जानना चाहती हूँ। ये कौन सा फूल महक रहा है ?’’ ‘‘बेला नहीं , ये आप की देह। जैसे नदी में दिए की छाया ! और मैं अमावस हाथ बाँधे खड़ा हूँ।‘‘ ‘‘हारिल ! इसे नरक की खान क्यों कहते हैं और इसे देखकर लोग अन्धे क्यों हो जाते हैं ?‘‘ ‘‘क्योंकि वे दोमुँहे हैं। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। वे उस धनपशु की तरह हैं जो अपने धन को ही गाड़ते -गाड़ते भिखारी हो गये। और यही उपदेश भी तो मिला है उन्हें।‘‘ ‘‘हारिल !‘‘ ‘‘हाँ।‘‘ ‘‘उपदेश मानते हो ?‘‘ ‘‘नहीं।‘‘ ‘‘हारिल !‘‘ ‘‘सागर जानते हो ?‘‘ ‘‘नहीं । मैं अपनी मगई नदी रानी को जानता हूँ।‘‘ ‘‘ठीक, इन सारे उपदेशों को मगई में डुबो दो।‘‘ वह विहँसती रात अपने पूरे ऐश्वर्य और वैभव पर थी। एक ठहरी हुई नीम रोशनी सर्वत्र झर रही थी हवेली पर भी।
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कविताएँ
माजुली
( ब्रह्मपुत्र नदी का सबसे बड़ा द्वीप ‘माजुली’
दुनिया के बड़े द्वीपों में से एक)
चट चैड़ा चपाट सीना ब्रह्मपुत्र का
उसी में प्रेममय हृदय की रसभरी
कली सी खिली यह मैं माजुली।
नीले लाल कमल लाती सूप भर
गूँथती श्वेतकमल वेणी में
बनाती आभूषण अनुनय अभिसार का
रुप यौवन की मादकताएँ छलकती
तिरते हंसों की ग्रीवा चुम्बन का कोलाहल
कानों की लवों से नीचे उतरते ही
बजते अनगिन पंखों के हृद्–तंत्री नाद
मानसरोवर के हंसों ने यहीं बिखराए मोती
छोड़े गए पछोरे गए पानी में
हंसों बत्तखों शुतुर्मुर्गों
जलपाखियों का उल्लास
लौटती लहरों के साथ घूमती
मैं भी पतली डेंगी नौका उतार
हे ब्रह्मपुत्र तुमसे लगता है डर रातों में दहशत
डोलायमान लहरों से कंपित करते दिशाएँ
अपनी एकान्तिक खामोशी एकालाप में गुम
माजुली मेरी कलास्थली
उच्चनामकुलहीन बुनकर तैराक
मछुवारों को आंचल में समेटे
नृत्य–संगीत अभिनय का दिव्य आंगन
प्रिय ब्रह्मपुत्र तुम्हें याद ही कहाँ रहता है
कितनी संस्कृतियाँ पली–बढ़ी बनी–बिगड़ी
तुम्हें तो बस तिब्बत से मानसरोवर उतरना
दाएँ कभी बाएँ अनगिनत नदियों से मिलना
और बंगाल की खाड़ी को लौट जाना होता
फिर क्या है जो तुम चोरी–चोरी आते
पाते कि उतरने के ठिकाने बदल गए
फिर तुम इक पतली जीभ जैसी लहर
बन प्रवेश कर जाते हो माजुली में
फिस्स सी हँसी हँसता कोई शावक
उत्तरीय थमा जाता उपानह कोई गोजर
हतप्रभ से बढ़ते बिछौंने के नीचे ढ़ूँढते
कोई कर्णफूल, नूपुर ,रात का डूबा राग
हाथ आती सलवटें बेसुध प्रेम–क्रीड़ा की
नहीं सुना बिस्मिल्लाह की शहनाई
जैसे गंगा ने सुना था
जयदेव का स्रग्धरा छंद
गीतगोविन्द के श्रृंगार भरे गीत
विद्यापति के रतिविलास के वर्णन
झुमोरा छली अप्सरा और रासलीलाओं में
गाए जाने वाले गान बिहू की तान
गर्जना के अलावा तुम कुछ नहीं सुनते
और अब क्रुद्ध होकर बाढ़ बनकर मत आना
मुझे डुबो न देना मेरी गोदी के जीव–जन्तु
आर्य–अनार्य मंगोल–बर्मी द्रविण गायक कलाकार
कृषक और मुखौटा बनाने वालों को मुझ माजुली को
दादी शूटर्स
वे उन्हें घूँघट में रखना चाहते थे
ये मछली की आँख देखना सीख गयीं
वे उन्हें बच्चे पैदा करने की मशीन समझते थे
ये सतरंगे सपनों को बाहों में भींचना सीख गयीं
वे दुप्पटे के रंग से अपनी लुगाई पहचानते थे
ये अंधेरों का उपयोग कर धमाल करना सीख गयीं
वे उन्हें कैद कर हजार पहरों में रखना चाहते थे
ये स्थिर हाथ फौलादी नसों से निशानेबाजी सीख गयीं
वे उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं रखते
ये अपने लिए तालियाँ बटोरना सीख गईं
वे उन्हें छोटी–छोटी चीजों के लिए तरसाते थे
ये सोने के मेडल होठों से चूम हवा में उड़ाने लगीं
वे उन्हें मिट्टी और गोबर में सानना चाहते थे
ये सफलता की खुशबू से गाँव महकाने लगीं
वे उनकी उम्र और खुशियाँ छीनने में लगे रहते थे
ये दादी की उम्र में टशन मारना सीख गयीं
वे मूछें ऐंठ फोटो खिंचाने के लिए बन्दूक रखते
ये दादी शूटर्स धांय– धांय गोली मारना सीख गयीं।
महोख चिड़िया से
मौका मिला अगर
तो दोस्ती करुँगी तुमसे महोख
तुम जो किसी भी झुण्ड से दूर
अपने आप में मस्त लोक कथाओं
में घुसी हुई बेधड़क पात्र सी
सुनहरे लम्बे पंखो वाली अलबेली हो।
शायद कभी सीख सकूँगी
तुम्हारी भाषा और जान सकूँगी
तुम्हारी जिन्दगी जिसमें उल्लास है
मजबूरी नहीं यात्राएँ हैं यातनाएँ नहीं
बच्चों से प्रेम है मोह नहीं
पर पिंजरे में दिख जाओ कभी
ऐसी इतनी कमजोर परजीवी नहीं हो।
मिल जाओ सामने ही अगर
तो पूछूँगी घर बनाने का हुनर
और उड़ान साधने की नजर
ढूँढती रहती हूँ ऐसे दिखती भी कहाँ हो।
अंत में तुमसे जरुर पूछूँगी कि
जो एक साथ उड़ान चाहती है
ठीक उसी समय जमीन पर रह कर
क्रान्तिकारी परिवर्तन चाहती है क्या तुम भी
वाम की ओर झुकी हुई स्त्री की तरह हो।
ओ मेरी सोनचिरैया !
मुझे तुम्हारी आवारगी से प्यार है
एक हूक सी उठती है जब तुम
अकेली टहलती तिरछी नजर डाल
‘आओ छू लो’ की आवाज दे तीर की तरह
आकाश की उजली ऊँचाइयों में उड़ जाती हो।
नाभिदर्शना
खुशनुमा सा था उस शहर का मौसम
उस दिन कुछ ऐसी बँधी शिफान साड़ी
कि समुद्री हवा से बस उड़ी जा रही
संभाला उसे फिर अपने नाम की तख्ती
मीठी पहचान स्वागत के साथ लेने आए
वे कार्यक्रम की भव्यता बताते
हमें इस तरफ जाना है सजावट की
अलग ही दुनिया में रास्ता दिखाते
अचानक बड़े निश्छल भाव बोले
आपने बहुत सुन्दर साड़ी बाँधी है
मैने उनकी आँखों में देखते हुए
पूछा–असूर्यम्पश्या वाले देश में
कहीं ये नाभिदर्शना तो नहीं
नहीं–नहीं अरे हाँ मैं तो आपकी
साड़ी देखते हुए बस यही कहना
चाहता था कि मैं देख पा रहा हूँ
कि आपकी नाभि काफी गहरी है
तो… और क्या जानते हैं आप
साड़ी और नाभि के बारे में…
हँस पड़े वे मजा़क करती हैं
साड़ी के बारे में आप ज्यादा जानती हैं
नाभि के बारे में जो पढ़ना शुरू किया
इसे यूँ ही नहीं कहा जाता दूसरा दिमाग
यहाँ बहुत सी तरंगे उठती रहती हैं
तन और मन में उथल–पुथल मचाती हैं
जानती हैं आप यह अद्भुत है
पूरी देह का मध्य भाग द्वार है
किस चीज का मैंने सीधा पूछा–
उम्मीद नहीं थी इस सवाल की उन्हें
बोले जानता तो हूँ पर बताऊँ कैसे
लेकिन अभिनय कर बता सकता हूँ
वे वहीं घुटनों के बल बैठ एक हाथ
उठाकर पुकारते हुए बोले–
हे नाभिदर्शना ! मैं दीवाना हुआ जा रहा हूँ
मैं इसे देखना और चूमना चाह रहा हूँ
मैंने रोकी हँसी उनका हाथ थामा
शुक्रिया कहा हमारा गंतव्य सामने था।
मैं नाभि के बारे में थोड़ा तो जानती थी
पर इस दीवानापन के बारे में बिल्कुल नहीं।
रो लो जरा
खाने का पहला कौर
उठाते ही मन दुख से भर जाए
आँखों में आँसू छलक आए
तो आओ न, रो लो जरा
पुरुष हो तो क्या हुआ।
अपने भीतर देखो
वही डर वही मासूमियत है
कितनी बार रोए हो बचपन में
रोने को दोस्तों का
साथ जो मिल जाता था
तो आज क्यों नहीं
ऐसे बड़े क्यों हुए जो
छिपानी पड़ी बातें इतनी।
सोचो जरा अगर तुम भी
स्त्रियों की तरह रोते होते
तो नदियाँ सूखती नहीं
प्यार एकतरफा न होता
राह चलती लड़की
इतनी भयभीत न होती
घरों से कर्कश आवाजें न आती।
किसी सुधार से चीजें
इतनी सुधरती नहीं हैं
जितनी कि रोने से ,
झूठा अहं ढल जाता है।
सोचो जरा अगर तुम
रोते होते तो गिले शिकवे
पल में दूर हो जाते और
गुजरे जमाने भी लपक–झपक
कर वापस आते
फिर अप्रेम के कम पानी में
यूँ हम सबको डूबना न पड़ता
तुम रोते होते तो प्रेम लबालब भरा रहता
…………………………..
किताबें
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