नाम उषा यादव
पीएचडी हिंदी मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद, तेलंगाना 500019.
कहानी
समाज में स्त्री विमर्श की संपूर्णता को बताने के लिए किताबों को पढ़ना -लिखना तथा नई नई पुस्तकों को जानना अत्यंत आवश्यक है। जब एक स्त्री अपनी जिंदगी रुपी किताब लिखती है, तो उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। इस पुरुष सत्तात्मक समाज ने सबसे पहले इस स्त्री की सोच को बाधित किया। फिर घर के भीतर बाल बच्चों में उसे समेटना चाहा। फिर भी पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के बाद बाहरी दुनिया में जबरदस्ती कदम रखने का वो प्रयास कर भी रही है।
आज एक नई पुस्तक ‘ स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया’ पढ़कर खत्म की। हालांकि व्यस्तता के कारण बहुत दिनों के बाद समाप्त हो पाई है, फिर भी इस पुस्तक की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को आप सबके साथ सांझा कर रही हूं। वैसे यह पुस्तक प्रथम अध्याय से शुरू होते हुए दसवें अध्याय पर खत्म होती है। प्रथम अध्याय में जहां ‘ शुचिता’ शब्द पर चर्चा की गई है। शुचिता जिसका अर्थ वर्जिनिटी (कौमार्य) से है। यह शब्द स्त्रियों तथा पुरुषों में से किसी एक के पक्ष में परिभाषित नहीं है। अपितु संपूर्ण मानव जाति को लक्षित है। इसका अर्थ है लिंग विशेष की सीमा से परे परम शुद्धता की अवस्था। कुल मिलाकर ‘ शुचिता’ का संबंध सिर्फ स्त्रियों से नहीं है। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है, कि जब कोई स्त्री पुरुष (सहवास) करते है या कर चुके होते है उन दोनों की अनुवर्ती पवित्रता के बावजूद भी चाहे स्त्री हो या पुरुष अपनी ‘ शुचिता’ को गवां देते है। फिर भी मेरा ये मानना हैं कि ‘ शुचिता’ शब्द को विशेष रूप से स्त्रियों के चरित्र से ही जोड़ा जाता है क्यों?
दूसरे अध्याय में प्रेम का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में प्रेम को समझाने के लिए लिखा है प्रेम जैसा कोई तत्व नहीं होता। जो अनुराग इच्छा एवं मैत्री के अलावा किसी और चीज को अभिव्यक्त करता है। संसार में प्रेम शब्द को असाधारण गुण संपन्न घोषित किया गया है। इसने लोगों के दिलों दिमाग में अनावश्यक रूप से इतनी स्थाई पैठ बना ली है जिससे स्त्री पुरुष के एक साथ रहने का मूल उद्देश्य की फीका पड़ चुका है। फिर भी प्रेम की वास्तविकता को समझाते हुए एक जगह लिखा गया है। प्यार की भावना प्रतिकूल नहीं है। वह अवस्था ही क्या होगी? जब उनमें से एक दूसरे को उसके हाल पर छोड़ कर सांसारिक सुखों का त्याग कर सन्यासी बन जाए। क्या यह प्रेम भावना के विपरीत होगा। इन प्रश्नों पर विचार करने के बाद व्यक्ति ही प्रेम की वास्तविकता को जान सकता है।
ऐसे ही अन्य अध्यायों में ‘ तलाक का अधिकार’ तथा
‘ पुनर्विवाह गलत नहीं है’ का वर्णन किया गया है। पुनर्विवाह पर विचार करते हुए सबसे पहले हमें विवाह के अर्थ को समझना चाहिए। हम मानते हैं कि विवाह दांपत्य सूत्र में बंधने जा रही नव दांपत्य सुविधा हेतु उनके बीच होने वाले पारस्परिक अनुबंधन जैसा होना चाहिए। हम यह भी महसूस करते हैं कि विवाह में स्त्री पुरुष दोनों की स्वायत्तता (व्यक्तिगत अथवा संयुक्त रूप से) किसी भी कारण या सिद्धांत के अनुसार बाधित नियंत्रित नहीं होना चाहिए। पुनर्विवाह को विस्तार से समझाते हुए लिखा गया है कि हिंदुओं में जहां 60,000 तक पत्नियां रखने का प्रावधान है, इस्लाम में एक पुरुष चार पत्नियां रख सकता है। ईसाई धर्म में तो इसकी कोई सीमा ही नहीं है। व्यक्ति किसी भी संख्या तक पुनर्विवाह कर सकता है। सिर्फ ईसाई धर्म में ही व्यक्ति को वर्तमान विवाहित संबंध से मुक्त होने के बाद ही पुनर्विवाह करने की अनुमति है। विवाह विच्छेद केवल कुछ शर्तों को पूरा करने पर ही संभव है। हालांकि मेरा तो यह मानना है पुनर्विवाह केवल नैसर्गिक रूप से तभी सफल हो पाता है जब दोनों तरफ प्रेम और स्नेहानुराग की क्षमता हो।
बकौल इस पुस्तक में ऐसे बहुत से लेख है जो स्त्रियों के समस्याओं के मुद्दों को उजागर करते है, और साथ में उसके निवारण की भी योजना को भी बताया गया है।
पुस्तक का एक अन्य लेख है ‘ वेश्यावृत्ति’। ‘ वैश्यवृति’ शब्द का इस्तेमाल मुख्यतः स्त्री और पुरुष के बीच सेक्स के संबंध में किया जाता है। इसमें खास बात यह है कि यदि एक स्त्री अपने पति के अलावा किसी और पुरुष (अथवा अनेक पुरुषों) अथवा ऐसे पुरुष जिसने उसे ‘ रखैल’ बना कर रखा है, या फिर ऐसे व्यक्ति के साथ जिसने उसे उसके दलाल पति से किराए पर लिया है काम संबंध स्थापित करती हैं तब समाज और वे लोग जो उसके साथ व्यभिचार करते हैं तब उस स्त्री को वेश्या कहकर बुलाया जाता हैं। परन्तु सच तो यह है कि पुरुषों के लिए इस तरह के आरोप गालियां, धिक्कार जैसे शब्द मौजूद ही नहीं समाज में। किसी आदमी को ‘ पुरुष वेश्या’ कहने का रिवाज तक नहीं। केवल ‘ वेश्यावृत्ति’ शब्द स्त्रियों के लिए ही बना हुआ है। इस आलेख में ‘ वेश्यावृत्ति’ के प्रचलित विभिन्न राज्यों की प्रथाओं का वर्णन किया भी किया गया है। जिसका मैं यहां विस्तार से वर्णन नहीं कर रही हूं।
वैसे यह पुस्तक स्त्रियों और स्त्रियों के अधिकारों को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसमें स्त्रियों की दुर्दशा, संपत्ति का अधिकार, विधवाओं का वर्णन, संतति निरोध, आदि का विस्तार से वर्णन है।
अंत में ई. वी. रामास्वामी पेरियार के व्यक्तित्व और उनसे जुड़े हुए आंदोलनों का वर्णन भी मिलता है। जैसे जाति व्यवस्था को लेकर लिखा गया है जातिभेद से सामना पेरियार ने बचपन से ही किया है। स्कूल जाने के बाद भी उससे पीछा नहीं छूट पाता था। ऊपर से पेरियार का विद्रोही स्वभाव के कारण वे सामाजिक मर्यादाओं में बनकर रहने वाले इंसान न थे। पेरियार ने कई आंदोलनों की स्थापना की थी जिसमें ‘ आत्मसम्मान आंदोलन’ उनका प्रमुख आंदोलन था। ‘ आत्मसम्मान आंदोलन’ का मुख्य उद्देश्य पुरोहितवाद ,जातिवाद और धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त अनेकानेक रूढ़ियों से समाज को मुक्ति दिलाना था। ब्राह्मणों और दूसरे सवर्णों को उन्होंने यह विश्वास दिलाने की कोशिश की थी कि, उनके आंदोलन का उद्देश्य ब्राह्मणों का विरोध करना नहीं अपितु आंदोलन के माध्यम से वह उस मानसिकता का विरोध करना चाहते हैं।
यह पुस्तक कई धर्माडंबरों का भी विरोध करती है।
परंतु इस पुस्तक से मुझे एक जगह निराशा भी हाथ लगी कि, परियार जैसे महान समाज सुधारक ने हिंदी की अनिवार्यता के विरोध में आंदोलन चलाए। वे लोगों से अपील करते थे कि वह अपने घरों से बाहर आए और हिंदी के विरोध में सड़कों पर उतरे।
अंततः पेरियार जैसे समाज सुधारक ने हमेशा नीची जाति के लिए लड़ाई लड़ी। उनकी भाषा में कबीर जैसा तंज और साफगोई तो था ही साथ अल्पशिक्षित होने के बावजूद उनमें गजब का आत्मविश्वास भी था।
बरहाल! स्त्रियों से जुड़े मुद्दों और उनकी समस्याओं के लिए यह पुस्तक काफी कारागार सिद्ध है।
उषा यादव
पुस्तक – ‘ स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया’
अनुवादक -‘ ओमप्रकाश कश्यप’
प्रकाशक- सेतु प्रकाशन