Tuesday, May 14, 2024

वंदना गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक हैं तथा कंप्यूटर में डिप्लोमा किया हुआ है. कविता और अन्य गद्य विधाओं सहित उपन्यास व आलेख लेखन. उपन्यास – अँधेरे का मध्य बिंदु, कलर ऑफ़ लव, शिकन के शहर में शरारत, कहानी संग्रह- बुरी औरत हूँ मैं, कविता संग्रह- बदलती सोच के नए अर्थ, गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं, प्रेम नारंगी देह बैजनी, प्रश्नचिन्ह आखिर क्यों, कृष्ण से संवाद, भाव रस माल्यम, बहुत नचाया यार मेरा, समीक्षा संग्रह – अपने समय से संवाद, सुधा ओम ढींगरा – रचनात्मकता की दिशाएं, अंग्रेजी में अनुदित कविताओं का संग्रह – फैदर्स ऑफ़ लव एंड रिलेशनशिप, बाईलिंगुअल कविता संग्रह – धूसर रंगों की चटख कलाकृति. इसके अतिरिक्त इ-कविता संग्रह और कहानी संग्रह प्रकाशित, १८ साझा संकलनों में कवितायेँ व् कहानियां प्रकाशित, १२ साझा संग्रहों में आलेख समीक्षा व् व्यंग्य प्रकाशित. 

सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं तथा वैब माध्यमों आदि पर कहानी, कविता, समीक्षा और आलेख प्रकाशित, कविता कोश, हिंदी समय, भारतकोश आदि पर कवितायें सम्मिलित, आकाशवाणी पर कविता पाठ. 

शोभना सृजन सम्मान, हिन्दुस्तानी भाषा साहित्य समीक्षा सम्मान, श्रेष्ठ सृजन हेतु आखर सम्मान, मानव रत्न अवार्ड आदि से सम्मानित. 

तीन ब्लॉग हैं – ज़िन्दगी – एक खामोश सफ़र, ज़ख्म…जो फूलों ने दिए, एक प्रयास
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कहानी

और अब वो ज़िन्दा नहीं रही

 

प्रिय

समय ने एक खूबसूरत लम्हा बुना. ये समय ही है, जो कभी अपनी नज़ाकतों-नफासतों से नवाजता है तो कभी अपनी क्रूरता से दण्डित भी करता है. ये समय ही होता है जो दो हृदयों के मध्य एक खूबसूरत आभामंडल प्रस्तुत कर देता है जिसमें दो ह्रदय स्वयं को किसी सल्तनत के सुल्तान और शहजादी समझने लगते हैं. ऐसा ही तो हमारे साथ हुआ.

हमारा रिश्ता गठबंधन से शुरू हुआ जिसके तुम शाहजहाँ बने तो मैं मुमताज़. हां, यही तो ख्वाहिश होती है न दो दिलों की. वो दौर ही और था. जब ख्वाब और हकीकत में जमीन आसमान का अंतर था. वो पुरनम नमी चेहरे की खिलखिलाहट में , जुल्फों की कसमसाहट में , आँखों की शरारत में , लबों की हरारत में देखना और एक बातों का ताजमहल खड़ा कर देना तुम बखूबी जानते थे. किसी स्वप्नवत बीत गए वो लम्हे और आज एक लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी हमारा रिश्ता अब इस मुकाम पर पहुँच गया है कि एक निर्णय लेना ही होगा. वो वक्त के शायद हसीन पल दर्ज हो गए होंगे किसी स्मृति के इतिहास में जब तुम्हारे चारों तरफ घूमती थी मेरी दुनिया. कह सकती हूँ तुम से शुरू और तुम पर ही खत्म होती थी. सुनो, तुमने भी कभी ऐसा ही महसूस किया हो. तुम्हारे जीवन की शायद मैं ही धुरी रही हों. संभव ये भी है, आज तुम भी वैसा ही महसूस कर रहे हो जैसा मैं. हो सकता है खता न तुम्हारी हो न मेरी. बस वक्त ने फासलों की फसलें बो दी हों. जो भी हो, फर्क नहीं पड़ता. मगर जीवन के एक पड़ाव पर आकर इतना जरूर समझ आ गया है कि जिसे हमने प्यार समझा, वो प्यार न था. प्यार कभी होता ही नहीं रिश्ते में, होता है तो समझौता. मैं नहीं कहती कि सिर्फ मैंने ही समझौते किये. लाज़िम है, तुमने भी किये हों लेकिन तुम्हारी नज़र से मैं देख न पा रही हों. वैसे भी सबको अपना पक्ष ही सही लगता है. दो अलग-अलग परिवेश के पौधों को उखाड़ कर एक जगह जब लगाया जाता है तो उन्हें जमने में समय तो लगता ही है. अब एक दूसरे को हम समझे या नहीं, कह नहीं सकते क्योंकि आज जहाँ खड़े हैं, वहाँ से यही लगता है, हम चले जरूर साथ-साथ मगर नदी के दो किनारों की तरह, जिन्हें कहीं भी किसी भी क्षितिज पर मिलना नहीं होता. 

मैंने कोई बड़े सपने नहीं देखे. ज़िन्दगी ने, लेकिन वो छोटे छोटे सपने भी पूरे न किये. आज देखती हूँ मुड़कर और करती हूँ हिसाब तो पाती हूँ हथेलियाँ रिक्त हैं. शायद सपने पूरे होने की रेखा बनी ही नहीं. जाने क्यों हर बार एक सपना टूटने पर दूसरा देखने लगती. फिर वो टूटता तो तीसरा, फिर चौथा, फिर पाँचवां…और ज़िन्दगी इन्हीं दिलासाओं में गुजार दी. न पिता के घर कोई सपना पूरा हुआ न पति के घर. तीसरा घर कौन सा होता है मुझे पता ही नहीं. जीने के लिए लेकिन सपनों की जरूरत होती है और सुनो, तुमने भी तो मुझे एक के बाद एक सपने दिखाए. मेरी छोटी-छोटी अभिलाषाओं को हमेशा सपनों का चाँद दिखा बहला दिया. मैं बहल गयी. इंतज़ार की सीढियां चढ़ती गयी. आज नहीं कल, कल नहीं परसों और बरसों बीत गए. हर सपना मिटटी में मिलता चला गया. जानते हो न, सपनों में कोई हीरे जवाहरात नहीं थे, कोई महल दोमहले नहीं थे. बस एक तुम्हारा साथ, कुछ समय और कुछ सफ़र. मगर समय को तुमने आँख दिखा रखी थी कैसे वो मुझ तक आता. तुम मनचाहा करते रहे, मेरा चाहा, कुचलते रहे. मैं समझौते की उस सीढ़ी पर भी चढ़ती गयी. 

रिदम वाद्य यंत्रों में कब होती है. बिना तार साधे तो स्वर उसमे भी नहीं फूटा करते. कसना पड़ता ही है तारों को, खींचनी पड़ती है नकेल तभी सप्त सुर एक संगीत की लड़ी में पिर जाते हैं. बस इसी तरह तुम्हारे प्रेम को साधती रही मैं अपनी साँसों की लड़ियों में, ह्रदय  के कम्पन में , धडकनों की झंकार में तब कहीं जाकर कभी कभी एक गीत झड़ता तुम्हारी शुष्क प्रियता की शाख से और उसी में जीने की कोशिश करती रही मैं “पूरा एक  जीवन”. वरना तो पीले पत्ते मुंह चिढाते रोज झड़ते संवेदनहीन होकर और मैं समेट लेती आँचल में उनका पीलापन. ना जाने कौन सी नीम की निम्बोली दाब रखी है तुमने दाढ़ के नीचे, कसैलापन जाता ही नहीं.

कुछ आईने बार बार टूटा करते हैं कितना जोड़ने की कोशिश करो. शायद रह जाता है कोई बाल बीच में दरार बनकर और ठेसों का क्या है वो तो फूलों से भी लग जाया करती हैं. मेरे पास तो आह का फूल ही है जब भी आईने को देख आह भरी…टूटने को मचल उठा. आह ! निर्लज्ज, जानता ही नहीं जीने का सुरूर..जो कहानियाँ सुखद अंत पर सिमटती हैं कब इतिहास बना करती हैं और मुझे अभी दर्ज करना है एक पन्ना अपने नाम से . इतिहास में नहीं तुम्हारी रूह के, तुम्हारी अधखिली , अधपकी चाहत के पैबदों पर…जो उघडे तो देह दर्शना का बोध बने और ढका रहे तो तिलिस्म का. मुक्तियों के द्वार आसान नहीं हुआ करते और जीने के पथ दुर्गम नहीं हुआ करते. कशमकश में जीने को खुद का मिटना भी जरूरी है फिर चाहे कितना आईना देखना या टूटे आइनों में निहारना, तसवीरें नहीं बना करतीं, अक्स नहीं उभरा करते फ़ना रूहों के…जानां!

मैंने तो सुपारी ले ली है अपनी, बिना दुनाली चलाये भी मिट जाने की. क्या कभी देख सकोगे आईने में खुद के अक्स पर खुद को ऊंगली उठाये …ये एक सवाल है तुमसे…क्या दे सकोगे कभी “मुझसा जवाब”?

चलो छोड़ो, ये मेरे छलनी दिल के छाले हैं, कितना दिखाऊँ? और जरूरी भी तो नहीं तुम उनसे आहत हो. आज कहनी हैं मुझे अपने मन की सब बातें…कल हो न हो.

मैंने हर जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम दिया. बच्चों की पढ़ाई हो, होमवर्क, परवरिश, उनकी पेरेंट्स मीटिंग्स, सब, मगर तुम्हें कभी दिखाई ही नहीं दिया. जाने कौन सा चश्मा लगा रखा है तुमने. जब भी किसी विपदा में पड़े संकटमोचक बन मैंने ही उभारा मगर तुमने कभी उसका भी श्रेय नहीं दिया. फिर चाहे बाहर वाले मेरा गुणगान करते न थकते थे. कोई अनजान भी मुझमें वो खूबी देख लेता था जो तुम्हें दिखकर भी नहीं दिखती थी. फिर भी मैं हर कदम सब्र का घूँट पी जीती रही. “तुम भटकी हुई दिशा की वो गणना हो जिसके उत्तर ना भूत में हैं और ना ही भविष्य में फिर वर्तमान से मगज़मारी क्यों”…कहा था ना तुमने एक दिन और उसी दिन से प्रश्नचिन्ह बनी वक्त की सलीब पर लटकी खडी हूँ मैं.

ये जीवन है तो इसमें छाँव-धूप का होना भी जरूरी है. वक्त ने एक इम्तिहान लिया. वो भी दे दिया. जीवन है तो उसमें इम्तिहान तो देने ही पड़ते हैं, सो दोनों ने दिए. मिलकर दिए और पास भी हुए. कुछ समय ऐसा लगा जैसे एक दूजे के लिए ही बने हैं हम. शायद एक दूजे को सबसे ज्यादा समझते हैं हम. वक्त की परछाइयाँ मगर फिर लम्बी हो गयीं. बगिया के दो गुलाबों के लिए हमने स्वयं को झोंक दिया. उनके लिए स्वप्न देखने लगे. साथ-साथ तुम्हारे अहम भी चलते रहे. तुम्हारी दमनकारी नीतियाँ उसी तरह सक्रिय रहीं. फिर मैंने बदल लिए रास्ते. छोड़ दिया तुम्हें तुम्हारे हाल पर. मिटा दीं हर अपेक्षाएं अपने ज़हन से क्योंकि जान चुकी थी, तुम वो बादल हो जो कभी बरसते ही नहीं, बस अपनी शक्ल दिखा आस बंधा सकते हैं. जीने को जितने बहाने चाहिए होते हैं न, मैंने उन सब बहानों को आजमाया. मैंने अपनी इच्छाओं से कहा, जब उर्वर भूमि मिले तब पनपना. जाओ, अभी किसी और मठ में जाकर सो रहो. और वो सो गयीं. यहाँ तक तो चलो फिर भी गुजर ही रही थी जैसे तैसे. अपनी बगिया के गुलाबों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने तक तो जरूर मुझे इस सफ़र को जारी रखना ही था. यूँ तो अब उन गुलाबों को एक मंजिल मिल ही चुकी है तो कुछ हद तक निश्चिन्त तो हूँ ही. मगर जाने क्या हुआ है, अब चार प्राणी हैं हम और चारों की चार दिशाएं हैं. अब कोई किसी को बर्दाश्त नहीं करता. एक पढ़ा-लिखा परिवार अनपढ़ों की तरह लड़ता-झगड़ता है. चीखता-चिल्लाता है. मैं खोज में लग जाती हूँ – आखिर कहाँ कमी रही परवरिश में? 

कोई उत्तर कहीं से नहीं मिलता. सुना है ये नयी जनरेशन है, जो मोबाइल और गैजेट्स में इतनी उलझी रहती है कि यदि घर में उनसे बात करनी हो तो उनके पास समय नहीं होता. हाँ, अपने दोस्तों से ऐसे बात करते हैं जैसे जन्मों के बिछड़े हों. हम एक काम कह दें तो उन्हें भारी पड़ने लगता है मगर दोस्त के लिए आधी रात भी पच्चीस मील दौड़ जाएँ. क्या इन्हीं के लिए खुद को मारा? अपनी हर इच्छा को तिलांजलि दी कि इन्हें सब मिले. ये कुछ बन जाएँ तो जीवन सफल हो जाए. नहीं, ऐसा नहीं है कि बेटा ही ऐसा हो, आजकल बेटियां भी ऐसी ही होती हैं. उन्हें भी पेरेंट्स और उनकी बातें चुभती हैं, वो भी पेरेंट्स को खाने को दौड़ती हैं, जैसे उन्हें उधार देकर हम बैठे हों. तुम कहते हो, ये बच्चे हमारे काम नहीं आयेंगे. हम ही एक दूसरे के काम आयेंगे. इनसे कोई उम्मीद मत रखना. मानती हूँ ये बात क्योंकि कहते हैं न, पूत के पाँव पालने में दिखाई देने लगते हैं, बस इनके लक्षण भी दिखाई देते हैं. दोनों ही किसी न किसी बात पर आये दिन चीखते-चिल्लाते हैं जैसे हम नहीं, वो हमारे माँ बाप हों. हम इसलिए चुप करा देते हैं एक-दूसरे को, चलो बच्चे हैं या फिर दुनिया देखेगी तो क्या कहेगी. फिर तो इनके विवाह होने भी मुश्किल हो जायेंगे. लेकिन अब सोचती हूँ तो लगता है, आखिर कब तक मैं सब झेलूँ? बच्चों की भी और तुम्हारी भी, तुम सबको सँभालते-सँभालते अब मैं कमजोर होने लगी हूँ. मुझसे नहीं सहा जाता रोज का क्लेश. कलह से कोई घर कभी सुखी नहीं रहता. मैं झेल नहीं पाती तुम सबका चीखना-चिल्लाना. फिर मुझे भी चीखना पड़ता है. कभी चीखने लगती हूँ तो कभी रोने लगती हूँ. मेरा मस्तिष्क और मन दोनों ही कमजोर पड़ने लगे हैं. झेल नहीं पाती. किसी से कह भी नहीं पाती. किससे कहूँ? कौन समझेगा? 

घर, घर नहीं रहा. जैसे अखाडा बन चुका है, उस पर तुम्हारे द्वारा हर बात का मुझ पर ही दोषारोपण, मेरी सहनशीलता की अंतिम सीढ़ी होता है. तुम्हारा एक शब्द, एक वाक्य, मेरे साहस के परखच्चे उड़ा देता है. जानते हो, मेरे लिए, मेरा पूरा परिवार ही मेरी ताकत है. तुम सब साथ हो तो मैं बड़ी से बड़ी जंग जीत सकती हूँ लेकिन यदि एक भी अंग कटा तो जानते हो, मैं कटने लगती हूँ. मेरी सोच बुरी से बुरी बात सोचने लगती है. ख्यालों में ही मैं, जाने कितनी बार तुमसे तलाक ले चुकी हूँ. ख्यालों में ही मैं, जाने कितनी बार बच्चों से अलग हो चुकी हूँ. ख्यालों में ही मैं, जाने कितनी बार तुम सब पर केस कर चुकी हूँ. ख्यालों में ही मैं, एक घर अलग बना चुकी होती हूँ. जबकि हकीकत की जमीन पर अब भी आहें सिसक रही होती हैं. एक जंग जैसे स्वयं से लड़ रही होती हूँ. मुझमें बर्दाश्त का माद्दा ख़त्म हो गया लगता है. कोई जरा सा तेज बोले तो भी आँखें बरसनी शुरू हो जाती हैं, ह्रदय का प्याला लबालब भर जाता है तो छलकने लगता है. दिमाग शून्य की स्थिति में चला जाता है. तुम सब जानते हो पिछले दो-तीन सालों से एक अजीब सी स्थिति हो चुकी है मगर किसी पर असर नहीं पड़ता. सब अपनी दुनिया में मस्त हैं. मैं शरीर से पस्त हूँ. फिर भी अपनी जंग लड़ रही हूँ. शरीर बिमारियों का घर बन चुका है, साथ नहीं देता लेकिन उससे ज्यादा कर रही हूँ. ऊपर से ये मुआ कोरोना और आ गया. इसने ज़िन्दगी और अज़ाब बना दी. लॉक डाउन ने रही सही कसर पूरी कर दी. तुम्हें काम की चिंता. शायद उस कारण थोडा तुम भी चिडचिडे हो गए हो. इधर मुझ पर भी काम का ज्यादा बोझ. जितना कर सकती हूँ उससे दुगुना करना पड़ता है. ऊपर से तुम्हारी किटकिट लगी रहती है. अब ये, अब वो, ये नहीं हुआ वो नहीं हुआ. अरे घर है, कोई मिलिट्री का हेड क्वार्टर नहीं जो वहां के रूल्स फोलो करने होंगे लेकिन तुम अपनी आदत से बाज कहाँ आते हो. बस मैं बैठ कैसे गयी. बर्दाश्त नहीं होता. थोड़ी-थोड़ी देर में किसी न किसी बहाने कमरे में आओगे और कोई न कोई काम, कोई न कोई बात कहोगे. मैं जानती हूँ, लेकिन फिर भी इग्नोर करती हूँ क्योंकि जितना मेरा शरीर साथ देगा उतना ही तो करुँगी. अरे तुम्हें दिख रहा है तुम कर लो लेकिन नहीं, जब तक अहसान न जता लो, जब तक ताना न मार दो, तब तक तुम्हें रोटी हजम थोड़े होगी. लेकिन हर बात की एक लिमिट होती है. तुम्हें मेरा बैठे रहना दिखता है, तुम्हें मेरा जरा सा किसी से बात करना दिखता है, तुम्हें मेरा जरा सा खुश हो लेना दिखता है लेकिन मुझे कितनी तकलीफ है ये कभी नहीं दिखती. आखिर कब तक मैं ये सब सहूँ? कभी-कभी जानते हो क्या लगता है, मैंने स्वयं को तुम्हारे लिए क्वारंटाइन कर लिया था और एक उम्र बिता दी लॉक डाउन में. और तुम्हें आदत हो गयी उसकी. अब तुम चाहते हो, अब भी तुम्हारे इशारे पर नाचती रहूँ, उसी तरह, लेकिन हर इंसान की सहने की एक सीमा होती है, अब वो सीमा मेरी चुक चुकी है. 

आज तुम्हारे लिए शायद मेरी कोई वैल्यू नहीं. सुनो तुम्हारे ही नहीं, किसी के लिए भी मेरी कोई वैल्यू नहीं. किसी को मेरी जरूरत नहीं. शायद ज़िन्दगी को भी मेरी जरूरत नहीं. मुझे भी अब ज़िन्दगी की कोई चाहत नहीं. कभी कभी जब सब बर्दाश्त के बाहर हो जाता है तो यही सोचती हूँ मुझे ही कोरोना हो जाए और सबको मुझसे मुक्ति मिले. या फिर मैं ही ज़िन्दगी को अब अलविदा कह दूं. हाँ, सच कह रही हूँ, ये ख्याल अब धीरे-धीरे पकने लगा है. मैं न चाहते हुए भी इस तरफ मुड़ने लगी हूँ. कई बार कहा था न, लेकिन किसी को समझ नहीं आता. तुम सबको लगता है बस ऐसे ही कह देती है. मैं जार-जार रोती हूँ फिर भी तुम अब नहीं पूछते क्या हुआ? क्योंकि अब तुम्हें मेरी जरूरत जो नहीं रही. जब तक मेरी जरूरत थी तब कभी ऐसा नहीं हुआ, मैं रोई होऊं और तुमने न पूछा हो. वक्त-वक्त की बात है सब. डॉक्टर ने कहा पोस्ट मीनोपोज़ल सिंड्रोम हैं ये, मगर मुझे नहीं पता. कभी डिप्रेशन वाला हाल हो जाता है तो कभी जब बर्दाश्त नहीं होता तो मैं भी वायलेंट हो जाती हूँ तो उसका कितना असर रहता है सब पर? महज एक दो दिन उसके बाद फिर सब अपनी दुनिया में मस्त हो जाते हैं. मैं ये जानती हूँ अब तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरी कोई जगह नहीं. फिर अब तुम खींचे खिंचे रहते हो मुझसे. एक ही बिस्तर पर दो ध्रुव हों जैसे. तुम अपने मोबाइल में व्यस्त मैं अपने. संवाद स्थगित हो चुका है. यदि होता है तो आधी से ज्यादा बार तो हम लड़ते हैं, इक दूसरे को काटने को दौड़ते हैं, क्या ऐसी ही ज़िन्दगी का सपना देखा था मैंने? यदि ऐसी ही ज़िन्दगी आगे मिलनी है तो मुझे नहीं जीना. क्या करना है कुढ़ते हुए जीकर? क्या करना है मर-मर कर जीकर. वो ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है क्या? मौत से दुश्वार हो जाता है जीना. आपसी सम्बन्ध भी अब किनारा कर चुका है शायद चुक गए हो तुम. शायद तुम्हारी उम्र का तकाजा हो मगर मैं कहाँ जाऊँ? तपता रेगिस्तान सूखा ही रहता है, बादल बरसता ही नहीं, कभी बरसे भी तो बूँद भर, जितनी उसकी चाहत हो, ऐसे में धरती की प्यास मिटती ही नहीं. अधूरापन अपने सम्पूर्ण हथियारों के साथ काबिज रहता है. उम्र का फर्क कई बार ये फर्क भी पैदा कर देता है, ये अब जाना. 

अब मेरे अन्दर कुछ भी जिंदा नहीं बचा. न भावनाएं, न चाहतें, न इच्छाएं, यहाँ तक कि मैं भी नहीं. कभी कभी जरूरत होती है किसी अपने द्वारा सहलाये जाने की, मगर हम, उसी वक्त ना जाने क्यूँ सबसे ज्यादा तन्हा होते है. ज़िन्दगी के पडावों में एक पडाव ये भी हुआ करता है शायद या तन्हाइयों की चोटों में आवाज़ नहीं हुआ करती कुछ मौसम कितना ही भीगें , हरे हुआ ही नहीं करते शायद…जरूरी तो नहीं ना सावन बारहों माह बरसे और रीती गागर भरे ही…जाने कब समझेंगे सब?

इश्क की डली मुंह में रखी है मैंने और कुनैन से कुल्ला किया है. खालिस मोहब्बत यूं ही नहीं हुआ करती. एक डोरी सूरज की तपिश की लेनी पड़ती है और एक डोरी रूह की सुलगती लकड़ी की फिर गूंथती हूँ चोटी अपने बालों के साथ लपेटकर…लपटें रोम-रोम से फूटा करती हैं और देखो आज तक जली ही नहीं मेरी ख्वाहिशें, तुम्हें चाहते रहने की कोशिशें, तुम पर जाँ निसार करने की चाहतें. एक-एक मनका प्रीत का पिरोया है मैंने. जो सूत काता था कच्चे तारों का और कंठी बना गले में बाँध लिया है. सुना है इस कंठी को देख फ़रिश्ते भी सजदे किया करते है. सजायाफ्ता रूहें भी सुकून पाया करती हैं . जानते हो क्यों ? क्योंकि इसमें तुम्हारा नाम लिखा है.

सिन्दूर , पाजेब , बिंदिया , मंगलसूत्र कुछ नहीं चाहिए मुझे. ये ढकोसलों भरे रिवाज़ मेरी रूह की थाती नहीं. तुम जानते हो. बस प्रेम की कंठी जो मैंने बाँधी है. क्या किसी जन्म में , किसी पनघट के नीचे , किसी पीपल की छाँव में , किसी चाहत की मुंडेर पर आओगे तुम मुझमे से खुद को ढूँढने …मेरी आवाज़ को , मेरी इबादत को मुकम्मल करने…ये एक सवाल है तुमसे?

लेकिन ये तो मेरी चाहतें हैं न, इनसे तुम्हें या किसी को क्या हासिल? पता नहीं कहाँ-कहाँ बहक जाती हूँ. सुनो, सोचती हूँ मुक्त कर ही दूँ तुम सबको अपने आप से. मैं तुम सबके जीवन का कोई शाप हूँ शायद. एक उम्र के बाद वैसे ही औरत की उपयोगिता खत्म हो जाती है. फिर काम करने लायक भी न रहे तो बोझ ही बन जाती है. मेरा दिमाग फटे उससे पहले जरूरी है मैं ही अंतिम विदा दे दूँ और तुम सबको खुश कर दूँ. तुम भी मुक्त और मैं भी. तो क्या हुआ, हसरतों के अधूरे जनाजे अपने साथ लिए जाती हूँ. तो क्या हुआ, वक्त से पहले मौत को गले लगाती हूँ. तो क्या हुआ, फिर न कभी ऐसी ज़िन्दगी चाहती हूँ. तो क्या हुआ, अपने ख्वाबों को स्वयं आग लगाती हूँ.

अलविदा जिंदगी…

कह उसने पोस्ट फेसबुक पर लगा दी. जैसे ही अनीता ने पढ़ा, हैरान रह गयी. तुरंत सुधा को फोन मिलाया लेकिन उसने नहीं उठाया. बार-बार लगातार फोन लगाती रही मगर जब उधर से कोई जवाब नहीं मिला, घबरा गयी अनीता. उसने तुरंत सुधा की फ्रेंड लिस्ट से उसकी बेटी का अकाउंट ढूँढा और उसे मेसेज किया.

“ट्विंकल, सुधा फोन नहीं उठा रही, जल्दी उसकी वाल देखो और उसे कॉल करो. कुछ गड़बड़ है” इतना मेसेज काफी था ट्विंकल को बदहवास करने के लिए. उसने भी फ़ोन मिलाया लेकिन सुधा ने फ़ोन नहीं उठाया. फिर उसने पापा और भाई को फ़ोन लगा सब बताया और तीनों अपने काम से घर की तरफ दौड़ पड़े. इस बीच मिहिर ने पड़ोस में फ़ोन लगाया और गुप्ता आंटी को कहा, “आंटी, सुधा फोन नहीं उठा रही, एक बार जाकर देखो क्या हुआ है? वो किसी का फोन नहीं उठा रही” सुन गुप्ता आंटी तुरंत उनके घर की ओर लपकीं. बेल पर बेल बजाती रहीं मगर अन्दर से कोई जवाब नहीं मिला. अडोस-पड़ोस के लोग दूरी बनाकर इकठ्ठा होने लगे. सब कोशिश करने लगे लेकिन कोई जवाब नहीं. इतनी देर में सबसे पहले मिहिर घर पहुँचा और दूसरी चाबी से घर खोला. सब एक-एक कर अन्दर दाखिल हुए. कमरे में पलंग पर सुधा निश्चेष्ट पड़ी थी, उसके मुंह से झाग निकल रहे थे, देख तुरंत मिहिर ने उसे सबकी मदद से गाडी में डाला, इतने में मयंक और ट्विंकल भी आ गए थे. तीनों उसे लेकर हॉस्पिटल पहुँचे. आत्महत्या का केस था तो डॉक्टर पहले पुलिस को इत्तला करना चाहते थे लेकिन मिहिर ने अपने लिंक्स से उन पर दबाव बनाया और पहले इलाज कराने पर जोर डलवाया. तुरंत सुधा को ऑपरेशन थिएटर में ले गए. 

सुधा को अन्दर गए डेढ़ घंटा हो गया था. बाहर मिहिर, ट्विंकल, और मयंक बेचैनी से टहल रहे थे. उन्होंने यूँ तो अपने क्लोज फॅमिली मेम्बर्स को खबर कर दी थी मगर ये एक ऐसा वक्त था जहाँ कोई किसी से मिल नहीं सकता था. बस थोड़ी लॉक डाउन में छूट मिली थी तो दिन में फिर भी कहीं आप जा सकते थे. एक-एक कर सब आने भी लगे थे मगर अन्दर की खबर किसी को नहीं मिल रही थी. तक़रीबन तीन घंटे बाद डॉक्टर बाहर आयी और बोली, “मिहिर जी, आपकी पत्नी के पेट से हमने जहर तो निकाल दिया है. हमने उसके बाद बहुत कोशिश की मगर वो होश में नहीं आयीं और अब वो कोमा में चली गयीं. शायद कुछ बहुत गहरी बात उनके दिमाग पर असर कर गयी है. क्या कुछ लड़ाई झगडा हुआ था घर में?” फिर अपनी ही बात को काटते हुए बोली, “लेकिन लड़ाई-झगडे में भी ऐसा नहीं होता. क्या कोई सदमा लगा था? कोई ऐसा सदमा जिसने सीधे दिमाग पर असर किया हो” कह डॉक्टर सबका मुंह ताकने लगी लेकिन मिहिर, बच्चे और सब रिश्तेदार सुनकर सुन्न हो गए. ‘ये क्या कह रही है डॉक्टर. सुधा कोमा में चली गयी. आखिर उसे किस बात की कमी थी? क्या नहीं दिया मैंने उसे? घर में सब उसी का तो है और कौन सा घर ऐसा है जहाँ चार बर्तन हों वो खडके नहीं? उसमें ऐसा कदम उठाना, मेरी तो समझ से परे है. गुस्से में वो भी बहुत कुछ कह देती थी और हम भी लेकिन इसका अर्थ ये नहीं, ऐसा कदम उठाया जाए’ मिहिर बोलता रहा और आकलन करता रहा. ट्विंकल और मयंक ने सुना, वो तो रोने ही लगे. रिश्तेदार सांत्वना देते रहे. इतने में अनीता भी वहां पहुँच गयी थी तब उसने कहा, “मिहिर जी, मुझे नहीं पता क्या सच है और क्या नहीं, मगर आज जो उसने फेसबुक पर लिखा, उसे पढ़कर मेरी छटी इंद्री सक्रिय हो गयी. अब आपने भी पढ़ ही लिया होगा लेकिन सोचो, उसकी क्या अन्तर्दशा रही होगी, जो उसने ये कदम उठाया” अभी बात कर ही रहे थे तभी अन्दर से एक न्यूरोलॉजिस्ट और साइक्रेटिस्ट आये. अन्दर उसकी केस हिस्ट्री जानी और बाहर आकर बात करने लगे. 

“देखिये, ऐसे पेशेंट बहुत सेंसिटिव होते हैं. शायद ये उम्र के उस पड़ाव पर थीं जहाँ स्त्री के जीवन में काफी बदलाव आते हैं. वो शारीरिक और मानसिक दोनों तरह कमज़ोर होने लगती है. इस समय इन्हें बहुत प्यार और अपनेपन की जरूरत होती है. इन्हें एक ऐसा साथ चाहिए होता है जैसे एक माँ अपने बच्चे की केयर करती है बिलकुल वैसे ही. इस दौर में स्त्रियों को भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है. एक जरा सी बात से ही इनके ह्रदय का कांच चूर चूर हो जाता है. ऐसे में ‘हैंडल विद केयर’ की भावना से इनका ख्याल रखना जरूरी होता है मगर ऐसा संभव नहीं हो पाता. जीवन है तो उसमें सबके उतार चढाव आते हैं, कोई इनसे पार पा जाता है और कोई इसके भंवर में डूब जाता है. यदि आप लोग इनकी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते तो शायद आज ये बड़ा कदम न उठातीं. लेकिन अब जो हो गया, वो हो गया. अब यदि ये होश में आ जाएँ तो इन्हें कोई कुछ नहीं कहना. इन्होने ऐसा कदम क्यों उठाया आदि कोई बात नहीं करनी. जैसे एक बीमार की देखभाल की जाती है बस वैसे ही देखभाल करनी है. हलकी फुलकी बातें करनी हैं. उन्हें हँसाना हैं, ज़िन्दगी की तरफ मोड़ना है क्योंकि कई बार ऐसे लोग एक असफल प्रयास के बाद फिर दूसरा प्रयास भी करते हैं इसलिए इन्हें ये विश्वास दिलाना है – ये आप सबके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हैं. इनके बिना आप सब कुछ नहीं. कुछ इनकी जो ख्वाहिशें हों, यदि आपको पता हों, तो उसे पूरी करने की कोशिश कीजियेगा” अभी कह ही रहा था डॉक्टर कि मिहिर ने पूछा, “डॉ, सुधा कोमा से कब बाहर आएगी?”


“देखिये, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, कुछ घंटे या कुछ दिन, दोनों में से कुछ भी हो सकता है. लेकिन आप इनके पास बैठकर बातें कीजिये. अपने बचपन की, इनके बचपन की, बच्चों के बचपन की, या फिर ऐसी बातें जो इन्हें पसंद हों, कोई म्यूजिक ये पसंद करती हों तो वो चलाये रखिये, यानि इनके मस्तिष्क तक आवाज़ पहुँचती रहे. संभव है जल्द कोमा से बाहर आ जाएँ” कह डॉक्टर चला गया. 

दस दिन निकल गए. सुधा को होश नहीं आया. बच्चे और मिहिर ने ड्यूटी बाँध ली. अपनी-अपनी तरह सुधा से बात करते. मयंक और ट्विंकल जान बूझकर एक दूसरे को चिढाते जैसे पहले करते थे, वैसे ही करते मगर सुधा में कोई हरकत न हुई. मिहिर जब अकेला उसके पास होता तो पुरानी बातें याद करता. उसे कहता, “सुधा, जल्दी उठो, देखो, मैंने सोचा है, तुम्हें लेकर एक महीने के लिए हिल स्टेशन पर चला जाए. बोलो क्या ख्याल है? सिर्फ तुम और मैं. और कोई नहीं. बच्चों को यहीं छोड़ देंगे. चलोगी न मेरे साथ…जहाँ बर्फ से ढके पहाड़ हों, आसमान पर बादलों ने डेरा लगाया हो और हलकी फुलकी बूंदाबांदी में तुम मेरे कंधे पर सर रख चल रही हों, आइसक्रीम खाते हुए. कभी हम सनराइज पॉइंट पर उगते सूरज को देखते हुए हिमालय की पर्वत श्रृंखला को देखें तो कभी माल रोड पर टहलें. चलोगी न सुधा मेरे साथ…इस सफ़र पर…जहाँ मैं हूँ, तुम हो, हमारा साथ हो और एक मीठा सा सफ़र हो” जैसे ही कहा, सुधा की आँख खुल गयी. लेकिन न वो हिली न डुली. मगर मिहिर ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया और डॉक्टर ने इसे अच्छा लक्षण बताया. अभी सुधा पूरी तरह होश में नहीं आयी थी बस आँख खुली थी उसकी. वो किसी भी क्रिया की कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही थी. डॉक्टर ने कहा, “बस इसी तरह कोशिश करते रहिये, कामयाबी मिल जाएगी” और सब एक बार फिर दुगुने उत्साह के साथ लग गए. 

उस दिन सुबह से काले बादल घिरे हुए थे. मिहिर ने खिड़की खोल दी थी जो सुधा की निगाह के सामने ही थी. सुधा की आँखें एक शून्य में निहार रही थीं. उनमें कोई हलचल न थी फिर भी  हवा के ठन्डे झोंके पर्दों को हिला अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे वहीँ सुधा के बालों से भी अठखेलियाँ कर रहे थे. मिहिर ने बरसात के गाने लगा दिए. उसे पता था सुधा को बारिश में भीगना और बरसात के गाने सुनना कितना पसंद है. बरसात भी आज जैसे अपने उन्माद पर थी. तेज बारिश होने लगी और साथ ही तेज हवा भी चलने लगी. हवा और बारिश के संगम से बौछारों ने खिड़की से अब अन्दर तक दस्तक देना शुरू कर दिया था. कुछ बौछारें सुधा के चेहरे को आकर चूमने लगीं. सुधा के चेहरे को जब भी बूँदें छूतीं उसकी आँखों की पुतलियाँ हिलने लगतीं. मिहिर ने सुधा का बेड थोडा ऊंचा कर दिया ताकि सुधा बाहर का नज़ारा देख सके. जब सारे बानक एक साथ उपस्थित हो जाते हैं तो जरूर कुछ न कुछ हटकर होता ही है, ऐसा ही अब हुआ. धीरे-धीरे सुधा ने आँखें झपकानी शुरू कर दी. ये एक अच्छा साइन था. लेकिन सुधा कुछ बोल नहीं रही थी. फिर भी उम्मीद का दीया आज जल गया था. 

शाम को पूरा परिवार वहां उपस्थित था. वो बच गयी थी और जिंदा थी, इसी सुकुनियत में पश्चाताप के अश्रु सबकी आँखों से बह रहे थे. वहीँ सुधा की खोई सी आँखें शून्य में ठहरीं किसी सर्द मौसम का पता दे रही थीं. 

धड़कता दिल और आती साँसें ही क्या जिंदा होने की सूचक हैं? मन के मरने से नहीं मरा करतीं औरतें, जानते हैं सब इसलिए आँखों का खुलापन, साँसों की आवाजाही बदलते मौसम का पता दें या न दें, औरतों की ख़ामोशी, उनकी ह्रदय बेधती चुप्पी को डिकोड करने के लिए पुरुष को जाने कितने जन्म लगें लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सबके लिए औरत का ‘सिर्फ’ जिंदा होना ही मायने रखता है?

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