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Tuesday, October 8, 2024

डॉक्टर विजया सती जन्म जुलाई १९५६ नई दिल्ली शिक्षा एम.ए. पीएचडी हिन्दी दिल्ली विश्वविद्यालय प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया, वर्ष २०१४-२०१५ विजिटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी - ऐलते विश्वविद्यालय बुदापैश्त हंगरी २०११ -२०१३ सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय. अध्यापन और लेखन से जुड़ी हूं. कविता, आलेख, पुस्तक समीक्षा लिखती रही हूं. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में पेपर प्रस्तुति और उनका प्रकाशन.

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कविताएं

1

पौधे से हम बड़े हुए महकी कलियां बन गई फूल. अंतिम परिणति भी हाय वही क्यों? हो न सके हम किसी कृष्ण के कदम्ब वृक्ष क्यों?

2

उमड़ उमड़ कर आते हैं लहरों की तरह प्रश्न उत्तर की किश्तियां दूर दूर तक दिखाई नहीं देती कैसे होगा पार जीवन समुद्र?

3

क्या कोई आता है फैला कर हाथ समेटने को किसी का बिखराव? क्या कोई खोलता है मन के द्वार सुलझाने को किसी की उलझन? क्या कोई पहुंचता है वहां जहां हम अकेले होते हैं और उदास? या हमें खुद ही आना पड़ता है उदासी के घेरे के पार और खुद ही ढोना होता है अपने दर्द का अम्बार?

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मौन वृक्ष की छाया लम्बी होती चली गई अपने-अपने कोटर में जा दुबके सब !

5

इसी तरह बनता होगा जीवन रेगिस्तान अपनी तरलता को अपने तक रोक लेते होंगे सब !

6

तुमने भी देखा होगा - बरसने से पहले बदराया आसमान. नीली जमीन पर सफ़ेद फूलों–सा छाया आसमान तुमने भी देखा होगा. सूर्योदयी कलरव के बीच अंगड़ाई लेता गुलाबी आसमान शाम ढले देर तक हवा में हाथ हिलाता धब्बेदार आसमान तुमने भी तो देखा होगा. नाहक उदास होते हो इतने रंग बदलता है जब आसमान वे तो फिर इंसान हैं !

7

जैसे पहाड़ पर बादल उमड़ते हैं घाटी में कोहरा उतरता है जैसे किसी सुबह जागने पर बर्फ़ की चुप्पी घिरी मिलती है, वैसे ही मेरे मन में प्यार अकेलापन और थोड़ा सा दुःख उमड़ता है उतरता है घिरता है. जैसे पहाड़ पर बादल बरस जाते हैं कोहरा छंट जाता है और बर्फ़ भी पिघल जाती है वैसे ही मेरे मन का प्यार ब र स जाता है अकेलापन छंट जाता है और दुःख भी पिघल जाता है तुम्हारे पास आकर !

8

बहुत मस्त होकर गाए चले जा रहे थे पंक्ति दर पंक्ति बच्चे ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ और मैं उन्हें सुनती उस समय का अनुमान किए जाती थी जब ये बच्चे बड़े होंगे जिन्दगी की दौड़ में हिस्सा लेंगे उन्हें बहला नहीं पाएंगे तब पर्यटन विभाग के रंगीन विज्ञापन

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तब क्या वे भी मेरी ही तरह घबरा कर याद करने की कोशिश में भूल जाएंगे इकबाल का तराना?

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अक्सर हुआ है मेरे साथ ऐसा दिल्ली की भीड़ भरी बसों में आते-जाते किसी भी रूट से लद-फद कर आई बस खाली हो गई है सफदरजंग अस्पताल पहुँचते ही यह प्रश्न जगाती कि किस रोग की गिरफ़्त में है हिन्दोस्तां हमारा?

11

सुबह दैनिक हाथ में लिए दूसरे-तीसरे-चौथे पन्ने तक दौड़ती चली जाती है नज़र हत्या..आग.लूट..बलात्कार.. सरे आम खुले बाज़ार जली रस्सी की ऐंठन सा कसमसाता है यह सवाल .. कैसा ऊंचा उठा है हिन्दोस्तां हमारा ! पिंजरे में बंद कबूतर सा तड़फड़ाता है ख़याल कैसे तूफां में घिरा है हिन्दोस्तां हमारा !

12

जिन्दगी का गणित जिन्दगी को गणित के सवालों सा हल करना मुझे कभी नहीं आया कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग बचपन से ही कविता के आसपास रहती आई जिन्दगी मेरी रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच मां गुनगुनाती .. खनकते थे कानों में वे घुंघरू शब्द जिन्हें पगों में बांध नाचती थी मीरा ! बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते ..

13

पिता का सधा कंठ स्वर सुबह के उजाले को साथ लाता नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय ..अतुलित बल धामं हेम शैलाभ देहं फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर धीमे से ऊंचा उठाती थी मैं भी छात्रावास की सहेलियों के साथ – वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे !

14

अब इस तरह के सवाल क्यों जिनका कोई हासिल ही न हो? मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि कबीर का अक्खड़ दोहा जब तक बल देता है मुझे झरता है मेरे आसपास जब तलक अज्ञेय का मौन कमल के फूल कवि भवानी के, क्यों शून्य हो जाने दूं यह अगणित उल्लास व्यर्थ की जोड़-तोड़ करते ?

15

सम्पन्नता टहलता है प्रश्न मन के गलियारे में .. वे कौन सी स्मृतियां हैं जीवन को समृद्ध-सम्पन्न बना जाने वाली? क्या ऊँची पहाड़ियों-नदी तट-तंग गलियों और बाज़ारों की स्मृतियां जहां घूमते थे स्वस्थ पिता की उंगलियां थाम ? सहेजते थे कांस फूल यमुना की रेत से और रंग भरे पत्थर अनजानी यात्राओं में ? ठिठक ठहर जाते थे कदम और फैली आंखों से झड़ते प्रश्न बेहिसाब उत्तर सब थे पिता के पास और था कहानियों से भरा का बस्ता जिसमें झांकते थे टॉम काका, वेनिस के सौदागर और पात्र पंचतंत्र के ! पिता के साथ ही थी क्या वह भरी-पूरी दुनिया जहां रीतता नहीं था कभी मन ? बहुत सम्पन्न तो अब है आसपास की दुनिया रोज़ होते हैं कई किस्से का‌लेज का मंच कभी सूना नहीं रहता ! तेज़ है रफ़्तार और राहें बेहिसाब. पिता की बूढ़ी उंगलियां अब नहीं थामी जाती और निपट अकेला छूट जाता है मन कभी-कभी ! मुश्किल से मिले कुछ एकांत पलों में याद करना मां और पिता की दुनिया में अपनी व्याप्ति और खो देना समूची रिक्तता कहां है वैसी सम्पन्नता ?

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संस्मरणात्मक गद्य

1.प्रवास में जीवन यह मेरे जीवन का कोई कठिन निर्णय नहीं था. मित्र ने ठीक कहा था - यदि आपको जाना होगा तो कोई रोक नहीं पाएगा और यदि नहीं जाना होगा तो कोई भेज नहीं पाएगा. घर में विचार हुआ कि अंतिम निर्णय तुम्हारा ही है. दिल्ली जैसे शहर में एक अच्छी नौकरी करते हुए अपने जीवन के पचास साल पूरे होने तक, मेरी पहली हवाई-यात्रा हुई थी. जरा नई शब्दावली में कहूं तो वह भी ‘डोमेस्टिक’ यानी घरेलू और परिवार के साथ. इस तरह यह पहली विदेश यात्रा होनी थी, और वह भी अकेले. दूरस्थ विवाह ने ऐसा तो अब तक बना दिया था मुझे कि एकांत खलता नहीं और अकेले कहीं जाने से मन डरता नहीं. तो सरकारी पासपोर्ट पर दूर देश की पहली उड़ान जनवरी की एक सर्द सुबह आरम्भ हुई. उड़ान उत्तर यूरोप में हंगरी की राजधानी बुदापैश्त के लिए थी. अब तक मैंने अपना देश ही पूरा नहीं देखा था. उत्सुकता अपनी जगह, पर इस यात्रा के लिए मन सहज रूप से उत्साहित हो उठा. वैसे मेरा भूगोल इतना गोल रहा है कि जब बड़ा बेटा विदेश पढ़ने गया, तब मैंने यूरोप और फिर संसार का नक्शा अधिक गौर से देखना शुरू किया था. वरना हम और हमारा भारत - सारे जहां से अच्छा ! पहली लंबी उड़ान के अंत में घोषणा हुई कि बाहर का तापमान शून्य से सत्रह डिग्री नीचे है और बर्फ़ पड़ रही है. प्रवेश सीधे हवाई अड्डे के भीतर हुआ, बाहर का श्वेत विस्तार शीशे के भीतर से देख पाई. सब ओर बर्फ़ का साम्राज्य – किन्तु यह दृश्य मेरे मन के निकट था, भारत में पहाड़ ही मेरा गृह नगर है. उड़ान में थीं कुछ बेहद युवा, कुछ बेहद अनुभवी खूबसूरत बालाएं, सुतवां नाक, कोमल उजला रंग, खिला-खिला सौंदर्य. जाने क्यों तुलसीदास ने लिखा - मोह न नारी नारी के रूपा ! मैं तो मुग्ध होती रही इस नारी सौन्दर्य पर. सरकारी पासपोर्ट के अपने मजे हैं, हवाई अड्डे पर अधिक पूछताछ नहीं होती. यद्यपि सुरक्षा जांच तो पूरी हुई, बाकायदा जूते-जुराब-कोट उतरवा कर. थोड़ी प्रतीक्षा और फिर कनेक्टिंग फ्लाईट. यह मालेव यानी हंगरी की आधिकारिक विमान सेवा थी. एक संक्षिप्त उड़ान, जिसमें हंगेरियन स्वागत-शिष्टाचार का पहला साक्षात्कार हुआ. लगभग ढाई वर्ष बुदापैश्त में रहते हुए लगातार जानती रही कि यह तो एक छोटा सा शहर है – दिल्ली से कई गुना छोटा, जिसके मुख्य ओने-कोने अधिकांश यात्राओं में बार-बार दिखाई पड़ते हैं. शहर में जगह-जगह विशिष्ट कवि-लेखकों, राजाओं, वीरों, बलिदानियों की आकृतियां ध्यान खींचती. यहाँ आकर पाया कि यात्राएं और उनके अनुभव हमें कितना समृद्ध करते हैं ! विश्वविद्यालय के भारोपीय अध्ययन विभाग में सब कुछ कितना अनुकूल था ! हिन्दी-संस्कृत की नई-पुरानी पुस्तकों की भरी-पूरी लाइब्रेरी, जहां हिन्दी जगत से नया और पुराना बहुत कुछ तो पढ़ा ही, साथ ही विश्व-साहित्य की गति भी कुछ व्यापी. साहित्य और परिवेश दोनों ही प्रेरित करते, मन आंदोलित, सजग, सक्रिय बना रहता. कविवर बच्चन जी का कथन बहुत पहले पढ़ा था कि पहले सौ पन्ने पढ़ो फिर एक पन्ना लिखो. घर के एकांत और महानगरी दिल्ली की हलचल की तुलना में बेहद शांत इस सुन्दर शहर में अवसर मिला कि बहुत कुछ पढ़ सकूं और लिख भी सकूं. विभाग से घर लौटने पर, एक अपना ही साथ होता, सो जो कहा अपने से, जो सुना खुद ही. कभी स्मृतियों का सैलाब सा उमड़ता और कभी सूखापन छा जाता. कुछ नए परिचय-सूत्र यहां जुड़े तो वहां के कुछ पुराने टूटे भी. यह समझ आया कि जीवन में ‘स्पेस’ क्यों जरूरी है? किस तरह से बाहरी दखल हमारी जिंदगी को छलता है – उसका पुख्ता सबूत यहां पग-पग पर मिला. अंग्रेज़ी में कहा जाता है - ‘द वर्ल्ड इज़ टू मच विद अस’ यानी दुनिया हमारे साथ बहुत ज्यादा है, यहाँ यह अनुभव कभी हुआ ही नहीं. यहां पल-पल पर न कोई दूध वाला घंटी बजाता, न अखबार वाला पैसा लेने दरवाजा खटखटाता, महरी या काम करने वाली भी हमारी दिनचर्या नहीं बिगाड़ती. यहां तो जो भी करना है, सब अपने आप ही. श्रम की महत्ता का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि रोज़ टॉयलेट साफ़ करना दुखी नहीं कर पाया. कभी काम करते हुए रात-बिरात बिजली गुल हो जाने का ख़तरा नहीं हुआ, कभी सूखे नलों से सामना नहीं हुआ ! सड़कों पर शोर नहीं, भीड़ नहीं. घर के बाहर सिर्फ बर्फ है, धूप नहीं है, तो पंछी की तरह इंसान भी दुबके रहेंगे वातानुकूलित घरों में. यह अनुभव कितना अलग था, भारत की भीड़-भाड़, धक्का मुक्की सब पीछे छूट गई थी जैसे. एकांत खलता न था, क्योंकि वह रचनात्मक बना रहा था. इस शहर में बच्चे मुझे प्यार और दुलार के केन्द्र में दिखाई दिए, इसलिए उनसे और उन के साथ ही मां से, किसी अजनबी का भी, संवाद सहज ही हो जाता. बस या ट्राम में सवार होने पर उन्हें मदद का हाथ भी मिल जाता. जैसा देश वैसा भेष धरने में मुझे अधिक समय नहीं लगा, नए देश और परिवेश में खुद को अजनबी नहीं पाया. इसका कारण मेरी भाषा भी थी - हिन्दी भाषा. मैं अधिकतर हिन्दी भाषियों के बीच थी. मेरा काम ही था दूर देश में अपनी भाषा से विदेशियों को जोड़ना. जब ‘ईदगाह’ कहानी सुनकर नीली आँखों में आंसू दिखे, तब यह यूरोपीय संवेदना से मेरा पहला साक्षात्कार था. मौसम बदला, शहर के मिजाज पर उसका असर दिखाई दिया. हर घर की बालकनी में रंगभरे फूल मुस्कुराने लगे. फूलों से इनका प्यार, सर्दियों के लम्बे धूसर-से जीवन में रंग भरने की कोशिश होती है क्या? जब वसंत का आरम्भ हुआ तो तमाम बड़े स्टोर में खान-पान के सामान के साथ-साथ छोटे-छोटे गमलों में फूल भी आए. दिन में कभी खिड़की के पास अपने बिस्तर पर लेट कर लगता कि आसमान बहुत पास है और उसमें चलते सफ़ेद बादलों को हाथ बढ़ा कर छू सकती हूँ ! ऐसा था अपने देश से दूर पहला विदेश प्रवास !

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2. हान नदी के किनारे कोरिया गणराज्य की राजधानी सिओल चारों ओर छोटे पर्वतों से घिरी है, बीच में हान नदी बहती है. हान नदी के किनारे प्रकृति के साथ तकनीकी विकास का अनूठा संगम देखने को मिलता है. नदी के हर कोने से सिर ताने खड़ी ऊंची इमारतें, दूर-दूर जहां तक नज़र जाती है - बहुमंजिली इमारतों का जाल बिछा है, जिनमें रिहाइश है, दफ्तर हैं, होटल हैं. किन्तु ख़ास यह है कि प्रकृति के बीच आना, उसके साथ घुल-मिल जाना यहाँ के निवासी नहीं भूले हैं. ठन्डे प्रदेशों में धुपहला दिन जीवन का बड़ा उल्लास होता है – बच्चे-बूढ़ों सहित परिवार मौज के लिए बाहर निकल आते हैं. भारी जनसमूह हान नदी के किनारे उमड़ पड़ता है - हरी-भरी घास का सुख लेने को. छुट्टी का दिन नदी किनारे की सड़कों पर साइकिल चलाने का दिन है, छोटे-छोटे पहाड़ों पर चढ़ने का दिन हैं, बच्चों और युवाओं के लिए ही नहीं, बल्कि अधिकतर उम्रदराज़ लोगों के लिए भी ! छोटे पहाड़ों में कुछ भीतर जाने पर घने पेड़ों के झुरमुटों के बीच, स्वाभाविक रूप से टूटे पड़े लकड़ी के लट्ठों को यथावत संजो कर पर्वतारोहियों के बैठने-सुस्ता लेने के जो स्थान बनाए गए हैं, वे दूर-दूर तक रम्य दृश्य देखने के लिए उपयुक्त हैं. शहर में प्रकृति को बचाए रखने की कोशिश हर जगह दिखाई देती है - यदि पहाड़ के ऊपर घर बसे हैं तो सड़क उनके नीचे सुरंग से होकर जा रही है. पेड़ों को काटे बिना पुल बनाए गए हैं. पत्थरों के बीच हरियाली समेटी गई है और फूल खिलाए गए हैं. देश के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय के दो परिसर तकनीक के चरम विकास के साथ-साथ प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य को अपने में समेटे हुए खड़े हैं.. विश्वविद्यालय सही मायने में मुक्त हैं – कोई चारदीवारी नहीं है, खुले आंगन जैसे रस बरसे ! छोटी छोटी खुशियों से भर देने वाली एक खूबसूरत दुनिया है हान नदी के आस-पास. सुन्दर पहाड़ हैं जिन्हें सान कहा जाता है, ऐसे संगीतमय नाम हैं उनके - सोरोक्सान, तैबैक्सान, नाम्सान, दोबांग्सान. ये पर्वत श्रृंखलाएं भी हैं और विकसित राष्ट्रीय उद्यान भी ! मौन को मुखरित करते बौद्ध मंदिर हैं, जिन्हें 'सा' पुकारते हैं - मेगोक्सा, जोग्येसा, बुल्गुक्सा.. हान नदी के देश में हिम उत्सव उल्लास का अवसर है. जब सब ओर बर्फ का साम्राज्य है तब भी घर में कैद क्यों रहें ? आप बर्फ पर साइकिल चलाएं, स्लेज में फिसलते चले जाएं और बर्फीली नदी की ऊपरी सतह को भेद कर मछलियाँ भी पकड़ें ! कोरिया गणराज्य में राजधानी सिओल को ‘सोल ऑफ़ एशिया’ कह कर विज्ञापित किया जाता है. दिसंबर से फरवरी-मार्च तक यहां कड़क बर्फीली सर्दी होती है, अप्रैल-मई में वसंत का वैभव बिखर जाता है. उमस भरी गर्मी जून अंत से जुलाई-अगस्त तक बनी रहती है. इस उमस भरे समय के लिए कोरिया में ख़ास सूती वस्त्र हैं जो गर्मी के अहसास को एक हद तक कम महसूस होने देते हैं. सितम्बर अंत से अक्टूबर भर साफ़ नीला आसमान मन को भाता है. नवम्बर आते ही पूरा कोरिया रंग बिरंगे पत्तों से भर जाता है, प्रकृति एक ऐसा सुन्दर दृश्य उपस्थित करती है कि इस समय बाकायदा सूचित किया जाता है कि किन दिनों किस उद्यान और पर्वत प्रदेश में पहुँच कर आप रंग बदलते पत्तों से भरा यह मनभावन दृश्य देख सकते हैं. झुण्ड के झुण्ड देशवासी इन इलाकों का रुख करते हैं जब पेड़ों के हरे पत्ते लालिमा और पीलेपन से आच्छादित होने लगते हैं. यह अंग्रेज़ी का 'फ़ाल' है जब मेपल के कटावदार पत्ते अनूठी लाली से भर जाते हैं. मौसम के साथ घुल-मिल कर चलने का कोरियाई अंदाज निराला है. कोरिया में जीवन के अजाने बिन्दुओं से साक्षात्कार का अवसर कोरिया टूरिज्म की बदौलत मिल जाता है. एक लोकप्रिय पर्यटन कार्यक्रम है ‘टेम्पल स्टे’, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने चुने हुए बौद्ध मंदिर में जा कर रह सकता है. अधिकतर बौद्ध मंदिर आबादी से दूर शांत स्थानों पर बने हैं, प्राय: पहाड़ों और घने पेड़ों से घिरे. यूं तो इन मंदिरों का अपना नियम-विधान है, प्रवेश शुल्क संबंधी नीतियां हैं. किन्तु किन्हीं ख़ास अवसरों पर ये मंदिर भी अपने आंगन में आपका निशुल्क स्वागत करने को तत्पर होते हैं. तब आप विशिष्ट बौद्ध मंदिर के अतिथि बनकर वहां की सभी प्रमुख गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं, जो प्रतिनिधि भिक्षु के साथ आसन, ध्यान, व्यायाम और वन-भ्रमण से लेकर चाय तथा भोजन की पारंपरिक पद्धति को जानने तक फ़ैली रहती है. ऐसे कार्यक्रम इसलिए कि जनसाधारण भी बौद्ध मंदिर के जीवन क्रम को जान लें. बौद्ध मंदिर में संक्षिप्त प्रवास भिक्षु गुरु के साथ संवाद से आरंभ होता है, जिन्हें कोरियाई भाषा में ‘सिनिम’ कहते हैं – बौद्ध मंदिर की विशेष ‘टी सेरेमनी’ संपन्न होती है रात का अत्यंत सादा भोजन, फिर कुछ संवाद और लकड़ी के फर्श पर लगे गद्दों पर जल्दी ही सोने का आग्रह ! बहुत सवेरे मौन भाव से मंदिर में परिक्रमा करते हैं, व्यायाम और ध्यान के बाद सिनिम के साथ निकटवर्ती पगडंडियों से होकर उच्च पर्वतीय अंचल की सैर को जाते हैं – इस समय सिनिम से प्रश्न किए जा सकते हैं, वे सभी की जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं. शहर से दूर इन मंदिरों में जीवन को सरल बना देने वाली छोटी-छोटी चीज़ों को तकनीकी स्तर पर ऐसा दुरुस्त किया गया है कि बौद्ध मंदिर में प्रोजेक्टर पर फिल्म भी दिखा दी जाएगी और भिक्षु-गुरु स्वयं उपस्थित जनों के लिए विशिष्ट चाय बनाने का उपक्रम करेंगे तो अपने आसन पर विराजे हुए ही बिना किसी तामझाम के - इलैक्ट्रिक कैटल में ! 'शरण में आए हैं हम तुम्हारी' ....संभवत: इसी भाव को मन में धरे कोरियावासी बुद्ध का जन्म दिवस 'लोटस लेंट्रन' प्रकाशित करके मनाते हैं. कोरियाई युवा जितने मस्त, जितने फैशनेबल, जितने फिल्म और संगीत के दिवाने, जितने खिलाड़ी और जितने घुमक्कड़ हैं, उतने ही मेहनती भी. विश्वविद्यालयों में परीक्षा के बाद जब दो महीने गर्मी की छुट्टियां शुरू होती हैं, तब युवा एक नई पारी शुरू करते हैं. गर्मी की छुट्टी कई विद्यार्थियों के लिए नए सत्र की फीस जुटाने के प्रयत्न के लिए भी आती है. इसलिए यदि वे कोई भाषा जानते हैं, तो अनुवादक बन जाएंगे, पर्यटक गाईड बन जाएंगे. रेस्तरां में खाना परोसेंगें और अगर बनाना जानते हैं तो बना भी देंगे.... यानी शेफ हो जाएंगे. किसी काम से कोई परहेज़ नहीं. लेकिन समय अपने लिए भी निकालेंगे जरूर. दूर दराज से पढ़ने आए विद्यार्थी गृह नगरों को लौटेंगे, परिवार के साथ मिल-बैठ कर गपशप होगी. दोस्तों के साथ घूमने भी निकल जाएंगे. सत्र के आरंभ में ताजगी भरी वापसी के लिए यह सब कितना जरूरी है, वे जानते हैं.यह बहुत उत्साही नौजवान पीढ़ी है, जिनकी सेन्स ऑफ़ ह्यूमर का पता सत्रारंभ में विश्वविद्यालय परिसर में लगे बैनर से बखूबी मिला ...... To hell and beyond The semester begins ! यही वह युवा पीढ़ी है जिसमें से काफी संख्या बहुत सी अंग्रेजी सीखकर अमेरिका पहुंच जाना चाहती है ! वह थोड़ी अनमनी और बेचैन भी दिखाई देती है .. कि अपने देश में उन्हें बहुत मनोनुरूप जीवन नहीं लगता. परंपरा, आधुनिकता और पश्चिमीकरण ....इनके बीच घिरा युवा मन और जीवन .... जैसे कहता हो .... हजारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकती बहुत अरमान ऐसे हैं जो दिल के दिल में रहते हैं ! कोरियाई भाषा में देश का नाम हंगुक है और कोरियाई भाषा की लिपि हंगुल ! स्वर और व्यंजनों के योग से बनी इस भाषा की वर्णमाला को अन्वेषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोकप्रिय राजा सेजोंग के जन्मदिन को ही यहां अध्यापक दिवस के रूप में मनाया जाता है. यहां उच्चारण में क को ग और ग को क कहने में कोई हर्ज नहीं होता – जैसे देश का नाम हंगुक भी और हंकुक भी ! इसी तरह र और ल भी आपस में ऐसे मिल जाते हैं कि आप दूर नहीं दूल जा सकते हैं ! कोरिया में जीवन आधुनिकता और परम्परा के मेल से बना है. शहरी सभ्यता ने फ़्लैट में जिन्दगी कैद की है तो परम्परागत घर भी यथावत संवरे हुए हैं, इन्हें हानोक कहते हैं. हानोक शैली के घरों में जाकर रहने का अनुभव लेना कोरिया पर्यटन की सुन्दर योजना के तहत संभव होता है. ठन्डे देशों में ‘हीटिंग’ यानी कमरा गर्म रखना जरूरी होता है. कोरिया में इसे ओंदोल कहते हैं. यह यूरोपीय और अन्य पश्चिमी देशों से भिन्न है – यह दीवारों को नहीं, फर्श को गर्म रखने की प्रक्रिया है. इसका कारण यह है कि कोरिया में फर्श पर सोना और फर्श पर बैठ कर भोजन करना अब भी परम्परागत तरीका है. कोरिया की पारंपरिक पोशाक हानबोक कहलाती है. अब यह विशेष अवसरों पर ही पहनी जाती है. बच्चे का पहला जन्मदिन दोल है, परिवार में साठवां जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है. कोरिया में मुख्य भोजन चावल, तरह-तरह की हरी सब्जियां, अंकुरित अनाज, सूप और मांस है. किन्तु कोरियाई भोजन किम्छी के बिना अधूरा है. किम्छी बंदगोभी और मूली का मसालेदार व्यंजन है जो सर्दी के लम्बे मौसम से पहले बना कर बड़े-बड़े बर्तनों में संभाल दिया जाता है. यह प्रत्येक भोजन में, एक तरह से ‘साइड डिश’ की तरह है जिसे यहां ‘बानछान’ कहते हैं. किम्छी ऐसी घुली-मिली है कोरिया के जीवन में कि उसके बिना फोटो सेशन भी अधूरा रहता है यानी जब फोटो खींचते हैं तो मुस्कुराने के लिए ‘Say cheese’ के बदले Say किम्छीss कह कर मुस्कुराने को कहा जाता है ! सभी त्यौहारों में चावल से बने ‘राईस केक’ की वैरायटी ख़ास भेंट रहती है, चावल की शराब भी प्रिय है यहाँ जिसका नाम है माकोली ! आधुनिक बाजारों की चकाचौंध के बावजूद परम्परागत कोरियाई बाजारों की रौनक बरकरार है. रोचक है यह जानना कि भारत और कोरिया दोनों देशों का स्वाधीनता दिवस एक ही तिथि को है और पराधीनता से मुक्ति के बाद दोनों ही देशों का विभाजन भी हुआ. भारत के साथ अपने सांस्कृतिक सम्बन्ध को यह देश इस रूप में याद करता है कि किसी समय अयोध्या की एक राजकुमारी का विवाह कोरिया के राजकुमार के साथ हुआ. भारत में भी इस तथ्य को स्वीकृति मिली और दोनों देशों ने पारस्परिक सहमति से राजकुमारी की स्मृति में एक स्मारक अयोध्या प्रशासन के सहयोग से मार्च 2001 में निर्मित किया. विजया सती [email protected]

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किताबें

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